SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सीकर काल : केवल मानोत्पत्ति १८७ अर्थ-इस प्रकार विचरण करते-करते अनुपम उत्तम ज्ञान, अनुपम दर्शन, अनुपम संयम, अनुपम निर्दोष वसति, अनुपम विहार, अनुपम वीर्य, अनुपम सरलता, अनुपम कोमलता, (नम्रता) अनुपम अपरिग्रह भाव, अनुपम क्षमा अनुपम अलोभ, अनुपम गुप्ति, अनुपम प्रसन्नता, अनुपम सन्य, संयम, तप आदि सद्गुणों का सम्यक् आचरण करने से, जिनसे कि निर्वाण का मार्ग अर्थात् सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र पुष्ट बनते हैं तथा जिन सद्गुणों से मुक्ति का लाभ अत्यन्त सन्निकट आता है, उन सभी सद्गुणों से आत्मा को भावित करते हुए भगवान् को बारह वर्ष व्यतीत हो जाते है। तेरहवें वर्ष का मध्यभाग अर्थात् ग्रीष्म ऋतु का द्वितीय मास और चतुर्थ पक्ष चलता है, वह चतुर्थ पक्ष, अर्थात् वैसाख मास का शुक्ल पक्ष, उस वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन जब छाया पूर्व की ओर ढल रही थी, पिछली पौरसी पूर्ण हुई, जब सुव्रत नामक दिन था, विजय नामक मुहूर्त था, तब भगवान् जू भिकाग्राम के बाहर, ऋजुबालिका नदी के किनारे एक खण्डहर जैसे पुराने चैत्य २' से न अत्यधिक सन्निकट और न अत्यधिक दूर ही श्यामक नामक गृहपति के खेत में शाल वृक्ष के नीचे गोदोहिका आसन में अवस्थित थे। आतापना द्वारा तप कर रहे थे । छट्ठम तप था। जिस समय उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग आया, भगवान् ध्यानान्तरिका में मग्न थे। उस समय भगवान् को अन्तरहित उत्तमोत्तम, व्याघातरहित, आवरण रहित, समग्र व परिपूर्ण ऐसा केवलज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न हुआ। मल: तए णं से भगवं अरहा जाए जिणे केवली सव्वन्न सव्वदरिसी सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स परियायं जाणइ पासइ, सव्वलोए सव्वजीवाणं आगई गई ठिई चवणं उववायं तकं मणो माणसियं भुत्तं कडं पडिसेवियं आविकम्मं रहोकम्मं अरहाअरहस्सभागी तं तं कालं मणवयणकायजोगे वट्टमाणाणं सव्वजीवाणं सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरइ ॥१२१॥
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy