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________________ २६२ प्रथम पक्ष अर्थात् जब चैत्र मास का कृष्ण पक्ष आया तब चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन पिछले प्रहर में जिनके पीछे मार्ग में देव, मानव और असुरों को विराट मण्डली चल रही है ऐसे कौशलिक अर्हत् ऋषभ सुदर्शन नामक शिविका में बैठकर यावत् विनीता राजधानी के मध्य-मध्य में होकर निकलते हैं। निकलकर जिस ओर सिद्धार्थ वन नामक उद्यान है, जिस तरफ अशोक का उत्तम वृक्ष है, उस तरफ आते हैं, आकर के अशोक के उत्तम वृक्ष के नीचे, शिविका खड़ी रखते हैं। इत्यादि पूर्व कहे हुए के समान यहाँ भी कथन करना चाहिए । यावत् स्वयं अपने हाथों से चार मुष्टि लोच करते है। उन्होंने उस समय पानी रहित षष्ठ भक्त का तप कर रखा था। आषाढा नक्षत्र का योग होते ही उग्रवंश के, भोगवंश के, राजन्यवश के और क्षत्रियवंश के चार हजार पुरुषो के साथ एक देवदूष्य वस्त्र को लेकर मुंडित होकर गृहवास से निकलते हैं और अनगार-दशा को स्वीकार करते हैं। विवेचन-भगवान ने चार हजार साधको को अपने हाथ से प्रव्रज्या प्रदान नही की, किन्तु उन्होंने भगवान् का अनुकरण कर स्वयं लुचन आदि क्रियाएं की। श्रमण बनने के पश्चात् भगवान् अखण्ड मौनव्रती बनकर एकात-शान्त स्थान मे ध्यानस्थ होकर रहने लगे। घोर अभिग्रहों को ग्रहण कर अनासक्त बन भिक्षा हेतु ग्रामानुग्राम विचरण करते, पर भिक्षा और उसकी विधि से जनता अनभिज्ञ होने से भिक्षा उपलब्ध नहीं होती। वे चार सहस्र श्रमण चिरकाल तक यह प्रतीक्षा करते रहे कि भगवान् मौन छोड़कर हमारी सूधबुध लेंगे । सुख-सुविधा का प्रयत्न करेंगे, पर भगवान् आत्मस्थ थे, कुछ बोले नहीं । वे श्रमण भूख प्यास से संत्रस्त हो सम्राट भरत के भय से पुनः गृहस्थ न बनकर वल्कलधारी तापस आदि हो गये । २ वस्तुतः विवेक के अभाव में साधक साधना से पथभ्रष्ट हो जाता है । भगवान् ऋषभदेव अम्लान चित्त से, अव्यथित मन से भिक्षा के लिए नगरों व ग्रामों में परिभ्रमण करते । भावुक मानव भगवान् को निहार कर भक्ति भावना से विभोर होकर अपनी रूपवती कन्याओं को, सुन्दर वस्त्रों को,
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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