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________________ १०४ अहियपेच्छणिज्जं महग्यवरपट्टणुग्गयं सहपट्टभत्तिसतचित्तमाणं ईहामियउसहतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरखणलयपउमलयभत्तिचित्तं अभितरियं जवणियं अंछावेइ, अंछावेत्ता नाणामणिरयणभत्तिचित्तं अत्थरयमिउमसूरगोत्थयं सेयवस्थपच्चत्थुयं सुमउयं अंगसुहफरिसगं विसिहतिसलाए खत्तियाणीए भदासणं स्यावेइ ॥६३॥ ___ अर्थ-मज्जनगृह से बाहर निकलकर (सिद्धार्थ) जहां बाह्य उपस्थान शाला है, वहां पर आते हैं । वहां आकर के सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुंह कर बैठते हैं । बैठकर अपने से उत्तर पूर्व दिशा में (ईशान कोण में) श्वेत वस्त्र से आच्छादित और जिन पर सरसों आदि से मांगलिक उपचार किए गये हैं ऐसे आठ भद्रासन लगवाए । लगवाकर के अपने पास से न अतिसन्निकट और न अतिदूर विविध मणिरत्नों से मण्डित, बहुत दर्शनीय, व महामूल्यवाली, बड़े और प्रतिष्ठित नगर में निर्मित पारदर्शक पट्टसूत्र पर सैकड़ों चित्रों से चित्रित की हुई, ईहामृग, वृषभ, अश्व, मनुष्य, मगर, पक्षी सर्प, किन्नर, रुरु (मृग विशेष), अष्टापद, चमरीगाय, हस्ती, वनलता, पद्मलता आदि के चित्र खिचे हुए ऐसी अन्त:पुर में लगाने योग्य यवनिका (पर्दा) लगवाता है । यवनिका के अन्दर के भाग में विविध मणि-रत्नों से जटित, चित्रविचित्र, तकियेवाला, मलायम गद्दीवाला, श्वेत वस्त्र से आच्छादित, अत्यधिक मृदु, शरीर के लिए सुखकारी स्पर्शवाला विशिष्ट प्रकार का भद्रासन त्रिशला क्षत्रियाणी के लिए लगवाता है । - स्वप्न-पाठक को बुलाना मूल : भद्दासणं रयावित्ता कोड बियपुरिसे सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अटुंगमहानिमित्तसुत्तस्थपारए विविहसत्थकुसले सुविणलक्खणपाढए सदावेह ॥६॥
SR No.035318
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherAmar Jain Agam Shodh Samsthan
Publication Year1968
Total Pages474
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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