________________
अभिनिष्क्रमण
१५३
हुडुक्क, दुन्दुभि आदि वाद्यों के निनाद के साथ, भगवान् कुण्डपुर नगर के मध्यमध्य में होकर निकले । निकलकर जहाँ पर ज्ञातखण्डवन नामक उद्यान है। और जहाँ उत्तम अशोक वृक्ष है, वहाँ आते हैं ।
मूल :
जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीयं ठावेइ, अहे सीयं ठावित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ, सीयाओ पच्चोरुहित्ता सयमेव आहरणमल्लालंकारं ओमुयइ, आहरणमल्लालंकारं ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करिता छट्टणं भत्तेणं अपाणएणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं एगं देवदूतमादाय एगे अबीए मुडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइए ॥११४॥
अर्थ- जहाँ उत्तम अशोक वृक्ष है वहाँ पहुँच कर उस अशोक वृक्ष के नीचे भगवान् की पालकी रखी जाती है। भगवान पालकी से नीचे उतरते है, उतरकर अपने हाथ से हार आदि आभूषण, पुष्पों की मालाएँ, अंगूठियाँ आदि अलकार उतारते हैं, उतारकर स्वयं ही पञ्चमुष्ठि लोच करते हैं अर्थात् चार मुष्ठि सिर के और एक मुष्ठि से दाढ़ी के बाल निकालते है । इस प्रकार केश लुंचन करके निर्जल षष्ठ भक्त (बेला) किए हुए, हस्तोत्तरा नक्षत्र का योग ( उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र) आते ही एक देवदूष्य वस्त्र को लेकर अकेले ही मु ंडित होकर आगारवास को त्यागकर अनगार धर्म को स्वीकार करते हैं ।
विवेचन - तीस वर्ष के कुसुमित यौवन में राज्य वैभव को ठुकराकर, भोग विलास को तिलाञ्जलि देकर मृगसर कृष्ण दशमी के दिन विजय मुहूर्त में राजकुमार महावीर आत्म-ज्योति को प्रज्ज्वलित करने के लिए, ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धन की अनुमति लेकर स्वयं आभरणों को हटाते हैं, स्वयं सिर का लुचन करते हैं "" और सिद्धों को नमस्कार करके यह प्रतिज्ञा ग्रहण करते
९०