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________________ १४ प्रश्न हो सकता है कि आधुनिक दशाभूतस्कंध की प्रतियों में कल्पसूत्र क्यो नही मिलता ? इसका उत्तर यही है कि जब से कल्पसूत्र का वाचन पृथक् प्रारंभ हुआ तब से स्थानशून्यार्थं उसमें सक्षिप्त कर दिया गया होगा । यदि पहले से ही संक्षिप्त होता तो नियुक्ति और चूर्णि मे उनके पदो की व्याख्या कैसे आती ? स्थानकवासी जैन समाज दशाश्रुत स्कंध को एक प्रामाणिक आगम स्वीकार करता है, तो कल्पसूत्र उसी का एक विभाग होने के कारण उसे अप्रामाणिक मानने का कोई कारण नही है । मूल कल्पसूत्र मे ऐसा कोई प्रसंग और न घटना हो आयी है जो स्थानकवासी जैन परम्परा की मान्यता के विपरीत हो । श्रमण भगवान् महावीर को जीवन झाकी का वर्णन आचारांग के द्वितीय श्रुतस्क के माथ मिलता जुलता है। भगवान् ऋषभदेव का वर्णन भी जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति से विपरीत नहीं है, अन्य तीर्थ करो का वर्णन जैसा सूत्र रूप मे अन्य आगम साहित्य में बिखरा पड़ा है, उसी प्रकार का इसमे भी है । समाचारी का वर्णन भी आगम सम्मत है । स्थविरावली का निरूपण भी कुछ परिवर्तन के साथ नन्दी सूत्र में आया ही है, अतः हमारी दृष्टि से कल्पसूत्र को प्रामाणिक मानने में बाधा नही है । पाश्चात्य विचारकों का यह अभिमत हैं कि कल्पसूत्र मे चौदह स्वप्नों का आलंकारिक वर्णन पीछे से जोड़ा गया है, एवं स्थविरावली तथा समाचारी का कुछ अंश भी बाद मे प्रक्षिप्त किया गया है। पं० पुण्यविजय जी का मन्तव्य है कि उन विचारको के कथन मे अवश्य ही कुछ सत्य तथ्य रहा हुआ है, क्योंकि कल्पसूत्र की प्राचीनतम प्रति वि० स० १२४७ की ताडपत्रीय प्राप्त हुई है, उसमे चौदह स्वप्नों का वर्णन नही है और कुछ प्राचीन प्रतियो मे स्वप्नों का वर्णन आया भी है तो अति संक्षिप्त रूप से आया है। नियुक्ति, चूर्ण एवं पृथ्वीचन्द्र टिप्पण आदि में भी स्वप्न सम्बन्धी वर्णन की व्याख्या नहीं है, परन्तु इतना निश्चित है कि जो आज कल्पसूत्र मे स्वप्न सम्बन्धी आलंकारिक वर्णन है वह एक हजार वर्ष से भी कम प्राचीन नहीं हैं, यह किसका निर्मित है यह अन्वेषणीय है । कल्पसूत्र को नियुक्ति, चूर्णि आदि से यह सिद्ध हैं कि इन्द्र आगमन, गर्भचंक्रमण, अट्ट, णशाला, जन्म, प्रीतिदान, दीक्षा, केवल ज्ञान, वर्षावास निर्वाण अन्तकृदभूमि आदि का वर्णन उसके निर्माण के समय कल्पसूत्र मे था और यह भी स्पष्ट है कि जिनचरितावली के साथ उस समय स्थविराबली और समाचारी विभाग भी था। ५. कल्पसूत्र - प्रस्तावना - पृ० ६ का साराश ६. पुरिमचरिमाण कप्पो, मंगलं वयमाणतित्वम्मि । दह परिकहिया जिण गणहराइयेरावलि चरित ं । - कल्पसूत्र नियु किन गा० ६२ पुरिमचरिमाण यतित्वगगंणं एस मम्मो चैव जहा वासावासं पज्जोसवेयव्वं पचतु वा वामं मावा मज्झिमगाणं पुण भयितं । अवि व वद्धमाणतित्यम्मि मंगसणिमित्तं जिणगणहर (राशि) बलिया सम्बेसि च जिणाणं समोसरणाणि परिकहिज्जेति । - कल्पसूत्र पूर्ण प० १०१ पुण्यविजय जी सम्पादित
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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