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________________ २६६ श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की संस्थापना कर वे सर्वप्रथमतीर्थकर बने । श्रमण धर्म के लिए पांच महाव्रत और गृहस्थ धर्म के लिए द्वादश व्रतों का निरुपण किया, इसीलिए भगवान् ऋषभदेव को धर्म का मुख कहा है।४ __ भगवान् के प्रथम गणधर सम्राट भरत के पुत्र ऋषभमेन हुए। उन्हे ही सर्वप्रथम भगवान ने आत्म-विद्या का परिज्ञान कराया। भगवान् को केवल ज्ञान की सूचना प्राप्त होते ही पूर्व दीक्षित श्रमण, जो क्षुधा-पिपासा से पीड़ित होकर तापस बन गए थे, भगवान् की सेवा में आ गए। उन्होंने पुनः विधिवत् प्रव्रज्या ग्रहण की, सिर्फ कच्छ और सुकच्छ ही ऐसे थे जो नहीं आए।'५ सुन्दरी का संयम-भगवान श्री ऋषभ के प्रथम प्रवचन को श्रवणकर सुन्दरी भी संयम ग्रहण करना चाहती थी, उमने यह भव्य भावना अभिव्यक्त भी की थी, किन्तु सम्राट् भरत के द्वारा आज्ञा प्राप्त न होने से वह श्राविका बनी। उसके अन्तर्मानस में वैराग्य का सागर उछालें मार रहा था। वह तन से गृहस्थाश्रम मे थी, पर उसका मन संयम मे रम रहा था। षट्खण्ड पर विजय-वैजयन्ती फहराकर जब सम्राट भरत दीर्घकाल के पश्चात् विनीता लोटे तब सुन्दरी के कृश शरीर को देखकर वे चकित रह गए । प्रश्न करने पर ज्ञात हुआ कि यह अवस्था जिस दिन से दीक्षा ग्रहण का निषेध किया था उस दिन से निरन्तर आचाम्ल व्रत करने से हुई है। सुन्दरी की संयम लेने की प्रबल भावना को देखकर भरत ने अनुमति प्रदान की और सुन्दरी ने ऋषभदेव की आज्ञानुवर्तिनी ब्राह्मी के पास दीक्षा ग्रहण की । ८ । अट्टान भ्राताओं को दीक्षा. बताया जा चुका है कि श्री ऋषभदेव अपने सौ पुत्रों को पृथक्-पृथक् गज्य देकर श्रमण बने थे। सम्राट भरत चक्रवर्ती बनना चाहते थे। उन्होंने अपने लघु भ्राताओं को अपने अधीन करने के लिए उनके पास दूत भेजे । अठ्ठानवें भ्राताओं ने मिलकर परस्पर परामर्श किया, परन्तु वे निर्णय पर नहीं पहुंच सके। उस समय भगवान् अष्टापद मागध में विचर रहे थे। वे सभी भगवान् श्री ऋषभदेव के पास पहुंचे। स्थिति का परिचय देते हुए निवेदन किया-"प्रभो ! आपके द्वारा प्रदत्त राज्य
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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