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________________ ___ सम्पादन कार्य सरल नही है, अपितु कठिन है और फिर प्राचीन ग्रन्थों के सम्पादन का तो कहना ही क्या? जिनकी भाषा और भावधारा वर्तमान युग की भाषा और भावधारा से अत्यधिक व्यवधान पा चुकी है। किन्तु जब सम्पादन का कार्य हाथ में लिया तो भन्डारों में से प्राचीन हस्तलिखित कल्पसूत्र की प्रतियों का अवलोकन करना प्रारभ किया, पर कोई भी प्रति पूर्ण शुद्ध नही मिली। मतः अन्त में हमने यही निर्णय लिया कि श्री पुण्यविजय जी म० के द्वारा सम्पादित कल्पसूत्र के पाठ को हो मूल आधार रखा जाय और वही हमने स्वीकार किया है। उपाध्याय पण्डित प्रबर श्रद्धय हस्ती. मल जी म. सम्पादित कल्पसूत्र की पाण्डुलिपि भी मेरे सामने रही है । अर्थ आदि की दृष्टि से उसका भी उपयोग किया गया है, तथा प्राचीन नियुक्ति, चूणि, पृथ्वीचन्द टिप्पण, व अनेक कल्पटीकामओ से उपयुक्त सामग्री भी मैंने ली है, इस प्रकार प्रस्तुत सम्पादन में अपनी ओर से कुछ न मिलाकर इधर-उधर से सामग्री बटोरकर व्यवस्थित रूप देने का कार्य मैंने किया है। उन सभी प्रथ और ग्रन्थकारों का मैं ऋणी है, जिनका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी भी प्रकार का मुझे सहयोग मिला है। प्रन्थो की पूर्ण उपलब्धि न होने से तथा शीघ्रता के कारण, मैं जैसा चाहता था वैसा नही लिख सका हैं, अतः अपनी दुर्बलता के लिए प्रारम्भ मे ही क्षमा याचना कर लेता है, तथापि कुछ लिखा है, वह कैसा है यह निर्णय करना प्रबुद्ध पाठको का काम है । पूर्ण सावधानी रखने पर भी सम्भव है कही इधर-उधर लिखा गया हो, मूल भावनाएं पूर्ण स्पष्ट न हो सकी हो, विपर्यास भी हो गया हो तो उन सबके लिए मैं विज्ञो से यही नम्र निवेदन करूंगा कि वे मुझे आत्मीयता की परम पवित्र भावना के साथ त्रुटियों की ओर मेरा ध्यान केन्द्रित करें जिससे मैं उनका परिमार्जन कर सकू। परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य प्रसिद्धवक्ता गंभीर तत्वचिन्तक श्री पुष्कर मुनि जी म० का मुझे गुरुतर लेखन कार्य में सक्रिय योग, पथ प्रदर्शन, एवं प्रोत्माहन प्राप्त हुआ है, जिससे मेरी कार्य दिशाए सदा भालोकित रही है। उनकी अपार कृग के बिना यह कार्य कभी सुन्दर रीति से पूर्ण नही हो सकता था। उनकी विशाल ज्ञान राशि एवं गंभीर चिन्तन मे से मैं ज्ञान के ज्याति स्फुलिंग प्राप्त कर सका हूँ यह मेरा परम सौभाग्य है । मैं श्रद्धेय गुरुदेव के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन कर भारमुक्त बनू इसकी अपेक्षा मझे यही श्रेयस्कर लग रहा है कि उनके आशीर्वाद का शक्ति-सबल प्राप्त कर अधिक भारी बनू और नये शोधपूर्ण लेखन कार्य में दत्तचित से लग जाऊं । स्नेह-सौजन्यमूर्ति श्रीहीरामुनिजी, साहित्य रत्न, शास्त्री श्रीगणेश मुनिजी, जिनेन्द्रमुनि, गजेन्द्र मुनि और पुनीत मुनि प्रभृति मुनि-मण्डल का स्नेहास्पद व्यवहार भुलाया नही जा सकता और न श्रीचन्द जी सराणा 'सरस' का मुद्रण आदि की दृष्टि से किया गया मधुर व्यवहार व सफल प्रयास भी विस्मरण किया जा सकता, जिसके कारण ही ग्रन्थ छपाई सफाई आदि की दृष्टि से सुन्दर बना है। सेठ मेघजी थोमण जैन धर्म स्थान। १७०, कांदाबाड़ो, बम्बई । -देवेन्द्र मुनि
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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