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सामना काल:
१८४
मूल :
समणे भगवं महावीरे साइरेगाइ दुवालस वासाई निच्चं वोसहकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जति, तं जहा-दिव्वा वा, माणुस्सा वा, तिरिक्खजोणिया वा अणुलोमा वा पडिलोमा वा ते उप्पन्ने सम्म सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ ॥११६॥
__अर्थ - श्रमण भगवान् महावोर दीक्षा स्वीकार करने के पश्चात् बारह वर्ष से कुछ अधिक समय तक माधनाकाल में शरीर की ओर से विल्कुल उदासीन रहे । उतने समय तक उन्होंने शरीर की ओर तनिक मात्र भी ध्यान नहीं दिया, शरीर को त्याग दिया हो इस प्रकार रहे। साधना काल में देव, मनुष्य और तिर्यच सम्बन्धी जो अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग आते उनको निर्भय होकर सम्यक् प्रकार से सहन करते; क्रोध रहित, बिना किसी की भी अपेक्षा रखे, मन को स्थिर कर सहन करते । मल :
तए णं समणे भगवं महावीरे अणगारे जाए इरियासमिए, भासासमिए, एसणासमिए आयाणभंडमत्त निक्खेवणासमिए उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिद्वावणियासमिए मणसमिए, वइसमिए कायसमिए मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी अकोहे अमाणे अमाए अलोभे संते पसंते उवसंते परिनिव्वुडे अणासवे असमे अकिंचणे छिन्नगंथे निरुवलेवे, कंसपाई इव मुक्कतोये, संखो इव निरंजणे, जीवो इव अप्पडिहयगइ, गगणं पिव निरावलवणे, वायुरिव अप्पडिबद्धे, सारयसलिलं व सुद्धहियए, पुक्खरपत्त व निरुवलेवे, कुम्मो इव गुत्तिदिए खग्गिविसाणं व एगजाए, विहग इव विप्पमुक्के, भारुडपक्खी इव अप्पमत्ते, कुंजरो इव सोडीरे, वसभो इव जायथामे, सीहो