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________________ ३१४ वंदामि अजहत्थि च कासवं खंतिसागरं धीरं । गिम्हाण पढममासे कालगयं चेत्तेसुद्धस्स ॥५॥ वंदामि अजधम्मं च सुव्वयं सीसलद्धिसंपन्न। जस्स निक्खमणे देवो छत्तं वरमुत्तमं वहइ ॥६॥ हत्थं कासवगोत्तं धम्मं सिवसाहगं पणिवयामि । सीहं कासवगोत्तं धम्म पि य कासवं वंदे ॥७॥ सुत्तत्थरयणभरिए खमदममवगुणेहिं संपन्न । देविढिखमासमणे कासवगोत्ते पणिवयामि ॥८॥२२३॥ अर्थ-गौतमगोत्रीय फग्गुमित्र (फल्गुमित्र) को, वासिष्ठगोत्रीय धनगिरि को, कौत्स्यगोत्री शिवभूति को और कौशिकगोत्री दोज्जत कटक को वंदन करता हूँ । उन सभी को मस्तिष्क झुकाकर वन्दन करके काश्यपगोत्री चित्त को वन्दन करता हूँ। काश्यपगोत्री नक्षत्र को और काश्यपगोत्रीय रक्ष को भी वन्दन करता हूँ। गौतम गोत्री आर्य नाग को और वासिष्ठगोत्री जेहिल (जेष्ठिल) को तथा माढरगोत्री विष्णु को और गौतम गोत्री कालक को भी वन्दन करता हूँ । गोतम गोत्री मभार को, अथवा अभार को, सप्पलय (संपलित) को तथा भद्रक को वन्दन करता हूँ। काश्यपगोत्री स्थविर संघपालित को नमस्कार करता हूं। काश्यपगोत्री आर्य हस्ती को वन्दन करता हूं। ये आर्य हस्ती क्षमा के सागर और धीर थे तथा ग्रीष्मऋतु के प्रथम मास में शुक्ल पक्ष के दिनों में कालधर्म को प्राप्त हुए थे। जिनके निष्क्रमण-दीक्षा लेने के समय में देव ने उत्तम छत्र धारण किया था, उन सुव्रत वाले, शिष्यों की लब्धि से सम्पन्न आर्य धर्म को वन्दन करता हूँ। काश्यपगोत्री 'हस्त' को और शिवसाधक धर्म को नमस्कार करता हूँ। काश्यपगोत्री 'सिंह' को और काश्यपगोत्री 'धर्म' को भी वन्दन करता हूँ। सूत्ररूप और उसके अर्थ रूप रत्नों से भरे हुए क्षमा सम्पन्न, दम संपन्न, और मार्दव गुण सम्पन्न काश्यपगोत्री देवढिक्षमाश्रमण को प्रणिपात करता हूँ।
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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