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________________ भगवानपदेव: प्रथम धर्म चक्रवर्ती २६७ पर भाई भरत ललचा रहा है, वह हमारा राज्य लेना चाहता है। क्या बिना युद्ध किये हम उसे राज्य दे दें ? यदि देते है तो उसको साम्राज्य-लिप्सा बढ़ जायगी और हम पराधीनता के पत्र में डूब जायेंगे। यदि हम अपने ज्येष्ठ भ्राता से युद्ध करते हैं तो भ्रातृ युद्ध की एक अनुचित परम्परा प्रारम्भ हो जायेगी । हमें क्या करना चाहिए ?" भगवान् बोले-पुत्रो ! तुम्हारा चिन्तन ठोक है। युद्ध भी बुरा है, और कायर बनना भी बुरा है। युद्ध इसलिए बुरा है कि उसके अन्त में विजेता और पराजित दोनों को सताप एवं ही निराशा मिलती है। अपनी सत्ता को गवाकर पराजित पछताता है और कुछ नही पाकर विजेता पछताता है । कायर बनने का भी मैं तुम्हें परामर्श नही दे सकता । मैं तुम्हें ऐमा राज्य देना चाहता हूं, जो युद्ध और वलीवत्व से ऊपर है । भगवान् की आश्वासन भरी वाणी को सुनकर सभी के मुख कमल खिल उठे, मन मयूर नाच उठे। वे अनिमेष दृष्टि से भगवान् को निहारने लगे। भगवान को भावना को वे छु नही सके । यह उनकी कल्पना मे नही आ सका कि भौतिक राज्य के अतिरिक्त भी कोई राज्य हो सकता है। वे भगवान के द्वारा कहे गये राज्य को पाने के लिए व्यग्र हो गये। उनकी तीव्र लालसा देख कर भगवान् बोले- 'एक लकड़हारा था, वह भाग्यहीन और मूर्ख था । प्रतिदिन कोयले बनाने के लिए वह जंगल मे जाता और जो कुछ भी प्राप्त होता उससे अपना भरण पोषण करता । एक बार वह भीष्म-ग्रीष्म की चिलचिलाती धूप में थोडा-सा पानी लेकर जगल में गया और सूखी लकड़ियां एकत्रित कर कोयले बनाने के लिए उन लकड़ियों में आग लगादी । चिलचिलाती धूप व प्रचण्ड ज्वाला के कारण उसे अत्यधिक प्यास लगी। साथ में जो पानी लाया था वह पी गया, पर प्याम शान्त नहीं हुई। इधर उधर जंगल में पानी की अन्वेषणा की, परन्तु कहीं भी पानी उपलब्ध नहीं हुआ। मन्निकट कोई भी गाँव नहीं था। प्यास से गला सूख गया था । घबराहट बढ़ रही थी, वह एक वृक्ष के नीचे लेट गया । नीद आ गई । उसने स्वप्न देखा
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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