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वेदना से विदीर्ण हो रहा है । प्यारा लाल"....कहते कहते गला रुध गया। आँखों से आंसुओं की वर्षा होने लगी, रानी मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी । महारानी की यह अवस्था देखकर दासियाँ घबरा गई, वे पखे से हवा करने लगी, सारे अन्तःपुर में शोक की लहर व्याप्त हो गई।
महाराज सिद्धार्थ ने सुना, वह भी दौड़कर महल में आये । महारानी की यह दयनीय दशा देखकर उनके आंखों से भी आंसू छलक पड़े। तथापि धैर्य बटोर कहा-"रानी ! घबराओ मत, धैर्य रखो। सब कुछ ठीक हो जायेगा, अधीर मत बनो।”
मल :
तए णं समणे भगवं महावीरे माऊए अयमेयारूवं अभथियं पत्थियं मणोगयं संकप्पं समुप्पण्णं विजाणित्ता एगदेमेणं एयइ ॥८६॥
अर्थ-तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर माता के मन मे उत्पन्न हुए इस प्रकार के विचार, चिन्तन अभिलाषा रूप मनोगत सकल्प को जानकर अपने शरीर के एक भाग को हिलाते हैं।
विवेचन-भगवान ने अवधिज्ञान से माता पिता और परिजनो को शोक विह्वल देखा । मोचा
कि कुर्म. ? कस्य वा मो?, मोहस्य गतिरोशी ।
दुषेर्षातोरिवास्माकं, गोवनिष्पत्तये गुणः ॥ 'अरे ! यह क्या हो रहा। मैंने तो माता के सुख के लिए यह कार्य किया था पर यह तो उल्टा उनके दुःख का कारण बन गया। मोह की गति बड़ी विचित्र है। जैसे दुष् धातु से गुण करने से 'दोष' की निष्पत्ति होती हैं वैसे ही मैंने सुख के लिए जो कार्य किया उससे उल्टा दुःख ही निष्पन्न हुआ।' ऐसा विचार कर उन्होंने अपने शरीर के एक भाग को हिलाया।