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________________ सपाचारी : मिक्षावरी कल्प नो कप्पइ अगिहंसि पिंडवायं पडिग्गाहित्ता पज्जोसवित्तए, पजोसवेमाणस्स सहसा बुटिकाए निवडिज्जा देसं भोचा देसमायाय पाणिणा पाणि परिपिहित्ता उरंसि वा णं निलिजिज्जा, कक्खंसि वा णं समाहडिजा, अहाछन्नाणि वा लयणाणि उवागच्छिज्जा, रुक्खमूलाणि वा उवागच्छिज्जा, जहा से पाणिसि दते वा दतरए वा दगफुसिया वा नो परियावज्जइ ॥२५४॥ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए कर पात्री भिक्षुक को पिण्डपात्र भिक्षा-लेकर के जहां घर न हो वहाँ अर्थात् खुले आकाश में रहकर भोजन करना नहीं कल्पता । खुले आकाश में रहकर खाते समय अचानक वृष्टिकाय गिरे तो जितने भाग को खा लिया है उसे खाकर के और बचे हुए अवशेष भाग को लेकर के उसे हाथ से ढंक करके और उस हाथ को सीने से चिपकाकर रखे या कक्षा (कांख) में छिपाकर रखे । ऐसा करने के पश्चात् गृहस्थों ने अपने लिए सम्यक् प्रकार से जो घर छाये हों उस ओर जाये, अथवा वृक्ष के मूल (नीचे) की ओर जाये, जिस हाथ में भोजन है उस हाथ से जिस प्रकार पानी की बूंदों की या फुहारों आदि की विराधना न हो इस प्रकार प्रवृत्ति करे। मल: वासावासं पज्जोसवियाणं पाणिपडिग्गहियस्स भिक्खुस्स जं किंचि कणगफुसियमित्तं पि निवडइ नो से कप्पइ भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥२५॥ अर्थ-वर्षावास में रहे हुए करपात्री भिक्ष क को कणमात्र भी स्पर्श हो, इस प्रकार अत्यन्त हल्की बूदें आती हों तब भोजन और पानी के लिए गृहस्थ के घर की ओर निकलना और प्रवेश करना नही कल्पता। मल: वासावासं पज्जोसवियाणं पडिग्गहधारिस्स भिक्खुस्स
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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