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क्षत्रिय की वासिष्ठगोत्रीया त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में करो, और गर्भरूप में स्थापित करके पुनः मेरी आज्ञा मुझे मुझे सूचित करो ।
मूल
कल्पसूत्र
गर्भरूप में स्थापित
अर्पित करो अर्थात्
तए णं से हरिणेगमेसी पायत्ताणियाहिवई देवे सकेणं देविंदेणं देवरन्ना एवं वृत्ते समाणे हट्ठे जाव हयहियए करयल जाव त्ति कट्टु एवं जं देवो आणवेह त्ति आणाए विणणं वयणं पडिसुणेइ, वयणं पडिणित्ता सक्करस देविंदस्स देवरन्नो अंतियाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता उत्तरपुराच्छिमदिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता वेडव्वियसमुग्धाएणं समोहणइ, वेडव्वियसमुघाणं समोहणइत्ता, संखेज्जाई जोयणाई दंडनिसिरह । तंजहारयणाणं वयराणं वेरुलियाणं लोहियक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगभाणं पुलयाणं सोगंधियाणं जोइरसाणं अंजणाणं अंजणपुलयाणं रययाणं जायरूवाणं सुभगाणं अंकाणं फलिहाणं रिट्ठाणं अहाबायरेपोग्गले परिसाडेइ, २ त्ता अहासुहुमे पोग्गले परियादियति ॥ २६ ॥
अर्थ-उसके पश्चात् पादति सेना का सेनापति हरिणगमेषी देव देवेन्द्र देवराज शक्रेन्द्र की आज्ञा श्रवणकर प्रसन्न हुआ । यावत् हर्षित हृदय से दोनों हाथों को सम्मिलित कर अंजलिबद्ध हो, "देव की जिस प्रकार की आज्ञा है" इस प्रकार वह आज्ञा-वचन को विनय पूर्वक स्वीकार करता है और स्वीकार करके देवेन्द्र देवराज शकेन्द्र के पास से निकलता है, निकलकर के उत्तर पूर्व दिशा की ओर अर्थात् ईशानकोण में जाता है । वहाँ जाकर के वैकियसमुद्घात से स्वशरीर में स्थित आत्म-प्रदेशों के व कर्म पुलों के समूह को संख्यात योजन विस्तृत लम्बे दण्डे के आकार का बाहर निकालता है । भगवान् को एक