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________________ १२ कल्प सूच प्रसन्न बना रहे एतदर्थ राजा ने अपने राज्य के तीन सुप्रसिद्ध वैद्यों को बुलाया और उनसे कहा—“वैद्यराज ! ऐसी औषध बतलाओ जिसके सेवन से मेरा पुत्र गुलाब के फूल की तरह सदा खिला रहे ।" उन वैद्यों में से प्रथम वैद्य ने कहा- " राजन् ! मेरी औषध में वह चमत्कार है। कि यदि शरीर में किसी भी प्रकार का कोई रोग हो तो सेवन करते ही नष्ट हो जायेगा और यदि शरीर मे रोग नही है तो रोग उत्पन्न हो जायेगा ।" राजा ने कहा - " वैद्यवर ! मुझे ऐसी औषध की आवश्यकता नही है । रोग का निमन्त्रण देने वाली यह औषध किस काम की !" दूसरे वैद्य ने कहा - "राजन् ! मेरी औषध में ग्रसित है तो व्याधि से मुक्त हो जायेगा, यदि शरीर में करेगी, न हानि ही करेगी ।" , अपूर्व शक्ति है । शरीर व्याधि से व्याधि नही तो औषध न लाभ राजा ने कहा- "वैद्यवर ! आपकी औषध तो राख में घी डालने के समान है । इस औषध की भी मुझे आवश्यकता नही है ।" तृतीय वैद्य ने कहा - "राजन् ! मेरी औषध विलक्षण गुणवाली है। यदि शरीर मे रोग है तो उससे मुक्ति मिल जायेगी, रोग नही, तो भविष्य में रोग उत्पन्न नही होगा । इसके सेवन से शरीर में अभिनव चेतना, तथा नवस्फूर्ति का संचार होगा । बल, वीर्य को वृद्धि होगी। शरीर सदा स्वस्थ और मन प्रसन्न रहेगा ।" राजा ने प्रसन्न होकर कहा - "वैद्यवर । तुम्हारी औषाध वस्तुत उत्तम है। राजकुमार के लिए यही उपयुक्त है ।" औषध के सेवन से राजकुमार स्वस्थ, सशक्त और तेजस्वी हो गया । आचार्यो ने प्रस्तुत दृष्टात के द्वारा यह भाव व्यक्त किया है कि कल्प का पालन भी तृतीय - औषध के समान हितावह है। दोष लगने पर भी और दोषमुक्त अवस्था मे भी । दोष लगा है तो शुद्धि हो जाती है और दोष नहीं लगा है तो सदा सावधानी और जागृति रखने से भूल की धूल नही लगती । इस प्रकार कल्प एक रसायन है, जो आत्मा के ज्ञान, दर्शन, वारित्र, तप आदि गुणों को परिपुष्ट करता है। • अस्थिर और अवस्थित कल्प क्यों ? एक जिज्ञासा हो सकती है कि सभी तीर्थङ्करों के श्रमणों का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है, फिर प्रथम, अन्तिम और मध्य के बावीस तीर्थङ्करों के श्रमणों के आचार कल्प में यह अन्तर क्यो है ? अस्थिर और अवस्थित कल्प का भेद क्यों है ? समाधान है - प्रथम तीर्थङ्कर के श्रमण जड़ और सरल होते थे। अजित - आदि बावीस तीर्थङ्करों के काल में श्रमण विज्ञ और सरल होते थे । भगवान् महावीर के
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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