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________________ (१३) मंग, (१४) मोठ, (१५) उड़द, (१६) तुवर, (१७) झालर काबली चने, (१८) मटर, (१९) चंवले, (२०) चने, (२१) कुलत्थी, (२२) कांग, (राजगरे के समान एक जाति का अन्न), (२३) मसुर, (२४) अलसी इन बारह की दाल बन सकने के कारण ये 'कठोल' कहे जाते है। मल : तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापिऊणं अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-जप्पभिई च णं अम्हं एस दारए कुच्छिसि गब्भत्ताए वक्ते तप्पभिई च णं अम्हे हिरण्णेणं वड्ढामो सुवन्नणं वडढामो, धणेणं धन्नणं रज्जेणं रहणं बलेणं वाहणेणं कोसेणं कोडागारेणं पुरेणं अंतेउरेणं जणवएणं जसवाएणं वड्ढामो, विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइएणं संतसारसावएज्जेणं पिइसकारसमुदएणं अतीव अतीव अभिवड्ढामो तं जया णं अम्हं एस दारए जाए भविस्सइ तया णं अम्हे एयस्स दारगस्स एयाणुरूवं गोन्नं गुणनिप्फन नामधिज्ज करिस्सामो 'वद्धमाणों त्ति ॥८६॥ अर्थ-उसके पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के माता-पिता के मानस में इस प्रकार चिन्तन, अभिलाषा रूप मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि जब से यह हमारा पुत्र कुक्षि में, गर्भ रूप से आया है तब से हमारो हिरण्य से, सुवर्ण से, धन से, धान्य से, राज्य से, राष्ट्र से, सेना से, वाहनों से, धन-भण्डार से, पुर से, अन्तःपुर से, जनपद से, यशःकीर्ति से वृद्धि हो रही है। तथा धन, कनक, रत्न, मणि, मुक्ता, शंख, शिला, प्रवाल और माणिक आदि निश्चय ही हमारे यहाँ अत्यधिक रूप से बढ़ने लगे है तथा हमारे सम्पूर्ण ज्ञातृकुल में परस्पर अत्यन्त प्रीति बढ़ने लगी है, एवं अत्यधिक आदर-सत्कार भी बढ़ने
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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