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पहत् मरिष्टनेमि : राजोमती को दोक्षा : रयनेमि को प्रतिबोध देवलोक में देव हुए और वहां से च्युत होकर मैं अरिष्टनेमि हुआ और यह राजीमती हुई है । पूर्वभवों का स्नेह सम्बन्ध होने के कारण ही इसका अत्यधिक अनुराग मेरे प्रति हैं। --- . राजीमती को दीक्षा . रथनेमि को प्रतिबोध
भगवान् वहाँ से विहार करके रैवतक पर्वत पर पधारे । समवसरण को रचना हुई । राजीमती विचारने लगी. भगवान् को धन्य है, जिन्होने मोह को जीत लिया है। धिक्कार है मुझे जो मैं मोह के दल-दल में फसी हूँ। मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मै दोक्षा ले लूं।"
_ऐसा दृढ सकल्प करके राजीमती ने कांगसी-कधी से संवारे हुए भंवर सदृश काले केशों को उखाड़ डाला। सर्व इंद्रियों को जीतकर दीक्षा के लिए तैयार हुई । श्री कृष्ण ने आशीर्वाद दिया हे कन्या ! इस भयंकर संमार-सागर से तू शीघ्र ही तर ।" राजीमती ने दीक्षा ग्रहण की।
दीक्षा लेने के पश्चात् एक बार राजीमती रैवतक पर्वत की ओर जा रही थी कि मूसलाधार वर्षा होने से उसके वस्त्र भीग गये। साथ को अन्य साध्वियां भी इधर-उधर हो गई। राजीमती ने वर्षा से बचने के लिए एक अंधेरी गुफा का आश्रय लिया । एकान्त स्थान समझकर समस्त गीले वस्त्र उतारकर सूखने के लिए फैला दिये ।
राजीमती की फटकार से प्रतिबुद्ध होकर रथनेमि प्रवजित हो गए थे। और वह उसी गुफा में ध्यान मग्न थे। आज बिजली की चमक में राजीमती को अकेली और निर्वस्त्र देखकर उसका मन पुन चलित हो गया। इतने में एकाएक राजोमती को भी दृष्टि उन पर पड़ी। उन्हें देखते ही वह सहम गई, भयभीत बनी, अपने अंगों का गोपन कर जमीन पर बैठ गई।''
काम-विह्वल रथनेमि ने राजीमती से कहा- हे सुरूपे ! मै रथनेमि हूँ। तू मुझे अंगीकार कर । तनिक मात्र भी सकोच न कर। आओ! इस एकान्त स्थान में हम भोग भोगें और सांसारिक भोगों का आनन्द लेने के पश्चात् फिर सयम ले लेंगे ।