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________________ समाचारी : कठोर वाणी : समापना मल: वासावासं पज्जोसवियाणं इहखलु निग्गंथाण वा निग्गं थीण वा अज्जेवं कक्खडे कडुए बुग्गहे समुप्पज्जिज्जा सेहे राइणियं खामिज्जा, राइणिए वि सेहं खामिज्जा, खमियव्वं खमावेयव्वं, उपसमियव्वं उवसमावेयव्वं, सम्मुइसंपुच्छणाबहुलेणं होयव्वं, जो उवसमइ तस्स अत्थि आराहणा, जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा, तम्हा अप्पणा चेव उवसमियब्वं, से किमाहु भंते ! ? उवसमसारं खु सामण्णं ॥२८॥ अर्थ-निश्चय ही यहाँ पर वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थिनियों को आज ही पर्युषणा के दिन ही-कर्कश और कटुक क्लेश उत्पन्न हो तो शैक्ष-लघु श्रमण रात्निक गुरुजन श्रमणों को खमाले। और रात्निक (गुरुजन) भी शैक्ष को खमाले । खमना, खमाना, उपशमन करना, उपशमन करवाना, कलह के समय श्रमण को सन्मति रखकर सम्यक् प्रकार से परस्पर पृच्छा करने की विशेषता रखनी चाहिए। जो (कषायों का) उपशमन करता है, उसकी आराधना होती है और जो उपशमन नहीं करता है उसकी आराधना नहीं होती। अतः स्वयं को उपशम (शान्त) रखना चाहिए। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा किसलिए कहा है ? उत्तर-श्रमणत्व का सार उपशम ही है, अतः ऐसा कहा है। विवेचन-श्रमण धर्म का सार उपशम है, क्षमा है। क्रोध, विग्रह आदि होना तो एक मानवीय दुर्बलता है, पर होने के बाद उसे मन में गाँठ बांध के रखना यह सबसे बड़ा आत्मिक दोष है। इसलिए यहां पर इसी बात पर बल दिया गया है कि पर्युषण के दिन, उससे पहले या बाद में भी जिस
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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