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________________ सेठ था । वीतराग धर्म पर उसकी अविचल आस्था थी। उसकी रग-रग, में मन के अणु-अणु में वीतराग धर्म रमा हुआ था। उसने सौ बार श्रावक की पांचवीं पडिमा (प्रतिज्ञा) तक की आराधना की। एक बार नगर में गैरिक नामक एक उग्र तपस्वी (तापस) आया। उसके कठोर तप की महिमा जन-जन की जिह्वा पर नाचने लगी। जन समूह दर्शनार्थ उमड़ा, तपस्वी ने विराट् जन-समूह को देखकर गर्व के साथ पूछा'क्या अब भी नगर में ऐसा कोई व्यक्ति है जो मेरे दर्शन के लिए नहीं आया ?' एक भक्त ने निवेदन किया 'प्रभो ! कार्तिक श्रेष्ठी को छोड़कर अन्य सभी, राजा से रंक तक आपके दर्शनार्थ आ चुके हैं।' __क्रोध और अहंकार के वश तपस्वी ने अभिग्रह किया-“अच्छा ! तो लो मैं कार्तिक श्रेष्ठी की ही पीठ पर थाली रखकर पारणा करूँगा, अन्यथा नही ।" तपस्वी को तप करते हुए एक माह पूरा हो गया, किंतु कार्तिक श्रेष्ठी कभी उसके पास नही आया। राजा ने पारणा करने के लिए प्रार्थना की तब तपस्वी ने अभिग्रह की बात दोहराई। राजा ने श्रेष्ठी को बुलाया। गर्मागर्म खीर तैयार की गई। राजा के आदेश से सेठ झुका, और तपस्वी ने क्रूरतापूर्वक सेठ की पीठ पर वह गर्म थाली रखी, चमड़ी जलने लगी, तपस्वी नाक पर अंगुली रखकर सेठ से कहने लगादेखो, तुम मुझे वन्दन करने नही आए । अन्त में मैंने तुम्हारा नाक काट ही दिया। सेठ मन में सोचने लगा-यदि मैं इसके पूर्व ही प्रवजित हो जाता तो आज यह दशा नहीं होती। उसने समभावपूर्वक यह भयंकर कष्ट सहन किया । धीरे-धीरे उपचार से चमड़ी ठीक हुई। वैराग्य उद्बुद्ध हुआ, एक हजार आठ श्रेष्ठी पुत्रों के साथ मुनिसुव्रत स्वामी के पास संयम ग्रहण किया। द्वादशाङ्गी का अध्ययन कर उत्कृष्ट तप करता हुआ आयुष्यपूर्ण कर सौधर्म देवलोक का इन्द्र बना । गैरिक तापस भी वहाँ से आयु पूर्ण कर इसी इन्द्र का ऐरावत हाथी हुआ। इन्द्र को अपने ऊपर बैठा देखकर घबराया, रूप बदला। इन्द्र ने भी अवधिज्ञान से पूर्वभव देख उसे डांटा-फटकारा, वह शान्त हो गया।
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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