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जन्मभूमि दशपुर (मन्दसौर) थी। पिता का नाम रुद्रसोम था। आप जब काशी से गंभीर अध्ययन करके लौटे तब भी माता प्रसन्न नहीं हुई। माता की प्रबल प्रेरणा से उत्प्रेरित होकर दृष्टिवाद का अध्ययन करने के लिए उसी समय दशपुर के इसुवन में विराजित आचार्य तोसलीपुत्र के पास गए और श्रमण बने । तोसली पुत्र से आगम का अध्ययन किया। उसके पश्चात् दृष्टिवाद का अध्ययन करने हेतु आर्य वज्रस्वामी के पास पहुंचे। साढ़े नौ पूर्व तक अध्ययन किया। आपने अनुयोगद्वार सूत्र की रचना की और आगमों को द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग गणितानुयोग और धर्मकथानुयोग के रूप में विभक्त किया।
आपके समय तक प्रत्येक आगम पाठ को द्रव्य आदि रूप में चार-चार व्याख्याएँ की जाती थी। आपने श्रुतधरों की स्मरणशक्ति के दौर्बल्य को देख कर जिन पाठों से जो अनुयोग स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होता था, उसी प्रधान अनुयोग को रखकर शेष अन्य गौण अर्थों का प्रचलन बन्द कर दिया। जैसे-- ग्यारह अंगों-महाकल्पश्रत और छेदसूत्रों का समावेश चरणकरणानुयोग में किया गया । ऋषिभाषितों का धर्मकयानुयोग में, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि का गणितानुयोग में और दृष्टिवाद का समावेश द्रव्यानुयोग में किया गया ।।१०६ इस प्रकार जब अनुयोगों का पार्थक्य किया गया तब से नयावतार भी अनावश्यक हो गया।'०७ यह कार्य द्वादशवर्षीय दुष्काल के पश्चात् दशपुर में किया गया था । इतिहासज्ञों का अभिमत है कि प्रस्तुत आगमवाचना वीर संवत् ५६२ के लगभग हुई थी। इस आगमवाचना में वाचनाचार्य आर्य नन्दिल, युगप्रधान आचार्य आर्यरक्षित और गणाचार्य वज्रसेन आदि उपस्थित थे। विद्वानों की यह भी धारणा है कि आगम साहित्य में उत्तरकालीन महत्त्वपूर्ण घटनाओं का जो चित्रण हुआ है उसका श्रेय भी आर्यरक्षित को ही है। वीर संवत् ५९७ में आर्य रक्षित स्वर्गस्थ हुए। उनके उत्तराधिकारी दुर्बलिका पुष्यमित्र हुए ।
आर्य रथस्वामी-आर्य रथस्वामी आर्य वज्रस्वामी के द्वितीय पट्टधर थे। आप वसिष्ठगोत्रीय थे और बड़े ही प्रभावशाली थे। आपका अपरनाम आर्य जयन्त भी था, जिसके नाम पर ही जयन्ती शाखा का प्रादुर्भाव हुआ ! आपके जीवनवृत्त के सम्बन्ध में विशेष सामग्री नहीं मिलती।