SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निशीथ में पर्युषणा कल्प की सविस्तृत विधि दी है। पहले के युग में श्रमण ससुदाय रात्रि के प्रथम प्रहर में काल ग्रहण पूर्वक पयुषणा-कल्प (समाचारी) का श्रवण और पठन करते थे। किसी मी गृहस्थ या गृहस्थिनी के सामने. अन्य तीथिक के सामने, एव अवसन्नसयती के सामने उसे पढ़ने का निषेध था। क्योंकि उनके सामने पढ़ने से संवास दोष, संथाइया दोष, संमिश्रवास दोष, प्रभृति अनेक दोषों को लगने की संभावना होती है अतः उसे सभी के सामने पढ़ने का स्पष्ट निषेध किया गया। और पढ़ने वाले के लिए प्रायश्चित्त का विधान भी किया। सर्व प्रथम पयुषणा कल्पसूत्र का सभा के समक्ष पठन आनन्दपुर में राजा ध्रुवसेन के पुत्रशोक को नष्ट करने के लिए चैत्यवासी शिथिलाचारी श्रमणों ने चतुर्विध संघ के समक्ष किया । ध्रुवसेन नामक मैत्रक वंशीय वल्लभी में तीन राजा हुए हैं, जिनका अस्तित्व इस प्रकार है-प्रथम ध्रुवसेन (गु० सं० २००-२३० तक) ई० स० ५१६ से ५४६ । द्वि० ध्रुवसेन (गु० सं० ३०८ से ३२३) ई० सं० ६२७ से ६४२ । तृतीय ध्रुवसेन (गु० सं० ३३१ से ३३५) ई० स० ६५० से ६५४ ।। इन राजाओं की राजधानी वल्लभी मे भी थी। पर 'महास्थान' होने के कारण ये आनन्दपुर में भी रहते थे। पर अन्वेषणीय यह है कि किस राजा के समय इसका पठन किया गया। कल्पसूत्र की कहानी सुश्रावक गुलतानमलजी गका, श्री हस्तीमलजी एवं सुखराज जी जिनाणी प्रभृति सज्जनों का आग्रह था कि आप कल्पसूत्र का सम्पादन करें। प्रारम्भ मे मैं उनके प्रेम भरे आग्रह को टालता रहा पर अन्त मे उनकी उत्कृष्ट अभीप्सा से परम श्रद्धय गुरुदेव ने मुझे आदेश के स्वर मे कहा-यह कार्य तुझे करना है। 'आज्ञा गुरुणामविचारणीया' के अनुसार मैंने इसके सम्पादन का कार्य स्वीकार किया। ६८. पज्जोसवणाकप्पं, पज्जोसवणाईजो उ कडिढजा। गिहि-अन्नतिथि-ओसन्न-मजईणं च आणाई ॥१॥ पज्जोसवणा-पूव्ववन्निया । गिहित्थाणं अन्नतिस्थियाणं ति गिहत्थीणं अन्नतित्थियाणं ओसन्नाणं य संजईण य जो 'ए पज्जोसवेइ' एषामने पर्युषणावल्पं पठतीत्यर्थः तस्स चउगुरु' आणाईया या दोषा। गिहि अन्नतिथि-ओसन्नदुगं ते तग्गुणेहष्णुववेया । सम्मीसवास संकाइणो य दोसा समणिवग्गे ॥२॥ व्याख्या-गिहत्था गिहत्थीओ एगं दर्ग, अन्नतित्थिगा अन्नतिथिणीओ, अहवा ओसन्ना ओसन्नीओ । एए दुगा संजमगुहि अणुववेया, तेण तेसि पुरओ न कडिढज्जइ । अहवा एएहि सह संवासदोसो भवई । इत्थीसु य संकाइया दोसा भवति । संजईओ जइ वि सजमगुणेहि उववेयाओ तहावि सम्मीसवासदोसो सकासदोसो य भवई ।। -कल्पसूत्र पृथ्वीचन्द टिप्पण मे उद्धत ६६. कल्पसूत्र चूणि १००. कल्पसूत्र टीकाएं
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy