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________________ कल्प सूच जालंधरसगोत्ताए कुaीओ तिसलाए खत्तियाणीए वासिसगोare कुच्छिसि गन्भत्ताए साहरिए तं रयणिं च णं सा तिसला खत्तियाणी तंसितारिस गंसि वासघरंसि भितरओ सचित्तकम्मे बाहिरओ दूमियघट्टमट्ठे विचित्तउल्लोयतले मणिरयणपणासियंधयारे बहुसमसुविभत्तभूमिभागे पंचवण्णसर ससुर हिमुक्कपुप्फपु' जोवयारकलिए कालागरुपवरकु दुरुक्कतुरुक्कडज्यंतधूवमघमघें तगंधुद्ध याभिरामे सुगंधवरगंधगंधिए गंधवट्टिभूए तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सालिंगण वट्टिए उभओ बिब्बोयणे उभओ उन्नये मज्के णयगंभीरे गंगापुलिनवालुउद्दालसालिसए तोयवियखोमि यदुगुल्लपट्टपडिच्छन्न सुविरहयरयत्ताणे रत्तंसुयसंवुए सुरम्मे आयीणगरूयवूरनवणीयतूल फासे सुगंधवरकुसुमचुण्णसयणोवयारकलिए पुव्वरत्त वरत्तकालसमयंमि सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमेयारूवे ओराले चोइस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा |३३| ७८ अर्थ -- जिस रात्रि में श्रमण भगवान् महावीर जालंधरगोत्रीया देवानंदा ब्राह्मण की कुक्षि से वासिष्ठगोत्रीया त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में गर्भरुप में संस्थापित किए गए, उस रात्रि में वह त्रिशला क्षत्रियाणी भव्य भवन में प्रचला निद्रा ले रही थी । उस वासगृह का आभ्यंतरीय भाग चित्रों से चित्रित था, बाह्यभाग चूने से पोता हुआ था और घिसकर चिकना व चमकदार बनाया हुआ था। ऊपर छत में विविध प्रकार के चित्र बनाए हुए थे । मणि रत्नों की जगमगाहट ज्योति से वहां का अन्धकार नष्ट हो गया था, तल-भाग ( भूमि भाग - फर्श ) सम और सुरचित था, उस पर पाँच वर्णों के सरस-सुरभित- सुमन यत्र तत्र बिखरे हुए थे । वह वासगृह काले अगर, उत्तम कुन्दरु, लोमान, आदि विविध प्रकार की धूप से महक रहा था । अन्य भी सुगन्धित पदार्थों के सौरभ से वह सुरभित था। गंध द्रव्य की गुटिका की तरह वह सुगन्धित था । ऐसे श्रेष्ठ वासगृह में वह उस प्रकार के पलंग पर प्रसुप्त थी जिस पर प्रमाण
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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