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________________ अणुपविसइ, ईहं अणुपविसित्ता अप्पणो साहाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धिविन्नाणेणं तेसिं सुमिणाणं अत्थोग्गहं करेइ, अत्थोग्गहं करित्ता सलाखत्तियाणी ताहि इहाहिं जाव मंगल्लाहिं मियमहुरंसस्सिरीयाहि वग्गूर्हि संलवमाणे संलवमाणे एवं वयासी ॥५२॥ अर्थ-उसके पश्चात् वह सिद्धार्थ राजा त्रिशला क्षत्रियाणी से इस अर्थ . को श्रवण कर और हृदय में विचारकर हर्षित और सन्तुष्ट चित्तवाला हुआ। आनन्दित हुआ। मन में प्रीति समुत्पन्न हुई। उसका मन अत्यधिक आह्लादित हआ। हर्ष से उसका हृदय फूलने लगा। मेघ की धारा से आहत कदम्ब पुष्प की तरह उसके रोम-रोम उल्लसित हो गए। वह उन स्वप्नों को ग्रहण करता है | ग्रहण करके उन पर सामान्य विचार करता है और सामान्य विचार करने के पश्चात् पुनः उन स्वप्नों का पृथक पृथक रूप से विशिष्ट विचार करता है । विशिष्ट विचार करके अपनी स्वाभाविक प्रज्ञा सहित बुद्धि विज्ञान से उन स्वप्नों का विशेष फल पृथक-पृथक रूप से निश्चय करता है। विशेष प्रकार से निश्चय करके इष्ट यावत् मंगलरूप परिमित मधुर एवं शोभायुक्त वाणी से त्रिशला क्षत्रियाणी को इस प्रकार बोला:मल:* ओराला णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिहा, कल्लाणा णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिवा, एवं सिवा धन्ना मंगल्ला सस्सिरीया आरोग्गतुठ्ठिदीहाउयकल्लाणमंगल्लकारगा गं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिहा! तं जहा-अत्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलाभो देवाणुप्पिए ! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए ! सोक्खलामो देवाणुप्पिए ! रज्जलाभो देवाणुप्पिए! एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए! नवग्रह मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाण य राईदियाणं विइताणं अम्हं कुलके अम्हं कुलदीवं कुलपव्वयं कुलबडिंसयं कुलतिलयं कुलकित्तिकरं कुलवित्तिकरं
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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