SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 392
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४ -- कठोर वाणी : क्षमापना मूल : वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गं थीण वा परं पज्जोसवणाओ अहिगरणं वदित्तए, जो णं निग्गंथो वा २ परं पज्जोसवणाओ अहिगरणं वयइ से णं अकप्पेणं अज्जो ! वयसी, ति वत्तव्वे सिया, जो णं निग्गंथो वा २ परं पज्जोसवणाओ अहिगरणं वयइ से णं निहियब्वे सिया ॥२८॥ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए निर्ग्रन्थों और निम्रन्थिनियों को पर्युषणा के पश्चात् अधिकरण वाली वाणी अर्थात् हिसा असत्य आदि दोष से दूषित वाणी बोलना नहीं कल्पता है । जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थिनी पर्युषणा के पश्चात् ऐसौ अधिकरण वाली वाणी बोले उसे इस प्रकार कहना चाहिए-हे आर्य ! इस प्रकार की वाणी बोलने का आचार नहीं है। जो आप बोल रहे है वह अकन्प नीय है, आपका ऐसा आचार नही है। जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थिनी पर्युषणा के पश्चात् अधिकरण वाली वाणी बोलता है उसे गच्छ से बाहर कर देना चाहिए। विवेचन-अधिकरण वाली वाणी का प्रयोग साधु और साध्वी को यद्यपि पर्युषणा से पहले भी नही करना चाहिए मगर बाद मे तो करना ही नहीं चाहिए। पर्युषणा से पूर्व अधिकरण-वाणी का प्रयोग किया गया हो तो पर्युषणा के अवसर पर अध्यवसाय आदि की विशिष्ट निर्मलता होने से क्षमापना का प्रसंग सहजतया प्राप्त हो सकता है, किंतु पर्युषणा के बाद में वैसी निर्मलता का प्रसंग दुर्लभ होता है । सम्भवत: इसी विचार से यह विधान किया गया है । श्रमण-श्रमणी का कर्तव्य है कि जिस दिन ऐसी वाणी का प्रयोग हो जाय उसी दिन उसके लिए क्षमापना करले।
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy