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________________ महत् विमल-वासुपूज्य-अयांस-शीतल-सुधिषि-वन्दप्रम २४३ मूल : विमलस्स णं जाव प्पहीणस्स सोलस सागरोवमाई विडकताई पन्नहि च सेसं जहा मल्लिस ॥१७॥ अर्थ-अर्हत् विमल को यावत् सर्व दुःखों से पूर्णतया मुक्त हुए सोलह सागरोपम व्यतीत हो गये, और उसके पश्चात् पैंसठ लाख वर्ष व्यतीत हुए इत्यादि सभी जैसा मल्लि भगवती के सम्बन्ध में कहा वैसा ही जानना। मूल : वासुपुज्जस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स छायालीसं सागरोवमाई विइकंताई सेसं जहा मल्लिस ॥१७॥ अर्थ-अर्हत् वासुपूज्य को यावत् सर्व दुःखोंसे पूर्णतया मुक्त हुए छियालीस सागरोपम जितना समय व्यतीत हुआ, और उसके बाद पैंसठ लाख वर्ष व्यतीत हो जाने पर, इत्यादि सभी वृत्त जैसे मल्लि भगवती के सम्बन्ध में कहा वैसे ही जानना। मल: सेज्जंसस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स एगे सागरोवमसए विइक्वते पन्नहिं च सेसं जहा मल्लिस्स ॥१८॥ ___अर्थ-अर्हत् श्रेयांस को यावत् सर्व दुःखों से पूर्णतया मुक्त हुए एक सौ सागरोपम जितना समय व्यतीत हो गया। उसके पश्चात पैंसठ लाख वर्ष व्यतीत होने पर इत्यादि सभी जैसे मल्लि भगवतो के सम्बन्ध में कहा, वैसे ही जानना । मल: सीयलस्स णं जाव प्पहीणस्स एगा सागरोवमकोडी तिवासअड्ढनवमासाहियबायालीसवाससहस्सेहिं उणिया विकता
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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