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महंत बरिष्टनेमि : केवलज्ञान
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--. केवल ज्ञान मूल :
____ अरहा णं अरिटुनेमी चउप्पन्न राइंदियाई निच्चं वोस?काए चियत्तदेहे तं चेव सव्वं जाव पणपन्नइमस्स राइंदियस्स अंत. रावट्टमाणे, जे से वासाणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे अस्सोयबहुले तस्म णं अस्सोयवहुलस्स पन्नरसीपक्खेणं दिवसस्स पच्छिमे भागे उप्पिं उज्जितसेलसिहरे वेउपायवस्म अहे अटणं भत्तेणं अपाणएणं चित्ताहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं झाणंतरियाए वट्टमाणस्स जाव अणते अणुत्तरे जाव सव्वलोए सव्वजीवाणं भावे जाणमाणे पासमाणे विहरइ ॥१६॥
अर्थ-अर्हत् अरिष्टनेमि चौपन रात्रि-दिन ध्यान में रहे। उन्होंने शरीर के लक्ष्य को छोड दिया। शारीरिक वासना छोड दी थी। इत्यादि सभी जो पूर्व आ चुका है, यहाँ भी समझ लेना चाहिए । अर्हत् अरिष्टनेमि के इस प्रकार ध्यान में रहते हुए पचपनवाँ रात्रि-दिन आ गया। जब वे पचपनवें रात्रिदिन मे संचरण कर रहे थे तब वर्षाऋतु का तृतीय माम, पाँचवाँ पक्ष, अर्थात् आश्विन कृष्णा अमावस्या के दिन अपराह्न में उज्जयत शैल शिखर (रैवताचल पर्वत) पर वेंत (वेतस) के वृक्ष के नीचे पानी रहित, अष्टम भक्त का तप किए हुए थे, इसी समय चित्रा नक्षत्र का योग आने पर ध्यान मे रहे हुए उन्हें अनन्त यावत् उत्तम केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। अब वे समस्त द्रव्य और उनकी सम्पूर्ण पर्यायों को जानते हुए, देखते हुए विचरने लगे।
विवेचन-भगवान् नेमिनाथ के दीक्षा ग्रहण करने के बाद राजीमती के रूप पर भगवान् नेमिनाथ का लघुभ्राता रथनेमि मुग्ध हो गया था। वह राजी. मती को अपने वश मे करने के लिए नित्य-नवीन उपहार भेजता। भोली-भाली राजीमती उसकी वह कुटिल चाल न समझ सकी। वह अरिष्टनेमि का ही उपहार समझकर प्रेमपूर्वक ग्रहण करती रही।