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________________ साधना काल : कूटपूतना का उपाय १७३ रात में भी भगवान् वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ खड़े थे। उस समय कूटपूतना (कटपूतना) नामक व्यन्तरी देवी वहाँ बाई । भगवान् को ध्यानावस्था में देखकर उसका पूर्व-वैर उद्बुद्ध हो गया। वह परिब्राजिका का रूप बना कर मेघधारा की तरह जटाओं से भीषण जल बरसाने लगी और भगवान् के कोमल स्कंधों पर खड़ी होकर तेज हवा करने लगी। बर्फ-सा शीतल वह जल और पवन तलवार के प्रहार से भी अधिक तीक्ष्ण प्रतीत हो रहा था, तथापि भगवान ध्यान से विचलित नही हुए। उस समय समभावों की उच्च श्रेणी पर चढ़ने से भगवान् को विशिष्ट अवधिज्ञान (परम अवधिज्ञान) की उपलब्धि हुई। परीषह सहन करने की अमित क्षमता को देखकर कूटपूतना अवाक् थी, विस्मित थी। प्रभु के धैर्य के समक्ष वह पराजित होकर चरणों में झुक गई और अपने अपराध के लिए क्षमायाचना करने लगी। २७५ गोशालक भी छह मास तक पृथक् भ्रमण कर अनेक कष्ट पाता हुआ आखिर पुन: महावीर के पास आ गया। भगवान वहाँ से परिभ्रमण करते हुए भद्दिया नगरी पधारे । चातुर्मासिक तप तथा आसन व ध्यान की साधना करते हुए छट्ठा वर्षावास वहीं पर किया। वर्षावास पूर्ण होने पर नगर के बाहर पारणा कर मगध की ओर प्रयाण किया। मगध के अनेक ग्रामो में घूमते हुए आलंभिया पधारे । चातुर्मासिक तप के माथ ध्यान करते हुए सातवाँ चातुर्मास वहाँ पूर्ण किया ।२७६ चातुर्मासिक तप का नगर के बाहर पारणा कर कुडाग-सन्निवेश और फिर मद्दनसनिवेश पधारे । दोनों ही स्थलों पर क्रमशः वासुदेव और बलदेव के आलय (मंदिर) में स्थिर होकर ध्यान किया। __ वहाँ से लोहार्गला पधारे। उस समय लोहार्गला के पड़ोसी राज्यों से कुछ संघर्ष चल रहे थे, अतः वहाँ के सभी अधिकारीगण आने जाने वाले यात्रियों से पूर्ण सतर्क रहते थे। परिचय के बिना राजधानी में किसी का भी प्रवेश निषिद्ध था। भगवान् से भी परिचय पूछा गया, पर वे मौन थे । परिचयाभाव से अधिकारी उन्हें निगृहीत कर राजसभा में ले गये। वहाँ अस्थिक ग्राम मे उत्पल नैमित्तिक आया हुआ था। उसने ज्यों ही भगवान को देखा त्यों ही
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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