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________________ मगवान के पूर्वमव २७ - भगवान महावीर के पूर्वभव जैनधर्म अवतारवादो नहीं, किंतु उत्तारवादो है। उसक यहा सुनिश्चित मन्तव्य है कि कोई भी आत्मा या सत्पुरुष ईश्वर या ईश्वर का अंश नहीं होता। पूर्ण शुद्धस्थिति प्राप्त करने के पश्चात् पुनः अशुद्धस्थिति में नहीं आ सकता। अवतार का अर्थ है ईश्वरत्व से नीचे उतर कर मानव बनना। और उत्तार का अर्थ है मानव से भगवान् बनना । जैनधर्म के तीर्थकर नित्यबुद्ध व नित्यमुक्त रूप में रहने वाले ईश्वर नहीं हैं और न वे ईश्वर के अवतार या अंश ही है। उनकी जीवन गाथाओं से स्पष्ट है कि उनका जीवन भी प्रारम्भ में हमारी ही तरह राग-द्वेष आदि से कलुषित था । परन्तु संयमसाधना एवं तपः आराधना करके उन्होंने जीवन को निखारा था। एक जीवन की माधना से नही, अपितु अनेक जन्मों को माधना-आराधना से वे तीर्थकर बने। आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूणि, त्रिषष्टि-शलाकापुरुषचरित्र, महावीरचरियं, और कल्पसूत्र की विभिन्न टीकाओं में महावीर के सत्ताईस पूर्व भवों का वर्णन है और दिगम्बराचार्य गुणभद्र रचित उत्तरपुराण में तेतीस भवों का निरूपण है । इसके अतिरिक्त नाम, स्थल तथा आयु आदि के सम्बन्ध मे भी दोनों परम्पराओं में अन्तर है३६ किंतु इतना तो स्पष्ट है कि उनका तीर्थकरत्व अनेक जन्मों की साधना का निश्चित परिणाम था । प्रश्न हो सकता है-सत्ताईस पूर्वभवों का ही निरूपण क्यों किया गया है ? उत्तर है-किसी भी जीव के भवभ्रमण की आदि नही है, अतएव पूर्वभवों की गणना करना भी सम्भव नहीं है, तथापि जिस पूर्वभव से मोक्षमार्ग की आराधना का आरम्भ होता है, उसी भव से पूर्वभवों की गणना की जाती है। इम दृष्टि से उमी भव एवं उसी जन्म का महत्व है जिस भव तथा जिस जन्म में मोक्षमार्ग के प्रथम चरण रूप सम्यग्दर्शन, अथवा सदबोधि की प्राप्ति होती है। महावीर के जीव ने नयमार के भव में ही सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन प्राप्त किया था, अतः उसी भव से उनके पूर्वभवों की परिगणना की गई है। यहाँ एक बात स्मरण रखना चाहिए कि सत्ताईस भवों की जो गणना है, वह भी क्रमबद्ध नहीं है। इन भवों के अतिरिक्त अनेक बार उन्होंने नरक, देव आदि के भव भी
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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