SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२ उपसर्ग करने वाले दुष्ट कमठ पर रुष्ट ही हुए। इसीलिए आचार्य हेमचन्द्र ने प्रभु पाश्वनाथ की स्तुति करते हुए कहा है - कमठे धरणेन्द्र च स्वोचिते कमकुर्वति । प्रमोस्तुल्य मनोवृत्तिः पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तु वः॥" परानित हो मेघमाली भी भगवान् के चरणों मे गिर गया। अपराध की क्षमा याचना करने लगा। .. केवलज्ञान मल: तए णं से पासे भगवं अणगारे जाए इरियासमिए जाव अप्पाणं भावमाणस्म तेसीइं राइंदियाई विकताई चउरामीइमस्स राइंदियस्स अंतरा वट्टमाणे जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले तस्स णं चित्तबहुलस्स चउत्थीपखणं पुण्हकालसमयंसि धायतिपायवस्म अहे छठेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं झाणंतरियाए वट्टमाणस्म अणते अणुत्तरे निव्वाधाए निरावरणे जाव केवलवरनाणदंसणे ममुप्पन्ने जाव जाणमाणे पाममाणे विहरड् ॥१५५॥ ___ अर्थ-उसके पश्चात् भगवान् पार्श्व अनगार हुए, यावत् ईर्यासमिति से युक्त हुए और इस प्रकार आत्मा को भावित करते-करते तिरासी (८३) रात्रि दिन व्यतीत हो गये। चौरासीवाँ दिव चल रहा था। ग्रीष्म ऋतु का प्रथम मास, प्रथम पक्ष अर्थात् चैत्र मास का कृष्ण पक्ष आया, उस चैत्र मास की चतुर्थी को, पूर्वाह्न में आँवले (धातकी) के वृक्ष के नीचे षष्ठ तप किये हुए, शुक्ल ध्यान मे लीन थे। तब विशाखा नक्षत्र का योग आया, उन्हे उत्तमोत्तम केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। यावत् वे सम्पूर्ण लोकालोक के भावों को देखते हुए विचरने लगे।
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy