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शिला का स्वप्न-वर्शन पेच्छह सा गगणमंडल विसालसोम्मचकम्ममाणतिलगं रोहिणिमणहिययवल्लहं देवी पुनचंदं समुल्लसंतं ६ ॥३॥ __अर्थ-उसके पश्चात् छठे स्वप्न में त्रिशला माता चन्द्र को देखती है । वह चन्द्र गोदुग्ध, पानी के झाग, जलकण, एवं रजत-घट की तरह शुभ्र था, शुभ था,और हृदय व नयनों को अत्यन्त प्रिय था, परिपूर्ण था,गहनतम अन्धकार को नष्ट करने वाला था। पूर्णिमा के चन्द्र की तरह पूर्णकला युक्त था । कुमुदवनों को विकसित करने वाला था, रात्रि की शोभा को बढ़ाने वाला था। वह स्वच्छ किए हुए दर्पण ने समान चमक रहा था। हंस के समान श्वेत था। वह तारागण और नक्षत्रों में प्रधान था। उनकी श्री की अभिवृद्धि करने वाला था। वह अन्धकार का शत्रु था। अनङ्गदेव के बाणों को भरने वाला तरकस था, समुद्र के पानी को उछालने वाला था, विरहिणियों को व्यथित करने वाला था, वह सौम्य और सुन्दर था, विराट् गगन मण्डल में अच्छी तरह से परिभ्रमण करने वाला था, मानो वह आकाश मण्डल का चलता फिरता तिलक हो। वह रोहिणी के मन को आल्हादित करने वाला उसका पति था। इस प्रकार समुल्लिसित पूर्णचन्द्र को त्रिशला माता देखती है। मूल :
तओ पुणो तमपडलपरिप्फुडं चेव तेयसा पज्जलंतरूवं रत्तासोगपगासकिमयसुगमुहगुंजद्धरागसरिसं कमलवणालंकरणं अंकणं जोइसस्स अंबरतलपईवं हिमपडलगलग्गहं गहगणोस्नायगं रत्तिविणासं उदयत्थमणेसु मुहुत्तसुहृदंसणं दुनिरिक्खरूवं रत्तिमुद्धायंतदुप्पयारपमदणं सीयवेगमहणं पेच्छइ मेरुगिरिसययपरियट्टयं विसालं सूरं रस्सीसहस्सपयलियदित्तसोहं ७ ॥४०॥ __अर्थ-उसके पश्चात् त्रिशलामाता स्वप्न में सूर्य को देखती है। वह सूर्य अंधकार के समूह को नष्ट करने वाला और तेज से जाज्वल्यमान था। रक्त अशोक, विकसित किंशुक, तोते की चोंच, चिर्मी के अर्ध लाल भाग के