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सापना काल : गोशालक को भेट
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तो उसके शिर पर फेंक दें। दासी ने स्वामी की आज्ञा से उसी के शिर पर डाल दिया। गोशालक आपे से बाहर हो गया। शाप देकर बकता हुआ वहाँ से चल दिया।
भगवान् वहां से अंगदेश की राजधानी चम्पानगरी पधारे । २५१ गोशालक भी साथ ही था। भगवान् ने तृतीय वर्षावास वहीं व्यतीत किया। वर्षावास में दो-दो मास के उत्कट तप के साथ विविध आसन व ध्यान-योग की साधना की। प्रथम पारणा चम्पा में किया और द्वितीय चम्पा से बाहर ।
वर्षावास के पश्चात् कालाय सन्निवेश पधारे, वहाँ से पत्तकालाय पधारे ओर दोनों ही स्थानों पर खण्डहरों में स्थित होकर ध्यान किया। दोनों ही स्थानों पर गोशालक अपनी विकार युक्त एवं अविवेकी प्रवृत्ति के कारण लोगों के द्वारा पीटा गया । २५२ भगवान् तो रात-रात भर ध्यान में लीन रहे।
___वहाँ से भगवाद कुमारक सन्निवेश पधारे, वहाँ पर चम्पकरमणोय उद्यान में कायोत्सर्ग प्रतिमा धारण करके रहे।२५३
भिक्षा का समय होने पर गोशालक ने भिक्षा के लिए चलने हेतु महावीर से प्रार्थना की । भगवान् ने कहा-'मेरे उपवास है।'
गोशालक चला ! उस समय पार्वापत्य मुनिचन्द्रस्थविर कुमारसन्निवेश में कुम्हार कूवणय की शाला में ठहरे हुए थे। गोशालक ने पार्वापत्य मुनियों के रंग विरंगे वस्त्र देखकर पूछा-"तुम कौन हो ?" उन्होंने उत्तर दिया-"हम निर्ग्रन्थ हैं और भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य हैं।"
गोशालक ने कहा-"तुम कैसे निग्रन्थ हो ? इतना सारा वस्त्र और पात्र रखा है, फिर भी अपने को निर्ग्रन्थ कहते हो। ज्ञात होता है अपनी आजीविका चलाने के लिए ही यह प्रपंच कर रखा है। देखिए-सच्चे निर्ग्रन्थ तो मेरे धर्माचार्य हैं, जो वस्त्र व पात्र से रहित हैं तथा तप और त्याग की माक्षात् प्रतिमूर्ति हैं।"
पापित्य श्रमणों ने कहा-"जैसा तू है, वैसे ही तेरे धर्माचार्य भी स्वयं-गृहीतलिंग होंगे।"