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कल्प सूत्र
उत्तराषाढा नक्षत्र में च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में आये, यावत् अभिजित नक्षत्र में निर्वाण को प्राप्त हुए ।
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मूल
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तेणं कालेणं तेणं समएणं उसमे णं अरहा कोसलिए जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे आसाढ़बहुले तस्स णं आसाढ़बहुलस्स चउत्थीपक्खेणं सव्वद्वसिद्धाओ महाविमाणाओ तेत्तीस सागरोमद्वितीयाओ प्रणंतरं चयं चइता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भार वासे इक्खागभूमीए नाभिस्स कुलगरस्स मरुदेवीए भारियाए पुव्वरत्तावरत्त कालसमयंसि आहारवक्कंतीए जाव गभत्ताए वक्कते ॥ १६१॥
अर्थ - उस काल उस समय कोशलिक अर्हत् ऋषभ ग्रीष्म ऋतु का चतुर्थ मास, सातवाँ पक्ष अर्थात् आषाढ मास का कृष्ण पक्ष आया, तब उस आषाढ कृष्णा चतुर्थी के दिन जिसमें तेतीस सागरोपम की आयु होती है, उस सर्वार्थसिद्ध नामक महाविमान में से आयुष्य आदि पूर्ण होने पर, दिव्य आहार आदि छूट जाने पर यावत् शीघ्र ही व्यवकर इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, इक्ष्वाकुभूमि में नाभि कुलकर की भार्या मरुदेवो को कुक्षि में रात्रि के पूर्वान्ह और अपरान्ह की सन्धिवेला में, अर्थात् मध्यरात्रि में उत्तराषाढा नक्षत्र का योग होने पर गर्भ रूप में उत्पन्न हुए ।
• पूर्वभव
विवेचन - भगवान् श्री ऋषभदेव के जीव को सर्व प्रथम धन्ना सार्थवाह के भव में सम्यग्दर्शन का आलोक प्राप्त हुआ था । उस समय वे मिथ्यात्व से मुक्त हुए थे, अतः ऋषभदेव के तेरह पूर्व भवों का उल्लेख अनेक ग्रन्थों में किया गया है। (१) धना सार्थवाह - भगवान् श्री ऋषभदेव का जीव एक बार अपर महाविदेह क्षेत्र के क्षितिप्रतिष्ठ नगर में धन्य नामक सार्थवाह हुआ । उसके
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