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________________ २०१ माणेहि य उप्पयमाणेहि य उज्जोविया यावि होत्था॥१२४॥ जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सम्बदुक्खप्पहीणे सा णं रयणी बहूहिं देवेहि य देवीहि य ओवयमाणेहि य उप्पयमा. णेहि य उप्पिंजलगमाणभूया कहकहगभूया या वि होत्था ॥१२५॥ ___ अर्थ-जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर कालधर्म को प्राप्त हुए, यावत् उनके सम्पूर्ण दुःख पूर्ण रूप से नष्ट हो गये, उस रात्रि में बहुत-से देव और देवियाँ नीचे आ रही थी और ऊपर जा रही थीं जिससे वह रात्रि खूब उद्योतमयी हो गयी थी ॥१२४।। जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर कालधर्म को प्राप्त हुए, यावत् उनके सम्पूर्ण दुःख पूर्णरूप से नष्ट हो गये, उस रात्रि में बहुत-से देव व देवियां आ-जा रही थीं, जिससे अत्यधिक कोलाहल और शब्द हो रहा था। मूल: जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव मव्वदुक्खप्पहीणे तं रयणिं च णं जेटठस्स गोयमस्स इंदभूइस्स अणगारस अंतेवासिस्स नायए पेज्जबंधणे वोच्छिन्ने अणंते अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने ॥१२६॥ __अर्थ-जिस रात्रि में श्रमण भगवान् महावीर कालधर्म को प्राप्त हुए, यावत् उनके सम्पूर्ण दु ख नष्ट हो गये, उस रात्रि में उनके पट्टधर शिष्य गौतमगोत्र के इन्द्रभूति अनगार का भगवान् महावीर से जो प्रेम बन्धन था, वह विच्छिन्न हो गया, और इन्द्रभूति अनगार को अन्त रहित उत्तमोत्तम यावत् केवलज्ञान व केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। विवेचन-इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर के ग्यारह गणधरों में प्रमुख थे । वे प्रकाण्ड पण्डित, चौदह पूर्व के ज्ञाता, चतुर्ज्ञानी, सर्वाक्षर सन्निपाती, तेजोलब्धि के धारक और घोरतपस्वी थे।३५ आगम साहित्य का अधिकांश भाग
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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