Book Title: Anusandhan 2013 07 SrNo 61
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Catalog link: https://jainqq.org/explore/520562/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हेमचन्द्राचार्य मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसुत्त, ५२९) अनुसन्धान - ६१ प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगैरेनी पत्रिका विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क- खण्ड २ संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि कान मालिामामविकबाउयानंदचकनि वतीधितिराव सस्ता नितीचश्माचे स्वप्नीमानचिरमचिरातेदन:वनद्या कोति:उकवादिविन्दमच.सगरमत्राकानदाबस्फरत्र नवदुग्धवलहलाधाहम्फ23aadव्यपा हो किमविगइनागरवनादप्तमः स्चतिमीमात्रफल जोधुवाइनत्रितंत्रीमanमरातामापसेनेक' लकनवेज चनिनावरेचरमनपलोविम्वपालनपाले धानबालमा करावालगते/ बजनतालेकरालेदन्तिालेस्रलदइनमा उसमुपदेशविदलितस्मरयेशादेशानिजपदपवित्राविदधता-गोष्टी केतनवःतपदेदलपवनउपाः ६क्तहस्त्रारत्रयूडकगुण्डन रमदाहसंमतताविपरमप-न्वयनशिप्रोमा मना-मबत्र-विविदिमायादृमुरमेपदीनेः यद वप्रतिश्रमामारस्वत्तोक्रारम्नुकसारापनान्दधिनिपिनमा वनम-प्रबनजरवलनतनयत्रघमवर्गबानगीवएच.स विधात्रा वात्मतत्वेनसनाशययावणमात्रायुनकनमक घवानीपमानाकिसानासपातमञ्चमस्तततान १ अनौचंदेरे: कोकाचेमवतारमालम्पाका कावासाविकजवानाचमातोशायमासकीय सहनि वामपदिनेउरामला बेक्त्रजधानकचातेजहरूविनामदार पुलिसangसत्स्यपादत्रसानिंत्रोपनी पवयरिविते:१मळाडावसाकारलापताजापनंजीफारसा वनअधन्नाराजगरवणनन्यासलाजनमगमNEL वाकवनगाहपत्र६िरललामावगरा- शेल सायनोविदिलवकीपरत्र 198ोगिनीनोमर्वस्वहक्क मोमो caमाधीशजनगरानराजविराईः नाव सहवित्रचम विनपत्रा-छाडरवदेवलकाप्रम साराभानमः२.वि शिव्यापाविजयका२१यभाळमाननम्बा विषयावर 17मारपाक :प्रकाशिमदमुदरपदापदमारयाजयोara गादिजाव:मयादिपावनोदिविवारसाचारा२४ उपनामान मर्थकचनचटावरसास्तवमरिसामवतारण सतेन्हामावििमनीत निर्व: कंपितोविच पात्रमथाचिदयिकथमनकु २२दसेच नकरवताकमकावति:२८मारोजचती3:य:कल्पवृशि रमः २२ मा श्री दिउम्मलकरचीन सत्रसएकचकन पाच मनिषकाaतिवामंदिवः महावाछिल वितथ। कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि मा2013 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only MAAAAARALAALALI www.jairielibrary.org (उपा. भुवनचन्द्रजी द्वारा मळेल जोधपुरना एक सचित्र विज्ञप्तिपत्रनुं एक दृश्य, जेमां श्रीऋषभदेवजीनुं स्वरूप तथा चैत्य आलिखित छे. सौजन्य : राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान). Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसुत्त,५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसन्धान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ सम्पादक: विजयशीलचन्द्रसूरि NWooooo 26tml श्रीहेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद २०१३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ६१ आद्य सम्पादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी सम्पादक : विजयशीलचन्द्रसूरि सम्पर्क : C/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६५७४९८१ E-mail : sheelchandrasuri_darshan@yahoo.com प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद-३८०००७ (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१ प्रति : ३०० मूल्य : Rs. 220-00 मुद्रक : क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोनः ०७९-२७४९४३९३) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन.... संशोधननी दुनियामां बे शब्दो समजी राखवा जेवा छे : शोध तेमज संशोधन. देखीती रीते परस्परना पर्यायरूप जणाता आ बन्ने शब्दोना अर्थ भिन्न भिन्न छे एम कोई कहे तो आपणने आश्चर्य न थq जोईए. आपणे बन्नेना अर्थ तपासीए. ___'शोध' एटले जे वस्तु अथवा विचार अथवा सिद्धान्त, जगतमां क्यांय, कोई पासे, क्यारेय होय नहि, तेवी वस्तु के सिद्धान्त कोई प्रथमवार शोधी काढे ते. ते शोधने शोधनार माणस तेनो 'शोधक' कहेवाशे; संशोधक नहि. अने, जे पदार्थ, विचार, सिद्धान्त के पाठ अगाऊ क्यारेक, क्यांक विद्यमान / उपलब्ध होय, परन्तु काळना वहेवा साथे ते क्यांक खोवायो होय के तेमां बाझी गयेला जाळां-भ्रान्ति के भ्रान्त धारणानां आवरणोमां अटवायो होय के तेमां ऊलटसुलट थवाथी तेनां नाम, स्वरूप, प्रकार वगेरे बदलाई गयां होय, तेवा पदार्थ, सिद्धान्त तथा पाठने तेना असल रूपमा खोळी काढवा तथा पुनः प्रतिष्ठित करवा तेनुं नाम 'संशोधन'. ते शोधनारो संशोधक कहेवाशे; शोधक नहि. शोधकर्नु नाम भूगर्भमा रहेली खाणमांथी सोनुं काढी / शोधी आपवानुं छे; तो संशोधक, काम कचरामां खोवायेली सोनानी करचने, धूळधोयानी माफक, पाछी शोधी/वीणी आपवानुं छे. अंग्रेजीमां आ बन्नेने माटे आ बे शब्दो, कदाच, प्रयोजाया छे : Invention (शोध) अने Research (संशोधन). Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'शोध' शब्द सामान्यतः विज्ञानक्षेत्रे वपरातो होय छे. संशोधन शब्दने लगभग बधां ज क्षेत्रो खपमां ले छे. जो के एक वात स्पष्ट थवी जरूरी छे. जगतमां क्यांय/क्यारेय न होय एवं अमे शोध्यु, एम विज्ञानी भले मानता होय; परन्तु क्यांय/क्यारेय न होय एवी वस्तु जगतमां होती ज नथी, ए परम सत्य वीसरवा जेवू नथी. जे क्यांक होय छे, परन्तु मनुष्यने तेना विषे जाणकारी नथी होती; तेवी वस्तुने ज कोईक, क्यारेक, शोधी शकतो होय छे. तेणे शोधी काढ्या पहेलां ते पदार्थ मात्र कल्पनानो विषय होवाथी, शोधाया पछी बधां तेने मानता थाय छे, अने ए रीते पेलो शोधक तेमनी कल्पनाने श्रद्धामां बदली नाखतो होवाथी, तेनी शोधने 'शोध', अने ते व्यक्तिने 'शोधक' गणवामां आवे छे. __ शोध अने संशोधन – ए बन्नेमां एक बाबत समान छे : बन्ने क्यारे पण आखरी नथी होतां. आजे थनार/थयेल जे शोध अने संशोधन वाजबी अने यथार्थ तेमज कार्यसाधक लागे, ते आवतीकाले, वधु प्रमाणो उपलब्ध थये गेरवाजबी, खोटां अने कार्यबाधक पण लागी ज शके. शोधके अने संशोधके, आथी ज, खुल्लुं मन राखq जोईए. - शी. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञप्तिपत्रोनो स्वाध्याय १-६ ७. ८. १३. १४. अनुक्रम पं. श्रीशान्तिसुन्दरगणिलिखितं पत्रषट्कम् १. स्तम्भतीर्थस्थ-श्रीसोमसुन्दरसूरिं प्रति प्रेषितं पत्रम् २. श्रीदेलवाडास्थ-श्रीदेवसुन्दरसूरिं प्रति प्रेषितं पत्रम् ३. सिद्धपुरस्थ - श्रीदेवसुन्दरसूरिं प्रति प्रेषितं विज्ञप्तिपत्रम् ४. श्रीगुणरत्नसूरिं प्रति प्रेषितस्य पत्रस्यांऽशः ५. श्रीसाधुरत्नसूरिं प्रति प्रेषितस्य विज्ञप्तिपत्रस्यांऽशः ९ - १०. श्रीमेघचन्द्रमुनेः पत्रद्वयम् ११. १२. २५. २६. २० २८ ३२ ६. सिद्धपुरस्थ-श्रीदेवसुन्दरसूरिं प्रति प्रेषितस्य विज्ञप्तिपत्रस्यांऽशः ३७ श्रीविजयसेनसूरिं प्रति उपाध्याय - श्रीसत्यसौभाग्यस्य लेख: राजधनपुरस्थित श्रीविजयसेनसूरिं प्रति ४१ पं. श्रीमेरुविजयलिखितं विज्ञप्तिपत्रम् २७. ४९ ५८ पत्तननगरस्थ-श्रीविजयसिंहसूरिं प्रति मण्डपदुर्गस्थ श्रीमेघचन्द्रमुनेः पत्रम् ६९ पुरबन्दिरस्थ - श्रीविजयप्रभसूरिं प्रति राजनगरतः पण्डित श्रीनयविजयस्य लेख: श्रीविजयप्रभसूरिं प्रति पं. श्रीदर्शनविजयस्य महासमुद्रदण्डकमयो लेखः १५-१६. महोपाध्याय - श्रीयशोविजयगणिलिखितं लेखद्वयम् १७ - १८. पं. श्रीतत्त्वविजयस्य पत्रद्वयम् १९. २०. जीर्णदुर्गस्थ -श्रीविजयप्रभसूरिं प्रति सादडीनगरतो श्रीमेरुचन्द्रमुनेः पत्रम् श्रीपद्मानन्दमुनिलिखितो विज्ञप्तिलेखः समीनगरस्थ-तपगच्छपतिं प्रति सिद्धपुर-लालपुरतो श्रीविद्याविजयस्य पत्रम् २१. २२. २४. २३. श्रीजिनसुखसूरिं प्रति श्रीलब्धिविजयानां विज्ञप्तिः श्रीजिनलाभसूरिं प्रति वाचक - श्रीजीवनदासस्य लेख: श्रीलक्ष्मीचन्द्राचार्यं प्रति मुनिपरमानन्दस्य लेख: जेसलमेरुस्थ - श्रीलक्ष्मीचन्द्राचार्यं प्रति विक्रमपुरतो मुनिश्रीपरमानन्दस्य लेख: श्रीरामचन्द्रसूरिं प्रति श्रीरघुनाथमुने: पत्रम् (सं. १८८५) श्रीविजयचन्द्रसूरिं प्रति वाचक-श्रीविजयचारित्रस्य लेख: श्रीजिनसुखसूरिं प्रति उपा. श्रीविद्याविलासगणिनो लेख: 7 १ १ ९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ७६ ८७ ९३ ९६ १०५ ११९ १२७ १२९ १३३ १३६ १३७ १३९ १४३ १४७ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 श्रीतपगच्छपतिं प्रति पं. श्रीदेवविजयलिखितो विज्ञप्तिलेखः जीर्णदुर्गस्थ -वाचक-श्रीविनयविजयं प्रति श्रीहीरचन्द्रमुनेः पत्रम् पत्तननगरस्थ-वाचकलावण्यविजयं प्रति श्रीमेघचन्द्रमुनेः पत्रम् वाचक श्री अमरचन्द्रं प्रति मुनिश्रीकर्मचन्द्रस्य लेख: मङ्गलपुरस्थ-श्रीलब्धिचन्द्रविबुधं प्रति वीरमग्रामतो श्रीगुणचन्द्रस्य विज्ञप्ति: । कोविदवरेण्य-श्रीपुण्यधीरजिन्मुनिवरान् प्रति श्रीजयकीर्तिमुनिलिखितं पलाशम् मधूकपुरस्थ-भ. महीचन्द्र - मेरुचन्द्रान् प्रति पूषन्पुरतः श्रीउदयविजयस्य लेख: श्रीरत्नविजयमुनिवरं प्रति जयपुरसङ्घस्य पत्रम् श्रीविजयदानसूरिं प्रति प्रेषितं विज्ञप्तिपत्रम् (त्रुटितम्) श्रीहीरविजयसूरिं प्रति प्रेषितं विज्ञप्तिपत्रम् (त्रुटितम्) श्रीविजयसेनसूरिं प्रति प्रेषितं विज्ञप्तिपत्रम् (त्रुटितम्) ३९-४०. श्रीविजयदेवसूरिं प्रति प्रेषितं २८. २९. ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. ३५. ३६. ३७. ३८. ४१. ४२. ४३. ४४. पं. श्रीलावण्यविजयस्य पत्रद्वयम् (त्रुटितम् ) रायधन्नपुरस्थ-श्रीविजयदेवसूरिं प्रति प्रेषितम् श्रीविनयवर्धनलिखितं विज्ञप्तिपत्रम् (अपूर्णम्) श्रीविजयदेवसूरिं प्रति प्रेषितं श्रीहीरचन्द्रमुने: पत्रम् (त्रुटितम् ) श्रीलावण्यविजयगणिनो लेखस्यांऽशः ५५. ५६. ५७. ५८. ४५. ४६. ४७. ४८. ४९. ५०. विज्ञप्तिपत्रम् (त्रुटितम् ) ५१. विज्ञप्तिपत्रम् (त्रुटितम्) ५२-५४. श्रीविजयप्रभसूरिप्रणीताः प्रसादपत्र्यः श्रीज्ञानविमलसूरिप्रणीता प्रसादपत्री श्रीविद्यासागरसूरिप्रणीता प्रसादपत्री (अपूर्णा) १५२ १६३ १६५ १६७ Jain Educationa International १६९ १९५ १९७ २०० श्रीहेमहंसगणिवरं प्रति प्रेषितं विज्ञप्तिपत्रम् २०२ श्रीयशोविजयवाचकलिखितस्य पत्रस्य प्रथमं रूपम् (पत्र - खरडो) २०४ श्रीमेघविजयोपाध्यायप्रणीतं विज्ञप्तिपत्रम् (अपूर्णम्) २०८ पं. श्रीलब्धिविमलेन प्रेषितं विज्ञप्तिपत्रम् (अपूर्णम्) श्रीरङ्गविजयलिखितं विज्ञप्तिपत्रम् (त्रुटितम्) श्रीरूपचन्द्रलिखितं विज्ञप्तिपत्रम् (अपूर्णम्) For Personal and Private Use Only १७३ १७५ १७७ १७९ १८१ १८४ २१० २१६ २१७ २२० २२२ २२४ २३१ २३३ श्रीमेघराजगणिवरं प्रति प्रेषिता श्रीविद्यासागरसूरिप्रणीता प्रसादपत्री २३५ श्रीनागेश्वरभट्टं प्रति श्रीवृद्धिविजयेन प्रेषितं पत्रम् २३९ पूर्ति २४१ १८७ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञप्तिपत्रोनो स्वाध्याय 'अनुसन्धान'ना विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्कनो बीजो खण्ड प्रगट करतां अनेरो आनन्द अनुभवाय छे. जो के बे खण्ड वच्चे समय धारवा करतां वधु गयो छे, तो पण एक सरस काम थयुं छे तेनो परितोष आ विलम्बने सह्य बनावे छे. आ खण्डमां ५८ नाना-मोटा पत्रो प्रकाशन पामे छे. आ पत्रोनी मूळ सामग्री प्राप्त करवामां, ते पछी तेने उकेलवामां तेमज तेनुं लिप्यन्तर करवामां, पछी तेनु सम्पादन - सम्मान करवामां खास्सो समय वह्यो छे. दरमियान, विहारयात्रा तथा अन्यान्य प्रासङ्गिक व्यस्तता पण रहे ज. ते बधुं छतां आ खण्ड तैयार थई शक्यो छे तेनो भारे परितोष छे. __ आ खण्डमां प्रकाशित पत्रो पैकी २५ पत्रो (पत्र क्र. ८, ११, १४ थी १९, २४, २७ थी ३०, ३५ थी ३७, ३९, ४०, ४२, ४९, ५२, ५३, ५५, ५६, ५८)नुं सम्पादन मुनि श्रीसुयशचन्द्रविजयजी तथा मुनि श्रीसुजसचन्द्रविजयजीए कर्यु छे. आ पत्रो तेमज अन्य अनेक पत्रोनां सांप्रत स्थान (कया भण्डारमा छे ते) शोधवानं. ते ते स्थानना कार्यवाहको अथवा तो माध्यमरूप मुनिवरो/गृहस्थोनो सम्पर्क करी, तेमने अनुकूळ बनावी, ते ते पत्रोनी हस्तप्रतोनी नकल मेळववानु, अने ते पछी ते ते पत्रोने मद्रण माटे उचित रूपमां तैयार-सम्पादित करवानुं कार्य, भारे खंत अने चीवट साथे, आ बन्ने मुनिवरोए कर्यु छे. आ माटे ते बे बन्धु मुनिवरोने धन्यवाद आपीए तेटला ओछा छे. मुनि श्रीत्रैलोक्यमण्डनविजयजीए ५८ पैकी १८ पत्रो (पत्र क्र० ७, १२, १३, २०, २३, ३२, ३४, ३८, ४१, ४३ थी ४८, ५०, ५१, ५४)नुं सम्पादन कर्यु छे. आ अङ्कना प्रूफवाचननी जवाबदारी पण, महदंशे, तेमणे ज स्वीकारी छे. पत्र क्र. २६- सम्पादन मुनि कल्याणकीतिविजयजीए तथा पत्र १ थी ६नुं सम्पादन मुनि विमलकीर्तिविजयजीए करेल छे. पत्र ९-१० नुं सम्पादन आ. श्रीश्रीचन्द्रसूरिजीए तथा पत्र ५७, सम्पादन पं. अंकित शाहे करेलुं छे. पत्र क्र. २१, २२, २५, ३१, ३३ नुं काम आ. शीलचन्द्रसूरि द्वारा थयुं छे. अलबत्त, अलग अलग व्यक्तिओ द्वारा थयेल लिप्यन्तरादिरूप सम्पादन पछी पण, ते तमाम पत्रोनुं पुनर्वाचन अने शक्य सम्मान पण करवानुं तो थयुं ज छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ 3 अत्रे प्रकाशित पत्रोनी हस्तप्रतो के तेनी जेरोक्स नकलो विविध संस्थाओ के व्यक्तिओ तरफथी प्राप्त थयेल छे, ते सहुनो उल्लेख तथा ऋणस्वीकार कर्या विना आ नोंध अधूरी ज गणाय. ते नामो आ प्रमाणे छे : १. अभय जैन ग्रन्थालय - बीकानेर २. राजस्थान प्राच्यविद्या.शोध प्रतिष्ठान - जोधपुर महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाशन शोधकेन्द्र - जोधपुर श्रीलावण्यविजय जैन ज्ञानभण्डार - राधनपुर शेठ आणंदजी कल्याणजी पेढी जैन ज्ञानभण्डार - लींबडी ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर - अमदावाद ७. श्रीकैलाससागरसरि ज्ञानमन्दिर - कोबा ८. श्रीनेमिविज्ञानकस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर - सूरत ९. श्री प्रेमल कापडिया - मुम्बई १०. मुनि श्रीधुरन्धरविजयजी - डीसा ११. जैन आत्मानन्द सभा - भावनगर १२. जैनानन्द पुस्तकालय - सूरत १३. कान्तिविजय शास्त्रसंग्रह - वडोदरा १४. सागरगच्छ जैन ज्ञानभण्डार - पाटण आमां मुनि श्रीधुरन्धरविजयजीए पोताना निजी ग्रन्थागारमाथी केटलाक मूळ पत्रो (क्र. ७, १३, २०, ३४) तथा जेरोक्स पत्रो (क्र. २३, ३८, ४४, ४७, ५१, ५४) आपेल छे. जोधपुर तथा बीकानेरना पत्रोनी नकल मेळवी आपवामां पार्श्वचन्द्रगच्छीय उपाध्याय श्रीभुवनचन्द्रजीए खूब श्रम लीधो छे. तेमनी सातत्यपूर्ण महेनत वगर ते पत्रो (क्र. १ थी ६ तथा अन्य पत्रो) न ज मळ्या होत. राधनपुर, कोबा वगेरेना पत्रोनी नकल मेळववामां साबरमतीना श्रावक बाबुलालजी सरेमलजीए सहाय करी छे. ला. द. विद्यामन्दिरना पत्रो प्राप्त करवामां शेठ श्रीश्रेणिकभाई तथा डॉ. जितेन्द्र बी. शाहनो सहकार मळ्यो छे. आ बधायनो आभार मानतां आनन्द थाय छे. एक कार्य अनेकोना सहयोग विना शक्य नथी होतुं, ए नियम अहीं साचो ठों छे. अंगत संग्रहगत पत्रोने बाद करतां, तमाम पत्रोना छेडे, ते ते पत्रना स्थान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 नो टूंको निर्देश करवामां आव्यो छे, जेथी अभ्यासीओने सुगमता थशे. * अने हवे आपणे पत्रोनो स्वाध्याय करीए : पत्र १ थी ६ एक ज कर्ता/लेखकनी पत्ररचनारूप छे. कर्तानुं नाम छे पं. शान्तिसुन्दर गणि. तेमना आ छ पत्रोनुं संकलन धरावती हस्तप्रति, जोधपुरना मानसिंह शोध केन्द्रमां विद्यमान छे. 'विज्ञप्तिसंग्रह' एवा नामे क्र. ७४९ तरीके त्यां तेनी प्रविष्टि छे. कुल १४ पत्रात्मक आ प्रतमां पत्र १ तथा पत्र ६ नथी. तेना कारणे प्रथम पत्रनो प्रारम्भिक अंश तथा बीजा पत्रमां ४८ थी ७० मा पद्य जेटलो अंश त्रुटित छे. तो बाकीना पत्रो पूरा होवा छतां पत्र ४, ५, ६ना अमुक अंशो ज उपलब्ध थाय छे, पूरेपूरा विज्ञप्तिलेखो नहि. प्रतिना प्रथम पत्रना प्रारम्भे पण कोईक पत्रलेख के काव्यो हशे एम मानवाने मन ललचाय छे. प्रतिना अन्तभागमां, पत्र ६नी समाप्ति पछी ५ काव्यो छे, अने ते पछी "पं. शान्तिसुन्दरगणिविबुधपुरन्दराणां लेखकाव्यानि कियन्ति ॥ " एवो उल्लेख पुष्पिकारूपे उपलब्ध थाय छे. पत्र ४, ५, ६ना अमुक ज- प्रारम्भिक अंशो प्राप्त थया छे, पण पाछळनो अंश मळ्यो नथी, ते अंगे एवी कल्पना करी शकाय के पत्रलेखके ते पाछळनो पत्रांश, जेमां पोताना चातुर्मास क्षेत्रना श्रावक-श्राविकानुं तप अने स्वाध्यायनुं, उत्सवादिनुं, सहवर्ती मुनिगणनां नामादिनुं वर्णन होय ते, ते त्रणे पत्रमां उमेरवा माटे एकसरखो तैयार करी राख्यो होय, अने ते प्रथमना पत्रोमां जोवा मळे छे तेवो ज होय, जे दरेक पत्रनो उपलब्ध अंश पूरो थया पछी जोडी देवानो हशे . ते बधां पद्यो एक ज समान होईने प्रतमां पुनः पुनः ते लख्यां नहि होय. प्रतमां क्यांय लेखन-संवत् के लेखकनो उल्लेख नथी, परन्तु प्रती लखावट तथा स्वरूप जोतां अनुमानतः लेखके स्वहस्ते ज लखी होवानुं अने तेथी ते १५मा सैकानी होवानुं मानी शकाय तेम छे. आ शान्तिसुन्दरगणिए तपगच्छपति श्रीदेवसुन्दरसूरि श्रीसोमसुन्दरसूरि तेमज ते ज परम्पराना महान् आचार्यो श्रीगुणरत्नसूरि, श्रीसाधुरत्नसूरि जेवा गुरुवर्यो उपर पत्रो लख्या छे, ते उपरथी तेओनो सत्तासमय १५ मो शतक छे. तेमणे बे बे गच्छनायको पर पत्र लख्या छे ते जोतां तेमनो आयुःकाल पण घणो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 दीर्घ होय तेम जणाय छे. 'जैन-परम्परानो इतिहास - भाग ३'मां श्री त्रिपुटी महाराजे श्रीशान्तिसुन्दरगणि विषे आ प्रमाणे नोंध करी छे : "पं. शान्तिचन्द्र गणिराज. तेमनां बीजां नामो पं. शान्तिसुन्दरगणि अने पं. शान्तीशगणि पण मळे छे. ते भगवान शान्तिनाथना परम उपासक हता. मोटा तपस्वी हता. कांइक अधूरं छ मासी तप (छ मासना सळंग उपवास) करता हता. तेओ ज्ञानप्रेमी हता. तेमणे सं. १४७८मां खम्भातनी भरूचा पोषाळमां ग्रन्थभण्डारोनी रक्षा माटे नकामा कागळोमांथी दाबडा बनाववानी व्यवस्था गोठवी हती. आ अंगे उल्लेख मळे छे - “पश्चाल्लेखः । संवत् १४७८ वर्षे वैज्ञानिकशिरोमणि पूज्य पं. शान्तिचन्द्रगणिपादैः सर्वं चित्कोशकार्यं मञ्जूषसमारचनादिकमकारि । भारूकच्छशालायां.... श्रीशान्तिसुन्दरगणिभिः चित्कोशमञ्जूषसमारचनादिकृत्यं विदधे ॥" (खम्भात, शां. ताड. भण्डारगत 'पृथ्वीचन्द्रचरित' प्रतनी पुष्पिका). श्री जैन सङ्के पं. शान्तीशगणिना उपदेशथी सं. १४८३मां कुल्पाकतीर्थे श्रीमाणिक्यस्वामीना जिनप्रासादनो जीर्णोद्धार कराव्यो.' (पृ. १६५-१७७, नवी आवृत्ति). उपरोक्त उल्लेखो परथी ख्याल आवे के तेओ केवा विद्वान्, वैज्ञानिक तथा तपस्वी हता. १४-१५मा शतकनो काळ ए परम विद्वान् कविवरो अने ग्रन्थकारोनो प्रभावक काळ हतो, ए सुविदित छे. आ गाळामां सेंकडो जैन मुनिओए काव्य अने अलङ्कारनी चमत्कृतिओथी छलकाती, असंख्य नानी-मोटी रचनाओ करी छे, सिद्धान्तने लगती पण अनेक रचनाओ रची छे. आ काळमां लखायेल त्रिपाठ, पञ्चपाठ वगेरे प्रकारनी, कलात्मक हस्तप्रतिओ पण सर्व रीते स्पृहणीय तथा दर्शनीय बनी छे. आवा पण्डितयुगमां थयेला पं. शान्तिसुन्दरगणि पण संस्कृत काव्यरचनाना प्रकाण्ड विद्वान् हता, एवं तेमना आ विज्ञप्तिपत्रो वांचतां सहेजे समजाय छे. आ विज्ञप्तिपत्रो चातुर्मास दरमियान आवता पर्युषणपर्वनी आराधना पछी शिष्य तरफथी गुरुजनोने लखाता क्षमापना-पत्रो छे. जो के पर्युषण तथा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चातुर्मासने अनुलक्षीने करवामां आवेल धर्माराधना, तपस्या आदिनुं आ पत्रोमां बयान होवा छतां खमतखामणां (क्षमापना ) नुं लखाण क्यांय जोवा मळतुं नथी. परन्तु एवी कल्पना छे के विज्ञप्तिपत्रना ओळिया (Scroll ) मां संस्कृत काव्यमय पत्र समाप्त थया पछी भाषामां खमतखामणांनुं लखाण तथा प्रायः सङ्घना श्रावक वर्गना हस्ताक्षर होवां जोईए. आ तो ते पत्रोना नूतन काव्यात्मक अंशोना संकलनरूप प्रति छे, तेमां ते बधो अंश लखवानुं अनावश्यक गणाय ते तो समजी शकाय तेम छे. आ पत्रो उकेलवा तथा बेसाडवा माटे मुनि विमलकीर्तिविजयजी तथा मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजयजीए घणो श्रम लीधो छे ते अहीं नोंधवं जोईए. * प्रथम पत्र स्तम्भतीर्थ नगरे बिराजता गच्छपति श्रीसोमसुन्दरसूरि उपर लखेलो विज्ञप्तिपत्र छे. पत्रनां प्रथम ६ पद्योमां मङ्गलाचरण पछीनां ४ पद्यो स्तम्भतीर्थना वर्णननां छे. ते पछी ११ थी ५५ सुधीनां पद्यो गुरुना गुणवर्णननां पद्यो छे. आ पद्योमां श्रीसोमसुन्दरगुरुना गुणोनुं जे वास्तविक वर्णन थयुं छे, ते बहु स्पर्शी जाय तेवुं थयुं छे. आ वर्णनमां अत्युक्तिने जाणे के स्थान ज नथी अपायुं ! गुरुना सद्भूत गुणोनुं वर्णन करतां पद्योमां उपमाओ पण एटली सरस गुंथी लेवाई छे के ते उपमाओथी गुरुना वर्णित गुणो वधु जळहळी उठे छे. उदा० पद्य २८मां गुरुने समग्र गणितानुयोग कण्ठे होवानुं विधान छे, अने तेम छतां तेओ तेनुं कथन, मने आवडे छे तेवी जाहेरात पण, अने गणितानुयोगना गम्भीर ज्यां त्यां न कहेवाय तेवां रहस्योनुं प्रकाशन पण, क्यांय करता नथी, एवा गम्भीर चित्तवाळा छे, एवं गुणवर्णन छे; तेना समर्थनमां आपवामां आवेली उपमा जेम सज्जन व्यक्ति पोते करेला परोपकारनी ‘यथा सन् स्वकृतोपकारम्' - - 11 Jain Educationa International - वात जाहेर नथी करतो तेम आ पण गुरुना चित्तनी गम्भीरताने ज व्यक्त करे छे, वर्णवे छे. गुरुना स्वाध्यायधर्मनुं वर्णन पद्य २९मां छे, त्यां 'यद्वद्वणिजः क्रयादौ' 'जेम वणिक लोको धंधाथी न थाके तेम' आवी उपमा आपीने गच्छपति गुरुनी अप्रमाद दशाने केवी सरस वर्णवी छे ! एमना विनीत शिष्योनुं वर्णन पण पद्य ३४मां केटलुं हृदयस्पर्शी थयुं छे ! गुरु हितकारी अने परम पथ्यभूत एवां प्रिय वाक्यो वडे शिष्योने एवी हितशिक्षा आपता के तेमना विनयी - For Personal and Private Use Only - Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्यो, आ जीवनमां ज नहि, पण आगामी जन्ममां पण, आ गुरुथी अन्य कोई पण गुरुनी आज्ञा अने उपासना स्वीकारवा माटे तैयार नहोता थता - अर्थात् जन्मान्तरमां पण आ गुरुनी ज उपासना तथा आज्ञा मळे तेम इच्छता हता. आ पत्र 'लास' नामना गामथी लखेलो छे, ते क्षेत्रनुं वर्णन ५६-५९मां थयुं छे. लास ए राजस्थान (मारवाड)मां आवेलुं एक गाम छे, जे आजे कैलासनगर एवा नामे ओळखाय छे. सम्भवतः आ पत्र ते ज लास गामथी लखायो होवो जोईए. पछीनां पद्योमा वृत्तान्तवर्णन छ : 'कुमारपालप्रतिबोध' नामे शास्त्र पर व्याख्यान चालता होवानी वात (६४), पर्युषणपर्व, नव व्याख्यानो वडे कल्पसूत्रवांचन, पोथीनो वरघोडो, साधर्मिकभक्ति, इत्यादि विगतो छ (६५-६९). साधुओनां नामपूर्वक तेमना व्याश्रयादि ग्रन्थोनां अध्ययन विशे, तेमनां तप तथा योगवहन विशे वर्णन थयुं छे (६९-७३). ७३-८५मां श्रावको-श्राविकाओनी धर्मकरणीनी वात थई छे, तेमां पौषध, छठ्ठ, अट्ठम, उपधान, प्रतिमा, स्थानक तप, योगशुद्धिइन्द्रियजयकषायजय तप, शिवकुमारना छठूतप तथा अन्य तपो कर्यानी नोंध मळे छे. जाल्हा नामे अन्त्यजे पण अट्ठाई करेली तेनो पण उल्लेख (८४) छे.. श्रावको - श्राविकाओनां नामो पण ध्यानार्ह छे. विरूआक (७३), सीहा, नामड, राणा, देवा, लूणा, नउला, भीमा, कीता (७४), लोहा, पीञ्चा (७५) काजा इत्यादि नामो श्रावकनां छे. तेमां काजा अने सीहा वगेरे छ श्रावकोए तो कायोत्सर्गमुद्राए कल्प-श्रवण कर्यानो निर्देश (७७) बहु नोंधपात्र छे. ६२ श्राद्धोए पौषध तथा १२० श्राद्धोए प्रतिक्रमण कर्यानी नोंध, ते गामनी नानी वसतिसंख्यानो संकेत आपे छे. श्राविकाओनां नामो जेवां के रूपी, सूमी, भूडी, सांपी, मणगू, लूणी, पांची, बोखी वगेरे, मारवाडी नामोनी खासियत धरावता लागे. ८७ थी ९६ पद्योमां गच्छपति पासेना मुनिवरोनां नामो तथा तेमना गुणगणोनुं वर्णन थयुं छे. ९९मां पद्यमां प्रवर्तिनी साध्वी कल्याणचूलानु नाम, तेमज ९७-९८मां तेमनुं गुणवर्णन थयुं छे. पछीनां पद्योमां श्रावकोनी विशिष्टताओ वर्णवीने तेमनां नाम लीधा वगर तेमने धर्मलाभ पाठव्या छे. १०९मां पोतानी पासेना साधु-श्रावकादि तरफथी विनयनिवेदन छे, अने ११०मा पद्यमां आसो वदि ६ना पत्र लख्याना सूचन साथे पत्र समाप्त कर्यो छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 (२) बीजो पत्र देलवाडा-स्थित गच्छपति श्रीदेवसुन्दरसूरि प्रत्ये अजमेरथी पं. शान्तिसुन्दरे लखेलो १५१ श्लोकप्रमाण पत्र छे. आ पत्रना प्रारम्भे २४ तीर्थङ्करनी स्तुतिना २४ श्लोको छे, जे स्वतन्त्र स्तोत्रकाव्य तरीके आपणां प्राचीन स्तोत्रकाव्योमां स्थान प्राप्त करी शके तेवा प्रासादिक तथा सरस स्तोत्रकाव्यात्मक छे. २८-३१ मां देलवाडामुं, ३२-४७ मां गुरुना गुणोनुं वर्णन छे. ४८-७० श्लोको न होवाथी आ वर्णन तथा गुरुनुं नाम वगेरे अधूरुं रहे छे. ७१-७२मां अजमेरनुं वर्णन छे, तेमां त्यांना 'आनासागर' अने 'वीसलसमुद्र' नामना बे विशाळ जळाशयोनो उल्लेख ऐतिहासिक गणाय तेवो छे.. ७७मा श्लोकमां देवदत्त वाचकना सांनिध्यमां पोते (पत्रलेखक) पद्मानन्दकाव्य पर व्याख्यान आपता होवानो उल्लेख छे. तो पर्युषणमा लिम्बा मन्त्री द्वारा थयेल पर्वोत्सवमां कीर्तिसुन्दरमुनिना सहकारथी पोते कल्प-वांचन कर्यानो निर्देश छे (७९-८०). आ पछीना श्लोकोमा पर्वसम्बन्धी क्रिया-कर्तव्यो, साधुओ द्वारा तपश्चर्या, भगवतीसूत्रना तथा अन्य सूत्रोनां योगवहन, अध्ययन; साध्वीओ द्वारा दमयन्तीतप, अध्ययन, शिवमाला साध्वीए महानिशीथसूत्रना योगवहन कर्यानो विलक्षण लागे तेवो निर्देश (९६); श्रावकोनी तपस्या तथा धर्मकरणीनो निर्देश, तेमज मटकू, जासू वगेरे श्राविकाओनी धर्माराधनानुं वर्णन, तेओ उपदेशमाला भणती होवानुं वर्णन (१०८) बधुं सविस्तर १११मा श्लोकपर्यन्त छे. ११०मां अनेक तपनां नाम छे, जे अजमेरना लोकोए कर्यां हतां. प्रतिक्रमणनी क्रियामां केटला श्राद्धो जोडायेला तेनो उल्लेख (१००) जोतां एम लागे छे के ते समयमां श्रावको अलग प्रतिक्रमण करतां हशे, साधुओ साथे नहि करतां होय, माटे तेनी संख्या सहित खास नोंध थती होवी जोईए. आ पछी गच्छपतिनी निश्रामा रहेला मुनिवरोने तेमनी विशेषताओ साथे पत्रलेखक स्मरे छे. ११३-२१मां श्रीसोमसुन्दरसूरिनुं वर्णन थयुं छे, जे अहोभावभरेलुं छे. १२२-३९मां विविध मुनिवरोनां नामो-गुणोनुं वर्णन, १४०-४१ मां पोतानी पासेना साधुसाध्वी-श्राविकादि तरफथी वन्दन-निवेदन अने १५१मा पद्यमां ५ नामो श्रावक-श्राविकानां छे अने तेमने माटे "मज्ज्यायः-साध्वीनां" एवो उल्लेख छे ते परथी, ते गृहस्थो पत्रलेखकनां सगां होय तेवो भास थाय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 छे, अने तेमने तेमणे धर्मलाभ पाठव्या छे. शान्तिसुन्दरगणि कदाच देलवाडाना के पछी राजस्थानना होय तेवी अटकळ आवा उलेखथी करी शकाय खरी. पत्रलेखकनुं व्याकरण-ज्ञान अत्यन्त प्रगल्भ लागे छे. काव्यरचना तो मधुर अने प्राञ्जल छे ज, पण व्याकरणनो बोध पण भारे विशद होय तेवू तेमणे करेला शब्दप्रयोगथी समजाय छे. सहोदरीचरीक्रतः (पत्र १, ४५), प्रकटीचरीक्रतः (२, २५), सरीस्म्रता (२,८०) दर्दृश्यते (२, ११६), आवा विरल थता प्रयोगो जे सहजताथी तेमणे कर्या छे, ते हेरत पमाडी जाय छे. 'बेडा' ए समुद्रनी परिभाषानो शब्द छे. वहाणोना काफलाने - समूहने 'बेडा' कहेवाय छे. आ शब्दने संस्कृत बनावी प्रयोजवानुं साहस काबिलेदाद छे. पत्र २ना १३९मा श्लोकमां "बुद्धिबेडाप्रयोगेण, तरतः शास्त्रवारिधिम्" - आवो प्रयोग तेमणे कर्यो छे, ते तेमनी प्रतिभानो संकेत आपनारो छे. आ पत्र भाद्रपद शुदि तेरशे लखायो छे. (३) त्रीजो पत्र लेखक झरिपल्ली (जीरापल्ली हशे ?)मां चोमासुं रह्या हशे त्यारे, सिद्धपुरमा रहेला गच्छपति श्रीदेवसुन्दरसूरि प्रत्ये तेमणे लखेल पत्र छे, जे ८२ पद्यप्रमाण छे. आमां पण विशेषनामोने बाद करतां पूर्व पत्रो जेवोज वर्णनक्रम छे. प्रवर्तिनी तरीके अभयचूला साध्वीनुं नाम छे, ते नोंधपात्र छे. ३५मा पद्यमा झरिपल्लीमा स्थानिक सङ्घ उपरांत पांच अन्य गामोना आवेला सङ्घो साथे पर्युषण कर्यानो उल्लेख ध्यानार्ह छे. आ वखते गच्छपतिनी साथे सोमसुन्दरसूरि न होतां साधुरत्नवाचक छे ते पण अहीं नोंधायुं छे. आसो वदि ५ने सोमवारे आ पत्र लखायो छे. (४) चोथा पत्रनां फक्त ३२ पद्यो ज प्राप्त छे. तेमां मङ्गल-पद्यो (१-३) पछी नगरनुं वर्णन करतां बे पद्यो होवा छतां ते कया नगर माटे छे ते जाणवा मळतुं नथी. कदाच आ वर्णन अधूरुं छे. पद्य ६ थी ३२मां श्रीगुणरत्नसूरिनुं अद्भुत गुणवर्णन थयुं छे. ३२मा पद्यमां तेमनो नामोल्लेख छे. गुणरत्नसूरि ते देवसुन्दरसूरिना परमविद्वान शिष्य हता. तेमणे रचेला क्रियारत्नसमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय पर टीका आदि ग्रन्थो सुप्रसिद्ध छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____15 पांचमो पत्र ४० पद्यप्रमाण छे, ते देलवाडामां चातुर्मास रहेला श्रीसाधुरत्नसूरि उपर कपिलपाटक नामे क्षेत्रमा रहेला पत्रलेखके लखेल पत्रनो अंश छे. कपिलपाटक एटले कयुं गाम ? ते ख्याल आवतो नथी. मङ्गल श्लोको, सूरिवर्णन, वन्दन-निवेदन अने पुनः सूरिवर्णन आटलामां ज पत्र पूरो थाय छे. साधुरत्नसूरि ए देवसुन्दरगुरुना एक प्रधान शिष्य हता, अने तेमनां ज्ञान तथा चारित्र वडे तेओ गच्छमां तथा सर्वत्र घणा आदरणीय हता तेवू विविध स्रोतोथी जाणवा मळे छे. छठ्ठो पत्र फक्त २५ श्लोक प्रमाण छे. ते बाउलुपुर (बावळा ?)- स्थित पत्रलेखके सिद्धपुर-स्थित गुरु देवसुन्दरसूरि पर लखेल छे. आमां पण मङ्गलाचरण, गुरुवर्णन, तथा वन्दन-निवेदन, एटलुं ज प्राप्त छे, आगळनो अंश उपलब्ध नथी. अने आ ६ पत्रो साथे अपेक्षाकृत प्राचीन-१५मा शतकना पत्रो पूरा थाय छे, अने आपणो प्रवेश १७मा शतकनी पत्रसृष्टिमां थाय छे. भाषा, प्रस्तुति, भावोआ बधांमां देखीतो तफावत छे ते तुलनात्मक दृष्टिए जोतां जणाई आवशे. पूर्वपत्रोमां जे सरलता अने वास्तविक प्रतिपादन छे, तेनुं स्थान अहीं कल्पनानी मनभावन सृष्टिए तथा अलङ्कारमण्डित सघन प्रस्तुतिए लई लीधुं होवानुं तरत ज जणाय छे. सातमो पत्र विविध छन्दोमय ६३ पद्यात्मक छे, जे गच्छपति विजयसेनसूरि पर देवगिरि रहेला उपाध्याय सत्यसौभाग्य गणिए पाठवेलो छे. १-६ मङ्गलाचरण, ७-२१ देवगिरिवर्णन, २२-२५ लेखक-नाम-निवेदन. पोतानी लघुता दर्शाववा माटे 'शिष्याणु' एवो प्रयोग प्रचलित छे. अहीं ते ज प्रयोग करवानी रीत जुओ : "व्यणुकसमवायिकारणसदृशः"-द्वयणुकनुं समवायी कारण, न्याय-वैशेषिक दर्शनना मते, परमाणु छे; पोते तेना-परमाणुना जेवा लघु-तुच्छ छे एq अहीं निरूपण छे, ते केटलुं सुरुचिकर लागे छे ! वळी, लेखक विविध दर्शनोना पण प्रखर ज्ञाता जणाय छे, एटले तेओ वारंवार अन्यान्य दर्शनोना भावोनो सरस रीते विनियोग पोतानी वात रजू करवा माटे करी शके छे. दा.त. श्लोक २५, ५४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 इत्यादि. काव्यात्मक कल्पनाओनो तो तेमनी पासे जबरो भण्डार छे, एम एक एक श्लोकमांथी पसार थईए तो ख्याल आवे छे. पद्य २९मां सूर्य, अन्धकार, रात्रि-त्रणेने सांकळीने करेली अतिव्यवहारु लागे तेवी कल्पना केवी हृदयवेधी छे ! तो ३०मा पद्यमां पोते भगवतीसूत्रनुं वांचन करे छे, ते सूत्र माटे, २ लाख ८८ हजार 'पद' धरावतुं सूत्र होवा छतां ते 'चलन' (हलचल) नथी करतुं एवो विरोध दर्शावीने कविए केवी चमत्कृति साधी छे ! ३०-४३ मां पर्युषण अने धर्मकार्योनुं वर्णन छे. ४४-५३मां तातपाद - गच्छपति प्रत्ये विज्ञप्ति-निवेदन छे. ५४-५९मां गच्छपति साथेना मुनिवरोने नामपूर्वक वन्दनादिनुं निवेदन छे. ६० थी ६३मां पोतानी जोडेना मुनिओनां नाम, तेमनी तथा सङ्घनी वन्दना निवेदन अने समापन छे. आ पत्र मुनि श्रीधुरन्धरविजयजीना सङ्ग्रहमांथी मळ्यो छे. (८) - १११ श्लोकोमा विस्तरतो आ पत्र वटपल्लीपुरे स्थित पं. श्रीमेरुविजय गणिए राजधनपुरे विराजता गच्छपति श्रीविजयसेनसूरि उपर लखेल विज्ञप्तिपत्र छे. आखो पत्र पांच छन्दोमय पद्योमां आलेखायो छे. वटपल्ली ते वडाली, अने राजधनपुर एटले राधनपुर. ___ १५ पद्योमा मङ्गलाचरण, १६-३२ पद्यो द्वारा राधनपुर- वर्णन, ३३३६मां वटपल्लीनुं वर्णन, तेमां श्रीविजयदानसूरि-परमगुरुनी चरणपादुकाथी ते अलङ्कृत होवानो उल्लेख (३३) तेमज त्यां श्रीशान्तिनाथ, श्रीपार्श्वनाथ, श्रीमहावीरजिन - आ त्रण प्रभुनां त्रण (?) जिनालयो होवानो उल्लेख (३४) दस्तावेजी विगतो आपे छे. परमगुरु श्रीविजयदानसूरिनी समाधि वडालीमां थई छे ते तो ऐतिहासिक घटना छे ज, ते आ उल्लेखथी स्मरणमां आवे. ३६-३८मां पत्रलेखक पोतानुं वर्णन करतां विज्ञप्तिनुं निवेदन करे छे, तेमां लेखके पोताने 'अतनुमूर्खमुख्यः' तरीके ओळखाव्या छे ते ध्यानार्ह छे. दिवस ऊगे त्यारे सर्जाती विविध स्थितिओनी वात करतां, श्रावकवर्ग पण त्यारे धर्मकरणी करवा सज्ज थाय छे ते वात बहुज रुचिर रीते थई छे (३९१. चलन-चरण. पद छे छतां चरण-चलन नथी; अर्थात् 'अचल' छे; तेनो अर्थ अविचल ज रहे छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____17 ४४). पर्युषण, कल्प-वाचन, सघळां जिनालयोमां (अभयदालयेषु-४७) १७ प्रकारी पूजा, अमारिप्रवर्तन, आरम्भोनी निवृत्ति, याचकोने दान अने तेओ द्वारा गीतगान, सङ्घवात्सल्य, तपस्या, चैत्यपरिवाडी, आ बधां धर्मकृत्योर्नु वर्णन (४६-५०) तेमज आ बधुं थयुं तेनुं कारण 'विजयसेन' एवा नामनो जप छे (५१) तेवू निरूपण बहु प्रगल्भ रीते थयुं छे. ५२-७८मां गुरुनुं वर्णन थयुं छे, जे वांचतां गुरु प्रत्ये लेखकना चित्तमां केवो/केटलो अहोभाव भर्यो हशे तेनो अन्दाज मळे छे. गुरुनुं चित्त केवू स्वच्छ, पवित्र अने स्वस्थ छे ते वातनुं विविध भङ्गीओथी थयेलुं वर्णन, कविनी कल्पनाशक्ति माटे बहुमान जगाडे तेवू छे. ७९-१०१मां कविनो गुरुना सान्निध्य माटेनो तीव्र तलसाट, तेनी प्राप्तिथी ज पोतानुं सघळु सार्थक होवानो स्पष्ट बोध - आ बधुं, हैयांने भींजवी मूके तेवी रीते रजू थयुं छे. १०२-१०७मां गुरु साथेना मुनिगणनुं स्मरण अने त्यारपछी पोतानी साथेना मुनिओनो उल्लेख करवा साथे तेमना वती तथा स्थानिक सङ्घवती वन्दन-निवेदन थयुं छे. आसो वदि १०ना रोज पत्र लखायाना निर्देश साथे पत्र पूर्ण थाय छे. आ पत्र काव्यविश्वनुं एक नवलुं घरेणुं बनी रहे तेवो छे. आनी प्रति (जे०) सूरतना जैनानन्द पुस्तकालयमांना श्रीकमलसूरिपुस्तकोद्धार फण्डज्ञानभण्डारमाथी नरेशभाई मद्रासी द्वारा, तथा वडोदराना श्रीकान्तिविजयजी जैन शास्त्रसङ्ग्रह (आत्मारामजी जैन लायब्रेरी)मांथी श्रीजयेशभाई चूडगर द्वारा मळेल छे, तेना आधारे आ सम्पादन थयेल छे. (९ अने १०) आ बन्ने पत्रोनुं सम्पादन आ. श्रीचन्द्रसूरिजीए कर्यु छे. बन्ने पत्रो अनुक्रमे गच्छपति श्रीविजयसेनसूरि पर तथा श्रीविजयदेवसूरि उपर मेघचन्द्रमुनि द्वारा लखायेला छे. प्रथम पत्र राणकमेरु दुर्ग (राणकपुर)थी राजनगर, अने बीजो पत्र भृगुपुरथी लखायेल छे. बीजो पत्र अपूर्ण प्राप्त छे. प्रथम पत्रमा ८३ पद्यो छे, तेमां थोडोक अंश त्रुटित छे. बीजा पत्रमा ४४ पद्यो छे. पत्र १मां ४+११ पद्योमा मङ्गलाचरण छे. तेमां ४था (सळंग क्रम लईए तो ८मा) श्लोकमां कविए करेली कल्पना आपणने मस्तक डोलाववा विवश करी मूके तेवी छे : “पार्श्वनाथना चरण पर शेषनाग (चिह्नरूपे) बेठो छे; तेना शिरे वळी आख़ी सृष्टिनो भार छे अने ते समुद्रमां ज वसे छे. तेने एकाएक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 पार्श्वनाथ, चमत्कारिक चरित्र सांभरी आव्युं अने तेणे जोरथी माथु धूणाव्यु; ते कारणे खळभळी उठेला समुद्रनां असंख्य बिन्दुओ आकाश तरफ ऊछळ्यां. लागे छे के ते जलबिन्दुओ ज पछी तारला थईने आकाशमां गोठवाई गया छे !" आ ज कल्पना लंबाती लंबाती पछीनां बे पद्योमा अवनवा उन्मेषे प्रगट थती जोवा मळे छे. १२-२२ राजनगर-वर्णन, २३-२४ राणकमेरुदुर्ग-वर्णन, २५थी विज्ञप्ति, -कविनो नामोल्लेख अने पर्युषणसम्बद्ध कार्यकलापवर्णन, ३५ थी ५९ गुरुवर्णन, ६०-६३ विज्ञप्ति तथा प्रणाम. आमां गुरुनुं नाम क्यांय आवतुं नथी; 'तातपाद' शब्दथी ज तेमनो उल्लेख थाय छे, जे विजयसेनसरि परत्वे जणाय छे. ६४६५मां विजयदेवसूरिनुं नामनिर्देश साथे वर्णन छे, तेमां पण तेमने तातपादचरणसेवकलेखे वर्णव्या छे, अने ६७-६८मां वाचक धर्मचन्द्रनं वर्णन थ\ छे ते पत्रलेखकना गुरु होय एम जणाय छे; आ बन्ने पूज्यो तातपादनी साथे हशे तेथी तेमने उद्देशीने वन्दना पाठवता होय तेम लागे छे. सं. १६७०मां बन्ने पूज्यो राजनगरमां चोमासुं साथे रह्या होवानो ऐतिहासिक निर्देश अन्य साधनो द्वारा सांपडे पण छे. एक अनुमान, ६९मा श्लोक विषे विमर्श करतां, एवं पण थई शके के पत्रलेखक पोते विजयदेवसूरि पासे होय, तेमना गुरु पण त्यांज होय, अने तेमना वती (तथा पोतानी पण) वन्दना, तातपादने, पत्रलेखक पाठवता होय ! (६४६८ना सन्दर्भमां). अलबत्त, आ मात्र अटकळ छे. तेने आधार मळतो नथी. वधु वास्तविक तो विजयदेवसूरि तातपाद साथे होय ए ज लागे. मात्र ६४-६८ पद्योनो सम्बन्ध क्यां केम जोडवो ते जरा गुंचवाडो छे, तेथी आवी अटकळ करवा प्रेरावू पडे छे. बीजो, (अर्थात् दशमा क्रमनो) पत्र त्रुटित रूपमां तेमज अधूरो प्राप्त छे. तेमां प्रथम ७ पद्यो मङ्गलनां, ८-१९ नगरवर्णननां (नाम नथी जडतुं), २०मुं पद्य चर्मन्वती (चंबल) नदीना किनारे वसेला भृगुपुर नगरनो तथा २१मुं पद्य त्यांना कल्याणमल्ल नामे राजानो निर्देश आपे छे; त्यांथी आ पत्र लखायो छे. बाकी सामान्य रूढ वातो छे. विशेषमा ३३-४२ पद्योमा विजयदेवसूरि-वर्णन छे. ४३४४मां गच्छपति-निश्रावर्ती वाचक धनविजयजी तथा वा. लावण्यविजयजीनुं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 बहुमानपूर्वक स्मरण छे, अने अहीं पत्र अटकी जाय छे. (११) ११मो पत्र ७० जेटलां पद्यो धरावे छे, अने मण्डपदुर्गे (माण्डूमाण्डवगढ) रहेला मुनि मेघचन्द्रे पत्तन-पाटण-स्थित गच्छपति विजयसिंहसूरिने लखेल छे. आमां पण सामान्य क्रम प्रमाणे १-११ मङ्गल, १२-३२ पाटणवर्णन, ३३-४६ मण्डपदुर्गवर्णन, ४७-५४मां पर्व- तथा पुण्यकृत्योर्नु वर्णन, ५५-६२ गुरुवर्णन, ६३मां विज्ञप्ति, ६५मां गुरुनु तथा तेमना कुलनुं नाम, ६६६८मां गुरुसांनिध्यवर्ती मुनिगणनां नामादि, ६९मां स्वसहवर्ती २ मुनिनां नामादि वांचवा मळे छे. त्यार पछीना गद्यांशमां माण्डूनी नजीकना पडधरीपुर - मयाणी नामे गामनो उल्लेख करीने तेने 'द्विस्थानकयोग्य' (चातुर्मास-योग्य ?) गणावीने तेनो समावेश आदेशपट्टमां करवानी भलामण करी छे. ए समये गच्छपतिओ क्षेत्रादेशपट्टक प्रतिवर्ष बहार पाडता, तेमां विविध क्षेत्रोनां तथा कया क्षेत्रमा कोणे अने केटला मुनिओए चोमासुं करवू तेनां नामो जणाववामां आवतां. तेवा पट्टकमां प्रस्तुत गामना समावेश माटे आ भलामण छे. वधुमां, पत्रलेखकनी योगोद्वहन तथा पदप्राप्ति परत्वे उत्कण्ठा होवानुं निवेदन पण आमां छे. तेमनी ए पण मांगणी छे के हुं विहार करीने आपनी छायामां आवं, त्यारे आपे आ कार्य माटे कोईकने आदेश आपवो. छेल्ले महावीरप्रभुनी ४ श्लोकात्मक स्तुति (थोय) छे. आ पत्र सूरतना श्रीनेमिविज्ञानकस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर तरफथी प्राप्त थयो छे. (१२) . राजनगर (अमदावाद)थी पं. श्रीनयविजयगणिए - पोरबन्दरे विराजता गच्छपति श्रीविजयप्रभसूरि उपर लखेलो आ विज्ञप्तिपत्र १०७ श्लोक प्रमाण छे, अने ते पत्रलेखनपद्धतिनी दृष्टिए एकदम सुघटित - सुआयोजित क्रम धरावतो पत्र छे. पत्रलेखके ज विभागो पाडेला छे ते जोईए तो, १-२७ देववर्णन, पछी १-२४ पुरबन्दिरवर्णन, पछी १-२० राजनगरवर्णन तथा धर्मकृत्यवर्णन, पछी १११ मां गुरुवर्णन, २०-२३ थी विज्ञप्ति, २४-२७मां तत्रस्थित मुनिओनां नामादि, २८-३३मां स्वसहवर्ती मुनिओनां नामादि अने सङ्घ तरफथी वन्दन, अने अन्तिम ३ पद्योमां गर्भित विज्ञप्तिपूर्वक समापन छे. लाभपांचमे आ पत्र लखेलो छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 काव्यचमत्कृति तथा कविप्रतिभानी दृष्टिए जोईए तो आ एक अद्भुत अथवा श्रेष्ठ पत्र छे एम निःसन्देह कहेवू जोईए. १-२७ पद्योमां वीरजिननी स्तवनामां जे विविध भावो अने कल्पनो भर्यां छे ते हृदयने भावविभोर बनाववा समर्थ छे. तेमां पण १२ थी २५ एटलां पद्योमां कविए जे गत-प्रत्यागतरूपे शाब्दिक पुनरावर्तन कर्यु छे ते तो काव्यजगत्मां अजोड गणाय तेवू छे. जुओ - १२मा श्लोकनो पूर्वार्ध - ___ "सेवारसां रक्षदमाश्रयाच्छा भूयादयार त्वयि मे क्षतांहः ।" अने हवे जुओ तेनो उत्तरार्ध - “हताक्षमेऽयि त्वरया दयाभू-च्छायाश्रमादक्षरसारवासे ॥" । पूर्वार्धमां जे अक्षरो जे क्रमे छे, ते ज बधा अक्षरो उत्तरार्धमां ऊलटा क्रमे छे, ते वातनो ख्याल अक्षरेअक्षर मेळवनारने आवी जशे. आवां १ नहि पण सळंग १४-१४ काव्यो रचवां, ए साधारण प्रतिभानुं काम नथी ज. आ पत्र पं. नयविजयजीए लख्यो छे. उपाध्याय यशोविजयजीना तेओ गुरु छे. तेमनी साथेना साधुओमां विबुध जसविजय (२८)नुं नाम छे ज. वस्तुतः आ पत्रनी काव्यरचना यशोविजयजीनी ज रचना छे एम आ पत्रनो अभ्यास करतां सहजस्पष्ट जणाई आवे तेम छे. तेमणे पोताना गुरु वती अने गुरुना नामे आ पत्र लखेल होय तो ते बनवाजोग छे, अने आमां कशुं अनुचित/अजुगतुं पण नथी. आनन्द एटलो के आ रीते उपाध्यायजीनी एक वधु रचना-प्रसादी आपणने प्राप्त थई शके छे. (१५मो पत्र अने तेमांनो वर्णनक्रम जोईशुं तो आ कल्पनाने समर्थन मळी रहेशे.) आ पत्रनी जेरोक्स कोपी अमारा निजी सङ्ग्रहमां छे, ते परथी आ सम्पादन करवामां आव्युं छे. आ पत्रना अक्षर पं. नयविजयजीना स्वहस्तना होवानु जणाय छे. १२मा पत्र जेवो ज, अथवा तेना करतांये अधिक प्रतिभा-कौशल मांगी ले तेवो पत्र एटले आ तेरमो 'महासमुद्रदण्डकमय' पत्र. पं.श्रीदर्शनविजय गणिए सप्तपर्णीपुर (सादडी) थी गच्छपति श्रीविजयप्रभसूरिने लखेल आ पत्र, मङ्गलना त्रुटित ५ श्लोकोने बाजु पर राखीए तो, फक्त एक ज श्लोकनो पत्र छे. आ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 एक श्लोकनो छन्द छे ‘महासमुद्र दण्डक' छन्द. छन्दशास्त्रोमां एक अक्षर के बे अक्षरनुं ज एक चरण होय तेवा एकाक्षरी-व्यक्षरी छन्दथी शरु थईने अक्षरोनी वृद्धिपूर्वकना अनेक छन्दो होय छे. तेमां 'दण्डक' प्रकारना, गद्य जेवा लागतां, पण खरेखर पद्यात्मक एवा छन्दो पण आवे, जेमां एकेक चरणमां विपुल संख्यामां अक्षरो होय. तेमां पण अक्षरवृद्धि थती जाय तेम दण्डकना प्रकार पण बदलाता जाय. तेमां सहुथी वधु अक्षर धरावतां चरणोवाळो प्रकार एटले आ महासमुद्र दण्डक. आ दण्डकना एकेक चरणमां ९९९ (नवसो नवाणुं), अक्षरो आवे. एटले तेनां चार चरणोनी कुल अक्षरसंख्या ३९९६ (ओगणचालीससो छन्न) थाय. आवा छन्दमां एक ज श्लोकमां पत्रलेखनपद्धतिना समग्र क्रमनो. काव्यचमत्कृति साधतां जईने निर्वाह करवो ए बहु मोटा गजानी काव्यप्रतिभा सिवाय असम्भवित छे. प्रस्तुत पत्रमा एक जैन मुनिए पोतानी अनुपम अने अनन्य कहेवी पडे तेवी अद्भुत प्रतिभानां तथा क्षमतानां नवतर दर्शन कराव्यां छे. प्रथमनां ५ पद्योमा मङ्गलाचरण कर्य छे. पछी 'जयति' पदथी प्रारम्भाता दण्डकना प्रथम चरणमां, राणकपुरना तीर्थपति श्रीऋषभदेव- वर्णन-स्तवन ९९९ अक्षरोथी कर्यु छे, तेमां "चतुर्वक्त्रचैत्यैकचिन्तामणीकं" पदथी त्यांना चतुर्मुख जिनालयनो पण निर्देश आपी दीधो छे. बीजा-त्रीजा चरणोमां राणपुरनुं मनमोहक वर्णनचित्र आलेखायुं छे. तेमां पण त्यां ऊगेलां/उपलब्ध वृक्षोनी नामावली ज पांच-पांच लीटीओ रोकी रही छे, ते परथी त्यांनी वनसम्पदानो ज नहि, पण कविनी तद्विषयक ज्ञानसम्पदानो पण ख्याल मळी रहे छे. तो त्रीजा चरणमां त्यांना नलिनीगुल्म विमाननी अनुकृतिसरीखा भव्य प्रासादनी संकुल रचनानां विविध अङ्गो, सुरेख वर्णन पण काबिलेदाद थयुं छे. त्यां ते समये केवी केवी रचनाओ हती (जे महदंशे आजे पण विद्यमान छे) ते जाणवा माटे आ नोंध दस्तावेज समी बनी शके. बीजा चरण-अनुसार, ते अरसामां त्यां-ते भूमि पर विक्रमादित्य (विक्रमसिंह) नामे राजा शासन हशे. त्रीजा चरणमां लेखक पोतानुं नाम तथा सप्तपर्णीपुर (सादडी) उल्लेखे छे, अने चोमासानां धर्मकृत्योमा व्याख्यानरूपे छठ्ठा-ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रनी वाचना, सूत्र-अर्थ बन्नेथी आदिम-आचाराङ्गनी वाचना, चम्पूकथा (नलचम्पू) तथा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भसिद्धिनुं अध्ययन, तथा वार्षिक पर्व अने तत्सम्बद्ध कर्तव्यो विषे जाणकारी आपे छे. 22 चोथा चरणमां विज्ञप्ति, तत्रस्थ साधुओनां नाम अने वन्दनादि-निवेदन, स्वसहवर्तीओनां नामादि छे, अने दीवाळीए आ महादण्डक - पत्र रच्यानो निर्देश छे. पण तेमां शब्दचमत्कृति अने वर्णसगाईनो उपयोग असाधारण थयो छे. जुओ " मण्डप, मण्डनीय, खण्डनीय, तमस्काण्ड, उद्दण्ड, पाखण्ड, चण्ड, प्रचण्ड, राजीवखण्ड...", तेमज "नियोग, वियोग, योग, उपयोग, प्रयोग, अभियोग, अनुयोग, भाग्यभोग..." इत्यादि. अन्तिम पद्यमां दण्डकनुं स्वरूप दर्शाववापूर्वक पत्र पूर्ण थयो छे. एटलुं ज कहीश के आवी रचनाओ संस्कृत वाङ्मयनां महामूलां आभूषण छे. आवी रचनाओने 'आ तो पत्र छे' एवं कहीने उपेक्षा करवायोग्य नथी. अन्यथा 'मेघदूत' पण आम जुओ तो, एक पत्र ज छे ! - आ पत्रनुं ओळियुं (Scroll ) कविवर मुनिमित्र श्रीधुरन्धरविजयजी तरफथी प्राप्त थयुं छे. - आ बधां (१४) सादडी (राजस्थान)थी मुनि मेरुचन्द्रे जीर्णदुर्ग-जूनागढमां विराजमान गच्छपति विजयप्रभसूरि उपर लखेल आ पत्र गद्य-पद्यात्मक छे, अने ते सामान्य क्रम प्रमाणेनी ज वीगतो धरावे छे; आमां कोई विशिष्ट काव्यवैभव वगेरे जणातां नथी. आ पत्र ला. द. विद्यामन्दिरथी प्राप्त थयेल छे. Jain Educationa International आ तमाम पत्रो तथा तेनी योजनानो क्रम वांचतां एक मुद्दो स्पष्ट थई जाय छे के मध्यकाळमां पर्युषण बाद- चोमासामां, गच्छनायकादि गुरुजनने आ प्रकारना पत्र लखवानो एक व्यापक चाल हतो. आमां, पर्युषणमां तथा चातुर्मास दरम्यान पोतानी निश्राए थयेल धर्मप्रवृत्तिनो हेवाल आपवानुं तेमज पोतानी भूलो बदल क्षमापना करवानुं प्रयोजन मुख्य रहेतुं. अनुषङ्गे बीजी पण विनंतिओ आ द्वारा थती. पत्रनो आ ढांचो मङ्गल, नगरवर्णन, गुरुवर्णन, स्वक्षेत्रवर्णन, कृत्यनिरूपण, वन्दन-विनय-निवेदन, तत्रस्थ - मुनिगण - नामादि, स्वसहवर्ती मुनिओनां नामादि लगभग सर्वस्वीकृत हतो. परन्तु तेमां पण पोतानी कल्पना शक्ति, काव्यप्रतिभा, - For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 अलङ्कार - छन्द - चित्रकाव्य आदिनुं गुम्फन - आ बधुं दर्शाववानी पूरी मोकळाश रहेती, ते आ सङ्ग्रहगत अमुक पत्रोनां अध्ययनथी समजी शकाय छे. अलबत्त, बधां पत्रो तथा पत्रलेखको पासे आवी क्षमतानी आशा न ज रखाय; केटलाक आ-१४मा पत्र जेवा सामान्य पत्र पण होय ज. परन्तु तेनाथी पण एक वात तो जाणवा मळे ज के थोडीक पण संस्कृतभाषानी फावट होय तो तेओ संस्कृतमा ज पत्र लखता ज. दुर्भाग्ये, आजकाल आ परिपाटी तद्दन नामशेष थई गई छे. फलतः साधुवर्गमां कल्पनाशक्ति तथा काव्यप्रतिभानी सर्वथा खोट पडी चुकी छे. अपवाद हशे ज, परन्तु तेवा लोकोने पण उत्तेजन मळे तेवू व्यापक हवामान तो अदृश्य ज थयुं छे. आ परिप्रेक्ष्यमा १५माथी १९मा सैका सुधी चालेला आवा विज्ञप्तिपत्रोना जमानानुं मूल्य आंकीए त्यारे चित्तमां अहोभाव सिवाय कशुं ज न थई शके. अस्तु. (१५-१६) आ बे पत्रो उपाध्याय यशोविजयजीए लखेला छे, तेथी तेनुं दस्तावेजी मूल्य घणुं वधी जाय छे. बन्ने पत्रनी नकल विविध स्रोतो द्वारा त्रण वार मळी छ : प्रा. डॉ. कविनभाई शाह (बीलीमोरा) द्वारा, उपा. भुवनचन्द्र म. द्वारा तथा शा. बाबुलाल सरेमल द्वारा. बन्ने पत्रो धरावती प्रत राधनपुरना श्रीलावण्यविजय ज्ञानभण्डारनी छे. उपा. भुवनचन्द्रजी द्वारा सांपडेली नकल सौथी वधु सुवाच्य होई तेना आधारे प्रस्तुत सम्पादन थयुं गणाय. पत्र १५ ते राजनगर-स्थित श्रीयशोविजयजीए वर्गवटी-वगडी नगरमां विराजता गच्छपति विजयप्रभसूरि उपर लखेलो, ४१ पद्यप्रमाण पत्र छे. थोडोक वचमां गद्यभाग पण छे. आमां क्रम आ प्रमाणे छ : देववर्णन (मङ्गल), वर्गवटीवर्णन, राजनगरवर्णन तथा धर्मकृत्यवर्णन, गुरुवर्णन, नामावली (गद्यभाग) अने समाप्ति. प्रान्ते पोते ज पत्रने 'विज्ञप्तिलेख' तरीके ओळखावे छे. पत्रना अवशिष्ट भागमां केटलीक गाथा तथा श्लोकोनी नोंध छे. महत्त्वनी वात ए के आ समग्र लेख उपाध्यायजीना स्वहस्ताक्षरमां छे. एकाद स्थाने अक्षरो तूट्या पण छे. कविना कल्पनावैभवने पण जोईए : पहेला ज पद्यमां प्रथमनां ३ चरणोमां कवि मस्त विरोधालङ्कार गुंथी बतावे छे. 'गुरुरपि कविप्रेमपात्रं'मां जे श्लेष छे ते तो कमालनो छे ! 'गुरु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 (बृहस्पति) होवा छतां कवि (शुक्राचार्य) ना प्रेमपात्र', आ केवो विरोध ! गुरु अने शुक्रने बने ज नहि, एवी लोकोक्ति छे, तेनो केवो मजानो अहीं विनियोग थयो छे ! तो त्रीजा पद्यमां त्रीजा चरणमां 'मुक्ताजालैर्निजरथपतत्तृप्तिहेतोर्विधात्रा' ए पदोमां 'पतत्' शब्दनो 'पंखी' परक उपयोग पण विलक्षण थयो छे. वात एम छे के नेमिनाथे ज्यारे पाञ्चजन्य शङ्ख फूंक्यो त्यारे विधाता - ब्रह्माजीए तेना नादने सहन केम करी लीधो हशे ? 'ओंकारश्चाथ - शब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा । कण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ" • ए रीते प्रसिद्ध 'आदिब्रह्मध्वनि' जेवा के तेनाथी चडियाता आवा नादने विश्वविधाता कदी बर्दाश्त करे ज नहि; छतां कर्यो, एनुं कारण ए छे के ते शङ्खनादथी क्षीरसागर खळभळ्यो, तेनां आभऊंचां उछळेलां मोजांमां छीपो पण ऊडी, तेमांथी मोती उछळ्यां, ते मोती सीधां विधाताना रथने वारा पंखी राजहंसना मुखमां पड्यां; पोतानुं भावतुं भोजन आम मळी जवाथी ते हंस प्रसन्न/तृप्त थयो, अने ते जोईने विधाता पण ते शङ्खनादने खमी गया ! आ तो कविकल्पना थई. हवे तेमनी तात्त्विक प्रतिपादन - रीति पण जोईए : पद्य ८मां तेमणे जिनप्रवचननुं वर्णन करतां, अन्य विविध दर्शनोए प्रमाणेला शब्दो (तात्त्विक पदार्थों) ने वणी लीधा छे : " सहजमल, दिदृक्षा, वासना, जन्मबीज, प्रकृतिविकृति, माया, अदृष्ट". आ बधां ज वानां 'अतन्त्र' अर्थात् निरङ्कुश छे, तेनो नाश करवो शक्य / सहज नथी; परन्तु जिनप्रवचन ते तमामनो नाश करवानुं व्यवस्थातन्त्र धरावे छे, केमके ते सर्वतन्त्रोमां प्रतिष्ठितप्रसरेलुं छे. आ तो जोके शब्दार्थ ज थयो गणाय; पण विशेषज्ञो आनां गहन रहस्यो जरूर वर्णवी जाणे छे. वर्गवटी मूळे तो 'स्वर्गवाटी' छे, पण लोको तेने अमुक अक्षर तथा मात्राथी भ्रष्ट करीने हुलामणां / अपभ्रष्ट नामे बोले छे. (पद्य १० ). गच्छपतिनुं वर्णन समग्रतया करवाने बदले फक्त तेमना 'हस्त - हाथ 'नुं ज वर्णन ८ पोथी कवि करे छे, ते पद्यो पण केवां अर्थघन तथा रोचक छे ! व्याख्यानमां पहेलां धर्मबिन्दु अने पछीथी उपदेशपदनुं वांचन, स्वाध्यायमां आचाराङ्गादिसूत्रोनो नित्य - मुख-पाठ, न्याय वगेरे - दर्शनोना ग्रन्थोनुं परिशीलन (२३-२४)चालतुं होवानुं निवेदन तेमनी स्वाध्यायप्रवृत्ति प्रत्ये संकेत आपनारुं छे. २५ अने २६मां पद्यो बहु मार्मिक जणाय छे. उपाध्यायजी प्रत्ये केटलाक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 लोकोने द्वेष हतो, अने तेमने हेरान करवामां आवता हता, ते वातो तो अजाणी नथी ज. उपाध्यायजी समर्थ अने सक्षम व्यक्ति हता; तेओ आ बधां अंगे फरियाद करे के ककळाट मांडे ते तो शक्य ज नहोतुं. परन्तु, आ पत्र लखी रह्या छे ते गाळामां, ते चोमासामां, तेमने घणी अडचणो आवी हशे, अने तेना निवारण माटे सबळ प्रयत्नो करवा पड्या हशे तेनो, तेमज विरोधीओए रचेला छेतरामणा प्रपंचोने कारणे समाजमां तेमना माटे प्रवर्तेलो दुर्भाव पण समय जतां नष्ट थईने सद्भावमां फेरवायो हशे, तेनो संकेत आ बे पद्योमा मळे छे. ___ सम्भवतः पर्युषणमां पण तेमने कनडगत वेठवी पडी हशे, अने केटलीक चर्या छाने छाने पण पताववी पडी हशे एवं सूचन, 'छन्नप्रकटभावेन सर्वः सत्यापितो विधि:' (पद्य २७) ए वाक्यथी थतुं जणाय छे. पोते कांईज सिद्धान्तविरुद्ध नथी कर्यु के छूपाव्युं नथी तेवू पण त्यांज तेओ जणावे छे. पद्य २८मां 'क्रमेलक (ऊंट जेवा) खल-दुष्ट लोकोनी अरुचि छतां मने कोई आंच नथी आवी' एवं निवेदन पण सूचक छे. पोते सफलता पाम्या तेना कारणमां प्रभुनी भक्ति अने गच्छपति-गुरुनी कृपा ज कारणरूपे छे तेम (पद्य २९) कहीने तेओ वात आटोपे छे. आ पत्र मार्गशीर्ष वद तेरसे लखायेलो छे, ते पण सूचक छे, सम्भव छे के अगाउ लखेल पत्रनो उत्तर अथवा तो सानुकूल उत्तर न मळ्यो होय अने आ पत्र पुनः लखायो होय. अन्यथा पर्युषणनो पत्र मागशरमां न सम्भवे. अस्तु. १६मो पत्र पण राजनगरथी लखायेलो छे, अने शुद्धदन्तनगरे (सोजत) स्थित गच्छपति विजयरत्नसूरि उपर लखायो छे. रत्नसूरि ते विजयप्रभसूरिना उत्तराधिकारी हता. पत्र १५मां पण तेमनो उल्लेख (३१) छे. आ पत्र पण यशोविजयजीना स्वहस्ताक्षरमां ज छे, ४० पद्यप्रमाण छे, अने एक साथे आ बन्ने पत्रो लखाया छे. केटलाक श्लोको बन्नेमां एकसमान छे. गच्छपति वगडीमां हशे त्यारे रत्नसूरि शुद्धदन्तमां हशे. धर्मबिन्दु, उपदेशपदनां व्याख्यानादि बधी वातो बन्ने पत्रोमां समान छे. विजयरत्नसूरिना वर्णननां पद्योमां कविनी काव्यप्रतिभा तो ऊपसे छे ज, पण साथे तेमनी तर्कप्रतिभा पण सुदृढतया प्रगटी छे. पत्र मागशर वद १३ना लख्यानो उल्लेख आमां पण छे. बे पद्यो अहीं जोवायोग्य छ : पद्य १८मां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 राजनगरनुं वर्णन छे. राजनगर साभ्रमती-साबरमतीना किनारे वस्युं हतुं. ते नगरना लोको एटला समृद्ध हता के तेमना घरना कचरामां पण रत्नो ठलवातां रहेता. चोकमां ठलवायेलां ते रत्नो साभ्रमतीनां फरी वळतां पाणीमां तणाई जतां. नदी समुद्रमां मळती एटले आ बधां रत्नो पण तेमां ठलवातां. लगभग आ ज कारणे समुद्र ते रत्नाकर-रत्नोथी भरेलो कहेवायो होवो जोईए ! बीजुं पद्य संवादात्मक पद्य छे, अने पत्र पूरो थया पछी लख्युं छे. तेमां 'पाप' नामे व्यक्तिने कल्पीने तेनो अन्य कोई जोडे थयेलो संवाद माणवा जेवो छे : 'अरे भाई, कोण छो तुं ?' मारुं नाम 'पाप' छे. 'आटलो दूबळो केम ?' मारी माताथी विखूटो पडी गयो छु एटले. 'तारी माता कोण ? तेनाथी विखूटो शाथी पड्यो ?' मारी मातानुं नाम छ 'मारि(हिंसा)', तेने शाह अकबरे हीरसूरिना कहेवाथी यमना घेर मोकली आपी छे, एटले हुं एकलो थई गयो छु. 'तो हवे तुं क्यां रहीश ?' हुं तो हवे जे हीरसूरिनुं वचन नहि माने तेना हैयामां रहीश. यशोविजयजीनी प्रतिभानो एक नवो ज उन्मेष अहीं प्रगट थाय छे. (१७-१८) आ बन्ने पत्रो वीजापुरसमीपवर्ती स्याहपुर (शाहपुर)मां चोमासुं रहेल पं. श्रीतत्त्वविजय गणिए क्रमशः वर्गवटीमां स्थित गच्छपति विजयप्रभसूरि तथा उदयपुरस्थित विजयरत्नसूरि पर लखेल पत्रो छे. सं. १७३५ना महा तथा फागणमां मोकलायेला आ पत्रो, दूर देशमां पत्र पहोंचाडनारा विलम्बथी मळवाने कारणे आटला मोडा लखाया के मोकलाया होय, तेवू मानी शकाय. वीजापुर ते उत्तर गुजरात, गाम समजवानुं छे. तेनी नजीकमां शाहपुर गाम प्रायः आजे पण होवानुं जाणवा मळे छे. वीजापुर विद्यापुर तरीके जाणीतुं हतुं. ___ पत्रलेखक तत्त्वविजयजी ते उपा. यशोविजयजीना शिष्य छे. पत्रमा प्रयुक्त भाषा, छन्दोवैविध्य, कल्पनावैभव, वर्णन-विभाग इत्यादि तेमज प्रारम्भिक मंगल पद्योनो 'स्वस्तिश्री' पदथी थतो प्रारम्भ, बीजा पत्रमा ७२मा पद्यमां आवता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 'सम्मतिशास्त्र इवाऽस्मदिष्टतमाः' एवो उल्लेख शिष्य तरीके स्वीकारवा माटे पर्याप्त छे. आ बधुं ज तेमने उपाध्यायजीना पत्र १७मां ८५ श्लोको छे. १ - १६ पद्योमां मङ्गलाचरण छे, जे ‘श्रीपञ्चतीर्थजिनवर्णनम्' नामे कर्ता ओळखाव्युं छे. १७ - ३७मां वगडी वर्णन छे. ३८६२ वीजापुर - स्याहपुरना वर्णननां छे. तेमां ते क्षेत्रना यवन (मुस्लिम) शासकनुं नाम ‘स्याह सक्कन्दर' (सिकन्दर शाह) (४९-५०) होवानुं जाणवा मळे छे. आ स्थानिक सूबानुं नाम लागे छे. ५६ - ६२मां वांचन, स्वाध्याय, पर्युषणनां कृत्य आदिनुं निरूपण छे. ६३-७५ मां गुरुवर्णन, पत्रप्रसादी पाठववा माटे विज्ञप्ति (७६), वन्दना-क्षमा-निवेदन (७७-७८) छे. ७९-८२मां तत्रस्थ मुनिवृन्दनां नाम तथा वन्दनादिनुं, ८३मां, साथेना २ मुनिनां तथा स्थिरवास रहेल १ मुनिनुं नाम वगेरे निवेदन छे. छेल्लां २ पद्योमां सङ्घ तरफथी वन्दना तथा संवत् आदिनी नोंध छे. पत्र १८ मां ७८ श्लोक छे. १ ९ मङ्गल, १०-३१ उदयपुरवर्णन, ३२५७ नगरवर्णन (स्याहपुर) तथा व्याख्यान - पर्वकृत्य आदिनुं निवेदन, ५८-७० गुरुवर्णन अने ७१ मां वन्दन - निवेदन छे. ७२मां गुरु साथेना श्रीपुण्यसुन्दर पण्डितने स्मरतां कवि कहे छे के जेम अमने सम्मति [ तर्क ] शास्त्र बहु गमे छे तेम आ मुनिवर पण अमने बहु इष्ट छे. आ एक नोंधपात्र उल्लेख गणाय. उपाध्यायजीना शिष्य होय तो ज सम्मतिशास्त्र गमतुं होय, एवं तारण काढीए तो ते वधु पडतुं न गणाय ७२ - ७४मां साधुगणनुं स्मरण, ७५मां साथेना २ तथा स्थिरवासी १ मुनिनुं वन्दन निवेदन, छेवटे पत्रसमापन करतां संवत्-निर्देश कर्यो छे. आ बे विज्ञप्तिपत्रोनी नकल लींबडीना श्रीआणंदजी कल्याणजी पेढीना ज्ञानभण्डारथी प्राप्त थयेल छे. Jain Educationa International ( १९ ) विद्यापुरथी मुनि पद्मानन्दे राजनगरस्थित गच्छपति (क्यांय गुरुनो नामनिर्देश जडतो नथी) पर लखेल, गद्य-पद्यमिश्रित, ५६ श्लोकप्रमाण आ पत्र छे. संवत्नो निर्देश नथी, पण १७मा शतकनो होवानुं अनुमान थाय छे. कविनी प्रतिभा पत्रमां सुपेरे झळके छे. कवि प्रौढ प्रतिभाना स्वामी होवानुं तेमणे प्रयोजेला मालायमक For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) तथा अन्य अनेक अलङ्कारो जोतां सहेजे जणाय छे. १-१५मां मङ्गल, १६३९मां तथा वच्चेना गद्यांशोमां राजनगरवर्णन, ४०-४२ पद्यो तथा गद्यांश वडे विद्यापुरवर्णन, ४२-४८ मां धर्मकृत्य-निवेदन, ४९-५६ पद्यो तथा गद्यपाठ वडे गुरुगुणगान - आम पत्रनो क्रम छे. ४९-५३ आ पद्योमां प्रयुक्त अभिनव छन्दो ध्यानपात्र छे. पद्य २९मां नगरनां जिनालयोनां शिखरो परना कलशनुं वर्णन करतां कविए प्रयोजेलो शृङ्गाररसमढ्यो उत्प्रेक्षा अलङ्कार भारे चमत्कृति सरजे छे. गद्यरचनामां पण कवि कोई ग्रन्थरचना करी रह्या होय तेवा खील्या छे. आ पत्रनी हस्तप्रतनी जे. नकल कोबा-श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिरथी प्राप्त थयेल छे. प्रतने छेडे "इति गच्छाधीश कङ्गल (कागल) लखवानी विधि सम्पूर्ण, मु. गौतमविजयलिपीकृतम्" एवं पुष्पिकारूप लखाण छे. (२०) आ एक सामान्य पत्र छे. आमां पर्युषण अने तेने लगतां कृत्योनो उल्लेख नथी. फक्त चोमासामा परिशिष्टपर्व- व्याख्यान थतुं होवानो निर्देश (९) मळे छे. गच्छपति समीमां विराजे छे. पत्रलेखक मुनि (के. पं.?) विद्याविजयजी सिद्धपुरना शाखापुर (परा) लालपुरथी आ पत्र पाठवे छे. १९+३ = २२ पद्योनो पत्र छे. मुनि श्रीधुरन्धरविजयजीना सङ्ग्रहमांथी ते प्राप्त थयो छे. (२१) आ पण एक साधारण कक्षानो विज्ञप्तिपत्र छे. वाचक विजयचारित्रे रामपुर विराजता आ. श्रीविजयचन्द्रसूरिने लखेल आ पत्रमा ३३ श्लोको छे. पत्रनी प्रति अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेरथी उ. भुवनचन्द्रजी द्वारा मळी छे. मङ्गलाचरणमां ज हरसिद्धि, भवानी, भारती, गौरी ने संभार्यां छे ते जोतां लेखक मूळे बारोट होय तो ना नहि. रामपुरमां कान्हजी नामे सङ्घवी श्रावके ऋषभदेवचैत्य कराव्यानो उल्लेख (३) नोंधपात्र छे. विजयचन्द्रसूरि कोण ? ते शोधवानुं बाकी रहे छे. लेखक सारा विद्वान हशे तेम बहिर्लापिका (१३) वगेरे पद्यो जोतां जणाय छे. लालजी मुनि, ऋषि वृद्धि तथा खुमानऋषि जेवां नामो (१५) तथा कल्पसूत्रनी १६ वाचना (रसविधुप्रमितैः० २५) इत्यादि वर्णनना आधारे पत्रलेखक तथा आचार्यविजयचन्द्रजी लोंकागच्छना हशे तेम लागे छे. पत्रनो समय सम्भवतः १९मो शतक छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 (२२) २२मो पत्र जालोर-स्थित खरतरगच्छना भ. जिनसुखसूरि उपर उपा. विद्याविलास गणिए सोजतथी लख्यो छे. गद्यात्मक छे. गद्य पण अलङ्कृत अने रसाळ छे. पहेलां जालोरनुं वर्णन, पछी गुरुनुं वर्णन, पछी सोझितनगरनुं वर्णन, पछी नामो अने कृत्यनिवेदन - आम क्रम छे. विशेष वातोमा २०५ जेटला पौषधार्थीने घी-खाण्डथी छलकाता ४ लाडूनी प्रभावना करवामां आव्यानो रसिक उल्लेख छे. अने पोताना आ लघुपत्रने ‘पत्री' रूपी पुत्री गणावी तेनुं पाणिग्रहण करवानी विनंति करी छे ते वाक्यो पण आनन्द उपजावे तेवां रसिक छे. आ पत्र निजी सङ्ग्रहनो छे. (२३) - जहन्नाबादमा रहेल खरतरगच्छीय जिनसुखसूरि उपर राजनगरस्थित श्रीलब्धिविजयजीए लखेल आ लघु पत्र एक सामान्य पत्र छे, पर्युषणनो क्षमापत्र नहि. तर्कशास्त्रनी भाषानो प्रयोग थयो छे ते ध्यानपात्र छे. पोताने गुरुनो पत्र नथी मळतो तेनी फरियाद लेखके करी छे. ला. द. विद्यामन्दिरस्थित आ पत्रनी जेरोक्स मुनिश्री धुरन्धरविजयजी द्वारा मळी छे. (२४) मेडतास्थित खरतरगच्छीय भ. जिनलाभसूरिने जयतारण (राजस्थान) स्थित वाचक जीवनदासे लखेलो २३ पद्यप्रमाण आ पत्र पण सामान्य पत्र छे. तेमां गुरुस्तुति करतां तेमणे बे आर्या स्तुतिरूपे लखी-मोकली छे अने तेनो अर्थ सभ्यजनो पासे करावी मगाव्यो छे ते रसप्रद छे (१६-१८). १९मा श्लोकमां लेखक एक विवादनी वात करे छे के "मारे ज्यां चोमासु रहेवानुं नक्की थयेखें त्यां जो तमे रहो, तो तमारा चातुर्मास-स्थाने मने मोकलवो जोईए, अने एमां ज न्याय गणाय." लागे छे के आचार्ये ते प्रमाणे कर्यु नथी, एटले अकळायेला लेखक २०मा पद्यमां 'राजा जे करे ते ज न्याय' एम कहीने जाणे छणको करे छे ! सं. १८२९ ना भाद्रपदनी पूनमे लखवामां आवेला आ पत्रनी नकल कोबाथी प्राप्त थयेल छे. (२५-२६) आ बे पत्र लोंकागच्छीय आ. लक्ष्मीचन्द्रजी उपर विक्रमनगर (बीकानेर)थी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 मुनि परमाणन्दे लख्या छे. प्रथम पत्र तेओ पटियाला (पंजाब) हता त्यारे, अने बीजो तेओ जेसलमेर हता त्यारे लखेल छे. ३५ श्लोकना प्रथम पत्रमा १ पद्यना मङ्गल बाद पटियालानुं वर्णन छे. त्यां ते समये 'कर्मसिंह' राजा छे तेवू त्रीजा पद्यथी जाणवा मळे छे. सूरि साथेना रघुनाथजी आदि शिष्योनां नाम १७-१९मां मळे छे. पद्य २१थी लेखक पोतानो वृत्तान्त शरु करे छे. पर्व-कृत्योर्नु वर्णन छे. सं. १८९०ना आसो शुदि १३ना आ पत्र लखेलो छे. आ सूरिनुं विचरण केटला दूर-प्रदेश सुधी विस्तरेलुं हशे, ते आ उपरथी जणाय छे. २६मा पत्रमा ३४ पद्यो छे. बीजा श्लोकथी जेसलमेर- वर्णन शरु थयु छे, तेमां त्यां गजसिंह नामे राजा (५) होवामुं, 'अमरसागर' सरोवर होवा- (९) लेखके नोंध्युं छे. ११ थी गुरुवर्णन छे, तथा तेमना शिष्योनां नामो व. छे. पोते विक्रमपुरनी नजीक आवेल मानुजग्रामे रहेला छे तेनुं तथा साथेना साधुओनां नामादि पण छे. विज्ञप्ति निवेदन अने ते पछी पर्वकृत्य-निवेदन करीने पत्रनुं समापन थयुं छे, पत्र १८८४ मां लखायो छे. आ पत्रमा ११मा पद्यमां 'लुङ्कागच्छ' नाम छे, अने ते अहिपुर (नागपुर)मां प्रवर्यो होवानी पण वात छे. आ बन्ने पत्रो निजी सङ्ग्रहमां छे. (२७) आ पत्र पण अमृतसर (पंजाब) विराजता, लोंकागच्छीय आ. रामचन्द्रजी उपर लक्ष्मीनिवास (?) नामे नगरमां स्थित रघुनाथमुनिए लखेलो छे. आ पत्नी मोटी विशेषता ए के ते प्राकृतभाषामां गाथाबद्ध-पद्यबद्ध छे, जे विरल गणाय. प्राकृत तेमज संस्कृतमां गद्य भाग पण खरा ज. ३२ गाथा के श्लोकप्रमाण आ पत्र, लेखकना लखवा प्रमाणे घणो लांबो थई शकत, जो लेखके पोते बनावेली सघळी गाथाओ लखी दीधी होत. पण तेओ खुद लखे छे के "अत्र गाथास्तु भूयस्य एव दृब्धाः, परन्तु त्वरावशात् लिखितुं न पार्यते ।" अर्थात् घणीबधी गाथाओ बनावी होवा छतां, (पत्र लई जनारने) उतावळ होवाथी, बधी लखी नथी. आ उपरथी लेखक सारा विद्वान तेमज प्राकृतना जाणकार हता तेवू सिद्ध थाय छे. प्रारम्भे २ मङ्गलाचरणना श्लोक संस्कृतमां,* पछी १-३२ प्राकृतमां. बीजा श्लोकमां 'सुधादिमसर:संज्ञे पुरे' तथा ८मी गाथामां 'अमरसरणामरुइरे' एम बे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 जातना उल्लेखने कारणे क्षेत्रनुं नाम सुधा-अमृत, अटले अमृतसर समजवू के अमरसर-एवो सवाल थाय. परन्तु गा. ४ तथा ६मां आवतो 'पंचणय' शब्द वांचता संशय नथी रहेतो. पंचणय - पञ्चनद - पंजाब आ स्वयंस्पष्ट छे. वळी १८८४मां (पत्र २५ प्रमाणे) जो आ. लक्ष्मीचन्द्रजी पटियालामां होय तो, तेमना ज पक्षना अन्य आचार्य (के तेमना शिष्य ? किं वा पट्टधर ?) १८८५मां अमृतसरमां होई शके. रघुनाथजी (पत्रलेखक) पण पटियालामां मोजूद होवानुं २५मो पत्र वर्णवतो होई 'लक्ष्मीनिवास' ए पण पंजाबना ज कोई क्षेत्रनुं संस्कारित नाम होवू जोईए. ११मी गाथामां आचार्यने लुंकागणाधिपति तरीके वर्णव्या छे. पोते पर्युषण पछी व्याख्यानमां भगवतीसूत्र वांचता होवा, पण जणावे छे. बाकी बधी वातो तो दरेक पत्रने मळती ज छे, तेथी ते बधुं वर्णन अहीं नोंधवानी आवश्यकता नथी जणाई. आ पत्र ला.द. विद्यामन्दिरथी प्राप्त थयो छे. (२८) १४९ श्लोकप्रमाण-प्रलम्ब, आरम्भना २६ श्लोको विनानो-त्रुटित अने अधूरो आ पत्र तपगच्छपति (सम्भवतः विजयसेनसूरि) उपर, वसहीपुरथी पं. देवविजयजीए लखेल, एक लघुकाव्य जेवो पत्र छे. बीजा पत्रो करतां आ पत्रमां विशेष ए छे के अहीं २६ पद्योमा मङ्गलाचरण कर्या बाद कवि पहेला २७३५ पद्यो वडे गूर्जर देशनुं वर्णन करे छे, अने पछी नगरी- (नामनो उल्लेख नथी, ख्यालमां आवतो नथी) वर्णन ३६-७१ पद्योमां करे छे. सामान्यतः पत्रोमां देशनो क्वचित् ज उल्लेख मात्र होय, पण वर्णन नहि. पद्य ७१मुंवांचतां ते नगर कोई तीर्थरूप नगर होय तेवो संभ्रम जन्मे छे. आ पद्यना तृतीय चरणगत 'तत्र' शब्दथी, ते (अज्ञात) नगरनुं वर्णन त्यां समाप्त थतुं होवानुं जणायुं छे, अने तेथी, ७२मां पद्यथी 'वसही'नुं वर्णन शरु थई रह्यु होवा- समजीने सम्पादन कर्यु छे. जोके देखीती के प्राथमिक दृष्टिए तो ३६ थी ७५ सुधी वसहीपुर वर्णन ज लागे. परन्तु खरेखर एवं न होवू वधु योग्य छे. * मङ्गलना आ बे श्लोक सं. १८९७मां पालीथी जयशेखर पण्डिते जेसलमेरस्थित श्रीजिनमहेन्द्रसूरि पर लखेला पत्रमा (अनु. ३३मां प्रकाशित) पण यथावत् जोवा मळे छे. फक्त नगरनाम 'सुजेसलमहादुर्गे' अवो तफावत छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 ७२-७५मां वसहीपुरनुं वर्णन छे. आ 'वसही' एटले कयुं गाम ते ख्याल आवतो नथी. कच्छना भद्रेश्वरतीर्थ- ग्रामनाम 'वसही-वसई' होवा- प्रसिद्ध छे. आ ते ज हशे ? साधनो तपासवां पडे. त्यां ते वखते 'सांईदास' नामे ठाकोर शासकपदे होय तेवं सूचन ७२मां पद्यथी मळे छे. त्यां स्थित, वाचक भानुचन्द्रगणिना शिष्य देवविजय द्वारा आ पत्र लखवामां आव्यो छे (७६-७७). सामान्यतः पत्रलेखक पोतानी ओळख पोताना गुरुर्नु नाम लईने-तेमना शिष्य तरीके आपे एवं जोवा मळतुं नथी. अहीं प्रथम वार तेम जोवा मळे छे. ७५-८२मां पत्रलेखक वन्दन, विज्ञप्ति, पोतानां धर्मकृत्यो आदिनुं निवेदन करे छे. ८१मां पद्यमां 'गुरोः समीपे पठनं' एवं वाक्य छे ते जोतां एवं अनुमान थई शके के पत्रलेखक तेमना गुरुनी साथेज वसहीपुरमा हशे, एटले के वाचक भानुचन्द्रजी पोते त्यां होवा जोईए. ८३ थी शरु थतुं गुरुवर्णन १३२ पर पूरं थाय छे. तेमां ८३-८४-८५ मां यमक, व्यक्षर श्लोकद्वय कविनी प्रतिभाने उजागर करनारी रचनारूप छे. समग्र पत्रकाव्यमां कविए प्रयोजेतुं छन्दोवैविध्य पण तेमनी महती प्रतिभानु ज द्योतक छे. ११७-१८ बे दण्डक छे, तो ११९ थी १३१ मां विविध छन्दो तो प्रयोज्यां ज छे, पण ते दरेक पद्यमां ते ते छन्दनां नाम पण गुंथी दीधां छे. अहीं ते छन्दनामो मोटा अक्षरे ऊपसावी बताव्यां छे. १३४-३५मां प्रसादपत्र पाठववानी विज्ञप्ति करीने १३६-३७मां ते मळवाथी पोताने थनारा लाभो कवि वर्णवे छे. विज्ञप्ति केवी आर्जवपूर्ण होय ते आ बधुं वांचतां समजाय. पछीनां पद्योमां पण विज्ञप्तिनो ज काकलूदीभर्यो सूर संभळाय छे, अने तात-दर्शननी तीव्र झंखना पण व्यक्त थाय छे. तातचरणनी सेवा, दर्शन मेळवनारा मुनिओने प्रशंसे छे, अने छेल्ले त्यां रहेला मुनिवरोनां नाम लेवानुं शरु थयुं छे त्यां ज पत्र तूटे छे अने आपणा पूरतो ते पूरो थाय छे. ला. द. विद्यामन्दिरथी सांपडेलो आ पत्र जो पूर्ण रूपे मळी आवे तो काव्यसाहित्यने एक अपूर्व रचनानी भेट मळे. (२९) आ पत्र, तेनी अन्त्य पुष्पिकामां जणाव्या प्रमाणे उपाध्याय विनयविजयजी उपर लखवामां आवेलो पत्र छे. तेओ जूनागढ हता त्यारे राजकोटथी मुनिहीरचन्द्रे आ लघु पत्र पाठव्यो छे. राजकोटमां भगवतीसूत्रनुं वांचन, १६ दिननी अमारिघोषणा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 इत्यादि कार्यो ते समये थयानी नोंध ध्यानार्ह छे. पत्र सम्भवतः १८मा शतकना आरम्भे लखायेलो हशे. सूरतना ने. वि. क. ज्ञानमन्दिरथी आ पत्र प्राप्त थयेल छे. (30) पाटण-स्थित वा. लावण्यविजयजी उपर मेघचन्द्रमुनिनो आ लघुपत्र छे. क्यांथी लख्यो छे तेनो उल्लेख नथी, परन्तु पत्रना पाछला गद्यभागमां योगोद्वहन अंगे जे वाक्यो छे, ते बधां ज आ अङ्कना ११मो क्रम धरावता, आ ज लेखकना पत्रमां पण जोवा मळे छे. ते परथी बे वात समजाय छे : एक तो विजयसिंहसूरिगुरु पाटण रह्या हशे त्यारे वा. लावण्यविजयजी पण त्यां ज हशे अने बीजुं आ पत्र पण, ११मा पत्रनी साथे ज मण्डपदुर्गथी लखवामां आव्यो होवो जोईए. आमां 'भुजनगर' नो उल्लेख एम सूचवतो जणाय छे के योगोद्वहन करावो तो 'भुज' मां करवा ठीक पडशे. आ पत्र पण सूरतना ने. वि.क. ज्ञानमन्दिरथी मळ्यो छे. ( ३१ ) राजस्थानमां फलवर्द्धा (फलोधी) मां विराजता पोताना गुरु वाचक अमरचन्द्र उपर, थान्दिलाणा नामक कोई गामे रहेल शिष्य मुनि कर्मचन्द्रे लखेल आ पत्रमां, केटीक अशुद्धि होवा छतां लेखक नो काव्य - व्याकरणादिविषयक परिश्रम ध्यानाकर्षक गणाय तेवो छे. लेखके १७ पद्यो पछी लखेल गद्यांशमां पोतानी हैयावराळ ठलवी छे अने गुरुने आर्जवपूर्वक ठपको आप्यो छे के तमे दूर केम चाल्या गया ? तमारा वगर मारो एकएक दिवस वर्षसरीखो जाय छे ते हं केम वर्णवुं ! गुरु-शिष्य प्रायः खरतरगच्छना होय तेम अनुमान थाय छे. छेल्ली पंक्तिमा तपगच्छीय साधु 'सागर' नो जे रीते उल्लेख थयो छे ते जोतां आ अनुमान दृढ थाय छे. आ पत्र निजी सङ्ग्रहनो छे. (३२) मङ्गलपुर - मांगलोर - मांगरोळमां विराजता, लोंकागच्छना, पं. लब्धिचन्द्रजी उपर वीरमगामथी मुनि गुणचन्द्रजीए लखेल ४५ पद्यप्रमाण आ विज्ञप्तिपत्र अन्य पत्र जेवो ज वर्णनक्रम धरावे छे, पण तेनुं छन्दोवैविध्य तथा सारी काव्यात्मकता भावकनुं ध्यान जरूर खेंचे छे. ३०-३१-३२ पद्योमां पोताना गच्छपति श्रीपूज्यना वृत्तान्त विषे, सम्भवतः तेओ सूर्यपुर-सूरत हशे ते विषे, चातुर्मास पछीना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहारनी दिशा निश्चित करवा विषे, अन्य वृत्तान्तो पण्डितपदधारी अन्य मुनिना पत्रथी जाणी लेवा विषे निर्देश थया छे. पोते त्रिविक्रमभट्टकृत चम्पूकाव्य भणता होवानो उल्लेख (४२) पण छे. आ पत्रनी जे. निजी सङ्ग्रहमां छे. (३३) माण्डवीबन्दर (कच्छ) स्थित, खरतरगच्छीय पं. पुण्यधीरजी उपर विक्रमपुर (बीकानेर)थी जयकीर्ति मुनिए लखेल आ गद्यात्मक पत्र, लेखकनुं भाषा तथा व्याकरण परनुं सुन्दर प्रभुत्व सूचवी जाय छे. लेखकनो आ पांचमो पत्र छे. बन्ने मुनिवरो मित्रो हशे, गुरु-शिष्य नहि, तेवो पण भाव जणाय छे. लेखके पुण्यधीरजीना पोताने मळेल एक पत्रमां, व्याकरणविषयक अमुक भूलो पोताने लागी छे ते पत्रमा नोंधी मोकली छे. पोते किरातकाव्य भणे छे अने १५ सर्ग थई गया छे तेमज हाल अभिधानचिन्तामणि जुए छे तेनी जिकर करतां, पोताना अध्यापक पण्डित नन्दलाल व्यास माटे जे विशेषण वापरूं छे तेथी अध्यापकनी सज्जतानो तेमज लेखकना तेमना प्रति सद्भावनो अणसार मळे छे. प्रसिद्ध कवि उपा. क्षमाकल्याणजी पण माण्डवी होवानुं सूचन पण तेमना नामोल्लेखथी थयुं छे. प्रान्ते मारवाडी वाक्यो अन्यान्य साधुओए के साधुओ वती लख्यां छे. आ पत्र निजी सङ्ग्रहनो छे. (३४) मधूकपुर (महुआ ? के महुधा ? के मऊ ? के गुजरात बहार- कोई गाम ?) स्थित भ. महीचन्द्र तथा मेरुचन्द्र पर पूषन्पुर (सूरत?)थी उदयविजयजीए लखेल आ एक सामान्य पत्र छे, जेमां परस्परना कुशलनी वात/पृच्छा होय. भाषा कठिन-पाण्डित्य प्रदर्शक छे. लेखक तपगच्छना हशे, पण भ.(भट्टारक) महीचन्द्रमेरुचन्द्र अन्य गच्छना हशे एम जणाय छे. तपगच्छमां आवा नामना कोई भट्टारक थया नथी. पत्रसमाप्ति पछी, उ. मुनिविमले रचेल अष्टक पैकी पांच श्लोको छे, जेमां तपागच्छनी 'सागर' शाखाने माटे खण्डनात्मक लखवामां आव्युं छे. विजयसेनसूरिए पयोराशि (सागर), मन्थन कर्यु (१); 'हीर' सूरिरूपी रामना हनूमान् नन्दिविजय, तेमणे 'सागर'ना पांच ग्रन्थोने लङ्कामा देशनिकाल आप्यो (२); 'सर्वज्ञशतक नामे 'सागर' (धर्मसागर)ना विषने (ग्रन्थने) सोमशेखरे निःसार बनावी दीधुं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35 (३); कमा-सूनु (विजयसेनसूरि) सागर चक्रवर्ती जेवा थया के जेमणे जम्बूद्वीपसमान तपगच्छमांथी 'सागर'ने बहार कर्या (४); पं. रामविजय नामे बे विज्ञो ते बलदेव-वासुदेव जेवा गणाय के जेमणे 'वार्द्धि(सागर)'ने खदेडीने 'हीर' (सूरि)नी आज्ञारूपी द्वारिकानी स्थापना करी(५). ते युगमां चालता विवादोनुं आ श्लोकोमा प्रतिबिम्ब पड्युं छे तेटलो ज आनो अर्थ. ते पछी एक सुमधुर गेय फग्गुकाव्य, जयदेवनी अष्टपदीनी परम्परानुं 'अने भगवान महावीरनी स्तवनारूप, ते पत्रमा लखायुं छे. पत्रमा जेटलुं हतुं ते सघळु यथावत् अहीं प्रगट कर्यु छे. आ पत्र पण मुनि धुरन्धरविजयजी तरफथी मळेल छे. (३५) आ पत्र जयपुरना श्रावकसङ्के शुभनगरमां विराजता मुनि रत्नविजयजीने लखेलो क्षमापनापूर्वकनो विज्ञप्तिपत्र छे. पत्र नानूलाल दाधीच नामे ब्राह्मण पण्डिते घडी आपेल छे, तेमनी तार्किक तथा वैयाकरण प्रतिभानां छांटणां पत्रमा सरस रीते छंटायेलां जोवा मळे छे. आ पत्र सचित्र छे. तेनां चित्रो अन्यत्र प्रकाशित छे. मुम्बईना श्रीप्रेमलभाई कापडियाना अंगत सङ्ग्रहना आ पत्रनी नकल तेमना सौजन्यथी मुनि सुयशसुजसचन्द्रविजयजीने प्राप्त थई छे. ___ आ पत्र त्रुटित छे छतां तेनुं मूल्य घणुं छे. जो अखण्ड मळ्यो होत तो तेनुं दस्तावेजी तथा ऐतिहासिक मूल्य हजी वधी जात. कोणे अने क्यांथी पत्र लख्यो छे तेनो कोई संकेत पत्रमाथी मळतो नथी, परन्तु तातपादने पत्र लखवानी विनंति कर्या बाद, तेमनी साथेनां श्रीहीरविजयसूरि आदिनां नामो जोतां आ पत्र भ. विजयदानसूरिगुरु उपर ज लखायो होवा विषे सन्देह रहेतो नथी. पत्र २० थी २९ एम ९ ज पद्यो जेटलो मळे छे. आमां मङ्गल अने नगरवर्णनो नथी मळतां; फक्त त्रुटित गुरुवर्णननां पद्यो ज मळे छे पण तेमां जे भावप्रौढि छे ते जोतां कोई अतिनिपुण प्रतिभानुं आ सर्जन हशे एम स्वीकारवू पडे तेम छे. आ पत्र पण सूरतना ने.वि.क. ज्ञानमन्दिरमांथी मळेल छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 (३७) आ पत्र त्रुटित पण छे, अपूर्ण पण छे. जोके १ थी ६५ पद्यो नथी मळतां, पण अन्त भागनो तो थोडोक ज अंश नथी मळ्यो एम जणाय छे. आ पत्र कोणेक्यांथी अने क्यां लख्यो छे ते स्पष्ट नथी थयुं, पण ते हीरविजयसूरि उपर लखायो छे ते स्वयंस्पष्ट छे. अनुमान एवं थाय छे के आ पत्र तेओ दिल्लीआगरा तरफना विचरणमां हशे त्यारे लखायो होवो जोईए. केमके, पत्रव्यवहारनी सामान्य पद्धतिथी तद्दन अलग रीते, आ पत्रमा अलग अलग क्षेत्रोमां चोमासुं रहेला मुनिओनी विगत लखी छे. आq कदी थतुं नथी. पण गच्छपति गुरु दूर देशमां होय अने तेमने गुजरातना बधानो हेवाल एक साथे जाणवा मळी जाय; केमके दरेकने ते देश सुधी विज्ञप्तिपत्र लई जनारा न ज मळे; ते हेतुथी ज आवी विगतो पत्रमा उमेरी होय एम लागे छे. बीजुं एक अनुमान एम पण थाय के आवी विगतो कोण लखे ? ए लखवानो अधिकार कोने होय ? गुरुना सीधा उत्तराधिकारीने ज होय अने ते ज स्वाभाविक गणाय. एटले आ पत्र विजयसेनसूरिए ज गुरुने लख्यो होय एम मानवानुं मन पण वधे छे. ६५-७७ मां गुरुगुणवर्णन ज छे. ७८-७९ प्रमाणे, गुरुनो एक लेख(पत्र) पत्रलेखकने मळी गयो छे, तेने 'लेख-देव' जेवो गणावी ते मळवाथी पोतानुं दिल अत्यन्त राजी थयानुं वर्णव्युं छे. साथे ज ते लेख माटे लख्युं छे के (ते पत्रने कारणे) शिशु (लेखक पोताने शिशु वर्णवे छे)ना चित्तमां (तेनुं) शैशव अने (गुरुए लखीने याद अपावी हशे तेवा शैशवनी) वातो पण जागी गई ! आq एक ज व्यक्ति लखी शके : विजयसेनसूरि; अन्य- गजु नहि. पत्रमां वर्णव्या प्रमाणे क्षेत्रो तथा त्यां स्थित मुनिओनी (मुख्य मुनिनां नामोनी) नोंध आ प्रमाणे छ : उसमानपुर वानरर्षि राजधनपुर विनयसुन्दर राजनगर पं. ज्ञानविमल कुमरगिरिपुर विजयसागर वटपल्ली पं. पद्मविजय विश्वलपुर (वीसलपुर) पं. मुनिविजय सिद्धपुर कृष्णर्षिगणि महीशानपुर (महेसाणा) पं. श्रीवन्तमुनि विद्यापुर पं. कीर्तिसार कटी (कडी) पं. शुभविजय ८९ थी ९३मां हीरगुरु-सहवर्ती वा. विमलहर्ष, पं. सोमविज आदिनां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामो छे, अने ९५मा पद्यमां ते दरेकने 'अनुनति - अनुवन्दना' जणावी छे. बधां पत्रोमां 'नत्यनुनती' एटले के वन्दना - अनुवन्दना एम बे शब्द होय छे, अहीं एक ज प्रयोजायो छे. केम ? कारण के पत्र विजयसेनसूरिए लख्यो छे, अने तेओ 'वन्दना' कहे तेवी कोई बीजी व्यक्ति छे ज नहि; बधा तेमनाथी लघु ज छे, तेथी तेओ 'अनुनति' ज लखे ! आम, आ उपरथी पण आ पत्र सेनसूरिनो होवानुं अनुमान सुदृढ थाय छे. आ पत्र सूरतना ने. वि.क. ज्ञानमन्दिरथी मळेल छे. 37 ( ३८ ) आ पत्र १०४ श्लोकप्रमाण छे, पण तेना प्रथम १-७३ श्लोकोवाळां पानां अप्राप्त होई ते त्रुटित ज मळ्यो छे. पत्र कोना उपर लखायो छे ते अंगे स्पष्ट कोई नामोल्लेख तो नथी, परन्तु ते विजयसेनसूरि उपर लखायानुं वधु सम्भवित जणायुं छे. लेखकनुं नाम पण नथी, परन्तु साथी साधुओनां (हीरविमल वगेरे) नाम जोतां लेखक स्वयं पण विमल शाखाना होय ते वधु सम्भवित छे. उपलब्ध पत्रांशमां ७५-८७ गुरुवर्णननां पद्यो छे. पछी विज्ञप्ति, तत्रस्थ मुनिगणनो उल्लेख, स्वसहवर्तीओनो उल्लेख अने आसो शुदि ४ना पत्र लख्यानी नोंध साथै समाप्ति थई छे. आ पत्र पण ला. द. विद्यामन्दिरनो छे अने तेनी जे. मुनि श्री धुरन्धरविजयजी तरफथी मळेल छे. ( ३९-४० ) आ बे पत्रो पं. लावण्यविजयजीए अहिमन्नगर ( अहमदनगर हशे ? ) थी गच्छपति श्री विजयदेवसूरि उपर लखेला छे. पहेलो पत्र त्रुटित तेम अपूर्ण छे, अने बीजो पत्र अपूर्ण छे. पत्र १, २६मा पद्य सुधी त्रुटित छे, २६ना पश्चार्धथी ३६ सुधी गुरु बिराजे छे ते नगरनुं वर्णन छे बन्ने पत्रो एक ज नगरनुं वर्णन करतां होवाथी १ मां ३६मुं अने २मां २० मुं पद्य महदंशे समान लागे छे. ३७मां अहिमन्नगरनो उल्लेख, ३८मां लेखकनुं नाम तथा विज्ञप्ति-संकेत, पछीनां पद्योमां ग्रन्थवांचन तथा पर्वकृत्योनुं निवेदन, ४९-६८ मां गुरुवर्णन पछी पत्र माटे विज्ञप्ति, वन्दननिवेदन, तत्रस्थित विजयसिंहसूरि, वा. चारित्रविजयजी, बा. लावण्यविजयजीना नामोल्लेख आम चालेलो पत्र अहीं अधूरो ज रहे छे. पत्र तो आखो होय, मळ्यो छे अपूर्ण. अहीं वा. चारित्रविजयजीने 'धन्य अणगारतुल्य' (७३) वर्णव्या छे, ते परथी तेओ उग्र तपस्वी होय तेम मानवुं जोईए. Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 पत्र २, ३५मा पद्यपर्यन्त ज उपलब्ध छे, शेष अंश त्रुटित छे. मङ्गल, नगरवर्णन, गुरुवर्णन ए क्रमे ज आ पत्र पण चाले छे. पत्र १मां ३६मामां अने पत्र २ मां २०मा पद्यमां 'लक्ष्मीनिकेतन' तथा 'लक्ष्मीक्रीडागृहे' एवो शब्द नगर माटे प्रयोजायेल छे, तेथी लक्ष्मीपुर के लक्ष्मीनिवासपुर के एवं कांई नगर - नाम होई शके ? एवो प्रश्न थाय. जोके ते तो ऐतिहासिक सन्दर्भों मेळवीए तो ज जाणी शकाय. आ बन्ने पत्रो कोबा - श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानभण्डार तरफथी सांपड्या छे. ( ४१ ) महदंशे गद्यात्मक अने अपूर्ण प्राप्त आ पत्र, दधिपद्र (दधिस्थलीदेथळी) थी श्रीविनयवर्धने, रायधन्न ( राधन) पुरे विराजता विजयदेवसूरि उपर, सं. १७०२मां लख्यो छे. लेखकनी चमत्कृति - जनक विद्वत्ता पत्रना विशिष्ट गद्यपाठमां सुपेरे झळके छे. अन्यथा आ एक सामान्य पत्र छे, जेमां चोमासा व. नां कार्योनुं निवेदन होय छे. विनयवर्धनना अन्य विविध पत्रो 'विज्ञप्तिलेखसङ्ग्रह' आदिमां प्रकाशित छे. आ पत्र पाटणना सागरगच्छ जैन ज्ञानभण्डारमाथी प्राप्त थाय छे. ( ४२ ) आ पत्र मुनि हीरचन्द्रे विजयदेवसूरिने पाठवेलो छे. ते अपूर्ण प्राप्त थयो छे. ते त्रुटित पण छे. प्रथम १ पद्य पछी २ - २४ पद्यो त्रुट्यां छे (नथी), अने २५ माथी पत्र आगळ वधे छे. अन्य पत्रो जेवो ज वर्णनक्रम छे. १२ दिननुं अमारि प्रवर्तन (४०) ए लगभग घणा पत्रोमां खास वांचवा मळे छे. सम्पादके नोंध्युं छे तेम, आ पत्रमांना घणा श्लोको, लेखकना गुरु मेघचन्द्रे विजयसिंहसूरिने लखेल पत्रमां (आ अङ्कमां पत्र क्रमाङ्क ११) पण जोवा मळे छे. ५७मा पद्य पछीनो पत्रांश अपूर्ण ज रह्यो छे. आ पत्र सूरत ने.वि. क. ज्ञानमन्दिरथी मळेल छे. Jain Educationa International - (83) आ पत्रनी हस्तप्रत जैन आत्मानन्दसभा - भावनगरथी मळी छे. प्रतमां पहेलां ‘स्वस्तिश्रीकमनीयमंड्रिकमलं' ओवा मङ्गलाचरणथी शरु थतो अने ९७ श्लोकोमां पथरायेलो सुन्दर पत्र लखेलो छे. आ पत्रनी रचना लावण्यविजयजीओ For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज करेली छे. आ पत्र विज्ञप्तिलेखसङ्ग्रहमां प्रकाशित होवाथी अत्रे मुद्रित नथी को. प्रतमां ते पत्र पूर्ण थया बाद प्रस्तुत पत्रांश लखवामां आव्यो छे. लेखके जो के अनाभोगवश आ पत्रांशने पहेला पत्रनो ज भाग गणी पत्रांशना पहेला श्लोकने ९८ मो क्रमाङ्क आप्यो छे. पण वास्तवमां आ श्लोको, कोईक पत्र के जे सम्भवतः लावण्यविजयजीओ ज लखेलो हशे तेनो, नगरवर्णन धरावतो अंश छे. आ पत्र जे पूज्य पर लखायो हशे ते ते समये मेवाडना उदयपुर नगरमां हशे तेम आ वर्णन परथी समजाय छे. पत्रमा छेल्ले जे गद्यांश छे ते ईडरने सम्बन्धित छे. आ गद्यांश कोईक त्रीजा ज पत्रनो अंश हशे? पत्र सम्पूर्ण मळे तो ज आ वात नक्की थाय. प्रतमां हजु घणी जग्या खाली छे अने छतां पत्र अपूर्ण छे, तेथी अम जणाय छे के प्रतलेखकने पण पत्र अपूर्ण ज मळ्यो हशे. (४४) आ एक प्राचीन पत्र छे, जेनुं ऐतिहासिक मूल्य घणुं आंकवू घटे. अपूर्ण होवा छतां जेटलो भाग मळ्यो छे ते पण ओछो मूल्यवान् नथी. १५मा शतकनो आ पत्र छे. कोणे अने क्यांथी लख्यो छे तेनो अन्दाज मळतो नथी, पण अहम्मदावादनगरे विराजता वाचक श्रीहेमहंसगणि उपरनो आ पत्र छे ते तो स्पष्ट छे. हेमहंस गणि ए व्याकरणविद्याना अभ्यासीओ माटे श्रीहेमचन्द्राचार्य जेवू ज आदरणीय नाम छे. तेमणे रचेल न्यायसङ्ग्रह-वृत्ति, षडावश्यक-बालावबोध सहितना ग्रन्थो आजे पण अध्ययननो विषय छे. पत्रगत ४ था चित्रकाव्यात्मक पद्योमा हेमहंस ए नाम जे रीते, एकेक चरणमां एकेक अक्षर ३-३ वार आवर्तन पामे तेम गुंथ्यो छे, तेमां लेखक, अद्भुत काव्यकौशल तो प्रगट थाय ज छे, पण तेने हेमहंस गणि माटे केटलो अहोभाव हशे ते पण तेमां व्यक्त थई जाय छे. अमदावादमा 'पातसाहि'नुं त्यारे राज्य होवू जोईए, जवेरी माटे ‘यवहरि' शब्द प्रयोजायो छे; ते समये त्यां सङ्घना आगेवान मन्त्री वीसल नामे ब्रह्मचारी श्राद्ध हशे; आ वातो पत्रथी जाणवा मळे छे. लेखक ज्यां हशे ते गाममां पर्युषणमां कल्पसूत्रनी ९ वाचना अने तेमां ९ प्रकारनी प्रभावना इत्यादि कर्तव्योनी आछेरी नोंध पण ध्यानार्ह छे. तत्रस्थित साधुओनां अने साध्वीओनां नामो पण नोंधपात्र छे. पत्रनो थोडोक अंश बाकी रही गयो होय तेम लागे. आ पत्र ला.द. विद्यामन्दिरमा हशे. अमने मुनि धुरन्धरविजयजीए तेनी जे० आपेल छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) उपाध्याय यशोविजयजीनी वधु एक पद्यरचना आ पत्र-खरडाना रूपे मळी छे, अने वळी ते तेमना स्वहस्ते लखायेल छे. झांखी अने लगभग गरबडिया कही शकाय तेटला बारीक अक्षरे लखायेला पत्रनी जेरोक्स परथी आ स्वरूपे नकल ऊतारतां श्रम तो खासो पड्यो, परन्तु महदंशे उकेली शकायुं तेनो सन्तोष घणो छे. आ पत्र ते लखवा धारेला मोटा/विस्तृत पत्रना मुख्य विभागोना काचा खरडा (Draft) समान छे. १. मङ्गलाचरण, २. नगरवर्णन, ३. ऊना नगर (द्रङ्ग)ना नामनुं वर्णन, ४. ऊनानुं ज वर्णन - आम ४ विभागो, खरेखर तो बे ज विभागोनू, पद्यात्मक वर्णन लेखके कयुं छे. दरेक वर्णन-विभाग माटे तेमणे एक एक पंक्ति रची छे, अने पछी दरेक श्लोकना चोथा चरणरूपे ते पंक्तिने गोठवीने, पादपूर्तिरूप श्लोको रचतां जईने, पोताने जेवू वर्णन करवू छे ते कर्यु छे. प्रथम विभाग माटे 'पलायते पञ्चमुखः करेणोः' एवं पद नक्की करीने पछी २० पद्यो ते पदनी समस्यापूर्तिरूपे गुंथ्यां छे. आमां तेमनी अगाध प्रतिभानां ज दर्शन आपणने थाय छे. बीजा विभाग माटे 'लोहितो जयति यामिनीपतिः' एवं पद रचीने ८ पद्यो वडे तेनी समस्यापूर्ति करी छे. त्रीजा विभागमां 'तथोन्नतद्रङ्ग इहोन्नतत्वम्' पद बनावीने ८ पद्योथी पादपूर्ति करी छे, तो चोथा विभाग माटे ‘मन्ये निशायामुदितो दिनेशः' एवं पद नक्की करीने तेनी पादपूर्ति रूपे १० श्लोको रच्या छे. ___अमदावाद चोमासुं करीने ऊना पधारनार विजयदेवसूरि उपर लखवा धारेलो आ पत्र होय तेवो आशय अनुमानी शकाय छे. चोथा विभागमा ८मुं पद्य अन्तर्लापिकानुं सुन्दर उदाहरण बन्युं छे. प्रतमा उपाध्यायजी भगवन्ते स्वहस्ते घणा सुधारा कर्या छे. आवा सुधारेला स्थळे सुधारेलो पाठ मूळमां राखी जूनो पाठ टिप्पणमा 'प्रापा०' ओवी निशानी साथे नोंध्यो छे. उपाध्यायजी भगवन्ते अमुक स्थळे करेली अर्थसूचक/ विभक्तिसूचक टिप्पणो पण 'टि.' ओवी संज्ञा साथे नोंधी छे. टिप्पणमां ५.१नो अर्थ ५मी विभक्ति-अकवचन छे. 'रा'नो अर्थ 'पलायते' ने बदले ‘परायते' करवं - अवो समजवानो छे. आ पत्रनी नकल राधनपुरना श्रीलावण्यविजयजी ज्ञानभण्डारथी उ. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 भुवनचन्द्र म. द्वारा मळी छे. (४६) उपाध्याय मेघविजयजी ए १७मा-१८मा सैकाना बहुश्रुत विद्वान् अने ग्रन्थकार साधुपुरुष छे. तेमनां खण्डकाव्य जेवां विज्ञप्तिपत्रो - मेघदूतसमस्यालेख, सेवालेख वगेरे अन्यत्र प्रसिद्ध छे. ते ज शृङ्खलामां मूकी शकाय तेवो काव्यात्मक पत्र तेमणे लखवा लीधो हशे तेवू, आ पत्रांशरूपे प्राप्त पत्रना (अधूरा) मङ्गलाचरणना ज फक्त २८ पद्यो जोतां कळी शकाय छे. २८ पद्योमां भगवान ऋषभदेवनी ज वातो करी छे. मङ्गलाचरणनी आ छटा जोतां आखो पत्र पत्र नहीं, पण पत्र-काव्य ज होय, एम कहेवामां अत्युक्तिदोष जणातो नथी. आ पत्रनी प्रति जोधपुरना राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठानमां सचवाई छे, तथा त्यां तेना पर कर्ता तरीके मेघविजयजीनुं नाम लखेल छे, तेथी अत्रे तेमना नामे ज आ पत्र मूकवामां आव्यो छे. उ. भुवनचन्द्र म. द्वारा ओ प्राप्त थयेल छे. (४७) पाटणथी पं. लब्धिविमलजीए जीर्णदुर्ग-जूनागढ विराजता (सम्भवतः विजयदेवसूरि) गुरु उपर लखेलो, अपूर्ण-प्राप्त आ पत्र ६३ श्लोक जेटलो छे. सौराष्ट्रनो उल्लेख (१४) तथा जीर्णदुर्गनो उल्लेख (५२) जोई शकाय तेम छे. बाकी सघळां पत्रोनी जेमज नगरवर्णन आदि छे. राजवर्णन छे, पण राजानुं नाम लख्यु नथी. आ पत्र ला.द.विद्यामन्दिरनो हशे, पण तेनी जे० नकल मुनि श्रीधुरन्धरविजयजी द्वारा प्राप्त थयेल छे. (४८). आ पत्र तपगच्छपति (विजयप्रभसूरि?) उपर रङ्गविजयजीए लखेलो छे. क्यांथी लख्यो छे ? क्यां लख्यो छे ? ते जाणी शकातुं नथी. पण मारवाडमां ज लखायो होय ते वधु सम्भवित छे. गच्छपतिना चित्तमां कशीक चिन्ता वर्ते छे : साधुवर्गमां तथा अमुक क्षेत्रोना श्रावकोमां बे भाग पडी गयानी तेमने दहेशत हशे तेवू पत्र वांचतां जणाय छे. लेखक १ ज श्लोक द्वारा तेनुं निर्मूलन करी वाळे छे, अने सप्तच्छदी (सादडी), वन्ध्यपुर, घ्राणपुर (घाणेराव), देवसूरि (देसूरी), नाडूल, खीमेल, साण्डेराव इत्यादि क्षेत्रोना लोको स्वपक्षमां ज स्थिर होवा- भारपूर्वक जणावे छे. आनन्दपुरना गोकल नामक मनुष्य जोडे 'गूढपाट' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 (कोई गाम हशे ?) (के 'पाट'नो कबजो लेवा तत्पर लोको द्वारा गूढ पाटनी कोई हिल चाल विषे संकेत हशे ? ) सम्बन्धी समाचार पत्रथी मोकल्या होवानुं तथा जगत्तारणी (जैतारण) तेमज शुद्धदती ( सोझत) पण पत्रो लख्या छे तेवो उल्लेख, परिस्थिति नाजुक होवानो अणसार आपी जाय छे. लेखक आवी स्थिति साथे काम पाडवामां तथा बहार नीकळी जवामां निपुण तेमज पूज्यना विश्वासभाजन होय तेम समजाय छे. श्रीपूज्यवती यादवाधीश्वर (राजा) ने हमेशां मळवानी वात पण नोंधपात्र छे. आ पत्रनो प्रारम्भिक भाग मळ्यो न होवाथी ते त्रुटक गणाय. आ पत्रनी जे० निजी सङ्ग्रहनी छे. ( ४९ ) अपूर्ण रूपमां ज उपलब्ध, ३८ श्लोकप्रमाण आ पत्र रूपचन्द्रमुनिए डभोक गामथी इलादुर्ग - ईडर बिराजता गुरुने ( सम्भवतः विजयदेवसूरि पर) लखेल छे. आ पण अन्य पत्रो जेवो ज सरेराश पत्र छे. आ पत्र पण सूरतना ने.वि.क. ज्ञानमन्दिरथी मळ्यो छे. (५०) आ पत्र मुख्यत्वे गद्यात्मक छे अने तेनो प्रारम्भभाग त्रुटित - अनुपलब्ध छे. पण ते कोई उत्तम विद्वाने लख्यो छे ते तेनुं भाषापाण्डित्य जोतां ज जणाई आवे छे. पत्र कोई गच्छपति के आचार्य उपर लखायो छे. पत्रमां 'श्रीसमुदाय' शब्द वारंवार प्रयुक्त छे, ते आचार्यना संघाडा माटे के अनुयायीगण माटे होय तेम मानी शकाय. अभय ग्रन्थालय, बीकानेरना सङ्ग्रहनो आ पत्र उ भुवनचन्द्र म. ना प्रयासथी प्राप्त थयो छे. ( ५१ ) आ पत्र अपूर्ण छे, त्रुटित छे, कोणे, क्यांथी, कोना पर, क्यां लख्यो छे ते जाणी शकातुं नथी. लेखक प्रतिभासम्पन्न होवानुं तो प्रथम पद्य ज सूचवे छे. २-११मां विविध मुनि - नामो छे ते जोतां, आ पत्र कोई तपगच्छपतिने लखायो होय ते वधु सम्भवित लागे छे. आ पत्र पण निजी सङ्ग्रहनो छे. (५२-५३-५४) विज्ञप्तिपत्रोना प्रत्युत्तररूपे गुरुजनो तरफथी लखवामां आवतो कृपापत्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43 ते प्रसादपत्री. विज्ञप्तिपत्र शिष्य लखे, कां सङ्घ लखे; गुरु तेनो जवाब आपता ज होय, परन्तु तेवा प्रत्युत्तर पत्र एटले के प्रसादपत्र हजी सुधी क्यांय प्रकाशित थया होवानुं जाणमां नथी. ते आ अङ्कमा प्रथम वखत ज प्रकट थई रह्या छे. गच्छपति श्रीविजयप्रभसूरिए लखेल ऋण प्रसादपत्रीओ मळी छे, ते त्रणे अहीं सळंग आपेल छे. तेमां प्रथम पत्र (क्र. ५२) तथा त्रीजो पत्र ( क्र. ५४) आखा मळ्या छे, बाकीनो एक (क्र. ५३) अधूरो मळ्यो छे. त्रणे पत्रोनो भाषावैभव, समासप्रचुर सुदीर्घ वाक्यरचना - बधुं कादम्बरीनी आछेरी झलक दर्शावी जाय छे. पद्यरचना पण प्रौढ छे. प्रथम प्रसादपत्र श्रीसौभाग्यविजयजी उपर लखायो जणाय छे. प्रथम पत्रना बे हिस्सा छे. प्रथम हिस्सो गच्छपतिए लखेल पत्ररूप छे. तेमां द्वीप बन्दिर (दीव) नो उल्लेख छे, पण कोने अने क्यां लखेल छे ते जाणवा नथी मळतुं. पण बीजा हिस्सामां जे १० पद्योनो लघु पत्र छे, ते गच्छपति साथेना कोई विद्वान् मुनिवरे अलगथी लखीने प्रसादपत्र साथै जोडी दीधेल पोतानी चिठ्ठीरूप छे. तेमां सौभाग्यविजयजीनुं नाम पण (१०) वांचवा मळे छे, अने तेओ नवीननगरनवानगर एटले के जामनगरमां बिराजमान होवानुं (२) पण जाणी शकाय छे. ते आधारे आ प्रसादपत्र पण तेओने ज, तेमना पत्रना जवाबरूपे लखायो छे एम मानी शकाय . सौभाग्यविजयजी विषे विशेष माहिती उपलब्ध थती नथी, परन्तु पत्रमां गच्छपतिए तेमना प्रत्ये जे आदर दर्शाव्यो छे ते जोतां तेओ गच्छस्थविर तथा पर्यायवृद्ध मुनिवर होय तेवुं अनुमान थाय छे. गच्छपति ते समये द्वीप (दीव) मां बिराजे छे, अने त्यां पोतानी निश्रामां थयेल धर्मकृत्यो विषे जे सद्भावथी वर्णन लखे छे ते हृदयस्पर्शी लागे छे. श्रावकोनी सभामां सघळा सिद्धान्तोनो स्वाध्याय थतो हशे अने तेना अन्वये उत्तराध्ययननो स्वाध्याय; तृतीय - ठाणांगसूत्रनी (सटीक) वाचना; साधुसाध्वीओनां पठन-पाठन; नाण मांडीने उपधान - वहन, ब्रह्मचर्यादिव्रतोनुं उच्चारण; ऊजमणां सह तपस्याओ, माळारोपण, दीनजनअनुकम्पादान; पर्युषण-अमारिप्रवर्तनादि कृत्योनुं विशद वर्णन केटलुं सन्तर्पक छे ! गच्छपति आ बधांमां 'श्रीमद्ध्येय' ना ध्यानना प्रभावने कारण गणावे छे, जे तेमनी गरिमानो संकेत आवी जाय छे. पत्रना मङ्गलश्लोकोमां सुविधिनाथ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 भगवान् (पुष्पदन्त)नी स्तुति थई छे ते पण सूचक छ : दीवना जिनालयना मुख्य भगवान् सुविधिनाथ आजे तो छे, ते वखते पण हता, तेम आथी पुरवार थाय छे. प्रसादपत्र साथे जोडेल १० श्लोकनो लघुपत्र, सौभाग्यविजयजीना मित्र अने तेमना प्रत्ये प्रीति धरावनार मुनिजने लखेल पत्र छे, जेमां लखनार, नाम नथी. हल्लारदेश (हालार), नवीननगर (जामनगर) तथा सौभाग्यविजयजीनुं नाम - आटलां तथ्य तेमांथी मळे छे. आ पत्रना हांसियामां 'सं. १७१५ वर्षे' एवी नोंध छे, ते परथी १७१४१५मां गच्छपति दीव रह्यानो तथा ते वर्षे आ पत्र लखायो होवानो ख्याल आवे छे. बीजो (क्र. ५३) प्रसादपत्र जीर्णदुर्ग-जूनागढथी लखायो छे. हांसियामां 'सं. १७१७ वर्षे' ए मतलबनी नोंध छे, तेथी ते वर्षे विजयप्रभसूरि त्यां रह्या होवानो निश्चय थाय छे. मङ्गलाचरणमां श्रीनेमिनाथने स्तव्या छे ते पण ते वातने पुष्टि आपे छे. आ पत्र पण कोना उपर लखायो छे ते अंगे कशो निर्देश पत्रमां थयो नथी, परन्तु गच्छपतिना शब्दोमां व्यक्त थतुं बहुमान जोतां, आ पत्र पण सौभाग्यविजयजी पर के तेवा कोई स्थविर मुनिजन पर ज लखायो होवानुं मानी शकाय. अहीं स्वाध्याय तथा वाचनामां पञ्चमाङ्ग भगवतीसूत्र तथा सटीक जीवाभिगमसूत्रनां नाम छे, अने धर्मकृत्योनी यादी पूर्ववत् ज आपेल छे. पत्र अधूरो छे. छेल्ले, जेमना पर आ प्रसादपत्र लखायो छे तेमना तरफथी मळेल पत्रनी वात चाले छे जे अपूर्ण ज रही गई छे. आ बन्ने पत्रनी नकल ला. द. विद्यामन्दिरथी प्राप्त थयेल छे. त्रीजो पत्र (क्र. ५४) मेदिनीपुर (-मेडता)थी लखायो छे. मङ्गलाचरणमां पार्श्वनाथनी स्तुति थई छे तेथी ते गाममां पार्श्वनाथनुं देरासर होवू जोईए एवू, पूर्वना २ प्रसादपत्रोना आधारे, कही शकाय. आमां पण बहुमाननो भाव तो व्यक्त थतो जणाय ज छे, तेथी आ पत्र पण कोई वृद्ध पुरुष पर, पत्रोत्तररूपे, लखायो होय एवं अनुमान थई शके तेम छे, आ पत्रमा भगवतीसूत्रनो स्वाध्याय तथा प्रश्नव्याकरणसूत्र-वृत्तिनी वाचनानी वात आवे छे. स्वाध्यायनी आवी वातो विजयप्रभसूरि माटेना केटलाक रूढ ख्यालो पर फेरविचार करवा प्रेरे तेवी लागे छे. आमां पोतानी साथेना साधुओनां नामो पण छे ते विशेषता छे. आ नामोमां विजय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 रत्नसूरि अने उ. सौभाग्यविजयजीनुं पण नाम छे, ते जोतां आ पत्र सौभाग्यविजयजीथी अलग कोई अन्य उपर लखायो होवानुं मानवुं प्राप्त थाय छे. आ पत्र पूर्ण रूपे मळ्यो छे. आ पत्रनी जे० मुनि श्रीधुरन्धरविजयजी द्वारा प्राप्त थयेल छे. (५५) आ पत्र १९ अनुष्टुप् श्लोकात्मक छे. काव्यचमत्कृति के भाषावैभवने स्थाने आमां वृत्तान्त-निवेदन अने प्रत्युत्तर ए ज मुख्य वस्तु छे. स्तम्भतीर्थे विराजता श्रीज्ञानविमलसूरि, राजद्रङ्ग अर्थात् राजनगरे विराजता पोताना सम्भवतः पर्यायवृद्ध-गुरुभाई वाचक जीतविमलजीने, तेमना पत्रना उत्तररूपे आ पत्र पाठवे छे. लेखक आचार्य छे, ओटले वडील गणाय, ते अपेक्षाए आने प्रसादपत्री तरीके गणी शकाय; बाकी पत्रमां तेवो कोई निर्देश नथी. केटलाक रसप्रद मुद्दा Jain Educationa International - श्रीसुखसागर पार्श्वनाथनुं देरासर तथा बिम्ब खम्भातमां हतुं अने छे, तेमने स्तवीने मङ्गल कर्तुं छे. लागे छे के ते काळे ते बिम्बनुं माहात्म्य विशेष हशे . आवश्यक-वृत्तिनुं व्याख्यान चालतुं होवानुं जणाव्युं छे. ते परथी ते समयना श्रोता जनो केटला प्रबुद्ध अने अभ्यासी हशे ते समजाय छे. पद्य ७मामां स्वर्णरूप्यादिमुद्राथी अङ्गपूजा थयानो पण निर्देश छे. आनो अर्थ ए छे के मध्यकाळमां केटलाक भगवन्तो अङ्गपूजा करवा देता हता, आजनी जेम करावता नहोता. 'अनुसन्धान'नां पृष्ठो पर पूर्वाचार्योनी आवी वातो छपायेली जोईने, पोतानी नवाङ्गी पूजा करावनारा लोको एम विचारवा मांड्या छे के अमने, आना सम्पादकोने पण आ वात मान्य छे; समर्थन कर्तुं छे. आग्रही बत निनीषति युक्ति० ए सुभाषित अहीं सांभरे. पोतानी मान्यता होय तेने साची ठेरववा माटे ज अयोग्य जनो युक्तिओनो/ सारी वातोनो उपयोग करे एवो तेनो अर्थ थाय छे. शाणा माणसोनो स्पष्ट मत ए छे के पूर्वना महान् आचार्योए जे कर्तुं तेने आधार बनावीने आपणाथी तेवुं ना ज कराय. ए महापुरुषोए जे साधना तथा शासनसेवा करी हती तेनो एक छांटो पण आपणे करवा शक्तिमान नथी. शासनप्रभावनाना आवरण हेठळ स्वप्रभावना अने ते माटे दम्भ-प्रपञ्च करवा सिवाय कांई आवडतुं न होय, अने छतां महापुरुषोनी आवी वातोना दाखला लईने पोतानी अङ्गपूजा करावीने अनर्थ - अनाचारोने पोषवा होय, तेवा लोको गमे ते माने, बोले, For Personal and Private Use Only - Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करे, ते मूल्य शून्यवत् ज गणाय. थोडांक वर्ष अगाऊ, आ ज मुद्दा उपर मुम्बईहाईकोर्टमां केस चाल्यो त्यारे तेना विद्वान् न्यायमूर्तिश्रीए पोताना चुकादामां जणाव्यु हतुं के "मनुष्य ईश्वरनी - तेना कोई स्वरूपनी पूजा करे ते तो समजाय, पण एक माणस बीजा जीवता माणसनी पूजा करे - करावे - ए केटलुं योग्य छे ? ए समजमां आवतुं नथी. माणस बीजा माणसनी पूजा करे ए बराबर नथी." कोर्टना शब्दो याद नथी, भाव ज नोंध्यो छे. शास्त्र, सङ्घ तथा आचार्यो करतांय कोर्टने वधु माननारा लोको, कोर्टना आ मुद्दाने सगवडपूर्वक चातरी शके छे. ढूंकमां, सम्पादकनुं काम तो सामे जे कृति होय तेने तेना शक्य एटला शुद्ध रूपमां तैयार करी प्रकाशित करवी तेटलुं ज छे. तेमां वर्णित वातो-पदार्थो-घटनाक्रमो साथे सहमत-असहमत थवानो सम्पादकने कोई अधिकार न होय. एटले सम्पादकने नामे आवी तुच्छ वातोमां राचनारा लोको आ पत्रगत अङ्गपूजानो उल्लेख जोईने हजी पण कोई प्रचार करे तो ते निरर्थक प्रपञ्च सिवाय कशुं नहि होय. अस्तु. श्रीजीतविमलजी माटे लेखकने भारे बहुमान छे तेम १०-१२ पद्यो परथी जणाई आवे छे. पोते स्तम्भतीर्थमां छे, त्यारे साथे सौभाग्यसागरसूरि नामक आचार्य पण त्यां छे तेवी सूचना पद्य १३ थी मळे छे. जीतविमलजीए ‘सादेव' नामे गृहस्थ साथे पहेलां पत्र मोकल्यानी नोंध पण छे (१८). सम्भवतः तेना ज प्रत्युत्तरमां आ प्रसादपत्री छे. (५६) अपूर्ण अने वचमां क्यांक क्यांक तूटतो आ प्रसादपत्र (अंचलगच्छीय) आ. विद्यासागरसूरिए लखेल छे. क्यां अने कोना पर ते जाणी शकाय तेम नथी. लेखक-मङ्गलमां गौडी पार्श्वनाथने अने साथे पोताना गुरु अमरसागरसूरिने पण स्मरे छे. बुर्हानपुर (महाराष्ट्रमां खानदेश विस्तार)थी पत्र लख्यो छे. जालणा (जालना), औरङ्गाबाद आदि क्षेत्रोमां विचरीने तेओ बुरानपुरे चोमासुं आव्या छे. व्याख्यानमां विशेषावश्यक भाष्यनी टीका, वांचन थतुं होवानुं नोंध्यं छे. मोतीचन्द्र नामे प्रमुख श्रावक त्यां हशे, तेनुं नाम पण छे. पर्वनी उजवणी उत्तम ठाठथी थई तेनुं तथा प्रभावना, पारणांनुं विस्तृत वर्णन रसप्रद छे. पत्र २४ श्लोको पछी तूटे छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___47 (५७) सूरति-सूरत बन्दरथी विधिपक्षगच्छनायक आ. विद्यासागरसूरिए नान्दसमा (उ.गु.) गामे विराजता वा. मेघराजगणि पर लखेल आ प्रसादपत्री छे. तेमणे आमामी वर्षना क्षेत्र माटे आदेश (पत्रथी) मंगाव्यो हशे, अने तेनो उत्तर "तुमनैं श्रीनान्दसमा गुढलानौ आदेश 3 ते प्रीछजौ" एवा अन्तभागे लखायेल वाक्यथी आपवामां आव्यो छे, ए रीते आ पत्र प्रसादपत्र होवानुं स्वीकारी शकाय.. ___पत्रमां वृत्तान्त घणा विस्तारथी आलेखायो छे. पोते पत्तन-पाटणथी विहार करी नाग(बाई)नामे श्राविकाना आग्रहथी 'चान्दसमा' (चाणस्मा) आव्या, त्यां भट्टेवापार्श्वनाथने वांद्या (४). क्रमशः वैराटनगरे आव्या. वैराट ते हालतुं धोळका अथवा तेनी नजीकनो प्रदेश. त्यां कलिकुण्ड पार्श्वनाथने जुहार्या (६-७). त्यां गुरु अमरसागरसूरि हता, तेमनी पासे मासकल्प करी (१०) क्रमशः सूरत आव्या. त्यां प्रथम प्रवेश हरिपुरा कों, वेणि अद्दाक नामे श्रावके तेनो उत्सव को (११). जेठ शुदि पांचमे मोटा उपाश्रये आव्या, त्यां शाह कपूर संघवीए श्रीफल वहेंच्यां (१२), प्रवेशोत्सव कर्यो. आचाराङ्गनुं व्याख्यान, सिद्धान्तचन्द्रिकानुं पठन-पाठन; पर्युषण आवतां गामोमां अमारिघोषणा, कल्पसूत्र घरे लई जवू, घोडाना स्कन्ध पर पार्छ लावी वहोरावq, १० व्याख्यानो, 'द्वादशशत-बारसासूत्र'नुं वांचन, तपश्चर्याओ, प्रभावना तेमज लभ्यनिका - लहाणी, पारणां इत्यादि धर्मकार्योनुं विगते वर्णन थयुं छे, ते रसप्रद तेमज दस्तावेजी बनी रहे तेवू छे. बाकीनी वातो स्वयंस्पष्ट छे. पत्र पूरो थया बाद वि.सं. १७७९नी अंचलगच्छने अनुसारी पर्वतिथिनी टीप आपवामां आवी छे. एक बाबत नोंधवी योग्य लागे छे. आ तमाम पत्रोमां लगभग पर्युषणतथा तेनां कर्तव्यो- ट्रॅकुं के विस्तृत वर्णन मळे छे. आमां क्यांय चौद स्वप्नदर्शन, तेना माटे बोली बोलाई - ए वातनो अछडतो पण निर्देश जडतो नथी. देवद्रव्यनी वृद्धिनी आवी विगतनी साव उपेक्षा शा माटे करी हशे? के पछी आ बाबतनी ते समय प्रवृत्ति ज शरु नहि थई होय ? गम्भीरताथी विचारवा जेवो आ मुद्दो लागे छे. (५८) आ पत्र विज्ञप्तिपत्र पण नथी, प्रसादपत्रीं पण नथी. आ पत्र एक साधुजने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 एक ब्राह्मण विद्वान् उपर लखेल स्नेहपत्र छे. सम्भव छे के ए विद्वान् पासे ते साधुए अध्ययन कर्यु होय, अने तेथी पोताना विद्यागुरू तरीके तेमने तेमना माटे भक्तिभाव होय, जे आ पत्रमा तेमणे स्पष्टतः प्रगट कर्यो छे. पत्रलेखक मुनि वृद्धिविजयजी छे. दशपुर नगरथी तेओए आ पत्र, ब्रनपुर (सूर्यपुर ?) वसता विद्वान् नागेश्वरभट्ट उपर पाठव्यो छे. २-८मां ब्रनपुर- वर्णन कर्यु छे. १०मां पत्रनी अपेक्षा दर्शावी छे. ११मुं पद्य भट्टनां विशेषणोथी छलकाय छे - प्रशंसात्मक पद्य. १२-१४मां पण भट्टनी ज प्रशस्ति छे. १५मां पोते भट्टने नमस्कार पाठवे छे, साथेज तेमना मित्र मदनभट्टने पण नमस्कार कहावे छे. पछीनां पद्योमां अनुनयपूर्वक जणाव्युं छे के में पूर्वे अनेक पत्र तमने लख्या छे, पण तमारा तरफथी एक पण प्रत्युत्तर नथी मळ्यो ! हुं तमारो छु ए जाणशो, अने कृपा करी पत्र लखजो, इत्यादि. विज्ञप्तिपत्रोनी शोध चलावतां आ पत्र पण हाथ चडी गयो, तो ते अत्रे आप्यो छे. ५५-५८ आ चारेय पत्रो सूरतना ने.वि.क. ज्ञानमन्दिरथी प्राप्त थयेल छे. हवे पछी, एक अङ्क प्रगट कर्या पछी, ६३मो अङ्क ते विज्ञप्तिपत्रविशेषाङ्कना त्रीजा खण्ड तरीके प्रगट करवानो इरादो छे. हजी केटलाक संस्कृत पत्रो बाकी रह्या छे ते, तेमज गुजराती अथवा मारुगूर्जर कही शकाय तेवी भाषामां अनेक विज्ञप्तिपत्रो उपलब्ध छे, ते बधा (प्राप्य) पत्रोना प्रतिलिपीकरण तथा सम्पादन- काम चाली रयुं छे. ते बधी सामग्री तैयार थयेथी आ विशेषाङ्कनो त्रीजो खण्ड प्रगट थशे. हजी पण कोई पासे के कोईनी जाणमां विज्ञप्तिपत्रो होय तो तेनी नकल अमने उपलब्ध करावे तो तेने पण ते अङ्कमां समावी शकाय ए ज निवेदन. -X Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१-६) पं. श्रीशान्तिसुन्दरगणिलिखितं पत्रषट्कम् (१) स्तम्भतीर्थस्थ-श्रीसोमसुन्दरसूरि प्रति प्रेषितं पत्रम् ........ ...................... ................. पिञ्जरतरैर्भामण्डलैर्भूषयन्, शान्तिस्तीर्थपतिः सतां स तनुतां, तान्तेर्व्यतीतं पदम् ।।३।। योऽत्याक्षीदायताक्षी नृपतिवरसुतां पुण्यकारुण्ययोगात्, योगासङ्गं वितत्याऽकलयदविकलां यश्च कैवल्यलक्ष्मीम् । हन्तुं भावारिवारं भुवनभयकरं व्यूढवर्मेव भाभिः, स श्रीमान्नेमितीर्थाधिपतिरसुमतां सम्पदे संविदे च ॥४॥ प्रेयस्यर्चय पन्नगेश्वरपति कोऽञ्चेत् प्रभो! शङ्करं, स्वच्छे! श्रीपुरुषोत्तमं स्तुहि न हि स्वामिन्! स्तुतिर्मे हरौ । वन्देथाः परमेष्ठिनं प्रियतमे! किं ब्रह्मनत्या विभो!, यत्सेवास्विति सङ्कथा दयितयोः पार्श्वः स वः श्रेयसे ।।५।। नम्रा यन्नखपङ्क्तिषु प्रतिकृतेः सद्यो दशास्यश्रियं, ___ स्वस्याऽऽलोक्य जगज्जयं करतले कुर्वन्ति चित्रं न तत् । त्यक्त्वा यज्जनकात्मजोपरि रतिं यायुः परां निर्वृतिं, तत्त्वाश्चर्यमनारतं स भगवान् वीरोऽस्तु वः शर्मणे ॥६।। जिनेन्द्रदेवं जगदर्चनीयं, गुरून् सुसाधून् गुणराजिभाजः । प्रमाणसिद्धं जिनधर्ममेव, यत्राऽऽस्तिकास्तत्त्वतया विदन्ति ॥७॥ यत्रोत्तुङ्गविहारहारिणि सुधाश्वेतांशुशुभ्राञ् जिना ___कारान् वीक्ष्य विवेकिनः स्मृतिभरैः संस्थापयन्तो हृदि । तय॑न्ते व्यवसायिभिः किमु अमी भूयिष्ठलाभार्थिनः, शुक्लध्यानकणोत्करान् विदधतो कोष्ठे विशिष्टे निजे ॥८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क यस्मिन् मौक्तिकपङ्क्तिभिः प्रतिपदं चञ्चत्सुर्वणोच्चयैरङ्गत्तुङ्गतुरङ्गमैर्गजघटालीलाविहारैस्तथा । भास्वद्भूषणमण्डलैः शुचितमैर्वस्त्रैः सुशस्त्रैरपि, क्रीडाम्भोज इवोत्तमे सललितं लक्ष्मीविलासं श्रयेत् ॥९॥ तत्राऽनेकमहर्द्धिकोन्नततमावासोत्थितप्रस्फुर त्तेज:ज्योतिरुदग्रडम्बरसदा सञ्जातराकोदये । Jain Educationa International खण्ड २ श्रीपूज्योत्तमपादपङ्कजपतज्ज्यायोरजोऽभ्यागमद् भूयोभद्रपरम्परापरिगते श्रीस्तम्भतीर्थे पुरे ॥१०॥ जयन्ति [ते] श्रीगुरवो गुरुगुरु (?) - स्फुरद्गुणश्रेणिविलासभूमयः । बुधेश्वरा यान् विविधैः स्तुतिक्रमैः, स्तुत्वा लभन्ते विशदार्थसम्पदः ॥११॥ अनाद्यनन्तं बहुदुःखदायकं, विभाव्य ये कर्मविपाकमङ्गिनाम् । अनारतं वेविजतो जगद्गतं, वस्त्वस्थिरं वीक्ष्य शमं बभूविरे ॥१२॥ धर्मादिनिन्दां विदधत्स्वपि स्फुरन् - माध्यस्थ्यमास्थाय समाधिमागताः । बन्धौ सुभक्तेऽन्यतमेऽपि संयते, दृष्टिं समामेव निवेशयन्ति ये ॥१३॥ छेदश्रुतार्थोपनिषन्निषण्ण- मतित्वतो ये व्यवहारविज्ञाः । व्यलीकदृष्टावपि न प्रचण्ड - कोपा भवेयुर्यतिप्रह्वशान्ताः ॥१४॥ ज्ञानत्रयाचारजिनागमादि- पूज्येषु नित्यं विनयं वहन्तः । प्राप्तप्रकर्षेऽपि महाप्रभुत्वे, नाऽहंकृतिं बिभ्रति ये कदाचित् ॥१५॥ मनोवचोवृत्त्यनुसारधारी, येषामनुष्ठानविधिः समग्रः । किमूर्मयो मध्यगता विलग्ना ( ? ) - स्तटस्थिता वा जलधेर्विभिन्नाः ॥ १६ ॥ योगेषु भोगेष्वपि वस्त्रपात्र - परिग्रहोपाश्रयशिष्यसङ्घे । सन्तुष्टचित्ता विहरन्त ऊर्व्यां, भव्याननेकाननुगृह्णते ये ||१७|| सूत्रोदितोत्सर्गविधि समस्त - क्रियाकलापेषु नियोजयन्तः । गीतार्थधुर्या अपवादमप्याश्रयन्ति ये कार्यवशात् कदाचित् ॥१८॥ धर्मार्थिभिर्धीनिधिभिः सुसेव्यान्, विधाय ये योगविधीनशेषान् । प्राप्ता अनुज्ञा सकलागमस्य कुर्युः परेषामपि तत्समृद्धिम् ॥१९॥ द्रव्यादिभावानवगम्य सम्यग् ये संयमोद्योगविधौ प्रवृत्ताः । प्रवर्त्तयन्तोऽपि यतीन् न यान्ति व्रतातिचारं वपुषोऽपि कष्टम् ॥२०॥ For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ मर्यादया संवरपूरवृद्ध्या, विभाव्य यानत्र विधिः समुद्रान् । महाय॑मन्त्रादिकलब्धिरत्न-रपूजयत् पूज्यविधौ विधिज्ञः ॥२१॥ अनेकदेशान् विधिना विहृत्य, विज्ञाय तद्वाक्-सुकृतार्थितादि । सुखेन भव्यानवबोधयन्ति, य आगमार्थं विविधैर्वचोभिः ॥२२॥ येषु श्रुतार्थोपनिषत् प्रकाशते, जगज्जनालादितया च वर्त्तते । आदेयकर्मोदय एव मानुषो-त्तराद् बहिर्ज्योतिरिवाऽर्यमेन्दुभिः ॥२३।। सूक्ष्माऽपि येषामपि तैक्ष्ण्ययोगान्-मतिर्विकुण्ठा विषमेऽपि नार्थे । आस्फोटनी वज्रमुखी कदाचित्, पाषाणभित्तावपि विस्खलेत् किम् ॥२४॥ ये धर्मदाात् प्रियधर्मभावा-दनुग्रहीतुं गणमस्तदोषम् । साधूत्तमान् संयमसाधनानां, विज्ञानमुच्चैरनुशासयन्ति ॥२५॥ प्रयोगयोगैः सुभगानि सारा-लङ्कारवारैः समलङ्कृतानि । विचित्रचित्रैरतिचित्रदानि, काव्यानि येषां सरसानि च स्युः ॥२६।। येषामुपन्यासरणाङ्गणे स्फुर-द्धेतूपपत्तिप्रगुणैर्वचःशरैः । प्रक्षोभिता वादिगणाः पुरःस्थितं, कर्तुं क्षमन्ते न मुहूर्तमप्यहो ॥२७॥ सूत्रार्थतो ये गणितानुयोगं, स्वकण्ठपीठे दधतोऽपि सर्वम् । गभीरचित्ता न यथा तथाऽऽवि-ष्कुर्युर्यथा सन् स्वकृतोपकारम् ॥२८॥ सूत्रार्थयोः संस्मरणे विनेय-वारार्थदाने सुकृतोपदेशे । ऊर्जस्विनो ये न कदापि खेदं, वहन्ति यद्वद् वणिजः क्रयादौ ॥२९|| अनन्यजन्माचरणीयमुच्चैः, परोपकारं जगतोऽपि कर्तुम् । येऽभग्नवृत्त्येत्युपदेशयन्ति, क्रियैव सारं सह संविदेह ॥३०॥ सूत्रार्थमाप्तं न विगालयन्ति ये, कथञ्चनाऽत्युत्तमधारणाबलात् । किं स्फाटिको दर्पण आत्मसङ्गतं, जहाति तेजःप्रचयं युगैरपि ॥३१॥ निशीथकल्पव्यवहारजीत-कल्पाद्यवेक्षा बहुदृष्टमुख्याः । स्खलन्ति येऽतिक्रमव्युत्क्रमादे-रालोचनाया न तपःप्रदाने ॥३२॥ प्रमाणशास्त्रेष्वखिलेष्वधीतिनो, बुद्धास्तदर्थे निपुणा नयेषु ये । प्रतिष्ठितं सर्वनयैर्जिनोदितं, क्रियाकलापं कलयन्त्यविश्रमम् ॥३३।। वाक्यैर्हितैः पथ्यतमैश्च येषां, प्रियंवदानां सुहिता विनेयाः । जन्मान्तरेऽप्यन्यगुरोरुपास्यं, वाञ्छन्ति कर्तुं न च वोढुमाज्ञाम् ॥३४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ त्रिस्थानभाजा मधुरस्वरेण, यैरुच्यमानं सुकृतोपदेशम् । निशम्य वाग्देव्यपि रज्यतेऽन्ये, के घ्रातशास्त्रार्थलवा मनुष्याः ॥३५।। दुःकर्मभङ्गो न तपो विना स्यात्, तत्कार्यतेऽन्यैरपि तद्वतैव । येऽन्तर्विचार्येति समाद्रियन्ते, सदैव गुर्हतपोविधाने ॥३६।। व्यधत्त यानूर्जितपूर्वपुण्यान्, विरञ्चिरासेचनकस्वभावान् । यत्राऽऽकृतिस्तत्र गुणा भवन्ती-त्येतां नु सत्यापयितुं जनोक्तिम् ॥३७।। स्फुरत्तमप्रातिभवैभवाद् ये, क्षणात् क्षयं वादिमदं नयन्ति । विश्वोदरव्यापकसिंहनादाद्, यथा मृगारिपिचापलानि ॥३८।। निर्ग्रन्थतायामपि ये महेच्छु-कुलोद्भवत्वात् सततं मुनिभ्यः । ज्ञानादिदानं ददतो यथेष्टं, स्यात् कारणं कार्यमुदाहरन्ति ॥३९।। मनोहरैर्धर्ममयैः सहेतु-गुणोपपन्नैर्वचसां विलासैः । ये स्मारणाद्यं प्रसभं ददाना, आनन्दयन्त्येव समस्तशिष्यान् ॥४०॥ उत्क्षिप्तभारोद्धरणक्षमत्वा-दावर्जनात् सर्वसमाजभाजाम् ।। सूत्रार्थदानाद्यवदानकृत्त्वाद्, ये दक्षचूडामणितां श्रयन्ति ॥४१।। दुर्नोदनायामपि निन्दनायां खेदं न ये यान्ति गभीरभावाः । किं घर्षणे वा दहनेऽथ वा किं, दौर्गन्ध्यमभ्येति सुगन्धसारः? ॥४२॥ दाक्षिण्ययोगादनुवर्तनागुणो, वृद्धो यथा येषु न केषुचित् तथा । जातिस्वभावाद् गमनक्रिया भवेद्, यथा गजेन्द्रे न मृगेऽपि तादृशी ॥४३।। महाव्रतोद्धारविपक्षशासना-हच्छासनोड्डाहनिवारणात्मकात् । सन्धावतां ये प्रथमे प्रथीयसी-माभां लभन्ते प्रतिपन्नपालनात् ॥४४|| यान् स्थैर्यतो मेरुगिरि सहोदरी-चरीक्रतो योगसमाधिमागतान् । रागादयो दुर्मदवादिनोऽथवा, कथं चलत्वं न तु नेतुमीशते ॥४५।। अहार्यधैर्योद्धरमानसा न ये, क्षोभं लभन्तेऽवनिभृत्सभास्वपि । समाश्रयेद्वा किमु दुर्धरो हरिः, करेणुपूर्णास्वटवीषु साध्वसम् ।।४६।। अकृत्रिमौचित्यकलास्वलीला-विलासयोग्यान् खलु यानवाप्य । नाऽन्यं व(वु?)वूषत्यवनीशमिष्टं, स्वयंवृतौ यद्वदवेक्ष्य कन्या ॥४७॥ अनेकजन्मार्हदुपासनादि-पुण्यक्रियापोषितभाग्यलभ्यः । षत्रिंशदाचार्यगुणैः समेता, ये सूरिचक्रेश्वरतां वहन्ति ॥४८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ यद्देशना निस्समचित्रकारि-वाग्मण्डनाडम्बरमण्डिताङ्गी । श्रीधर्मभूपालपणाङ्गनेव, श्रुताऽपि केषां कुरुते न रागम् ॥४९॥ सालङ्काराः सर्वविद्याः सुलीला-वत्यो येषां शिश्रियुः कण्ठदेशम् । सान्द्रोत्सर्पत्स्वच्छलावण्यदृष्टेः, सञ्जातोद्यद्रागसङ्गादिवोच्चैः ।।५०।। दधिसुधाब्धिसुधाकरपाण्डुरै-र्यदनिरुद्धयशोभ्रमरैर्भूते । जगति शारदकालभवं सुखं, भविकपङ्करुहैः समवाप्यत ॥५१॥ कुमतशतकृतान्ता मोहकुप्यत्कृतान्ताः, परमपदविधाना बद्धकक्षावधानाः । मधुमधुरतमा यद्देशनावाग्विलासा, भविकहृदयतोषं पोषयन्त्यस्तदोषाः ॥५२॥ विमलसलिलधारा शुद्धवैराग्ययोग-प्रगुणितगुरुवीर्याः प्रोल्लसद्धर्यधैर्याः । कलुषकलियुगान्तर्जातजन्मर्ण्यसाध्यं, विदधति दधिशुभ्रं ये क्रियाणां कलापम् ॥५३॥ सभाक्षोभत्यागैरभिनववचोयुक्तिवचनैः, स्फुरन्मूर्तिस्फूर्त्या द्रढिमनिबिडास्थानविधिभिः । दुरालोकाकारानसममहिमस्फातिभिरपि, प्रमाणज्ञान् यानाकलयितुमलं कोऽत्र कुशलः ॥५४॥ तान् पूज्याराध्यपादान् प्रगुणगुणगणप्राप्तशिष्टप्रतिष्ठान्, __ध्येयामेयानुभावाद्भुतवितततमप्राप्तसन्नामधेयान् । ज्यायःपूजार्चनीयक्रमकमलयुगाभङ्गरोद्भासिशोभान्, सश्रीकान् सूरिराजान् गुरुसुरपतीन् सोमयुक्सुन्दराह्वान् ॥५५।। चतुरताविनयोद्यमलक्षण-प्रमुखशास्त्रमनोहरसाधुभिः । उपशमार्जवमुक्तितपस्क्रिया-प्रवणसद्यतिनीभिरपि श्रितान् ॥५६।। हिंसादिदोषाभ्युदयं निगृह्णन्, यथार्हसाधुप्रतिपत्तिनिष्णः । कदा कदाचित् स्वहिताय धर्म, शृणोति यस्मिन् नृपतिर्मुनिभ्यः ॥५७।। केका-नीलद्रुपुष्पौधैः, फलैर्मृदुशिलातलैः । यत्र पृष्ठस्थितो भूभृत्, पूरयेत् पञ्च गोचरान् ॥५८।। उत्तुङ्गशिखरशेखर-विराजि जिनभवनमण्डितात्तस्मात् । पुण्यवल्लोकवासा-ल्लासादुल्लासिलक्ष्मीकात् ।।५९।। शिष्यलवशान्तिसुन्दर-ऋषिसहितो विहितवृद्धकृतिकर्मा विनयावनम्रभालो, वाचालो विज्ञपयति यथा ॥६०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ श्रेयः श्रमणैः शमश्रियो, रमणैरत्र समं समस्ति मे । सकलापदपोहपण्डित-श्रीमद्देवगुरुप्रसादतः ॥६१।। शश्वत्स्वाङ्गारोग्यसाधुप्रधाना-धीतिश्राद्धाराध्यधर्मादियुक्तिम् । श्रेयःशुद्धिं प्रेष्य सद्यः प्रमोद्यः, श्रीवन्द्यानामप्ययं शिष्यलेशः ॥६२।। कार्यं च पूर्वाचलचूलिकायां, सूर्येऽवतंसीभवनं दधाने । वणिग्-द्विज-क्षत्रियपूरितायां, प्रातःसभायां श्रवणोद्यतायाम् ॥६३।। श्रीसङ्घवात्सल्यकृता महेभ्य-खेताभिधश्राद्धधुरन्धरेण । विनिर्मिताऽतुच्छमहोत्सवौघे, कुमारपालप्रतिबोधशास्त्रे ॥६४|| व्याख्यायमाने सततं विरूआ-कुम्पामहीपान्तरवाचनेन । अथागमद् वार्षिकपर्व दुःष-मारक्षपाक्षोभनवार्कबिम्बम् ॥६५।। ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ पीञ्चा-कीता-काजा-मन्त्रिवरैस्तत्र राजमान्यतमैः ।। पुस्तकतुरगारोपणसार्मिकभक्तिकरणाद्यैः ॥६६।। उत्सववारैर्विहितै-धर्माकरसाधुवाचकान्मयका । होदा (?) प्रभावनाभिः, श्रीकल्पोऽऽवाचि नववारैः ॥६७॥ युग्मम् ॥ तत्राऽत्रत्यासन्नषड्ग्रामवासि-श्रीसङ्घनाऽऽबिभ्रता प्रौढिमानम् । अर्हत्पूजाद्युत्तमागण्यपुण्यै-श्चक्रे सौवं सत्फलं मानवत्वम् ॥६८।। विशिष्यश्रीव्याश्रयैकादशपादभाणो-द्यताः पठन्तोऽथ जिनागमादि । गणीशधर्माकरनामधेयाः, पञ्चोपवासान् व्यधुरेकभुक्तेः ॥६९।। अधुना व्रतयन्नन्नं, व्रतयन् व्रतवासरात् । सुकृती विकृतीरन्याः, सर्पिषस्तद्गतान्यपि ॥७०।। वहन् भगवतीयोगान्, यथार्ह प्रपठन्नथ । औपवस्तं करोति स्म, संयमात् कलशो मुनिः ॥७१॥ यमलम् ॥ विनयवृत्तिविभूषितविग्रहः, क्षपणकृत्पठनादिकृताग्रहः । उदयमण्डनसंयतमण्डनं, पठितपाक्षिकसूत्रमखण्डनम् ॥७२।। उपवासाचामाम्लै-विंशतिदिवसैविदधदेकैकम् । स्थानकमकरोत् संसृति-तारणमधुना तु विरुआकः ॥७३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ सीहा-नामड-राणाः, पञ्च क्षपणान्यकापुरकान्ते । देदा-लूणा-नउला-भीमा-कीता व्यधुः कल्पम् ॥७४।। लोहा-पीञ्चादयश्चक्रु-र्भुक्तेरुपवासचतुष्टयम् । वहन्त्याद्योपधाने षट्-त्रिंशदास्तिकसत्तमाः ॥७५।। द्वाषष्ट्यनुमिताः श्राद्धाः, पौषधं पर्वणि व्यधुः । अष्टम्यादिषु तल्लाभं, गृह्णते षोडशादयः ॥७६।। षट् काजा-सीहाद्याः कायोत्सर्गेण शुश्रुवुः कल्पम् । प्रत्यक्रामन् श्राद्धाः, पर्वण्यभ्रारुणानुमिताः (१२०) ॥७७।। एकादशौपवस्त्राणि(स्तानि), रूपी-सूम्यौ वितेनतुः । पूजीरष्टाष्टमेनाऽस्थाद्, भूडी-साम्प्यौ तु षष्ठतः ॥७८।। नवोपवासान् मणगूः श्रिताष्टौ, लूणीरधात्तान्निघसात्तु रूपीः । सप्तापि लीलूरदनात्तथैव, षट् सृष्टवत्यौ झबकूस्तथाऽऽल्हूः ॥७९।। संसारतारणं सप्त, बल्हयाद्यास्तासु तत् त्वधात् । पाञ्चीढेिरष्टमं बोखीः, सोढीः षष्ठाष्टमौ दधौ ॥८०॥ नामलदेवीमुख्या-स्त्रिंशत्सङ्ख्या अकल्पयन् कल्पम् । मादीनवोपवासान्, पारणयुग्माद् दधाति स्म ॥८१।। अस्राक्षुरक्षतक्षेमाः, क्षपणं बालका अपि । उपधानतपः कुर्व-न्त्यास्तिक्यः षोडशादृताः ॥८२॥ प्रतिमास्थानकयोगादि-मशुद्धीन्द्रियकषायजयमुख्यम् । सह शिवकुमारषष्ठै-स्तप आररचन्ननेकेऽपि ॥८३॥ प्रत्याख्यान(नं) दधन्नित्यं, पञ्चपर्वोपवासकृत् । अष्टाहिकामपस्पष्टत्, जाल्हानामान्त्यजोऽपि हि ॥८४।। कलिकालगजोन्मादो-च्छेदसिंहारवोपमाः । पञ्चापि वासरा जजुः, पार्वणाः पुण्यभासुराः ॥८५॥ समस्तमत्रत्यमिति स्वरूपं, विभाव्य वन्द्यैर्निरवद्यविद्यैः । तत्रत्यमप्यत्र मुदे ममैत-द्विशेषशिक्षासहितं प्रसाद्यम् ॥८६।। तत्र- वैयावृत्यं गुर्वनुज्ञाविधानं, कायोत्सर्गोत्सर्गमार्गानुरागौ । शिक्षादानशान्तिमोक्षाभिलाषा, एकच्छत्रं कुर्वते यत्र राज्यम् ॥८७।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ तेषां चित्रकृदत्युच्च-चारित्ररुचिरात्मनाम् । क्षेमवल्लभसाधूनां, बन्धूनां जगतामपि ॥८८।। सनयविनयमुच्चैः स्नेहवच्चित्तवृत्ति, निरुपममुपकारं दक्षतामक्षताङ्गीम् । चतुरतुरगवल्गां चातुरीमौचितीं वा, न मुदमुपगताः के स्युर्विभाव्यैव येषाम् ॥८९॥ तेषां गणीनां जिनवर्द्धनानां, गर्जद्यशोभिः परिवर्द्धनानाम् । वैज्ञानिकश्रेणिशिरोमणीनां, विद्वन्मनोम्भोजदिवामणीनाम् ॥९०॥ तपस्यतामतितमां, कर्ममर्मभिदाकृते । वीरात् समुद्रसाधूना-मन्धूनां प्रशमाम्बुनः ॥९१।। प्रोद्यबुद्धिप्रभाभारा-ऽऽविर्भावनवभास्वतः । साधोविजयराजस्य, प्रशस्यगुणराजिनः ॥१२॥ प्राज्यप्रज्ञासुधां मध्ये, बिभ्रतो बहिरप्यथ । कीर्तिपुष्पपरीतस्यो-दयकुम्भस्य सन्मुनेः ॥९३।। शीतगोरिव सर्वाङ्गि-चकोराप्यायकद्युतेः । प्रातिभभ्राजमानस्यो-दयरत्नमुनीशितुः ।।९४।। प्रविलसच्छुचिकीर्तिसमुच्छ्रिते-रुदयशेखरक्षुल्लशिरोमणेः । उदयसुन्दरनाममुनेः स्फुर-द्विनयरञ्जितसज्जनचेतसः ॥१५॥ श्रीवन्द्यसेवनप्रादु-र्भवदद्भुतगुणावलेः । राजसुन्दरसाधोश्च, यतेः संयमतो रुचेः ॥९६।। गुणा यदीयाः स्मरणं प्रयाता, अपि प्रमोदं सुधियां सृजन्ति । यथा जगत्यां प्रसृताः सुधांशु-करोत्करा जात्यचकोरकाणाम् ॥९७॥ मनः शुभध्यानविधानशुद्धं, वचः श्रुताधीतिविधूतपापम् । कायोऽप्युपाय: शिवशर्मसिद्धौ, योगा यदीया सफला इति स्युः ॥९८।। तासां सुधापेशलदेशनाभिः, सुश्राविकाबोधनतत्पराणाम् । प्रवर्त्तनीमस्तकमण्डनानां, कल्याणचूलाह्वयविश्रुतानाम् ॥९९॥ विशदगुणमणीभिर्भूषितानां परासा-मपि वरयतिनीनां सोमचूलादिकानाम् । मम धृतबहुमानं सादरं सप्रमोदं, सततमनुनतिः श्रीवन्द्यपादैः प्रसाद्या ॥१००॥ ये श्रीजिनाज्ञामुकुटं स्वमूर्जा, वहन्तः उच्चैः सुभगत्वमापुः । गाढानुरागादभिसंश्रयन्त्यः, श्रियोऽमुमर्थं द्रढयन्ति यस्मात् ॥१०१।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ प्रभावनाभिर्महतीभिरुच्चैः, प्रोत्तुङ्गयन्तो जिनशासनं ये । स्वमेव कुर्वन्ति तथाविधं यत्, कला दुरापा महतां परैस्तत् ॥१०२॥ विवेकचातुर्यविधिज्ञताद्या, गुणा यदीया: शरदिन्दुगौराः । कषायमुक्तान्यपि सन्मनांसि, सुरङ्गभाज्यादधतीति चित्रम् ॥१०३।। व्रतानि सम्यक्त्वसखानि येषु, द्विषानि गार्हस्थ्यजुषां वसन्ति । यथाऽन्तरिक्षे व्यधिकादशोच्चैः, प्रद्योतनाः शीतकरण युक्ताः ॥१०४|| सङ्घाधिपत्यादिपदं प्रगृह्य, श्रीतीर्थयात्रादिकधर्मकृत्यम् । यान् कुर्वतो वीक्ष्य निरन्तरायं, पुराणपुंसो निरचेष्महीह ॥१०५।। परोपकारप्रकरैन्(?र?) नेकै-रा(र)राज रङ्कं भुवनं समस्तम् । ये प्रीणयन्तः पुरुषोत्तमत्त्वं, सौवं समन्तात् पृथुतां नयन्ति ॥१०६।। जिनागमाधीत्याकर्णनाद्यै(?)-र्जीवादितत्त्वान्यधिगम्य सम्यग्(क्) । प्रमाणयन्तोऽधिबुधं तथैव, ये श्राग्महाश्रावकतां श्रयन्ते ॥१०७॥ तेषां समुन्मिषत्पुण्य-क्रियोद्भूतयशोभृताम् । श्रावक-श्राविकाणां श्री-धर्माशीश्चाऽभिधानतः ॥१०८।। अत्रत्याः साधवः श्राद्धाः, श्राविकाश्चापि भक्तितः । श्रीवन्द्यपादपद्मेषु, रोलम्बन्तीति मङ्गलम् ॥१०९|| अमुना विमुग्धमतिना, शिष्यलवेनाऽतिभक्तिविवशेन । आश्वयुजासितषष्ठी-तिथावलेखीति विज्ञप्तिः ॥११०॥ -x-. (२) श्रीदेलवाडास्थ-श्रीदेवसुन्दरसूरिं प्रति प्रेषितं पत्रम् जयत्यनन्तं परमात्मसङ्गतं, तदद्भुतं ज्योतिरमेयमव्ययम् । यदन्तरन्तःकरणं स्थितिं दध-द्विधीयते ध्यानबलेन योगिभिः ॥१॥ स मङ्गलान्यातनुतां सुमङ्गला-पतिः सतामिन्द्रनरेन्द्रसेवितः । यदंसपीठे चिकुरावली बभौ, सुमेरुशृङ्गे किल कल्पमण्डली ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ अनन्तकालादपि भाववैरिणो, जनान् घ्नतो वीक्ष्य दयार्द्रमानसः । इभं समारुह्य किलाङ्कदम्भतो, जघान यः स्तादजित: स वः श्रिये ॥३॥ ऋभुप्रभुभक्तिभरेण भूरिणा, भजन् पदौ यस्य विभाविभासुरौ । बभार खद्योततुलां दिवाऽप्यहो, स शंभवो वो भवताद् विभूतये ॥४॥ जनुर्महे यस्य सुमेरुभूभृतः, प्रमोदभाजः शुचिमज्जनाम्बुभिः । सुराः स्फुरन्तः पुलका इवाऽबभुः, शिवश्रिये स्तादभिनन्दनः स वः ।।५।। नमन्नरेन्द्रामरराजशेखर-स्फुरन्मणिश्रेणिमरीचिवीचिभिः । अहर्निशं क्षालितपादयामलः, शुभां मतिं श्रीसुमतिस्तनोतु वः ॥६॥ प्रवालशोणच्छविकायकान्तिभि-दिशो दशाऽपि प्रतिपूरयन् बुधैः । अलक्षि साक्षादिव यः सरागतां, बहिः क्षिपन् श्रीधरभूः स शर्मणे ॥७॥ विजित्य पञ्चेन्द्रियगोचरोरगान्, स्वसेवकीभावमचीकरत्तराम् । य उच्चचञ्चत्फणपञ्चकच्छलात्, सुपार्श्वनेता स शिवङ्करोऽस्तु वः ||८|| अजीहिठच्चन्द्रमरीचिसञ्चयं, य आत्मभासां पटलैः प्रसृत्वरैः । सदा सदालोकपदप्रसादतः, शशाङ्कलक्ष्मा स जिनो धिनोतु वः ॥९॥ अवेक्ष्य यस्याऽङ्गरुचः सुधोज्ज्वला-श्चिरं विचारं चतुरा इति श्रिताः । अनन्तविज्ञानविधोः परिस्फुटाः, प्रभाः किमेताः सुविधिः स वो मुदे ॥१०॥ महीतले यं विहरन्तमन्वहं, नमोचरीकारिषुरंहिपा अपि । विहातुमेकेन्द्रियतामिवाऽऽत्मनो, ददातु वः शाश्वतशं स शीतलः ॥११॥ विनम्रवृन्दारकमानवप्रभू-त्तमाङ्गसंलालितमालतीस्रजः । अबूभुषन् यत्पदपीठमुच्चकैः, स विष्णुसूनुर्जिनराट् शिवाय वः ॥१२॥ निरस्तनिःशेषमलात्मकत्वतः, किलाऽङ्गिनां भक्त्यनुरागसङ्क्रमैः । बभार यो विद्रुमकान्तिसोदरं, वपुः स जीयाद् वसुपूज्यनन्दनः ॥१३॥ समीहितं यत्र ददत्यनारतं, सुरद्रुवद्दानमृणध्वनिर्गतः ।। अनाथतां वाच्यमृते जगत्रये, स वो वितन्याद् विमलो मलोज्झितान् ॥१४॥ अनन्तनेता स शिवाय देहिना-मनन्तधर्मात्मकवस्तुदेशकः । वशीकृतानन्तचतुष्टयान्वितो, निरास योऽनन्तसुतोर्जितं क्षणात् ॥१५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ य आदिशद्धर्ममधर्मभिच्चतु-विधं परब्रह्मवशत्वकार्मणम् । स कर्मनिर्मन्थकधर्मतीर्थकृद् विनिर्मिमीतां शिवशर्म देहिनाम् ॥१६॥ मृगोऽपि यत्पादयुगस्य सेवनं वितन्तनद्धर्मवतां धुरि स्थितः । अवापिवान् श्रीभृतराजमण्डलं, स आचिरेयोऽद्भुतभूतयेऽस्तु वः ||१७|| य उद्भटाभोगवतीः सभूषणा, मुमोच षट्खण्डभुवो वधूरिव । स कुन्थुतीर्थाधिपतिः पवित्रये - ज्जगत्त्रयं त्रासितभावशात्रवः ॥१८॥ तृणाय मत्वा ननु चक्रवर्त्तिनः श्रियं शिवश्रीपुरतो य आददे । महातपस्यां तदवाप्तये स वो, व्यपाकरोत्वारमरो जिनाधिपः ||१९|| " अचीकरद् यो निजपादसेवनं, जवान्नृदेवासुरराजराजिभि: तमप्यजैषीन्मदनं य आदरात्, स मल्लिनाथः प्रथयेत् सुखानि वः ||२०|| जडप्रियः क्षुद्रतया समाश्रितो ऽप्युपक्रमं यस्य निषेव्य कूर्मकः । क्षमोऽभवन् क्ष्मामपि धर्तुमुच्चकैः, स सुव्रतोऽर्हन् व्रतसम्पदेऽस्तु वः ॥२१॥ अनीनमद् यो द्विषतो महीभुजो, भुजालवद् गर्भगतोऽपि हि प्रभुः । नमिर्जिनेन्द्रो जगतामुपद्रवान् द्रुतं स विद्रावयताज्जितेन्द्रियः ॥२२॥ कुमारतां यः कलयन्नपि स्वयं कुमारभावं निरमूलयत्तराम् । अरिष्टनेमिर्भगवान् स देहिनां पिनष्टु कष्टानि वरिष्ठचेष्टितः ॥२३॥ अलूलुठद् यः कमठं शठाशयं, स्मयाचलात् तुङ्गतरादपि क्षणात् । जिनोऽश्वसेनाङ्गभवो भवक्षयं क्षमावतामातनुतांतरामयम् ||२४|| सुराङ्गनानां वदनेषु कुङ्कुमा- वलेपलीलां कलयन्त्य उच्चकैः । प्रभा जयन्तु त्रिशलाङ्गजन्मनो द्विधापि धर्मं प्रकटीचरीक्रतः ॥२५॥ " Jain Educationa International ११ विधाय येषां स्मरणं शरीरिणो, ययुः प्रयास्यन्त्यपि यान्ति निर्वृतिम् । जगन्ति नामाकृतिमुख्यभेदत-श्चतुर्विधास्तीर्थकृतः पुनन्तु ते ॥२६॥ अधिष्ठिता हंसवरं तनोति या, विलासमन्तः सुविशुद्धमानसम् । सरस्वती सा परमेष्ठिसम्भवा, पराञ्चितं सञ्चिनुतां सतां तताम् ॥२७॥ यस्मिन् प्रथीयःसुकृताम्बुराशौ, चैत्यानि शङ्खायितमाचरन्ति । परस्परं संवलितास्तदीयाः, प्रभास्तरङ्गीभवनं श्रयन्ति ॥२८॥ For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ यस्मिल्लक्ष्मीनिधानभ्रमविवशतयोत्तुङ्गलक्ष्मीवदोकः केतुच्छाया भुजङ्गा अतिकुटिलतमाः श्यामलाः कौ पतित्वा । आकाशे प्रोत्पतेयुर्झटिति चपलतामादधाना द्विजिह्वा ___ काराना(न)त्राऽधिवासं दधत इति पुरारीति विज्ञा इवोच्चैः ॥२९।। तैस्तैः श्रीजिनपूजनैः प्रतिदिनं तैस्तैर्गुरूपासनै स्तैस्तैः श्रीजिनशासनोन्नतिभरैस्तैस्तैः क्रियाराधनैः । तैस्तैः श्रीसमयोपकर्णनमुखैः पुण्यैः पुराणास्तिकान्, श्राद्धा यत्र निवासिनः स्मृतिपथं तांस्तान्नयन्तेऽधुना ॥३०॥ प्राज्यश्रीगुरुपादपङ्कजरज:पुञ्जप्रपञ्चोल्लसल् ___ लक्ष्मीखेलनदीर्घिकायितमहाभोगक्षमामण्डले । तत्राऽमात्रपवित्रदानविधिकृल्लोकाकुले देलतो वाडाह्वे प्रवरे पुरे सुरपुरानन्यत्वभाजि श्रिया ॥३१।। आस्तां स्तोत्रं यद्गुणानां प्रमाणं, कर्तुं विज्ञा अप्यहो के समर्थाः । यद्वा दानं रोहणोद्यन्मणीनां, दूरे राशि कः सुशक्तोऽपि कुर्यात् ॥३२॥ प्रोत्सर्पन्ति प्रत्यहं येषु यद्वद् विश्वानन्दाधायिनः सद्गुणौघाः । नाऽन्येष्वेवं शुक्लपक्षे यथा वा, चन्द्रे भासः स्युस्तथा किं ग्रहेषु ॥३३॥ न प्रेक्ष्यन्ते ये गुणा येषु शस्या-स्ते योग्या नोपग्रहीतुं सतां स्युः । रत्नक्ष्माभ्रे यानि रत्नानि नाऽऽसं-स्तेषां यद्वा वस्तुतो नास्ति सत्ता ॥३४|| येषां सङ्गाद् यद्गुणानां महत्त्वं, दृश्येतोच्चैस्तत्परेषां न योगात् । चक्रा यद्वा यं प्रमोदं श्रयन्ते, भानोः प्राप्तेः किं तमेवोडुकानाम् ॥३५।। चक्रवर्त्तिषु यथा भरतेश-स्तीर्थकृत्स्वपि यथर्षभदेवः । रत्नजातिषु यथा सुररत्नं, कल्पवृक्ष इव भूमिरुहेषु ॥३६।। दैवतेष्वपि यथा ऋभुनेता, राजऋक्षपटलेषु यथा वा । मुख्यतां दधति येऽद्भुतवृत्ताः, सूरिपङ्क्तिषु तथा सकलासु ॥३७|| युग्मम् ।। शरत्सुधांशूज्ज्वलतां दधाना, गुणा यदीया वितताः स्फुरन्तः । केषामकस्मादपि पुंवृषाणां, न कण्ठदेशे स्थितिमुद्वहन्ति ॥३८।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ एकोऽपि येषां शुभनामकर्मो-दयः समस्तं सुभगीकरोति । हारस्य मुक्तानिकुरुम्बमुच्च-र्यथा मणिर्नायकनामधेयः ॥३९॥ विश्वे समस्तेऽप्यनिशं नदीस्ने, संसारतीर्णौ ननु ये नदीष्णाः । प्राध्वंकृतानङ्गबला य एवाऽ-नगारवृन्दारकतां श्रयन्ते ॥४०।। कुकर्मसारङ्गबलान्यजस्रं, कुर्वन्त उच्चैर्भयसङ्कलानि । अधृष्यवाचो मुनिवृन्दसिंहा, प्रघ्नन्ति येऽज्ञानगजोर्जितानि ॥४१॥ विश्वविस्मयविधायिदेशना-वाक्सुधाभिरखिलं चराचरम् । मोदयन्ति किल ये कलाभृतो, भक्तिमबुधनिषेवितक्रमाः ॥४२॥ विश्वविश्वजनतातितापकृद्, गोविलासपरिवर्द्धितोदयः ।। भानुमान् प्रवरबोधकार्यपि, प्राप्नुयादुपमिति न यैः समम् ॥४३।। पुण्यपापपरलोकनाशिनः, सत्सुराधिपविनिर्मितस्तुतेः । गीष्पतेरपि गुरोस्तुलां कथं, ये श्रयन्ति सुमनोऽर्चितक्रमाः ॥४४|| पूजयन् प्रतिकलं कलङ्किनं, संश्रयन्नपि च लेखशालिकाम् । यैरपोढदुरनुष्ठितैविदां, सत्तमैर्न हि बुधः समो भवेत् ।।५।। यदुपपादपयोजयुगाश्रिताः, सकलसिद्धिभुजः स्युरिहाऽङ्गिनः । सुरतरोरथवा किमुपासकाः, प्रतिपनीपदतीहितवन्ध्यताम् ॥४६।। यदवलोकनमात्रत एव स-द्भवभृतां दुरितापचयो भवेत् । किमु न सूरकरोत्करयोगतो, जलरुहामुपसङ्कुचनक्षयः ॥४७|| यदभिधानमृगाधिपगजिते, प्र [ ________] ॥ तीरक्रीडदुदारहंसविलसन्मुक्ताफलाभ्यां स्फुरत् स्वर्णाम्भोजरजःपिशङ्गितपयःपीतात्मकाभ्यां स्फुटम् । आनासागरसंज्ञवीसलसमुद्राभ्यां सरोभ्यामियं, बोभूष्येत निरन्तरं चलचलत्ताडङ्ककाभ्यामिव ॥७१॥ युग्मम् ॥ नानारत्नपरम्परां प्रतिपदं संवीक्ष्य यस्मिन् बुधा, मन्यन्तेऽनुशिलोच्चयं हृतमणिं तं रोहणोठ्धरम् । १. इत आरभ्य ७० तमश्लोकपर्यन्तपाठात्मकं पत्रं नाऽस्ति । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ धर्माध्यक्षविधीयमानविविधप्रोद्दामपुण्यक्रिया स्फूर्जन्मङ्गलमण्डलादतिमहादुर्गाजमेरोस्ततः ॥७२।। शान्तिसुन्दरशिष्याणुः, साधुभिर्विश्वबन्धुभिः । रमणीयगुणाधार-श्रमणीभिश्च संयुतः ॥७३|| ज्यायोवन्दनविधिना-भिवन्द्य माद्यत्प्रमोदसन्दोहः । विनयावनम्रकायः, सस्नेहं विज्ञपयति यथा ॥७४।। श्रीमत्तीर्थङ्करगुरुपदध्यानसन्धानतो मां, श्रेयोऽश्रान्तं श्रयति यतिभिः संयतीभिश्च सार्द्धम् । स्वाङ्गारोग्यप्रभृतिकुशलोदन्तवृत्तिप्रसादात्, सन्तोष्योऽयं प्रतिदिनमपि श्रीप्रतीक्ष्यैः स्वशिष्यः ॥७५।। कार्यं च प्रातरैन्द्रीं हरितमभिनवैः प्रोल्लसद्भिः करौघैः, पीताङ्गीनां दधाने दिनकृति विजितध्वान्तविद्वेषिचक्रे । ब्रह्माण्डारण्यकादौ त्रिभुवनविभुतां व्यञ्जयन्तीं पुराणा ध्येतारो यस्य विश्वाद्भुततममहिमोद्दामतामामनन्ति ॥७६।। ज्यायःप्राज्यप्रतिष्ठातततरकरणासाधुराजप्रदत्त श्वेताच्छादादिदानप्रगुणितसुमहारम्भणोद्धर्षहर्षम् । पद्मानन्दाभिधानं प्रथमजिनपतेस्तस्य वृत्तं ब्रुवेऽहं, मध्येसंसद्विधायाऽसमवचनकलं वाचकं देवदत्तम् ।।७७॥ युग्मम् ।। श्रीवार्षिकपर्वाऽथो, खर्वीकृतपापगर्वसर्वस्वम् । आयातं किल धार्मिक-धर्मचिकीर्षाभिराकृष्टम् ॥७८।। आरम्भणविधौ तत्र, सृष्टे लिम्बाह्वमन्त्रिणा । कीर्तिसुन्दरसाधूनां, सान्निध्यान्नवभिः क्षणैः ॥७९।। निरन्तरायं श्रीदेव-गुरुपादौ सरीस्म्रता । मयाऽल्पमतिना श्रीम-त्कल्पसूत्रमवाच्यत ॥८०॥ यमलम् ॥ चतुर्विधोऽपि श्रीसङ्घो, धन्यः पुण्यैरनेकशः । फलेग्रहि करोति स्म, निजं मानुषजं जनुः ॥८१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ तथाहि - सप्तक्षेत्र्यां केचनोपुः स्ववित्तं, केचिच्छीलं शीलयामासिवांसः । भ्रश्यत्तापास्तेपिरेऽन्ये तपांसि, प्राज्यामेकेऽबीभवन् भावनां च ॥८२॥ एके भव्या भूरिभावाभिरामा, ज्यायःपूजामादधुर्बोधिदानाम् । अन्ये तेषां शासनं शंसनीया-चाराः सारं प्रौढिमानं च निन्युः ॥८३।। केचिद्दीनादीननादीनवाशा, नानादानैरुद्धरन्ति स्म धन्याः । कारुण्यार्णोऽन्त्यार्णवा: पूर्णभावा, एकेऽमारिं घोषयामासुरुच्चैः ॥८४॥ अपि चअनन्यसामान्यवदान्यताभि-रलकृताः केचन मार्गणेभ्यः । वस्त्रादिदानानि दरिद्रता[या], विभेदनेऽस्त्राणि दधुर्विधिज्ञाः ॥८५।। माद्यन्मृदङ्गादिनिनादसारै-र्नाट्यैर्बुधानन्दकरैरनेकैः । हर्षप्रकर्षोल्लसितास्तु केचित्, प्रभावनामाविरभावयंश्च ॥८६।। विशिष्य योगानुष्ठान-कारणादौ परायणाः । कीर्त्तिसुन्दरनामानो, यतयो यतनारताः ॥८७|| चतुर्थाचाम्लषष्ठादि-तपांसि प्रायशः श्रिताः । संसारतारणं कृत्वा, त्रिभुक्त्या कल्पमादधुः ॥८८॥ यामलम् ।। वहन् भगवतीयोगान्, शुद्धानुष्ठानसादरः । हर्षरत्नमुनिर्मोदा-दौपवस्तमसूत्रयत् ॥८९॥ सप्ताष्टमाङ्गकल्प-व्यवहारनिशीथयोगविधिनिष्णाः । हर्षाद्धीरा गणयो, वितेनिरे स्पष्टमिह षष्ठम् ॥९०।। वैयावृत्त्यविधानबद्धमनसः शश्वद्विधेयाश्रवाः, श्राद्धाध्यापनलेखनोद्यमकृतो निर्धूतरोषद्विषः । पद्मानन्द इति प्रसिद्धविदिते काव्ये भणन्त्यष्टमं, सर्ग स्वर्गसुखाभिलाषविरता एते त्रयः साधवः ॥९१।। काश्चित् सूत्रपरम्परामुपपदाद्देशाच्च मालादिकान्, ग्रन्थांश्चाऽप्यपरा मृदूत्तरगिरा पापाठयन्त्योऽशठाः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ अर्थान् काश्चन वाञ्छिताञ्छितमदाः सम्बोधयन्त्यः स्फुटं, श्राद्धाः का अपि पौषधादिकविधीनाशासयन्त्योऽनिशम् ॥९२।। क्षुल्ला लक्षणभाणनादिकविधौ बद्धादरा उत्तरा ध्यायोद्योतनतत्पराः परिहताशेषप्रमादादयाः । वैदर्भीतपओलिकाद्वयकृतोऽत्यन्तं विनीत्याश्रिताः, साध्व्योऽकुर्वत साधुसुन्दरिगणिन्याह्वा गुणिन्योऽष्टमम् ॥९३।। युग्मम् ॥ दमयन्तीतपःश्रेणि-त्रयं निर्माय सत्त्वतः । समासेवितसंसार-तारणप्रवरव्रताः ॥९४।। चतुःशरणपाठिन्यो, वैयावृत्त्यविधौ रताः । शान्तिनिध्यभिधाः साध्व्यः, साधयामासुरष्टमम् ॥९५|| युग्मम् ॥ महानिशीथागमयोगयुक्ता, शिवादिमालागणिनी गुणिज्ञा । धर्मार्थकामाध्ययनं पठन्ती, पञ्चोपवासांस्तनुते स्म भुक्तेः ॥९६।। समासोक्तिसदभ्यस्तं, कुर्वती शिवचलिका । तार्तीयीकं भणन्त्युच्चैः, पादं क्षपणमादधात् ॥९७|| देवपालश्च तोलाकः, कल्पमातनुतांतराम् । गुणराजस्तथा झाडूः, षष्ठं स्पष्टं वितेनतुः ॥९८।। करणासाध्वाल्हणसीप्रमुखाः, स्थानानि केऽपि कुर्वन्ति । आसन्नपञ्चविंशा, यथार्हसूत्रादि पापठति ॥९९।। एतावत्प्रमुखा नित्यं, प्रतिक्रान्ति वितन्वते । द्विविंशानुमिताः श्राद्धाः, पौषधं पर्वणि व्यधुः ॥१००|| श्रीसङ्घवार्द्धाविह भूरिपुण्य-क्रियानदीभिः परिपूर्यमाणे । सङ्घाधिराजव्यवसायिपेथा-दयो वसूनां पदवीं श्रयन्ति ॥१०१।। अक्षूणभाववैपक्ष-पक्षक्षेपणहेतवे । पक्षक्षपणमस्राक्षी-न्मटकूः कूटनोज्झिता ॥१०२॥ सत्त्वाधिकौपवस्त्राणि(स्तानि), दश जासूरसूत्रयत् । अष्टाह्निकां व्यधुः पञ्च, गोरि-पद्मायिकादयः ॥१०३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ धनार्हरोहिणीमुख्याः, षट् श्राद्धाः सप्त चाऽऽदधुः । द्वे षड् धासूमुखा अष्टो-पवासान् पञ्च चाऽसृजन् ॥१०४॥ अजेसर्यादयश्चक्रु- र्दशमं श्राविका दश । अकार्षुरष्टमं षष्टि-प्रमाणानुमितिस्पृशः ॥ १०५ ॥ आचतुर्मासकात् षष्ठैः, पारयन्ति पुराकरोत् । दमयन्त्योलिकां हूडी - रत्र संसारतारणम् ॥१०६॥। जाजीप्रमुखा एका-दश दमयन्तीतपो वितन्तनति । प्रतिमां च पञ्चमासीं, द्वे तिस्रो वेदमासमिताम् ॥१०७॥ त्रि-द्वयेकमासवीर- प्रतिमां निर्यान्ति काश्चिदपि धन्याः । द्विदशाः पठन्ति माला- मुपदेशादपरमपि बह्व्यः ॥१०८॥ वहन्त्यष्टोपधानानि, नयश्री - धरणूमुखाः । अष्टम्यादिषु कुर्वन्ति, पौषधं षोडशादयः ॥ १०९॥ कमलशिवकुमारश्रेणिकल्याणकानी-न्द्रियजयपरमेष्ठ्येकाशने योगशुद्धिः । समवसरणभद्रालोचनास्थानकानी - ति तप इह वितेनुस्तन्वते भूरिभव्याः ॥ ११०॥ कृतिलोककृतोत्कृष्ट-सुकृतैरतिभासुराः । पञ्चापि वासरा जज्ञु:, पार्वणाः पार्वणेन्दुवत् ॥१११॥ समस्तमत्रत्यमिति स्वरूपं, श्रीपूज्यपादैरवधार्य सम्यग् । तत्रत्यतद्युक्तविशेषशिक्षा - प्रसादतः शिष्यलवोऽनुकम्प्यः ॥ ११२ ॥ तत्र वचांसि येषाममृतोपमानं, द्विजिह्वमुक्तानि कथं श्रयन्ते । यानि श्रुतान्येव जनैः श्रुतिभ्यां न्यक्कुर्वते मोहविषोर्जितानि ॥ ११३ ॥ स्वरस्य येषां सुकुमारिमाणं, संशिक्षितुं राजमराल उच्चैः । श्रीशारदांही परिषेवमाणो ऽप्याप्तो न सामर्थ्यममुं विधातुम् ॥ ११४॥ संसारसारान् सकलान् पदार्था - न्नैर्मल्यगौल्ये कमनीयतां च । विधिर्विधिज्ञो ननु दण्डयित्वा यद्देशनामेकतमां व्यधत्त ॥११५॥ Jain Educationa International १७ For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क न स्याद् यदीत्थं तदियं द्युकुल्या, पृथ्व्यां लुठन्ती किमु रारटीति । द्राक्षा कुतोऽसावतिदीनदेहा, दर्दृश्यते किं विवरं च चन्द्रे ॥ ११६ ॥ युग्मम् ॥ सुधाञ्जनाभानि वचांसि येषा - मासाद्य भव्या निजदर्शनानि । तथा विशुद्धीकरणं नयन्ति, साक्षाद्यथा स्यात् सकलोऽपि लोकः ॥ ११९॥ प्रात:क्षणे मङ्गलशङ्खनाद- वद् ये गभीरं वचनं यदीयम् । शृण्वन्ति तेषां सुकृतोद्धुराणां शस्तानि सर्वाण्यपि संश्रयन्ति ॥ १२०॥ तेषामनूचानशिरोमणीनां श्रीसोमयुक्सुन्दरसूरिनाम्नाम् । " बृहत्तमा श्रीप्रभुभिः प्रसाद्या, मद्वन्दना पुण्यवनाम्बुधारा ॥१२१॥ सौजन्येन ग्लानबालादिवैया - वृत्येन श्रीगच्छकार्योद्यमेन । सङ्क्रामन्ति प्रत्यहं येन केषां दूरस्थानामप्यहो मानसेषु ॥ १२२ ॥ सत्क्षेमयुग्वल्लभसंयतानां तेषां तपःकर्मणि कर्मठानाम् । समस्तवाचंयमहृत्समाधि- प्रकर्षनिर्माणकृतव्रतानाम् ॥१२३॥ , जगन्मित्रीकारप्रकरणविधौ नाट्यगुरुणा, विनीतिम्ना येषां सुहितमनसः पण्डितजनाः । न मन्यन्ते राकाऽमृतकरकरोद्भूतजनुषं, Jain Educationa International " सुधां भिक्षाभिस्सामुपलशकलेभ्योऽपि सुसिताम् ॥१२४॥ विद्वद्घटामस्तकमण्डनानां, कुवादिदर्पोदयखण्डनानाम् । गणीश्वराणां जिनवर्द्धनानां तेषां यशोभिः परिवर्द्धनानाम् ॥१२५॥ अहो अहो ये परमर्षयोऽपि कलिन्दिकाखेलनदीर्घिकायाम् । . नीत्वा मनीषां सहचारिणीत्वं, क्रीडाविलासं कलयन्त्यजस्रम् ॥१२६॥ साधुराजजिनसागरनाम्नां भूरिगौरगुणपद्धतिभाजाम् । काव्यकाव्यकलयाऽभ्यधिकानां नव्यया सुरगुरोरपि तेषाम् ॥१२७॥ यैस्तर्कवादाद्भुतसङ्गराङ्गणे, वादं सृजन्तो परवादिनो हृदि । द्वि-त्रैः प्रयोगप्रदरैर्हतास्तथा, पुनर्यथा नाऽस्य कथामपि श्रिताः ॥ १२८॥ चातुर्यसारैर्वचसां प्रपञ्चैः, संप्रीणतां कोविदमण्डलानि । शान्त्यादिराजाह्वयसंयतानां तेषां महासज्जनमण्डनानाम् ॥१२९॥ " - For Personal and Private Use Only खण्ड २ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ चञ्चद्गुणग्रामसमुत्थकीर्ति-कल्लोलिनीक्षालितदिङ्मलानाम् । शान्तिप्रियाह्वर्षिधुरन्धराणां, सतां प्रभूपासनपुण्यभाजाम् ॥१३०॥ अत्युग्राभिग्रहैर्लोभं, निर्भर्त्सतवतो भृशम् । शान्तिचन्द्रगणेौन-गुणचङ्गीकृतात्मनः ॥१३१॥ विनयादिगुणश्वेत-पक्षतः कीर्त्तिकौमुदीम् । बिभ्रतो जिनकीर्त्याह्व-मुनिचन्द्रस्य सन्मतेः ॥१३१॥ शमदमसंयमजैना-गमवाचनपाठनाम्बुयोगेन । क्षालितपापमलानां, साधूनां हर्षराजानाम् ॥१३३।। दुष्करोग्रतपउद्धतवह्नि-प्लुष्टकर्मगहनप्रसराणाम् । अप्रमत्तयतिमौलिमणीनां, वीरपूर्वकसमुद्रगणीनाम् ॥१३४॥ वर्यचातुर्यविनय-क्रियाऽशोकवनान्तरे । खेलतो राजवन्नित्यं, विजयाद्राजसन्मुनेः ॥१३५।। सुधासुन्दरसत्साधो-धर्मधीरमतिस्पृशः । लक्षणादिषु शास्त्रेषु, कुशलत्वमभीप्सतः ॥१३६।। रङ्गद्गुणमणिश्रेणि-रोहरोहणभूभृतः । हेमसुन्दरक्षुल्लस्य, यशोव्याप्ताखिलावनेः ॥१३७|| हेमसेनमुनेर्वर्य-तपःसंयमशालिनः । हर्षप्रभमुनेर्मान-मुक्तस्य सरलात्मनः ॥१३८॥ बुद्धिबेडाप्रयोगेण, तरत: शास्त्रवारिधिम् । उदयात् कलशस्यापि, मुनेरुद्यद्गुणावलेः ॥१३९॥ वर्यात्युग्रतपोदयादमशमानीहाक्षमासम्पदं, साहित्यागमलक्षणादिकमहाशास्त्रेषु लीनात्मनाम् । प्रोत्सर्पद्विनयोपकारकरणाधारीभवद्वह्मणां, चूलानां परिवर्त्तिनीपदजुषां कल्याणतोऽस्तांहसाम् ॥१४०॥ परासामपि साध्वीनां, संयमाराधनाकृताम् । प्रभुपादैः प्रसाद्या मे, सस्नेहं चाऽनुवन्दना ॥१४१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ ऐरावतं ये यशसां समूहै-विडम्बय(न्त्य)निशं विशुद्धैः(?) । शश्वन्महादानभरेण मित्री-कुर्वन्त्यनेकान्तमतं प्रपन्नाः ॥१४२॥ प्रभावनाभिर्विविधाभिरुच्चकैः, प्रभावयन्तो जिनशासनं सदा । मनस्सु बोधिं दधते कुतीथिना-मप्यङ्करान् मेघ इवाऽम्बुनावनौ ॥१४३।। तेषां श्राद्धावतंसानां, श्राविकाणामपि स्फुटम् । नामग्राहं प्रसाद्यो मे, धर्मलाभो गुरूत्तमैः ॥१४४।। कीर्त्यादिसुन्दरगणि-हर्षरत्नमुनिस्तथा । हर्षतो धीरगणयो-ऽत्रत्या वाचंयमर्षभाः ॥१४५।। साध्व्योऽपि साधुसुन्दरि-गणिः शान्तिनिधिणिः । शिवादिमालागणिनी, क्षुल्लिका शिवचूलिका ॥१४६।। करणासाधुप्रमुखाः, श्रावकाः श्राविकास्तथा । श्रीप्रभून् भक्तितो नित्यं, वन्दन्त इति मङ्गलम् ॥१४७।। गुरुपादमहाभक्ति-तरङ्गसुभगीकृतः ।। भाद्रशुक्लत्रयोदश्यां, शिष्यलेशो व्यजिज्ञपत् ॥१४८।। विशेषतः [ _ __] नंनमत्यनुदिनं गुरुयुग्मं, साधुसुन्दरिगणिन्य उदाराः ॥१४९।। महीमहीयो जनदत्तमानान्, यशोभरैर्भत्सितराजमानान् । प्रभून् द्वयानग्रिमभक्तियुक्तः, प्रणौति पेथाभिधसङ्घनाथः ॥१५०॥ जिनदत्तोदयराजौ, रत्लाई शाणिका च कर्माई । इति नाम्नां मज्ज्यायः-साध्वीनां धर्मलाभोऽस्तु ॥१५१॥ (३) सिद्धपुरस्थ-श्रीदेवसुन्दरसूरि प्रति प्रेषितं विज्ञप्तिपत्रम् प्रप्यानध्यानसन्धान-सम्भवं भवभेदकम् । तज्ज्योतिर्योगिभिर्येय-मार्हतं जयति स्फुटम् ॥१॥ श्रेयो वो विदधातु भद्रकलशः श्रीनाभिराजाङ्गजो भव्यानां शिवपू:प्रयाणकविधावभ्युद्यतानां सदा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ यस्मिन् कुङ्कमहस्तकन्ति भगवत्युच्चैः प्रतापश्रियः, शश्वद्भरियशःसुधारसभरैर्धावल्यमाबिभ्रति ॥२॥ यत्सेवाऽमृतसेवनेन सगरोऽप्यादत्तवाँश्चक्रव ___ य॑क्षय्यामरतां निरस्तसकलप्रोद्दामरोगव्रजाम् । नम्रानेकसुरासुरेश्वरशिरःश्रेणीनताङ्घिद्वयः स श्रीमानजितप्रभुर्वितनुतां शैवं सुखं प्राणिनाम् ॥३॥ आत्मीयाभ्युदयेन भव्यकुमुदवातं समुल्लासयन्, विश्वव्यापकगोभरेण जगतो मोहान्धकारं हरन् । सौम्यश्रीहरिणा श्रितः कृतबुधप्रीतिप्रकर्षोद्भवः, शीतीभावमुपादधातु भविनां श्रीशान्तिशीतद्युतिः ॥४॥ यस्याऽष्टापदविष्टरोदरगतां दृष्ट्वा वपुर्यष्टिकां, नष्टानिष्टगरिष्ठकष्टपटला हृष्टा जना विष्टपे । शिष्टाधीष्टसदष्टमादिकतपःप्लुष्टोरुकर्माष्टकः, ___ पुष्टारिष्टमरिष्टनेमिरनिशं वोऽसौ पिनष्टु प्रभुः ॥५॥ नागक्ष्मापतिनिर्मितातिशितिमप्रौढस्फटाभ्रोपरि, क्रीडच्चारुमणिप्रभाभरचलद्विद्युल्लताडम्बरः । स्निग्धश्यामतनुच्छविं प्रकटयन् श्रीपार्श्वनाथाम्बुदः, कल्याणानि च कल्मषाणि जगतां पुष्णातु मुष्णातु च ॥६॥ प्रोत्सर्पद्विमलप्रभाभरपयोरङ्गत्तरङ्गाकुले, शोणश्रीनखपङ्कजैः कवचिते यत्पादपद्माकरे । भावानम्रसुरेशमौलिमणयः शाफर्यमाबिभ्रते, विश्वोत्तंसितशासनो दलयतादंहांसि वीरः स वः ॥७॥ सप्ताङ्गैरिव नैगमादिकनयैः प्राप्ताः प्रतिष्ठां परां, शुद्धध्यानविधानदन्तयुगलक्षुण्णोरुकर्माचलाः । विश्वामोदविधायिदानसुभगाः सत्कीर्तिशुण्डाभृतः, श्रीमन्तो जिनकुञ्जरा भवभृतां भिन्दन्तु भावद्विषः ॥८॥ गाङ्गेयाभरणस्थमञ्जुलमणीरोचिस्तरङ्गावली दूरापास्तसमस्तनम्रजनतामोहान्धकारोत्करान् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ यत्र श्रीजिनमन्दिरेषु जगतामीशान् जिनाधीश्वरान्, दृष्ट्वा के न सरीसृजत्यनुदिनं पुण्यामृतैः पारणम् ॥९॥ सद्दानोन्नतपाणयोऽथ विलसच्छीलाम्बुजन्मालय स्तप्तद्वादशभेदभिन्नतपसो भावापनीतांहसः । अर्हच्छासनभासनैकनिपुणाः कारुण्यपण्यापणाः, श्राद्धा यत्र वसन्ति सुन्दरतरानुष्ठानबद्धादराः ॥१०॥ श्रीमद्वन्द्यपदाम्बुजन्मजरजःपुञ्जप्रपञ्चानिश प्रत्यानीतविभूतिवैभवपराभूताऽलकाविभ्रमे । उच्चैरुच्छ्रितमन्दिरे गतदरे न्यायेंन्दिरासुन्दरे, ___ तस्मिन् सिद्धपुरे पुरेऽतिविपुले सत्पत्तनाग्रेसरे ॥११।। यद्गुणान् गणनातीतान्, गणयेत् को विचक्षणः । रत्नाकरस्थरत्नानि, यद्वा सङ्ख्याति कः पुमान् ॥१२।। यत् क्षमायाः क्षमाप्येषा, क्षमते नोपमानताम् । मेरोरौपम्यमन्ये किं, भजन्ते भुवि पर्वताः ॥१३।। येषां चित्तं चारुकारुण्यवित्तं, येषां वाणी पापभाषाम्बुशाणी । येषां कायः सत्क्रियाभिळपायः, शश्वद्येषां किं न वयं समेषाम् ॥१४॥ यद्देशनावाक् शिशिराऽपि चित्रं, सन्तापयेद्रागमुखान् विपक्षान् । चन्द्रप्रभालादकरापि यद्वा, प्रद्वेष्टि कोकप्रकरान् सदापि ॥१५॥ हृदालवाले विपुले यदीये, तथोरुवैराग्यतरुः प्रवृद्धः । पुण्यक्रियाचारमणीचकाढ्यः, फलैर्यथेष्टैः फलिता(तो)ऽचिरेण ॥१६॥ द्रव्यादिके रम्यतमेऽपि येषां, भवेन्न कश्चित् प्रतिबन्धलेशः । श्रीखण्डखण्डैरधिवासितेऽपि, यथा स्थिति! मलयेऽनिलानाम् ॥१७|| निरीहता येषु नितान्तकान्ता, संलीनता चापि जगत्प्रशस्या । ऐदंयुगीनर्षिजनैरसाध्यं, तथा तपो येषु वरीवृतीति ॥१८।। यत्पादपद्मद्वयसेवनेन, शिष्या गुणौघाननघान् श्रयन्ते । पुमर्थयुग्माश्रयणेन मर्त्याः, सुखान्यखण्डानि यथा लभन्ते ॥१९।। अहह जगति येषां भाग्यसौभाग्यभङ्गी, भवति खलु न केषां विस्मयस्मेरणाय । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २०१३ - यदनुदिनमुदारैरर्थ्यमानाऽपि पुम्भि:, श्रयति पतितया यान् संयमश्रीरवश्यम् ॥२०॥ सकलभविकजन्तुस्फारहृत्पात्रसंस्थं, सततमपहरन्ती स्नेहपूरं समन्तात् । भुवनभवनवृत्तीन् जीवमुख्यान् पदार्थान्, प्रकटयति यदीया देशना दीपिकेव ॥२१॥ भवारण्ये पुण्येतरकथनपरानेकजनता वचोभ्रान्तान् भव्यान् जननमरणाघातचकितान् । क्षणात् स्वस्थान् कृत्वा वचनरचनैः शुद्धकरुणा परीता ये गृहणन्त्युरुशिवपुरं सार्थपतिवत् ॥ २२॥ तान् सूरिचक्रवरिवस्यपदाननेकै -स्तैस्तैर्गुणैरनुकृताद्ययुगप्रधानान् । ध्येयार्चनीयमहनीयसुनामधेयान्, श्रीदेवसुन्दरगुरून् गुरुभागधेयान् ॥२३॥ श्रीवन्द्यपादपदपङ्कजभक्तिसम्यग् व्यापारपावितमनोवचनाङ्गयोगैः साध्वादिभिश्च विनयात् परिशील्यमानान् ॥२४॥ श्रीसाधुरत्नगणिवाचकसार्वभौमैः वीतरागपदपङ्कजपूजा-सद्गुरुप्रणतिपावितकाया: । यत्र वावसति धार्मिकलोका, धर्मकर्मनिरता धनवन्तः ॥२५॥ मा गा रे चरटाग्रणीः क्षणमितः पश्चात् त्वमालोकय प्राप्तः श्रीजिनराजदुर्धरभटो दत्तस्त्वदुन्मूलकः । यत्र श्रीजिनमन्दिरे प्रतिदिनं भेरीद्वयं दध्वनत् प्रातः सायमपीति भैरवरवैः क्षोभं विधत्ते कलेः ||२६|| कीर्त्तिपूरगुरुसौरभमल्ल्या, दुःषमोर्जितहतौ शितभल्ल्याः । अर्थिकामितविधौ सुखवल्ल्या स्तत्पुरो विजयभृज्झरिपल्ल्याः ||२७|| पादपद्मयुगले रविसङ्ख्या वर्त्तनवन्दनविधिं कृतपूर्वी । मूर्त्तिमद्विनयपङ्कजराज-त्कुड्मलाकृतिकराचितशीर्षः ॥२८॥ शान्तिसुन्दरगणिर्बुधराजी - मौलिरत्नजयसुन्दरमुख्यैः । षड्भिराप्तयतिभिः परियुक्तः, कार्यविज्ञपनमातनुतेऽथ ॥ २९ ॥ Jain Educationa International २३ For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ श्रीमद्देवगुरुप्रसादविशदप्रासादकोटिस्थितं, सेवन्ते कुशलानिलाः प्रतिकलं मामत्र सत्रर्षिभिः । श्रीपूज्यैरपि सन्ततं स्वभविकोदन्तैः सुधाशीकरै रत्राऽऽप्तैरतिमेदुरीकृतिममी नेया विनेयाग्रहात् ||३०|| उदयगिरिशिरस्यापीडलीलां दधाने, तरुणतरणिबिम्बे धौतविश्वान्धकारे । धनिवर- तिहुणाह्वारम्भनिर्माणरम्यं, चरितमिह सभायां वाच्यते पार्श्वनेतुः ॥३१॥ निजवचनविलासाभ्यासविख्यातपेथा-विहितविशदवि श्रामास्तमत्खेदलेशम् । अथ भविकजनालीचित्तनालीकहर्षो-द्धरणकिरणनाली वर्षपर्वाऽऽजगाम ॥३२॥ युग्मम् ॥ तत्राऽऽस्तिकाभ्यां व्यवहारिचाम्पा लाम्पाह्वयाभ्यां विहिते महौघे । साहाय्यदानाज्जयसुन्दराणां, बुधेश्वराणां वरवाचकानाम् ||३३|| प्रभावनाभिर्दशभिः शुभाभिः, श्रीकल्पसूत्रं नवसङ्ख्यवारैः । अवाच्यत त्रासितविघ्नभावं, सरीस्म्रता देवगुरून् मयापि ||३४|| युग्मम् ॥ अत्रत्येन तथा पञ्च- देशग्रामागतेन च । भूयः पुण्यैर्निजं जन्म, श्रीसङ्खेन पवित्रितम् ॥३५॥ तथाहि केचिद् याचकयाचितार्थघटनां चक्रुर्यथेष्टं परे, मोक्षश्रीवरमालिकामिह दधुर्मालां स्वकण्ठेऽर्हताम् । नाट्यं केऽप्यचरीकरुर्जिनपतेरग्रे प्रमोदोद्धुरा, एके पौषधमादृताश्च कतिचिच्छीलं तपो भावनाम् ॥३६॥ विशिष्य भीमभूपतिसुतातपोलता-मेकिकां विहितपूर्विणोऽधुना । सर्वकार्यकरणं यथोचितं, दर्धतो मम सहायतां सदा ||३७|| उत्तराध्ययनपाठतत्परा, नेमिनाथचरितस्य लेखिनः । तन्वते स्म जयसुन्दरा बुधाः, सान्तरं विधिवदष्टमं तपः ॥ ३८ ॥ युग्मम् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ २५ आचतुर्मासकादेका-न्तराद्यशनकारिणः । अनुष्ठानविधि नित्यं, कारयन्तश्च योगिभिः ॥३९।। आवश्यकमधीयमाना(मधीयाना?), गणयः साधुवल्लभाः । नवोपवासानातेनुः, पारणादनघाशयाः ॥४०॥ यामलम् ॥ दमयन्तीतपओलिकां पुरा, कृतवन्तः कृतिलोकसत्तमाः । अधुना किल कल्पमादधु-र्यतिमुख्या गणिसाधुमूर्तयः ॥४१॥ देवसमुद्रगणिर्गुणिमुख्यः, सान्तरमष्टममत्र चकार । शालिचरित्रमिमौ सुपवित्रं, वाचयते विबुधेशसमीपे ॥४२॥ हर्षधीरमुनिरुज्झितदोषो, वावहिर्भगवतीवरयोगान् । षष्ठपादभणनोद्यतचेता, औपवस्त्र(स्त)मकरोन्मुदिताशः ॥४३।। सुवाक्यशुद्ध्यध्ययन-मधीयानो] विशुद्धधीः । यथाशक्ति तपस्तेपे, क्षुल्लर्षिहेमसुन्दरः ॥४४॥ फता-बादादयः पञ्च, वञ्चकाः पापकर्मणाम् । अष्टमं स्पष्टयामासु-रास्तिकाः स्वस्तिभाजनम् ॥४५।। जइता-धाराप्रमुखाः, षष्ठमकार्षुर्विशिष्टजनसाध्यम् । आसूत्रयश्च सर्वेऽ-प्युपासकाः प्राय उपवासम् ॥४६।। कमलीविमलीकर्तु-मात्मनः कर्मकश्मलम् । त्रयोदशौपवस्त्रा(स्ता)णि, निर्ममौ पारणद्वयात् ॥४७।। अष्टाहिकां चक्रतुरुद्यमाद् द्वे, श्राद्धे सिरा-मोहिणिदेविनाम्न्यौ । विशुद्धभावातिशयाम्बुयोगाद्, विक्षेपयन्त्यौ निजपापपङ्कम् ॥४८|| दशोपवासप्रतिमां वहन्त्यौ, माल्हीमहासाहसिनी च हांसूः । वितेनतुर्वर्जितपापकृत्ये, अष्टोपवासानिह पारणेन ॥४९॥ संसारतारणतपोविधिवद्विधाय, नीणूः सदाचरणचारुरुचिश्च वालूः । पञ्चोपवासकृतिमातनुतश्च दक्षे, साक्षेपमुत्तमजिनोक्तपथे चरन्त्यौ ॥५०॥ सारीः पुण्यपरीपाक-दूरीकृतदरिद्रता । संसारतारणं कृत्वा, प्रान्ते कल्पमकल्पयत् ॥५१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ प्रतिमाविंशतिस्थान-तपोऽनुष्ठानसादरा । धारूः पञ्चौपवस्त्रा(स्ता)णि, पौषधेन सहाऽकरोत् ॥५२॥ पञ्चोपवासी चक्राते, पारणाच्छ्राविके उभे । कल्पं पञ्चदश श्राद्धा, निर्ममुर्धर्मकर्मठाः ॥५३।। एक-व्युपवासकारिकाणां, न हि सङ्ख्याऽवगता विलोकिताऽपि । उपधानतपो दशप्रमाणा, उदवाक्षुर्वरभावनाभियुक्ताः ॥५४॥ रत्नादेवी सरीस्रष्टि, दमयन्तीतपोलताम् । अतप्यन्त तपश्चैवं, श्राविका अपरा अपि ॥५५।। इत्येवं वार्षिकं पर्व, सर्वपर्वोत्तरस्थिति । इहाऽजनि जनानन्द-कन्दकन्दलनाम्बुदः ॥५६।। इति स्वरूपं सकलं प्रतीक्ष्य-पादैरिहत्यं हृदयेऽवधार्य । तत्रत्यमप्यत्र महाप्रमोद-सम्पादनाय प्रसभं प्रसाद्यम् ।।५७।। तत्र- माधुर्यधुर्याणि वचांसि येषां, विभाव्य कर्णाभरणीभवन्ति । वैराग्यगङ्गोदकमज्जनेन, न के जनाः स्वं तरसा पुनन्ति ॥५८|| विश्वोत्तरैर्गुणगणैविनयार्जवाद्यै-र्ये रञ्जयन्ति पृथिवीवलयं समन्तात् । क्षीरामृतेन्दुकरगौररुचा सहैव, कीर्त्या तथा धवलयन्ति तदेव चित्रम् ॥५९॥ येषां वाड्मयवारिधौ निरवधौ हेतूपपत्तिस्फुरत् कल्लोलावलिसङ्कले भयकरे नानाप्रयोगाब्भ्रमैः । विस्रस्ते सधरोत्तरप्रवहणे दुर्वादिनः सार्थपा, वादासून् क्षणतस्त्यजन्ति विगलत्काष्ठा हताशा हहा ॥६०॥ पुण्यक्रियाकरजकौशलबद्धरङ्गान्, सौभाग्यभाग्यकमलाकमलायताङ्गान् । श्रीसाधुरत्नगणिवाचकपुङ्गवाँस्तान्, वन्दे त्रिसन्ध्यमपि वन्दनया बृहत्या ॥६१।। गुरुबालमनोऽनुवर्त्तन-प्रवणान् स्वान्यसमाधिदायिनः । गुणवर्द्धनसंज्ञितान् गणीन्, गणनातीतगुणैरधिष्ठितान् ॥६२।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ २७ वन्द्यपादपदभक्तिपटिष्ठान्, दुष्कराद्भुततपोविधिनिष्ठान् । आगमस्मरणपावितचित्तान्, साधुसागरगणीन् गुणिवित्तान् ॥६३|| श्रीगच्छातुच्छसत्कृत्य-निर्माणप्रवणाशयान् । वैराग्यातिशयप्रौढान्, धर्मवल्लभसंयतान् ॥६४।। गुरुकृत्यविधानसादरं, श्रा(श्रु)तपाथोनिधिमाथमन्दरम् । प्रतिवादिघटाकृतोत्तरं, जिनरत्नाबगणिं गुणोत्तरम् ॥६५।। वैयावृत्त्यादिसत्कृत्य-निरतानृजुताञ्चितान् । धर्मप्रमोदसत्साधून्, सौजन्याधारतां गतान् ॥६६।। सुरगुरुमपि बुद्ध्या निर्जयन्तं भजन्तं, विनयमखिललोकप्रीणकं क्षीणदोषम् । असमतमकवित्वाभ्यासवान् मौलिमौलिं, मुनिमुदधिगभीरं वीरयुक्शेखराख्यम् ।।६७।। अतिकर्कशतर्कलक्षणा-गममुख्याद्भुतशास्त्रदक्षिणम् । गुणमूर्त्तिमुनि महामति, विनयाद्यासमसद्गुणाश्रितम् ।।६८।। तप्यमानतपोराशि-प्लोषिताशुभकर्मणः । पुण्यवर्द्धननिर्ग्रन्थान्, शुद्धध्यानपरायणान् ॥६९।। बालकालादपि व्यूढ-संयमश्रीमहाभरम् । हर्षनन्दननामानं, मुनि मुनिजनाग्रिमम् ॥७०।। द्विधापि लक्षणाभ्यास-विध्याहितमनोलयम् । हर्षचन्द्रमुनि चन्द्र-गौरकीर्तिविराजितम् ।।७१।। वर्यचातुर्यसौन्दर्य-मुख्यानेकगुणालयम् । वीररत्नमुनिं हृद्य-विद्यादानोद्यताशयम् ।।७२।। इति सद्गुणसंयतोत्तमान्, सदनुष्ठानविधानसत्तमान् । प्रणमान्य(म्य)नुनौमि च क्रमा-दतिभक्त्या नतमस्तकोऽहकम् ॥७३॥ सुधामधुरया वाचा, चारुचन्द्रिकया किल । प्रबोधयन्ति या नित्यं, भव्यकैरवकाननम् ॥७४।। ऐदंयगीनलोकाना-मसाध्यैर्दुस्तपैस्तपैः । अध्यायाध्यापनैश्चाऽपि, स्वकर्म श्लथयन्ति याः ॥७५।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ प्रवर्तिनीस्ता अभय-चूलाह्वा गुणबन्धुराः । अनुवन्दे प्रमोदेन, संयतीरपरा अपि ॥७६।। अर्हदेवाराधनातत्पराणां, दीनानाथोद्धारबद्धादराणाम् । अग्रे भूत्वा कुर्वतां तीर्थयात्रां, श्रेयः श्रीणां श्रीगुरूपास्तिभाजाम् ॥७७।। समस्तसुश्रावकपुङ्गवानां, सुश्राविकाणामपि सद्विधीनाम् । श्रीवन्द्यपादैरभिधानपूर्वं, प्रसादनीयो मम धर्मलाभः ॥७८॥ इहत्या :गुणिनो जयसुन्दरा बुधा, गणिमुख्या अपि साधुवल्लभाः । यतयोऽप्यथ साधुमूर्तयो, गुणिदेवादिसमुद्रसाधवः ॥७९।। हर्षधीरमुनिराजवशाली, हेमसुन्दरमुनिर्मुनिरत्नम् । नंनमत्यनुदिनं प्रभुपादान्, भूरिभक्तिपरिभावितचित्ताः ॥८०॥ श्रावकाः श्राविकाश्चापि, धर्मकर्मपरायणाः । श्रीपूज्यपादपद्मेषु, भजन्ते भृङ्गतां भृशम् ॥८१॥ आश्वयुजासितपक्षे, पञ्चम्या वासरे च शशिवारे । शिष्याणुना मयेयं, लिखिता विज्ञप्तिरिति भद्रम् ॥८२॥ -x (४) श्रीगुणरत्नसूरिं प्रति प्रेषितस्य पत्रस्यांऽशः अनन्तज्ञानदृक्सौख्य-वीर्यसंवलितात्मने । आनन्दाद्वैतदानैक-निपुणायाऽर्हते नमः ॥१॥ श्रियः कान्ते वैरिव्रजविजयशङ्कामुपगते, निरुध्यारील्लक्षं सपदि जयलक्ष्मी परिणयन् । यदूनामानन्दं दददभिमतं रातु भवतां, शिवासूनुः स्वामी त्रिभुवनशिवाधाननिपुणः ॥२॥ शाखाः किं सुरशाखिनामुपगताः पञ्चात्मतां सन्धिता, एता विश्वसुरद्रुमं प्रभुममुं पञ्चाक्षतां याचितुम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ यन्मूर्तेरुपरि स्फटाः स्फुटरुचः पञ्चातिचञ्चत्तमाः, प्रेक्ष्येत्यूहमवाप्नुवन्ति कवयः सिद्ध्यै सुपार्श्वः स वः ॥३॥ यत्राऽर्हतां सद्मसु पद्मबन्धु-बिम्बोदये स्फूर्जति तूर्यनादे ।। श्राद्धा जिनार्चादिषु सज्जयन्तो, विभान्ति वीरा इव धर्मभर्तुः ॥४॥ दान्तेन्द्रियात्मलयलीनमनोमुनीन्द्रान्, नन्तुं पतिव्रतिविभूषितऋद्धलोके । शालासु यत्र सततं दिवसोदयेषु, शृङ्गारशान्तरसयोर्ननु सङ्गम: स्यात् ।।५।। स्तोतुमन्तर्मनो येषां, गुणा गुणिभिराहिताः । विस्मेरयन्तोऽनन्तत्वं, विस्मयायैव केवलम् ॥६॥ मानसं मानसं येषा-मानशे राजहंसवत् । . शमसंवेगनिर्वेदा-नुकम्पादिगुणवजैः ।।७।। वचांसि येषां सकलाङ्गिरक्षा-दक्षाणि शिक्ष्याणि विपश्चितां च । विशन्ति कर्णाध्वनि मानसानि, भिन्दा चित्राय न कस्य कस्य ।।८।। शारीरमानसिकदुःखपरम्पराप्ति-हेतुप्रमादविजयक्रिययाऽभ्युपेतम् । जीवातुतां निखिलजन्तुगणस्य बिभ्रद् येषां वपुर्विजयते तपएकपात्रम् ॥९॥ येषामुपन्यासमहासमुद्रे, कल्लोलमालाकुलतां दधाने । कस्को विशत्याश्रिततर्कविद्या-बृहत्तरीको ननु धीवरोऽपि ॥१०॥ जिनागमाभ्यासवशाप्ततत्त्वा-तत्त्वार्थसार्थाधिगतात्मतत्त्वाः । वैराग्यरङ्गोज्झितसर्वसङ्गा, ये संयमात् सिद्धिमदूरयन्ति ॥११॥ येषां विहारेण महीतलेस्मि-स्तमस्ततिः क्षिप्यत एव सर्वा । उद्यद्गभस्तेषुतिमण्डलेन, रात्रिर्यथाक्रान्तजगज्जनाऽपि ॥१२॥ ये दुष्षमाकालविशेषगर्जद-बलप्रमादाजगरब्रुवेण ।। जेगिल्यमानं जिनकल्पिकानां, वृत्तं स्वशिष्यैः परिपालयन्ति ॥१३।। व्यातन्वाना प्रबलकुमतोत्सर्पिपङ्कापनोदं, भूयोभूयः सुजनकमलान् स्मेरयन्ती च येषाम् । पुण्या कीर्तिः शरदिव जगन्निर्मलीकारहेतुः, कांस्कान्विश्वेऽद्भुततमगुणान् हंसवत् खेलयेन्न ॥१४|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ परिक्रामद्ग्रामा श्रवणसुखकृद्रागरचना प्रगल्भप्रागल्भ्योपचितवचनोल्लासितरसा । परिस्फूर्जत्सौवान्यतमसमयार्थव्यतिकरा यदीया व्याख्यागीभवति न मुदे कस्य विदुषः ॥१५॥ येषां क्षीरसुधासुधाकर[कर]वातावदातान् गुणान् स्तोतं वाक्पतिरप्यनीश्वरमतिस्तत्का कथाऽस्मादृशाम् । यद्वा यत्र न जाडिघकोऽपि जलधौ कल्लोलमालाकुले गन्तुं न क्षमते गतेरिह भवेद्युक्तैर्विपा_श किम्(?) ॥१६।। अस्माकं भवसन्ततिभ्रमसमुद्भूतांहउच्छेदिनी यन्नामस्मरणैव हर्षनिवहं विश्राणयत्यत्र यम् । तस्यांऽशोऽपि सुदुर्लभः खलु शचीभर्तुः पुरा यत्पदो पास्यासौख्यरसानुभूतिविरहात् साक्षाददृष्टेरपि ॥१७।। क्षुभ्यल्लोभनभस्वति भ्रमभृदज्ञानाम्बुपूरप्लवे भूयो जन्मजरावियोगमरणादकोच्छलद्यादसि । दारिट्राभिनवाभिमानशिखरिव्राताकुले जाज्वलत् . क्रोधोर्वानलभीषणेऽधममतद्वीपालिदुःसञ्चरे ॥१८॥ संसारोरुपयोनिधौ भवभृतो निर्मज्जनोन्मज्जन(ना?)त् ___ क्लेशावेशविशङ्कलीकृतमनोवाक्कायचेष्टाजुषः । कारुण्यार्द्रमनस्तयाऽऽगमवचोबेडासहस्रान् क्षणात् सज्जीकृत्य नयन्ति ये जिनमताप्लाव्यन्तरीपे वरे ॥१९॥ मूलद्रव्यमिहाऽर्प्य पूर्वमनघं सम्यक्त्वमादाप्य च श्राद्धद्वादशभेदभिन्ननियमानादेयवस्तून्य_न् । श्रीचारित्रगुणाविधेयगणनभ्राजिष्णुरत्नर्द्धिकान् निर्मायाऽधिनिवासयन्ति ससुखं श्रीसिद्धिपुर्यां पुनः ॥२०॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ सम्यग्नामतपस्क्रियागमरुचिश्रद्धाननिःसङ्गता नैयत्यादिगुणग्रहेण महिमा येषां य उज्जृम्भते । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ नाऽस्यांऽशोऽप्यपरेषु सूरिषु लभामभ्येति यद्वा श _ द् भानोर्यद् द्युतिमण्डलं स्फुरति किं खद्योतपोतेऽपि तत् ॥२१॥ श्रीवज्रादनु भूयसो गणभृतोऽनाचन्द्रकालायुषः सेवं सेवमधीश्वरान्नवनवान् मन्येऽतिखिन्ना सती । प्राच्यप्राच्यतमात्मनायकगुणभ्राजोऽतिजैवातृकान् यानासाद्य युगप्रधानपदवी सुस्थाऽभवत् साम्प्रतम् ॥२२।। येषां व्याख्या कर्णमार्गे प्रवेशं, कुर्वाणैवाऽज्ञानमाशु क्षिणोति । यद्वा भानो रश्मय: पूर्वभूभृत्-तुङ्गे संस्थाः किं तमो नोत्क्षिपन्ति ॥२३।। पापीयोभस्मराशिग्रहजिनमतगात्यन्तपीडावनाशाने(विनाशा) __ऽनेहःश्यामाऽन्यपक्षोदितचरणगुणश्वेतकेतुप्रभाभिः । उत्कल्लोलायमाने त्रिभुवनवितते यद्यशःक्षीरसिन्धौ, भिन्नानूचानशब्दा दधति परिपतन्मत्स्यलीलायितानि ॥२४॥ ऐन्द्रहस्तिरजताद्रिपूर्णिमा-चन्द्रसान्द्ररुचिसोदरत्विषम् । स्तोतुमेकमपि यद्गुणं यथा-वस्थितं कविरपि क्षमेत कः ॥२५।। यत्पदद्वयमनन्यमनस्का, आश्रयन्ति किल ये सुविनेयाः । ते चतुर्विधसमाधिमुपेता नाऽऽदधुश्चतुरतादिगुणान् कान् ॥२६॥ येषां पदाम्भोजयुगस्य वनं(?), वनं श्रयन्तो भवमार्गगामिनः । सावद्यकर्मोष्मभरं विहाय के-ऽपूर्वं समाधि तव भूविरे(न बभूविरे?)तराम् ॥२७॥ भाग्यं येषामैहिकामुष्मिकाना-मिष्टार्थानां साधकं स्यात् कथं न । उच्चैर्गोत्राग्रेसरो यत्सहायी-भावं दध्यात् पुण्यकर्मोदयोऽयम् ॥२८॥ येषामुपन्यासरणाङ्गणे स्फुरत्-प्रयोगगर्जद्भटकोटिसङ्कले । हेतूपपत्तीषुभरे प्रसर्पति, त्रासं श्रयेयुः परवादिनो न के ॥२९॥ महीमहेलाहृदयस्थलान्तरं, विहारहारेण विभूष्य येऽनिशम् । _ _ _ समग्रावयवान् विभूषय-न्त्यहो मुनीशोऽपि यशोविभूषणैः ॥३०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ मन्ये मनोभवमतीव रुषा महेशे, भस्मक्रियां नयति तद्वपुराश्रयस्था । सौभाग्यभङ्गि _ _ _ यद्विरहोपतप्ता, येषां शरीरकमलं शरणीचकार ॥३१॥ तान7 प्रणिधेयवन्द्यचरणानाराधनीयोत्तम श्री(?)ध्यानध्येयसुनामधेयमहिमा मेयानणीयोगुणान् । गेया भङ्गुरभागधेयकमलालीलाविलासालयान्, पूज्यश्रीगुणरत्नसूरिसुगुरून् सूरीश्वराधीश्वरान् ॥३२॥ (एतावन्मात्रमेव लिखितमिदं पत्रम्) -x श्रीसाधुरलसूरि प्रति प्रेषितस्य विज्ञप्तिपत्रस्यांऽशः सदध्यात्माधीतिप्रवणमतिभिर्योऽतिपुरुषैः __स्वचित्तान्तर्ध्यानं कथमपि समानीयत इह । स्फुलिङ्गायन्तेऽमी शशिदिनकृतो यस्य च पुर स्तदद्वैतं ज्योतिर्जयति किमपीवादिनिधनम् ॥१॥ भास्वन्मङ्गलमौक्तिकोद्भवकृते भद्रेभकुम्भस्थलं भूयोऽभङ्गरवैभवाद्भुततरं भव्याङ्गिदत्ताभयम् । पादाम्भोजमबाभजुर्भगवतो यस्य भूमीभुजः, स श्रीमानृषभप्रभुर्भवभिदे स्तात् सम्पदे भाविनाम् ॥२॥ राजद्राज्यसुखश्रियं च परमज्ञानात्मकं च श्रियं, स्वस्मिन् कर्तुमिवाप्रमाणविलसत्स्नेहे क्षमां बिभ्रतः । यस्याज्ञामुकुटं सुरासुरनराधीशा दधुर्मौलिना श्रीशान्तिर्जगतांपतिस्त्रिजगतां भिन्तात् स तान्तेस्ततिम् ॥३॥ योऽत्याक्षीदुत्पलाक्षीमवनिपतिसुतां योगिनाथं यमाहु र्येनाक्षीयन्त कर्माण्यहमहमिकयेन्द्रा नमस्यन्ति यस्मै । यस्मादापुर्गणेन्द्रास्त्रितयमुरुपदं यस्य रूपं न गम्यं यस्मिन्नासीदनन्तं सुखमखिलसतां श्रेयसे स्तात् स नेमिः ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ स्फारोदारहिरण्मयीफणततिप्राज्योल्लसन्मञ्जरी पुञ्जोत्सङ्गितमञ्जुलामलफलश्रेणीफलालीश्रितः । प्रत्यग्मेचककान्तिसञ्चयलुलत्पत्रावलीकः सतां श्रीपार्श्वः करहेटक(के?)सुरतरुस्तन्तन्यतां चिन्तितम् ॥५।। व्याख्याभूमिजुषः सुवर्णवपुषः पुण्यक्रियायाः पुरो मिथ्याज्ञानमुषः समापितरुष: कैवल्यमासेदुषः । श्रीवीरस्य जयन्ति तेऽतनुरुचो दन्तांशवोऽप्यग्रगा येऽभूवन् परिषद्गतामरवधूकण्ठेषु भूषाकृतः ।।६।। लब्ध्वा केवलसम्पदं सपदि येष्वारुह्य सिंहासनं, कुर्वाणेषु दिशां चतुष्टयमभिव्याख्यानमग्लानितः । विश्वं जन्मजरादिपीडितममी दृष्ट्वा किमुच्चैः स्थित स्त्रातुं वावदतीत्यतर्यंत जनैस्ते पान्तु वः श्रीजिनाः ॥७॥ निनिदानमृषिदानमुज्ज्वलं, शीलमुत्तमतपोऽतिदुस्तपम् । भावनां च शुचिमाप्य यज्जनो, नेच्छति स्वरपि धर्मलालसः ॥८॥ गाम्भीर्योद्धुरतानिराकृतजलापूर्णाम्बुमुग्गजिते भेरीशङ्खमृदङ्गमुख्यविविधातोद्यारवे स्फूर्जति । यत्रा जिनमन्दिरे प्रतिदिनं स्नात्राद्यनेकोत्सवान्, कुर्वत्स्वास्तिकपुङ्गवेषु विजयं श्रीधर्म आपद्यते ॥९॥ तत्राऽत्यद्भुतसम्पदाजितसुरद्रङ्गे खगङ्गोज्ज्वले, तुङ्गानेकगृहाकुले गतखले न्यायेन्दिरासुन्दरे । गेयामेयसुभागधेयकलितश्रीवन्द्यपादद्वय धूल्या पूतमहीतले पृथु[तरे] श्रीदेलवाडापुरे ॥१०॥ प्रत्यक्षं पश्यन्नपि यद्गुणजातं जनो न मातुमलम् । किमु खलु कश्चिन्नभसो ग्रहचक्रं प्रकटमपि मिनुयात् ॥११॥ यैः शमसंयममुख्यैर्गुणैः समो दृश्यते न परसूरिः । स्यात् सुरमणिना तुल्यं महिमाभी रत्नमपरं किम् ॥१२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ आरुह्य चारित्रमहातुरङ्ग, तपःकृपाणं च करे विधाय । क्षमाभृतो ये समितिप्रवीणाश्छिन्दन्ति भावारिचमूमशेषाम् ।।१३।। अभङ्गसौभाग्यसुभाग्यरङ्गद्रनोच्चयाढ्येऽपि पुरे यदीये । प्रमादचौरो न विशेत् कदापि, जाग्रत्क्रियारक्षिकरक्षितो नु ॥१४॥ उत्तुङ्गवैराग्यतरङ्गभङ्गी-चङ्गीकृते यद्हृदयाम्बुराशौ । स्थितिं विधातुः पुरुषोत्तमस्य, चित्रं न वैकुण्ठतया प्रसिद्धिः ॥१५॥ आसंसारं त्रिभुवनजना बुद्धिमन्तः स्तुवन्तः सम्यग्येषां गुणकणमपि स्तोतुमीशा न केऽपि । तेषां स्तोत्रे कथमधिकृतः स्यामने _ जडात्मा, यद्वा यत्तद्वदति भृतकः सुप्रसन्नस्य भर्तुः ॥१६॥ तत्त्वातत्त्वप्रकटनरुचेर्मोहधूमं क्षिपन्त्या येषां चञ्चज्जिनमतकथादीपिकायाः प्रकाशे । _ _ _ _ न्धतमसभरेऽप्युद्गतेऽत्र प्रकामं(?) मोक्षाध्वानं भविकनिकराः सञ्चरन्ते सुखेन ॥१७॥ द्राक्षा क्षुद्रा भवति विरसा चेक्षुरास्वाद्यपाका 5--जाड्यं द्रढयतितरां चन्दनं नन्दनं वा । एवं भावा मधुरविशिराः सन्ति सर्वे सदोषा, निर्दोषाया उपमितिरतो नास्ति येषां नु वाचः ॥१८॥ मन्ये येषां हृदयमुकुरे शुद्धधीभूमिपृष्ठे, _ _ _ न स्वं निरुपमतमाकारमालोकयन्ती । हर्षोल्लासात् समजनि चतूरूपभृच्चेदिदं नो, तत्के - यतुवरचतूरूपतो दृश्यतेऽत्र ॥१९॥ त्रैलोक्यश्रीशरणचरणद्वन्द्वमाराध्य येषां ___ नाऽऽदीयन्ते विनयनिपुणैः कानि कानि श्रुतानि । नानार _ _ _ _ _ भुवं रोहणोर्वीधरस्य स्पृष्ट्वा कांस्कान् तु सुरमणीन् गृह्णते भाग्यवन्तः ॥२०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ ३५ येषां विश्वे विमलयशसां जायमाने विहारे, _ _ _ _ _ यमपि जवाद्वादिनः स्वावलेपम् । यद्वा _ _ _ _ रति वने गन्धभाजो गजस्या ऽऽशेश्रीयन्ते कियदिह मदं दन्तिनः क्षुद्रदेहाः ॥२१॥ श्रेयोलक्ष्मीगृहजिनमताम्भोजमृज्जृम्भयन्तः, सीमातीतप्रसृमरतमःस्तोममुज्जासयन्तः । विश्वानन्दप्रकटनपटुस्वोदयेनोद्धरन्ते सच्चक्राणां मुदमनुदिनं ये जगन्मित्रवृत्ताः ॥२२॥ शङ्खक्षोदामृतरसपयोवारिधिक्षीरराका श्वेतांशूद्यत्किरणविशदैर्यद्गुणैर्विश्ववन्द्यैः ।। वायं वायं कु _ _ मतयो वर्यकाव्यार्यतुर्या, कीर्तिप्रोतं ददति सुभगीभूतये दिग्धुनीभ्यः ॥२३।। संशीशांसितखड्गकोटिसदृशं येषां चरित्रं वचो दुर्भदान _ _ भिदन्मतिरमा दर्भाङ्कुरैः स्पर्द्धिनी । देदीपत्तपउत्करेण वपुषश्चाऽतिप्रचण्डा द्युति चित्रं ये प्रथमं तथापि हि सतां रेखां लभन्ते सदा ॥२४॥ ये संसारमहार्णवात् पृथुतराभोगात्तरन्तः स्वयं सम्यग्(क) श्रीजिनराजदर्शितलसद्धर्मक्रियाबेडया । भव्यौघान्ननु तारयन्ति तु निजैर्वाग्वैभवैरेव यत् तच्चित्रं महदत्र नूनमथवा किं वर्ण्यते तादृशाम् ॥२५।। वर्यौदार्येण कल्पावनिरुहमुरुणा धुर्यधैर्येण मेरुं ___ गाम्भीर्येणापि वारांनिधिमृभुविभुं भूयसा वैभवेन । निर्भत्सर्वं लम्भयन्तेऽप्रतिमगुणगणाधारतामागता ये प्रोत्सर्पत्प्रौढिमानं जगति जिनमतं साम्प्रतं प्रापयन्ति ॥२६।। तान् गेयाद्भुतभागधेयकमलान् गाङ्गेयगौरद्युतीन् ___ध्येयाङ्गीकृतनामधेयजपकृत्प्रत्ताप्रमेयोदयान् । पूज्याराध्यतमोत्तमानणुगुणश्रेणीमणीरोहणान् श्रीसूरीश्वरसाधुरत्नसुगुरून् वन्द्यक्रमाम्भोरुहान् ॥२७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ प्रचुरविनयवृत्तिप्रीणितानेकदक्षं, प्रवरमतिविवेकभ्राजमानैर्यतीन्द्रैः । हिमकरकिरणालीशुभ्रचातुर्यमुख्या द्भुतगुणगणसम्पत्संयतीभिश्च सेव्यान् ॥२८॥ ३६ सुवर्णकुम्भामलसारकेषु, यस्मिन् विहारेष्वतिसौम्यमूर्तीन् । दृष्ट्वाऽर्हतां वावचतीति मिथ्या दृशोऽपि देवा अनुवीतरागम् ॥२९॥ प्रवरदानदयानयपद्धति-प्रवरणप्रवणाधिपपालितात् । - सुविहिताश्रितलोकसमाकुलात्, कपिलपाटकनामपुरात्ततः ॥|३०|| विधेयाश्रवशिष्याणुः, शान्तिसुन्दरसंज्ञितः । साधुसाधुगुणाधारः, साधुत्रयसमन्वितः ||३१|| ज्यायसा वन्दनेनोच्चैरभिवन्द्य यथाविधि । शिरस्यञ्जलिमाधाय, मुदा विज्ञपयत्यदः ||३२|| शुद्धाचारविनेयवारविलसद्वात्सल्यनीरोच्छलत् कल्लोले गुरुमानसेऽतिविपुले क्रीडां समातन्वतः । यानालोक्य विलासलालसमनाश्चारित्रलक्ष्मीर्गुणैः स्वैः शुद्धोभयपक्षिणो द्रढयति क्रीडामरालानिव ॥ ३३॥ संवेगवैराग्यविवेकवैयावृत्त्यर्जुतासाम्यनिरीहताद्याः । येषां गुणा दृष्टिपथं प्रयाता, ऋषीन् पुराणान् स्मृतिमानयन्ति ||३४|| कलिन्दिका येषु यथाऽकलङ्का लीलां विधत्ते न तथा परेषु । यथाऽलिमाला कमले विलासं कुर्यात् तथा नो हयमारकेषु ||३५|| यद् वाड्मयाम्भोनिधिमध्यभागे, हेतूपपत्तिप्रचुरोर्मिमाले । स्फुरत्प्रयोगाब्ध्रमभिन्नकाष्ठा, दुर्वादिनो हा ! सहसा ब्रुडन्ति ||३६|| येषु क्षमाभृत्सु समुद्गतोऽयं, तपोविवस्वानतिचण्डतेजाः । मिथ्यात्विघूकैरपि हर्षता स्वं दृशा समालोकयतीति चित्रम् ॥३७॥ सुधास्वर्धुनीलोलकल्लोलमाला, सुधाधामधामाधरीकारिवर्णा । गुणाली यदीया मरालीव लीला - विलासं विधत्ते सतां मानसेषु ॥३८॥ यासु यथा विनयगुणः प्रकर्षमायाति नापरत्र तथा । ज्यौत्स्नी यद्वज्ज्योत्स्नां वहति तथान्यापि किं रात्रिः ||३९|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ ३७ सुसूत्रसिद्धान्तमहार्थसारं, स्वकण्ठपीठीलुठितं विधाय । यथेहितं शास्त्रभरं ददाना,. गिरः समा या गणयन्ति शिष्टाः ॥४०॥ (एतावन्मात्रमेव लिखितमिदं पत्रम् ।) -x (६) सिद्धपुरस्थ-श्रीदेवसुन्दरसूरि प्रति प्रेषितस्य विज्ञप्तिपत्रस्यांऽशः श्रेय:श्रियं श्रीऋषभो जिनेन्दुर्दद्यादमन्दां स मुदं जनानाम् । नमन्नरेन्द्रामरराजमौलि-मन्दारमालार्चितपादपीठः ॥१॥ भव्यारविन्दनिकरान्तरबद्धशश्व-दज्ञानषट्पदविमोचकगोविलासः । मोहान्धकारमभितो जगतः क्षिपन् वः, श्रीवासुपूज्यसविता शिवतातिरस्तु ।।२।। यन्नामामृतपानतस्तनुमतां विश्वाटवीचारिणां रोगाभोगभराः श्रमा इव समाजग्मुः क्षयं सत्वरम् । वेल्लत्केवलमञ्जरीभरधरो माकन्दवत् प्राणिनां स श्रीशान्तिजिनेश्वरो वितनुतां कल्याणमालामलम् ॥३॥ योऽरौत्सील्लक्षसङ्ख्यं रिपुबलमनमन् यं सुरेन्द्रा वितन्द्रा येनाऽरक्ष्यन्त जीवास्त्रिभुवनगुरुणा राजपुत्र्यैक्षि यस्मै । यस्मात् कर्माणि नेशुदधति च हृदये योगिनो यस्य रूपं ___यस्मिंस्तीर्थेशलक्ष्मीविलसति सततं सोऽवतान्नेमिनाथः ॥४॥ ऊर्ध्वस्थास्नुर्भुजङ्गाधिपतिरुरुफणाडम्बरं व्यादधान स्त्रैलोक्यैकप्रभुत्वं प्रकटतरमहो यस्य भर्तुर्व्यनक्ति । स श्रीवामेयदेवस्त्रिभुवनभवनोत्सङ्गवर्तिष्णुभूयो भाववातावलोकानवरतविलसत्केवलः शं विदध्यात् ॥५॥ तपो महावीरमधीनयित्वा, तमोमहावीरबलं य आस । भव्यान् महावीररथः स पाया-द्भयान्महावीरजिनाधिनाथः ॥६॥ ते भवन्तु भविनां जिननाथाः, सिद्धये सकलसिद्धिसनाथाः । यान्नतामरनरानभिनम्य, स्याज्जनो न विपदामभिगम्यः ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ यत्राद्भुत श्रीजिनराजसद्म- पद्माकरेऽर्हत्प्रतिमाम्बुजाढ्ये । अमेयसद्ध्यानरसं निपीय, वितृष्णभावं भविनो भजन्ति ||८|| तस्मिन् सिद्धपुरे प्रसिद्धनगरे श्रीवन्द्यपादाम्बुरुड्धूलीपूतमहीतलेऽतिविपुल श्रीजैनदेवालये । श्राद्धश्रेणिविधीयमानविविधप्रोद्दामपुण्यक्रियाविभूतिवैभवभरात्यर्थाभिभूतप्रभे ||९|| कू येषां ज्ञानं सत्क्रियाभिः प्रधानं येषां ध्यानं सर्वसम्पन्निदानम् । येषां यानं हंसयानोपमानं येषां दानं विश्वदानासमानम् ॥१०॥ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ " • हृदयं करुणारसाकुलं, वचनं चन्दनबिन्दुशीतलम् । वरसंयमसम्पदः पदं, वपुरप्यस्ति यदीयमन्वहम् ||११|| यद्देशनाविष्णुपदी नदीव-द्भव्य श्रवः स्रोतसि सञ्चरन्ती । अनन्तपापच्छिदुरा दुरापास्तपाप्मभिर्जन्तुभिरेकशोऽपि ॥१२॥ कीर्त्तिर्यदीया शरदभ्रशुभ्रा, बम्भ्रम्यमाणा जगतीतलेऽस्मिन् । सतश्चकोरान् हिमरुप्रभेव, प्रीणाति दुष्कीर्त्तिनिदाघतप्तान् ॥१३॥ Jain Educationa International येषां जिह्वा रङ्गभूमौ नटीव - नृत्यन्ती श्रीशारदासुन्दराङ्गी । तास्ताः काश्चिद्रूपभङ्गीर्विधत्ते, रङ्गाद्विज्ञैर्याः शिरो धूनयन्ति ||१४|| यद्विज्ञभावं ननु कश्चनापि, स्तोतुं प्रभुर्नैव कवीश्वरोऽपि । किं मेरुभूभृद्गरिमाणमुच्चैर्धर्तुं क्षमः कोऽपि महाचलोऽपि ॥ १५ ॥ कलिन्दिका येषु यथाऽकलङ्का - लीलां विधत्ते न तथा परेषु । यथा मराली किल मानसान्ता, रंरम्यते नैव तथा पत्र ||१६|| यथा यथा ये विहरन्ति भूमौ तथा तथा मोहभरोऽस्तमेति । यथा यथाऽभ्रे समुदेति भानु - स्तथा तथा वा तिमिरं प्रयाति ||१७|| धर्मं धरन्तोऽपि गुणाभिरामं, क्षमाभरं बाभजतोऽपि सर्वम् । नयान् समस्ताननुसस्रुतोऽपि चित्रं परं ये यतिनां धुरीणाः ॥ १८ ॥ आस्तां समस्ता अपरे गुणौघा, जेगीय्यमाना विबुधैरशेषैः । एकं निरीहत्वमपीह येषां, पूर्वर्षितां भूवलये व्यनक्ति ॥१९॥ For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ यच्चित्ताम्बरमण्डपेऽतिविलसज्ज्ञानार्कलीलास्पदे सत्कृत्याध्यवसायभासुरतरोडुव्यूहचाराकुले । प्रोद्दामासमसंयमोद्यममहाधामाभिरामस्थिति र्वैराग्येन्दुरुदेति शाश्वततमःसङ्घातसङ्घातकृत् ॥२०॥ औदार्येण सुरद्रुमानथ महाधैर्येण हेमाचलं, गाम्भीर्येण पयोनिधि विमलया बुद्ध्याऽथ वाचस्पतिम् । अक्षय्यार्थतया निधि शुचिरुचा कीर्त्या भुजङ्गाधिपं, स्फूर्जद्वैभवसम्पदा सुरपति तेजोभरैः पावकम् ॥२१।। इत्येकैकगुणेन विश्वविदितान् सर्वान् पदार्थान् भृशं न्यक्कुर्वद्भिरपूर्ववृत्तविदितैर्यैर्नाऽऽपि लोके तुला । पूज्याऽभङ्गुरभागधेयसुभगान् श्रीसूरिचक्रेश्वरान्, श्रीश्रीश्रीश्रितदेवसुन्दरगुरूंस्तान् विश्ववन्द्यक्रमान् ।।२२।। युग्मम् ।। पूर्वपुण्यपरिपाकसम्भव-द्वन्द्यभक्तिविशदीकृतात्मभिः । साधुभिर्विनयवृत्तिशालिभिः, संयतीभिरपि सेवितक्रमान् ।।२३।। यत्र देवालयः शाला, चकास्तः स्वस्तिभाजनम् । आस्तिकश्रेणिसङ्कीर्णा-द्वाउलूपुरतस्ततः ॥२४॥ कृतिकर्मविधिं कृत्वा, विधेयः शान्तिसुन्दरः । शिरस्यञ्जलिमाधाय, मुदा विज्ञपयत्यदः ॥२५।। (एतावन्मात्रमेव लिखितमिदं पत्रम् ।) -xमृगोऽपि यस्योभयथापि चक्रिणः, क्रमद्वयं भक्तिवशादुपाश्रितः । अवापि(प्स?)वान् श्रीभृतराजमण्डलं, स शान्तिनाथोऽद्भुतभूतयेऽस्तु वः ॥१॥ यः संश्रयन् वृषमत्यन्तं, प्रीणन् गिरिडुवं मुहुः ।। श्रीत्र्यम्बकनरेश! त्वंस व्यम्बिकापतिवज्जयम् ॥२॥ आकर्णाकृष्टचापान्, वैरिमहान् सङ्गरे निराकृत्य । त्वमुपात्तराज्यसम्पत्, त्र्यम्बकराजाऽर्जुन इवासि ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ बकवृत्तिवक्त्रतः ॥४॥ कीर्त्या जगत्पावकशश्वदुल्ल्ससन्महामहःपावकदग्धविद्विषन् । पृथ्वीममुं पावकदुर्गभूपतो, भू व न्याय्यं मार्गमुपास्स्व पण्डितजनप्रीतिं पुषाण प्रजा: प्रीणीहि प्रतिपालयोत्तमनृपाचारं श्रयोदारताम् । दुष्टान् शाधि विधेहि निर्मलयशांस्येधि प्रतिज्ञापरोधर्माबाधनमातनु क्षितिपते! स्वाज्ञां च विस्तारय ॥५॥ पं. शान्तिसुन्दरगणिविबुधपुरन्दराणां लेखकाव्यानि कियन्ति ॥ Jain Educationa International महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध केन्द्र जोधपुर नं. ७४९ For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ (७) श्रीविजयसेनसूरि प्रति उपाध्याय - श्रीसत्यसौभाग्यस्य लेख: स्वस्तिश्रीर्भजति स्म यस्य वदनाम्भोजन्म विश्वेशितुर्मत्वोन्निद्रमहर्निशं तरलतादोषापनोदेच्छया । विज्ञानार्कनिभालितत्रिभुवनाभोगः स योगीश्वर ध्यातध्येयगुणावलिर्वितनुतात् श्रेयांसि भूयांसि वः ॥१॥ स्वस्तिश्रीर्वदनाम्बुजं भगवतः संप्राप्य यस्य प्रभोः, सद्भ्रमोहनवल्लिमोहितमतिश्चापल्यमुच्चैर्जहौ । तं निःशेषसुरासुराधिपगणाभ्यर्च्यक्रमाम्भोरुहं, देवेन्द्रं भुवनस्थितिप्रकटनप्रौढप्रदीपं भजे ॥२॥ स्वस्तिश्रीः प्रसभं पुराणपुरुषं त्यक्त्वाऽऽलिलिङ्गाऽत्र यं, गोपेन्द्र तरुणद्युतिं तरुणिमोद्रेकेण रक्ता सती । वक्त्रं यस्य सुदृक् ककम्ब च विरूपाक्षस्य सन्त्यज्य तद्, गौरीशस्य स विघ्नवल्लिवलयं मथ्नातु दन्तीशवत् ॥३॥ यस्योच्चैरधरीकृतामरमणिस्मेरस्मयं विस्मयं, माहात्म्यं प्रकटीचकार सकलं सम्प्राप्तसर्वश्रियः । अन्यत्राऽसदपि स्वयं त्रिजगति प्रौढोदयं व्याप्नुवत्, तस्य ज्ञातसमस्तवस्तुनिकरस्याऽस्तु प्रसादो मयि ॥४॥ यस्योच्चैर्धवलीकृतत्रिभुवनाभोगे यश:स्फूर्जिते, सङ्ख्यातीतगुणालयस्य शशभृद्धाम्नि प्रसर्पत्यलम् । क्वाऽऽयासि त्वमहो विटेति पुरभिद्भ्रान्त्या मुकुन्दप्रिया, Jain Educationa International लोकप्रीतिलतावितानविलसद्धाराधराभाधरं, वक्त्याश्लेषसमाकुलाऽपि रभसात् कृष्णं वलक्षद्युतिम् ॥५॥ ४१ जाग्रद्विक्रमभृत्प्रभावनिचितब्रह्माण्डभाण्डोदरम् । For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ नित्योद्योतनिरस्तसर्वतिमिरज्ञानार्कपूर्वाचलं, __श्रीमत्शान्तिजिनाधिराजमतुलं भक्त्याऽभिनोनूय तम् ॥६॥ यत्रोच्चैः करिराजदानसलिलप्रध्वस्तधूलीव्रजं, रंहोधावितुरङ्गवक्त्रविगलत्फेनाप्तपुष्पोत्करम् । प्रासादध्वजधोरणीपटकुटीप्रच्छादितार्कप्रभं, लक्ष्मीकेलिकलाकृते विरचितं भूमण्डलं भासते ॥७॥ चञ्चच्चन्द्रमरीचिकम्बितशिरश्चन्द्राश्मसंवर्मित प्रासादप्रकरस्रवत्शुचिपयोधाराभिषिक्तक्षितौ । यत्राऽर्हत्प्रतिमापुरस्सरलसद्धूपोत्थधूमावली व्याप्तव्योम्नि घनात्ययेऽपि शिखिनो नृत्यन्ति मेघभ्रमात् ॥८॥ जित्वा स्वर्गपुरीमुरीकृतरमाभोगं समीरोल्लसत् प्रासादप्रकरध्वजाञ्चलमिषाद् यन्नृत्यतीवोच्चकैः । प्रत्योकः स्फुटवाद्यमानमुरजध्वानोत्थितोत्साहतो, नृत्ये नृत्यकृतां भवेद् विरभसा रङ्गो मृदङ्गश्रुतेः ॥९॥ यत्रोच्चैरम्यहर्म्यध्वजसिचयचयच्छन्नमार्तण्डबिम्बे, नैदाघं धर्मदुःखं न हि भवति मनागप्यलं भाग्यभाजाम् । लोकानामात्मलक्ष्मीललिततुलितसद्यक्षनाथप्रभाणां, मध्याह्नेऽपि प्रतापप्रबलदिनकरे गच्छतां राजमार्गे ॥१०॥ धात्रीशेवधिकल्पतां गतवतो वप्रः समुद्गायते, यस्याऽभ्रंलिहभित्तिभासुरवपुर्भूयः प्रवेशायनः । रूप्यस्वर्णमणिप्रवालनिचितस्याऽऽनन्दसम्पादिनो, दृष्ट्याऽपीह दिदृक्षुलोकनयनस्तम्भैकहेतो तम् ॥११॥ प्रातर्बालगभस्तिमण्डलमिदं पूर्वाद्रिशृङ्गे लुलद्, यत्राऽभ्रस्फटिकप्रसाधितलसद्धामावलीभित्तिषु । निर्माति प्रतिबिम्बलम्बि गगने रक्ताम्बुजन्मभ्रमं, चित्तेषु क्षणमेकमद्भुतधियां सत्तार्किकाणामपि ॥१२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ यत्र श्रीसदने दुरन्तपरिधेर्वप्रस्य भास्वद्दुते ___ानावर्णमणिप्रसाधितलसद्भित्तेः प्रतिच्छन्दतः । नानावर्णपयोभृताऽस्ति परिखा वृत्ता समन्ताद् भृशं, __स्वर्गीशस्य धनुर्द्वयीव पतिता व्योम्नोऽवनौ योजिता ॥१३।। रङ्गदोगिजनावलीकृतलसद्धृपोत्थधूमाभ्रभृत्, सन्मार्दङ्गिकवाद्यमानमुर[ज] _ _ _ _ _ गर्जितः । रत्नाष्टापददीप्यदङ्गललनारोचिस्तडिद्भासुरः, प्रत्योकः प्रतिघस्रमेव जलदो यत्रोच्चकैदृश्यते ॥१४॥ यस्मिन् वासनिकेतनस्य दिविषद्धामधुतिध्वंसिनो, ___ भास्वद्रत्नविनिर्मिते प्रतिदिशं भित्तिप्रदेशे स्फुटम् । वीक्ष्य स्वप्रतिबिम्बमल्पितशचीज्योतिः परस्त्रीभ्रमात्, काचित् कोपवशात् प्रिया स्वरमणं पादेन हन्ति स्वयम् ।।१५।। यस्मिश्च प्रतिबिम्बितं मरकतस्फूर्जच्छिलाभि शं, बद्धे वेश्मतले कुचद्वयरसा - - - - - - । गुणं समीक्ष्य पतितं गला दरात गु लातुं क्षिप्तकरा: प्रभुग्ननखरा हस्यन्त आलीजनैः ॥१६॥ शोभा दर्शयितुं निजां सुरपुरीदर्पप्रथानाशिनी, वातान्दोलितहर्म्यकेतुपटलैराहूतदिग्दन्तिनि । विश्वव्यापियशःश्रुतेर्वसतये शक्रेण बद्धस्पृहे, तत्र श्रीमति पूज्यपादचरणन्यासाङ्कविभ्राजिनि ॥१७|| प्रत्यद्रिप्रभवेन्दिरापरिणयं तोयेश्वराखण्डलौ, यत्राऽस्तं व्रजदर्यमोद्यदमृतज्योतिःस्फुरद्दम्भतः । कुम्भाभ्यामभिषिञ्चतो जलभरैः पूर्वापरोदन्वतो र्धाराद्रिं प्रतिपूर्णिमं तत इहाऽधोऽम्भोभृता खातिका ॥१८॥ सूर्याचन्द्रमसौ यस्मि-न्नस्तोदयकृतत्वरौ । धाराद्रेः कुण्डलायेते, शीर्षों को मौलिमालिनः ॥१९॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ यत्रोच्चैः शिखराग्रसंस्थितवटः सस्यस्फुटाम्रश्रिया कीर्णो वृत्ततरः सनिर्झरजलो धारागिरिर्भासते । पत्युः सङ्गवशात् प्रसूतसुयशःसूनोः क्षरत्क्षीरभृत्, पाण्डुः श्याममुखोऽपरः स्तन इवाऽपाचीमहीसुध्रुवः ॥२०॥ तस्माद् देवगिरेः समस्तजगतीसीमन्तिनीभालतो, लोलभ्रूनयनोपमाविरहितश्रीप्राप्तशोभाभरात् । तर्जन्या स्फुटकीर्तिभासुरपुरवातं स्वकीयैर्गुणै नित्यं तर्जयतः पुरात् प्रतिदिनं प्रासाददण्डोपधेः ॥२१॥ उत्सुकमनोऽभिरामो, विनयावनताङ्गशालिधौरेयः । करकुड्मलोपलक्षित-ललाटपट्टाभिरामश्रीः ॥२२॥ भूरेणुतिलकितालिक-भासुरकान्तिः प्रमोदमेदुरितः । भक्तिप्रकर्षसम्भव-पुलकाञ्चितसकलतनुयष्टिः ॥२३।। व्यणुकसमवायिकारण-सदृशः शिष्येषु सत्यसौभाग्यः । सोल्लासं सोत्कण्ठं, सप्रणयं सानुनयमेवम् ॥२४॥ द्विगुणितवैशेषित(क)मत-भावपदार्थप्रमैर्मुदाऽऽवतैः । प्रणिपत्य सृजति विधिवद्, विज्ञप्तिं प्रश्रयोपेताम् ॥२५।। प्रातः प्रभाकरेऽथो, हरिद्वधूनां स्वयं मुदा रक्ते । मण्डयतीव मुखानि, स्वस्य करैः कुङ्कुमाभोगैः ॥२६।। भुक्तवति स्वकरमणे, निश्यपरां पद्मिनी रुषा रक्ता । भृङ्गीषु यू(दू?)तीष्विव, निनदन्तीष्वनुनयन्तीषु ॥२७॥ अन्तर्धमदलिशब्दैः, पूत्कुर्वन्तीषु कुमुदिनीकान्तम् । निर्जित्य कुमुदिनीषु, व्रधेन विडम्ब्यमानासु ॥२८॥ स्त्रीविश्वासात् किं किं, कष्टं न स्याद् बलोद्धतेऽपीति । पादै रविणा ध्वान्ते, प्रहण्यमाने त्रियामायाः ॥२९॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ याऽष्टाशीतिसहस्री-युतलक्षद्वयमितोरुपदभृदपि । चलनवियुक्ता तस्यां, भगवत्यां वाच्यमानायाम् ॥३०॥ शास्त्राध्ययनाध्यापन-योगोद्वहनादि सत्क्रियाकाण्डम् । लक्षीकृतापवर्गे, यतिवर्गे कुर्वति प्रौढम् ॥३१।। साधर्मिकप्रकरसत्कृतियुक्तपोषै मालाधिरोपणमहःप्रथितोपधानैः । तुर्यव्रतोच्चरणनन्दिमहोत्सवौघैः, सम्यक्त्वसुन्दरगृहिव्रतपौषधैश्च ॥३२॥ _ _ _ _ गतिपथं सुकृतैककृत्ये, सद्भावरङ्गिहृदयैरिह नीयमाने । यद् विघ्नमण्डलमुपैति नितान्तमस्तं, तत् तातपादचरणस्मरणप्रभावः ॥३३।। किञ्चसाकं चातककूजितेन सकलं व्याप्नोति गर्जिर्जगत्, सार्द्ध भोगिमनोरथैः प्रतिदिनं वृद्धि प्रयान्त्यम्बुदाः । शुष्यन्ति प्रसभं जवासकगणा: सत्रा वियुक्तैर्जनै ____स्तापाः शान्तिमयन्ति यत्र च समं कान्ताभिमानग्रहैः ॥३४॥ तत्र प्रावृषि शान्तचातकतृषि प्रच्छादितार्कत्विषि, प्रौढश्रि प्रतिवत्सरं भवति यत् प्राप्तोदयं पर्वसु । धर्मक्षोणिभुजङ्गकौतुककलारम्भागृहं सर्वदा, दत्ताशीरभयोपलब्धिपटुभिस्तिर्यग्भिरप्युन्मुखैः ॥३५॥ यस्मिन् धर्मनरेश्वर-साम्राज्ये विघ्नसिन्धुरविपक्षः । कल्पोऽनल्पप्रभया, गन्धद्विरदायते शश्वत् ॥३६।। यस्य च सर्वसुखद्विप-वशीकृतावेकहस्तिपकसदृशः । मासक्षपणादितपो-ऽङ्कुशायते शश्वदतितीव्रम् ॥३७।। यस्मिन् निर्वृतिदायिनि, तिर्यञ्चः पक्षिणश्च मोदन्ते । नृपशिक्षया प्रवादित-जीवदयापटहघोषेण ॥३८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ सप्तदशभेदपूजा-विरचनमाविःकरोति यत्रोच्चैः । श्रेय:श्रीसंवननो-ल्बणौषधीकल्पतां शश्वत् ॥३९।। यत्रेहितमर्थिभ्यो, ददतां लक्ष्मीवतां मुदा पञ्च । दक्षिणहस्ताङ्गुलयः, पञ्चसुपर्वद्रुमायन्ते ॥४०|| जनसंघट्टात्रुट्य-न्मुक्ताहारैर्मृगीदृशां सङ्गः । वैराग्यादिव यत्र च, कल्पश्रवणात् परित्यक्तः ॥४१॥ यत्र व्याख्यानश्रुति-रणरणकान्मिलितलोकसंघट्टैः । पुंभिरपि स्वेदकणै-मुक्ताकञ्चुकधरैर्जातम् ॥४२॥ तत् सर्वपर्वगर्व-प्रदमाब्दिकपर्व सततनिर्विघ्नम् । अजनिष्ट तातपाद-ध्येयध्यानानुभावेन ॥४३।। किञ्च येषां वचनामृतरस-गततापभरैर्जनवजैः सम्यक् । अच्छिन्नचन्दनद्रु-मलयगिरिमण्डलं ब्रूते ॥४४॥ किमदोवदनस्पर्द्धा, निर्मातीत्युपहसद्भिरिन्दुरयम् । लोकैविलोक्यतेऽलं, दृष्ट्वाऽपि मुखं मुदा येषाम् ॥४५।। येषां स्थैर्यश्रवणाद्, भूभारोद्वहनजातखेदमनाः । भोगीशः साहाय्यं, समीहते धीरचरितानाम् ॥४६।। येषां यशःकदम्बक-निर्मलतामर्कसोदरः सम्यक् । लब्धुमिव देवनद्यां, स्नाति सदा धवलदेहोऽपि ॥४७|| येषां गुणगणभारै-राक्रान्ताशेषवपुरिव महद्भिः । भोगीशः स्वशरीरं, चालयितुमनीश्वरः सम्यक् ॥४८॥ येषां कीर्ति कुलटा-मिव सततं स्वैरमखिललोकानाम् । कण्ठाश्लेषं सृजती-मपि जगति सतीं वदन्ति बुधाः ॥४९।। येषां रूपातिशयं, लक्षीकृत्याऽद्रिजाप्रमोदकृते । दिग्वासाः किमु कञ्चि-न्मन्त्रं साधयति शम्भुरसौ ॥५०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ ४७ येषामल्पितकल्प-द्रुम _ _ [कल्प]वागगोचरो महिमा । विबुधपदं नृणामपि, करस्य भूमौ ददानस्य ॥५१॥ कुब्जीकृतसुरगिरिभिः, स्वकीयगुणराशिना प्रसाद्या तैः । प्रीतिप्रसादपत्री, कृशेतरां मयि कृपां कृत्वा ॥५२॥ तैरुपवैणवमनुपम-भाग्यसमुद्रैः सदा कृपावद्भिः । श्रीतातैरवधार्या, प्रणतिश्च विनेयपरमाणोः ॥५३।। किञ्चशिवसृष्टिं ध्यायन्तो, जगति जयन्तीह ये यथायोगाः । उपदिष्टदुःखसमुदय-मार्गनिरोधा यथा बौद्धाः ॥५४॥ तेषां निकटस्थानां, निजवचनातिशयरञ्जितनृपाणाम् । श्रीनन्दिविजयवाचक-वृषभाणां वादिकुम्भिशरभाणाम् ॥५५॥ गीतिः । निजमतितुलितबृहस्पति-बुद्धीनां लाभविजयबुधानाम् । वैराग्यरङ्गरङ्ग-च्चित्तानां प्राज्ञरङ्गविजयानाम् ॥५६॥ गीतिः । शान्तिविजयविबुधानां, विद्वद्वररामविजयगणिराजाम् । तर्कवितर्कवशंवद-चित्तानां रामविजयबुधराजाम् ॥५७॥ गीतिः । गणिपद्मविजयनाम्नां, गणिसिन्धुरकीर्तिविजयानाम् । गणिधीरविजयनाम्नां, गणिबन्धुरकमलविजयानाम् ॥५८॥ उपगीतिः ॥ अन्येषां च यतीनां, प्रसादनीये प्रसादमाधाय । नत्यनुनती यथार्ह, श्रीमत्तातैः कृपावद्भिः ॥५९।। शिशुसंनिधिसंस्थानाः, कुंअरसौभाग्यगणिमुख्याः । वीराञ्चितसौभाग्या-स्तथा च कल्याणसौभाग्याः ॥६०॥ उपगीतिः ॥ प्रणमन्ति भक्तिनम्राः, श्रीमत्तातक्रमाम्बुजद्वन्द्वम् । उपवैणवमामोद-प्रकर्षसम्पादनप्रकटम् ॥६१॥ अत्रत्यः सकलोऽपि, प्रणमति सङ्घस्त्रिसायमुरुभक्तिः । श्रीतातपादपाद-द्वितयमतुल्यप्रभाभोगम् ॥६२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क आश्विनासितपञ्चम्या- मादित्यजुषि मङ्गलम् । भवताद् गुरुपादाब्ज-स्मरणप्रभवोदयम् ॥६३॥ [बहारना भागे - ] उ. श्रीसत्यसौभाग्य ग. लेख Jain Educationa International -X - For Personal and Private Use Only खण्ड २ मुनीश्री धुरन्धरविजयजी - सङ्ग्रहगत Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ ( ८ ) राजधनपुरस्थित श्रीविजयसेनसूरि प्रति पं. श्रीमे रुविजयलिखितं विज्ञप्तिपत्रम् Jain Educationa International स्वस्तिश्रियां सन्ततये स देवः, श्रीविश्वसेनक्षितिपालपुत्रः । प्रशान्तये सन्तततामसानां, त्रैलोक्यमध्येऽजनि यो मृगाङ्कः ॥१॥ जेता जगज्जैत्रयशोधरिष्णो-र्मदीयशत्रोः करिणां च शत्रोः । इति प्रहृष्टो हरिणीतनूजो सेवे यदीयं पदमङ्कदम्भात् ॥२॥ यत्सेवनेनाऽपि मृगीतनूजो, मृगीदृशामाप दृशा समत्वम् । वनेचरोऽपि प्रगुणैकधाम्ना (म्नां), न निष्फलाऽऽस्तां महतां हि सेवा ||३|| कस्तूरिका यवदनानिलेन पराजिता यत्श (च्छ ) रणं गता किम् ? | यस्याऽङ्कदम्भेन मृगेण साक- मितीव वक्तुं न हि मेऽस्ति दोषः ||४|| स्वस्तिश्रियो यद्वदनारविन्दे मत्तोऽधिका न्यूनतमा इतीव । विलोकितुं कैरविणीहृदीशो मित्रं मृगं प्रेषितवान् यदन्ते ||५|| एणीदृशामायतलोचनाभ्यां जितो ( ता ) ऽहमेनं हर मे कलङ्कम् । सा प्रेषयामास सुतं यदन्ते यदङ्कदम्भादिति वक्तुकामा ||६|| अस्मादृशां दुर्दमदन्तिवैरिव्यधादितस्त्वं जहि भीतिमीशः (श!) । किं प्रेषयामास मृगी तनूजं विज्ञप्तु (?) कामेनि (ति) द्म(य)दङ्कदम्भात् ॥७॥৷ यत्पादसेवाजनितेन कर्मणा, लब्धं मृगेणाऽऽशु मृगाङ्कमण्डलम् । " नो चेत् कुतस्ताविषवासिवाञ्चिते, तत्र स्थितिस्तस्य सुखाय सोऽस्तु ते ॥८॥ कुर्वन् विवादं तव लोचनाभ्यां पराभिभूतो हरिणीतनूजः । इतीव सेवारसिको बभूव, यदङ्कदम्भेन यदीयतीरे ||९|| स्वस्तिश्रियं न्यूनतमां मदीयां, यदाननेऽन्यूनतमां च दृष्ट्वा । आदातुमेतामिति कौमुदीशो मित्रं मृगं प्रेषितवान् यदन्ते ||१०|| सन्धि विधातुं भवदाननेन, समं मृगं प्रेषितवान् मृगाङ्कः । स्वं सेवकं तेन जितः स तेन शिश्राय पादाम्बुजमङ्कदम्भात् ॥११॥ ४९ For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ गवेषितुं तच्छलमौषधीशो मुखान्न गन्धो मृगमात्मभृत्यम् । किं प्राहिणोदङ्कमिषात् कुरङ्गः संलक्ष्यते तेन यदंहिपीठे ॥१२॥ अपाकुरु त्वं जगदर्तिहर्ता, जगत्प्रसिद्ध स्वकुरङ्गनाम । विज्ञप्तिकां कर्तुमितीव यस्य, मृगं(गः) शि(सि)षेवे पदपद्मपीठम् ॥१३।। स्वस्तिश्रियं यत्पदपद्मसङ्गं, वितन्वतीं वीक्ष्य कलातिरेकाम् । इतीव भेजे भगवन्तमङ्क-च्छलेन तां प्राप्तुमनाः कुरङ्गः ॥१४।। कलङ्कमुक्तं कलयाऽभिरामं, विस्तारयन्तं कुमुदां प्रकाशम् । यथा द्वितीयोदितशर्वरीशं, प्रणम्य तं सर्वविदामधीशम् ॥१५॥ अथ नगरवर्णनम् - पदे पदे यत्र वसन्ति लोकाः, सूर्यप्रकाशा इव रागभाजः । प्रबुद्धपद्मावलिराजमाना रेजे घुरं राजधनाभिधानम् ॥१६॥ मित्रोदये प्रीतिमता: प्रधानां(ना) दोषागमे निर्मितबाढवैराः । पद्मानुरागाः सुविलक्षपक्षा वसन्ति कोका इव यत्र लोकाः ॥१७॥ अन्यूनराजोदयराजमानाः, समुद्रलीभां(लां) परिवर्द्धयन्तः । कृतप्रमोदाः कुमुरा वसन्ति, शशिप्रकाशा इव यत्र लोकाः ॥१८|| अष्टापदालड्कृतमध्यदेशाः सुवर्णगात्रोचितभूमिभागा(:)। जम्बूच्चशाखा निवसन्ति जम्बु-द्वीपप्रदेशा इव यत्र लोकाः ॥१९॥ प्राप्तप्रसादाः सवितुनितान्त-निर्मापितैकक्रमकेलिभाजः । केलि कलानां कलयन्ति नित्यं, द्विजेन्द्रबिम्बा इव यत्र लोकाः ॥२०॥ विस्तारयन्तो बहुदानधारां, भूमण्डले भद्रकजातिभाजः । स्वस्वामिनां शालिसुखं सृजन्तो, भान्ति द्विपेज्जा(न्द्रा) इव यत्र लोकाः ॥२१॥ प्रोद्भूतपुण्याङ्करपूरिताशाः, प्रधानसम्प्राप्तसमीहितार्थाः । प्रबर्हबर्हावलिभिर्महार्हा वसन्ति कल्पा इव यत्र लोकाः ॥२२।। विशालशाखाः सवयःकलापाः, पर्युल्लसन्तः सुमनःसमूहैः । छायाभिरामाः सफलाः विपत्रा वसन्ति वृक्षा इव यत्र लोकाः ॥२३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ विशेषिताभास्तिलकैर्विशेषैः, पर्युल्लसत्पत्रलताभिरामाः । छायातिमात्रं कलयन्ति यत्राऽऽरामा बहिर्मध्यगताश्च रामाः ॥२४॥ प्रशस्तशास्त्राध्ययनप्रवीण-व्यापारदरैर्गुरुभिर्वलक्षाः । परीतदेशा धनदप्रजाभिः स्वर्गश्रियं यत्र हसन्ति वासाः ॥२५।। प्रभाभरैर्भूषितभूमिभागाः सच्चक्रचित्तेषु सुखं सृजन्तः । यत्रांऽशुहस्ता इव शक्तिमन्त-स्त्रस्तान्धकाः सज्जनसन्निवासाः ॥२६।। लीलाविलासैविबुधव्रजानां कीर्णान्तरालाः सुरसालकल्पाः । बिभर्ति या काञ्चनपद्मवासां गिरेर्धरित्रीव सुधाशनानाम् ॥२७॥ प्रणुन्ननीरन्ध्रतमोविताना जगत्त्रयव्यापिघनप्रतापाः । सदोदयैर्वधितदीप्तिमन्तो वसन्ति हंसा इव यत्र लोकाः ॥२८॥ राजोदये प्रेम परं प्रपन्ना ध्वान्तद्विषा सख्यमसंसृजन्तः । कलानिपानेषु निबद्धचित्ता लोकाश्चकोरा इव यत्र सन्ति ॥२९॥ जैवातृकालङ्कृतमध्यभागा मुनीमहामङ्गलमित्रभाजः । कवीन्द्रभास्वद्गुरुराजमाना नभःप्रदेशा इव यत्र बोसाः (लोकाः) ॥३०॥ समीरधूतध्वजदण्डमण्डि-प्रोत्तुङ्गशृङ्गोल्लसदाप्तगेहैः । विभ्राजमानान्तरभूमिभागे महाजनानां स्थितिराजमाने ॥३१॥ श्रीतातपादद्वितयारविन्द-परागपूगैरभितः प्रपूते । सन्नीतिभूषाभरभूषितान्त-विश्वम्भरावल्लभाभि(?) तत्र ॥३२॥ ताताभिधानगुणगानविताननान(?)-तिग्मांशुरश्मिहतशोककलोककोकात् । माहात्म्यभृविजयदानशमीन्द्रसिंह-प(पा)दारविन्दमकरन्दविभूष्यदेशात् ।।३३।। श्रीविश्वसेनधरणीरमणाश्वसेन-सिद्धार्थभूपतनयालयलीनलोकात् । अत्रस्तशास्त्रपठनप्रवणप्रयास-प्राकद्य(ट्य) भृत्प्रशमिवासितसाधुवासात् ॥३४|| सौराज्यभाग्यभरभूषितभूरिदेश-भूमीसमागतसमस्तजनाभिरामात् । सद्वर्ण्यवस्तुविसरव्यवसायसार-लङ्कानुकारिनगराद् वटपल्लिकाह्वात् ॥३५।। ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ सद्भक्तिनिर्भरभराभरणाभिभूष्य-भूषाविभूषिततमाङ्गसमप्रदेशः । हर्षप्रकर्षसरसीरुहिणीहृदीश-नव्यत्विषोन्मिषितमानसमध्यदेशः ॥३६।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क खण्ड २ भून्यस्तमस्तकतटीमुकुटीकृतैक - हस्ताम्बुजन्मयमलः प्रमदप्रकर्षः । पाथोजिनीप्रियतमप्रमितप्रणाम -रावर्त्तकैः प्रणयकेलिकृतप्रणामः ||३७| नम्राङ्गभृद् विविधवर्णविचित्रचित्र - रुट्टङ्कितां पटुपटीमिव तन्तुवायः विज्ञप्तिकां वितनुते ऽतनुमूर्खमुख्यः, प्रेष्याणुमेरुविजय: सनयस्तथाहि ||३८|| पाथोजिनीहसिततीरजलोचनानां, नीहारचारनयनाम्बुनिराकरिष्णौ । पूर्वाशिलोच्चयशिखाललनाललाट-पट्टे ललामकमलायितपद्मबन्धौ ॥३९॥ अम्भोजिनीहृदय नायककान्तकान्ति- बुद्धारविन्दनिलयाच्च विनिर्गतासु । रोलम्बसंहतिषु मञ्जुलमञ्जुगुञ्जद्-गुञ्जारवप्रथनतत्परमानसासु ॥४०॥ निःसीमविश्वसदनान्तरतिप्रसार - माप्तेषु सौरभभरेषु सरोरुहाणाम् । पाथोजिनीप्रियतमद्युतिमण्डलीभिर्व्याप्तासु भूमिधनपद्धतिमेदिनीषु ॥ ४१ ॥ पत्नीमुखाम्बुजनिरीक्षणशिक्षितानां पद्मप्रवालदलदानसुलालसाभिः । द्वन्द्वेषु कोकवयसां च विशेषितानां, सागत्यमात्मगृहिणीभिरमागतेषु ( ? ) ॥४२॥ आमोदवृन्दजुषमम्बुजिनीं मराल - बाला इवाऽमलमुखाः कमलालिदानैः । सम्पादितप्रवरमानमहामहेभ्य सभ्याः सभान्तरभुवं समुपेयिवांसः ॥४३॥ श्राद्धप्रतिक्रमणपारगतोक्तिवृत्ति - व्याख्या व्रतिप्रकृतिशास्त्रसुपाठना हि । श्राद्धीजनावलिसमेतसुधामि (मि) काणां, नित्योपधानवहनादि सुखोपकारि ॥४४॥ - सानन्दनन्दिभवनादिभवान्तरारि-दुर्दान्तदन्तिदमनप्रवणप्रचारम् । इत्यादिकं सुकृतकर्म सधर्मकर्म निर्मर्म शर्म समजायत जायते च ॥ ४५॥ पाट्यागते सकलपर्वमणीयमाने पर्वाभिमानगिरिपक्षपवीयमाने । धर्मैकचित्तसदने सुकृतप्रचारे हर्षप्रकर्षजुषि वार्षिकपर्वसारे ॥४६॥ त्रैलोक्यलोकपरिकल्पितकल्पकल्प- श्रीकल्पसूत्रपरिवाचनमीप्सितश्रीः । श्रद्धालुभिर्विशदसप्तदशप्रकार- पूजाविधानमखिला भयदालयेषु ॥४७॥ निःसीमजीवभयदाननिषेधहेतू द्घोषप्रवीणपटहाहननं पुरान्त: । सर्वत्रनिर्मथिततैलिकचाक्रिकादि- निर्वर्तितप्रचुरकर्मभरप्रवृत्तिः ॥४८॥ Jain Educationa International द्युम्नादिदानकरणं वरयाचकानां तेषां च गानमपि सर्वसभासमक्षम् । मिष्टान्नपानबहुमानसमानदानैः, सन्तोषणं सकलसङ्घजनव्रजानाम् ।! 11 For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ मासा-ऽर्द्धमास-दशमा-ऽष्टक-षष्टकादि-नानाप्रकारतपसां तपनं नितान्तम् । निःशेषदोषविषपेषणनागमन्त्र-यात्राकृतिः सकलतीर्थकरालयेषु ॥५०॥ इत्यादि पर्वसुकृतैकसमस्तकृज्यं(त्यं?) प्रार्वतत प्रचुरभीतिविवजितं यत् । तत्राऽभवद् विजयसेनमुमुक्षुमुख्य-प्रख्याभिधानगणनं गुणवन्निदानम् ॥५१॥ अथ गुरुवर्णनम् - श्रेयःश्रियां सततपङ्क्तिरिव स्फुरन्ती मूर्तिः सुधाशनलतेव समुल्लसन्ती । आपादिताभिमतशस्तसमस्तवस्तु-र्जीयादसौ विजयसेनशमीन्द्रचन्द्रः ॥५२॥ गृहे गृहेऽपि क्रमणैकशीलां, सन्तः सतीमाहुरमुष्य कीर्तिम् । प्राहुः परेषामपि मन्दिरान्त-रनिःसरन्तीमसती च कीर्तिम् ॥५३।। गणीन्द्रकीर्तिर्गणिकेव मन्ये, साधारणा ते बहुवल्लभाऽपि । तथाऽपि सा शीलवतीति लोकै-रूचे यशः पुण्यनिबन्धनं हि ॥५४|| यदीयपीयूषरसाभिषिक्त-कर्पूरपूरद्रवकान्तकीर्त्तिः । स्पर्धी दधानोऽजनि तारकेशो निधिः सुधानामपि तारकेशः ॥५५॥ मुनीन्द्र ! मन्ये भवदीयकीर्ति, शीतामशीता(तां) द्विषतां च कीर्तिम् । न चेत् कथं सा भवतां च तेषां शुभाशुभानां जननी जनानाम् ॥५६।। यथाऽप्यरामा मुनिरामकीर्त्ति-रानन्दयामास सतां मनांसि । रामाऽपि न त्वद्विषतां च कीर्ति-मन्यामहे चित्रमिदं महीयः ॥५७॥ यथाऽप्यकान्ता यतिकान्तकीर्त्तिः, सुखं सृजन्ती कृतिनां मनस्सु । कान्ताऽपि कीर्त्तिर्द्विषतां च नैवं, मन्ये महच्चित्रमिदं मुनीन्द्र ! ॥५८|| सङ्गं सृजन्ती हृदयैः परेषां, सती तथाऽपीह निरीहकीर्त्तिः । कीर्त्तिर्द्विषामन्यहृदा निषङ्ग-मसन्दधानाऽप्यसती यतीश ! ॥५९।। यदीयकीर्तिः सुरभीचकार मुखाम्बुजन्मानि सुदृग्जनानाम् । तत्स्पर्द्धयेव द्विषतां च कीर्त्ति-श्चक्रे तदास्यान्यसुगन्धभाञ्जि ॥६०॥ सर्वंसहामण्डलमासमुद्रं बभूव सौरभ्यभराभिरामम् ।। योगीन्द्रकीर्त्या जगदेकगत्या, विना त्वदीयद्विषतां मुखानि ॥६१॥ कीर्तिं व्रतीशध्वज ! तावकीना-मीशं श्रितामभ्रसरिच्छलेन । निरीक्ष्य तद्बोहधियेव काल-कूटच्छलात् तं द्विषतां च कीर्ति(:) ||६२।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ स्वस्तिश्रियां धाम सुरेन्द्रवामा-दृशाऽस्य नीतं न मनो विकारम् । चित्रं न तच्चेतसि चिन्तनीयं, निवेदितं येन नपुंसकं तत् ॥६३।। न चित्तवृत्तिं भगवंस्त्वदीयां, विकारमार्ग सुदृशो नयन्ति । न चित्रमेतच्चलिताचलेन, कि मेरुमूर्द्धा मरुता व्यकम्पि ? ॥६४|| ध्यानप्रवीणा तव चित्तवृत्ति-निवर्त्तिता न स्मितलोचनाभिः । चित्रं न तद् यद्र(द्) सुधियोऽपि लोके, दृशामतीतं न हि भेत्तुमीशाः ॥६५।। तीक्ष्णैरतिस्मेरदृशां कटाक्षः, शरैर्यदीयं न मनो विभिन्नम् । चिन्त्ये न चित्रं चतुरैः स्वचित्ते, यस्मादलक्षे(क्ष्ये) न विशन्ति बाणाः ॥६६।। [सद्]ध्यानप्रस्थप्रवणं मनस्ते, विनाशिनं(तं) नाऽऽयतलोचनाभिः । चित्रं न तच्चेतसि चिन्तनीयं, कदापि नित्य(त्यं) न विनाशशालि ॥६७।। मनस्त्वदीयं न भिदाञ्चकार चकोरदृग्लोचनलोहबाणैः । मन्ये मनस्तेन सरोजन, विनिर्ममे निर्ममवज्रसारैः ॥६८।। निवेदितं वेदविदां वरेण्यै-र्यद् देहिनां हृत् परमाणुरूपम् । असूनृतं तत् तव मान्ति चित्ते, पूर्वेतराम्भोधिमिताः पदार्थाः ॥६९।। विवजितं कामभरेण कामं, ददाति कामं हृदयं त्वदीयम् । संशीतिरेषा हृदये मदीये, दत्ते न यस्मादधनो धनानि ॥७०॥ स्थानं गुणानामिभसम्मिताना-मुक्तं मनस्तार्किकमौलिरत्नैः । न युक्तियुक्तं तदधीश! चेतः, स्थानं गुणानां गणनातिगानाम् ॥७१।। सुधारस-स्फाटिकरत्नसार-भास्वन्मणी-दर्पणमण्डलेभ्यः । मन्ये मनः स्वच्छतरं त्वदीयं, यद् यत्र सङ्क्रामति वस्तुवारः ॥७२।। एवं प्रवीणव्रजवर्ण्यमान-गुणौघमुक्ताफलनीरनाथैः । कप्पू(y)र-पारी-मचकुन्द-कुन्द-शशिप्रभाजेतृयशःसनाथैः ।।७३।। प्रोन्मादिवादिव्रजकुञ्जराह-ङ्कारप्रथाकुञ्चनसिंहनादैः ।। स्य(स)र्वंसहावल्लभचक्रवाल-सम्भात(सभान्त?)रालप्रथितप्रवादैः ।।७४।। नरेन्द्र-नागेन्द्र-सुरेन्द्रजेतृ-कन्दर्पदर्पक्षतिचू(च)न्द्रचूडैः । सन्नीतिरीतिस्थितिशर्वरीश-वधूसमुद्बोधनताम्रचूडैः ॥७५।। जगत्त्रयव्यापिगुणप्रपञ्च-विधूतनिधौतगिरीशहासैः । व्यापल्लवव्यापलताप्रतान-प्रपञ्चसङ्कोचनचन्द्रहासैः ॥७६।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २०१३ पानीयपूरप्रचितान्तराल-पयोधरव्यूहगभीरनादैः । विनम्रदेवेन्द्रनरेन्द्रमौलि-किरीटरत्नद्युतिधौतपादैः ॥७७॥ श्रीतातपादैः प्रहितं स्वदेह - बर्हाङ्गनैर्मल्यवचोमरीचि । प्रसत्तिपत्रामृतरश्मिबिम्बं समीहते चेटचकोरपोतः ॥७८॥ षड्भिः कुलकम् ॥ अपि च यत्रोत्तमाङ्गे कुरुते करं वः शिमुर्गत (?) श्रीरिव कामकुम्भम् । पुष्णाति पक्षः स मनोरथं मे, सरोजिनीनामिव वासरेशः ॥७९॥ यस्यां रुचां राशिरिवा सुहस्त (?) - मनुव्रजामि व्रतिवारणेन्द्र ! | सन्तोषपोषं तनुते तिथि: सा स्वान्ते शिशोः सद्ममणीव विहे (गेहे ) ॥८०॥ पितुः समीपे निवसामि यत्र, गिरीन्द्रकुक्षाविव पञ्चवक्त्रः । स केलिकौतूहलमातनोति, वारः स्वचित्ते सरसीव पद्मम् ॥८१॥ संस्पर्श्यते तातपदारविन्द - रजः स्वशिष्येण निजालिकेन । तं वासरं चेतसि चिन्तयामि, प्रकाममाम्रद्रुमिवाऽन्यपुष्टः ॥८२॥ पश्यामि यस्मिन् भवदुक्तिचन्द्र - भासा सभाकैरविणीं स्मितास्याम् । स्वान्तस्थितं तं घटयामि यामं यमीव यामं जनितानुरागम् ॥८३॥ यस्मिन् निदेशं निदधामि मूर्ध्नि त्वदीयमुर्वीश इवाऽवतंसम् । मुहुर्मुहुर्मानसमध्यमग्रं कुर्वे मुहूर्त्त तमलीव पद्मम् ॥८४॥ शृणोमि यस्यां पितृपादवाक्यं कामं कलापीव पयोदनादम् । हृद्वर्त्तिनीं ता (तां) घटिकां करोमि, शावः सवित्रीमिव सातभाजम् ॥८५॥ पीयूषरश्मेरिव वारिराशे - र्वप्तुर्स (र्भ) वेद् वक्त्रनिरीक्षणं मे । ध्यायामि चित्तेऽवसरं तमेव, विन्ध्याद्रिभूमीमिव सामयोनिः ||८६|| यस्यां पितुः पादपयोजयुग्म - सेवाविलासैकमना भवामि । I तां केलिवेलां हृदये स्मरामि, युवेव नीलोत्पलपत्रनेत्राम् ॥८७॥ यस्मिन् निषेवे भवदीयपादा- नकिञ्चनः स्वर्गसदामिव शिशोः प्रकामं समयः समेति, सौभाग्यहेतुः स्वमिवाऽधनस्य ॥८८॥ वन्ध्यातनूजन्मनिभैः किमेभिर्मनोरथैर्नुन्नवृर्ष (ष) स्य जन्तो: । एतद्विधाने गुरवः समर्थाः सिक्तौ पयोदा इव सिन्धुः ॥ ८९ ॥ बहूनि पुण्यान्यवनीतलेषु यैर्लभ्यते भूमिभुजां विभूति: । तद्दुर्लभं धर्मभवं सुकर्म, स ( स्म) रामि सेवां शमिशेखराणाम् ॥९०॥ Jain Educationa International ५५ For Personal and Private Use Only - Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ भवन्ति लोके सुकृतामि(नि) तानि, सम्प्राप्यते हस्तिहयादिसम्पत् । न जायते तत् सुकृतं सुलम्भं(भ्यं), भवत्पदोपास्तिमना भवामि ॥११॥ कल्पद्रु-चिन्तामणि-कामकुम्भाः फलप्रदा यैः सुकृतानि तानि । तदुर्लभं भूवलयेषु भाग्यं, सत्कर्मणा मे तव संस्तवः स्यात् ॥९२॥ मनोभिलाषैरिव निर्धनस्य, किमेभिरानन्दमयैरहोभिः । यत्राऽपि नैव श्रवणावतंसी-करोमि वाक्यं व्रतिचारणानाम् ॥९३|| कान्ताकदम्बैरनुगीयमानः समाप्नुते शर्म शिशुर्न तादृक् । श्रीतातपादक्रमणौ कराभ्यां, सम्माजतो मे सुखमेति यादृग् ॥१४॥ विचित्रितैः [त्रचित्रैः] खचितासु पट्ट-शालासु तिष्ठन् न सुखं बिभर्ति । यादृग् सुखं वप्तृपदारविन्द-च्छायासु तिष्ठन् निहतातपासु ॥९५।। सुवर्णपुष्पैश्च सिताभ्रपूरै-रभ्यर्चितोऽपि श्रियमेति नाऽर्भः । यादृग् श्रियं श्रीपितृपादरेणु-भरैर्ललाटे तिलकं दधानः ॥९६।। न प्रौढिमा मे पृथुपादपीठो-परिस्थितस्याऽपि सभात(न्त)राले । पीठोपरिस्थस्य पितुः पुरस्तात् स्थितस्य यादृग् वसुधातलेषु ॥९७॥ किञ्चनिशीथिनीनां हृदयाधिनेतु-लेखामिवालिश्चलकञ्चुकानाम् । सरोजसौरभ्यमलीव पत्त्री, समीहतेऽसौ पुनरेव देवः(व!) ॥९८|| विन्ध्यप्रदेशानिव वारणेन्द्र-श्चकोरपोतः किरणानिवेन्दोः । पानीयवाहानिव बहिबालः, श्रीतातपादाननिशं स्मरामि ॥९९।। निर्मोकसम्बन्धमिव द्विजिह्वो-ऽपराधसन्धिप्रकरं विमुञ्चन् । कुर्वन् ललाटे मुकुटं कराभ्यां, शिशुस्त्रिसायं तनुते प्रणामम् ॥१००॥ एषाऽञ्जनश्यामलवर्ण्यवर्णा हर्षप्रकर्षप्रदसाधुशब्दा । भवद्गम्भोरुहिणीममन्दामोदाय पटी(ट्वी?) मधुपी प्रयातु ॥१०१।। समताकमलासङ्गम-कृष्णसमाः कृष्णविजयगणिमुकुटाः । जह्नुसुतासमसहजाः सुसहजहर्षा गणिप्रख्याः ॥१०२॥ ध्वनिगम्भीरिमनिर्जित-मेघध्वनिमेघविजयगणीन्दुवराः । वैयावृत्तिसुरङ्गा गणिकरिणो रङ्गविजयाह्वाः ॥१०३।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ सुरगिरिबन्धुरधीरिम-धीरा गणिवीरविजयनामानः । नन्दितसज्जनमानसः(स-) सुनन्दयो नन्दिविजयाह्वाः ॥१०४॥ वरलब्धिलब्धिविजया गणयो गणिशान्तिविजयनामानः । वरमतिमतिविजया स-द्विद्या विद्यादिविजयसाधुवराः ॥१०५।। सत्तेजस्तेजविजया मुनिमणयो रत्न-रामविजयाश्च । राजोदयराजविजया विवेकविजयादयो यतिनः ॥१०६।। इत्यादि वाचंयमकुञ्जरेन्द्रान्, वन्देऽनुवन्दे च यथानुयोगम् । श्रीतातपादक्रमपुण्डरीक-सेवारजस्तत्परचञ्चरीकान् ॥१०७|| अत्रत्यरायमल्ला गणयः शान्तिविजयवीराख्याः । भीमविजय-सीहविजयौ, सहर्षहर्षादिविजयमुनिः ॥१०८॥ इत्यादिकाः संयति-संयतिन्यः सद्भक्तिभूषाभरभूषिताङ्गाः । अहर्निशं श्रीगुरुपादपाद-पद्मप्रणामप्रवणा भवन्ति ॥१०९।। इहत्यसङ्घः शमिशेखराणां, भक्त्या प्रणामं तनुते त्रिसायम् । वाचंयमक्षोणिधनाभिधान-नमामि तीर्थाधिपतीनिहत्यान् ॥११०॥ मास्याश्विने दिग्प्रमिते दिने च, चन्द्रावदाते भृगुराजपुत्रे । विनिर्मितालङ्कृतिरम्यमूर्तिः पत्री हरस्त्रीव तनोतु भद्रम् ॥१११।। ॥ इति श्रीविजयसेनसूरिलेखः समाप्तः ॥ सं. १९७० चैत्र सुदि ११, वृस्यवार ।। -xकान्तिविजय शास्त्रसंग्रह - वडोदरा नं. २०९० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ (९-१०) श्रीमेघचब्दमुनेः पब्रव्यम् (१) श्रीविजयसेनसूरिं प्रति प्रेषितं पत्रम् श्रिये स वः सप्तमतीर्थनेता, यस्यांऽह्रियुग्मश्रयणादवाप । यः स्वस्तिको मङ्गलतामना, सर्वासु सन्मङ्गलमालिकासु ॥१॥ रेजुः पञ्चफणा यस्य, शीर्षे पृथ्वीभुवः प्रभोः । मन्ये सुमतयः पञ्च, पञ्चाऽऽचारा इमेऽथवा ॥२॥ अष्टाभिर्भवसम्भवैर्नवनवस्नेहैकपाशैर्दृढं, बद्धामिन्दुमुखीं विहाय तृणवद् राजीमतीमादरात् । दीक्षां क्षीणभवोऽभजच्छिववधूसंयोगसद्भूतिकां, शङ्खाङ्कः स शिवासुकुक्षिसरसीहंसः शिवायाऽस्तु नः ॥३॥ यस्मिन् दुष्टकलौ गताखिलमणीयन्त्रमन्त्रप्रभावे, गोमांसाशनदुष्टमुद्गलदलोद्वासिताशेषदेशे । सर्वत्र प्रचुरप्रभावमहिमाविस्तारमाप्तस्तदा, स श्रीपार्श्वविभुर्जगत्त्रयजनानन्दकन्दाम्बुवाहः ॥४॥* स्वस्तिश्री: किलिकिञ्चिताद्भुतसुखान्यास्वादितुं स्वेच्छया, श्रीमत्पार्श्वजिनेश्वरे प्रणयिनीभावं प्रपद्य स्वयम् । आशिष्टे(श्लिष्टा?) हरियोगवा(का?)तरतया क्षीरे पयोवत् तथा, नाम्नोऽपि प्रवराक्षरावलिरलं जाता यथा तन्मयी ॥१॥ * इदं श्लोकचतुष्टयमनेनैव मुनिना लिखिते ३०तमे पत्रेऽप्यादौ समस्ति । अत्रस्थपञ्चमश्लोकस्य आदौ 'स्वस्तिश्रीः' इत्युल्लेखं श्लोकस्य पुनः प्रथमक्रमाङ्कदानं च दृष्ट्वा संभाव्यते यत् पत्रमिदमित एव आरभ्यते ।आदौ श्लोकचतुष्टयं सङ्ग्रहार्थमेव लिखितं स्यादिति भाति । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ प्रागल्भ्याभावभ(भा?)रावतमसविसरं ध्वंसमानो नितान्तं, सम्यक्त्वत्व(क्तत्त्व?)प्रतीपोद्धतपतगगणं देदिहानः प्रकामम् । बिभ्राणः स्थैर्यमत्युत्कटमदनमरुत्पूरसंक्षोभितोऽपि, स्फूर्जत्स्नेहप्रियोऽहँस्त्रिभुवनभवनं भूषयन् भासते यः ॥२॥ स्वस्तिश्रीभुवनेशितुर्जिनपतेर्जन्माभिषेकोत्सवे, । शृङ्गे निर्जरभूधरस्य विहिते सम्भूय देवेश्वरैः । साकं देवगणेन हर्षविवशैः पुष्पौघवृष्टिः कृता, ताराणां व्यपदेशतोऽम्बरतले शोशुभ्यते सा शुभा ॥३॥ अंहिस्थेन समीक्षितं फणभृता चेतश्चमत्कारि यत्, श्रीमत्पार्श्वपतेश्चरित्रममलं भूभारमाबिभ्रता । चित्ते तत् स्मृतिगोचरं कलयता बाढं शिरो धूनितं क्षुब्धादुच्छलितास्तदा जलनिधेस्ते बिन्दवस्तारकाः ॥४॥ यस्य स्फारजनिक्षणे सुरवरैर्या निर्मिताऽर्चा चिरं, ___ तस्यामष्टमितानि मङ्गलवराण्यालेखितानि स्फुटम् । स्रस्तास्तत्समये सुरोत्करकरस्तोमात् पुनस्तन्दुला, रौप्यास्ताः खलु तारका इति मतिश्चित्ते समुज्जृम्भते ॥५॥ यद्वा स्वर्गतरङ्गिणी हरिकरिस्नानेन जाताविला, कासारं किल मानसाभिधमलिश्रेण्या कलङ्कीकृतम् । मत्वा बालमरालसन्ततिरियं ताराततिव्याजतो, मेरोर्मूनि जिनाभिषेकसलिलेऽस्थात् सातजातान्विता ॥६॥ किलैकया तीर्थपतेः स्तवामृतं, द्वितीयया कुण्डगतं सुधारसम् । पिबन् प्रमोदाद् युगपद् रसज्ञा-युगं स्तवीतीति फणी यदङ्कगः ॥७॥ अनन्तसामर्थ्य भृतोऽर्हतोऽङ्कगो, निषेवयाऽसावधिगत्य भूयसीम् । शक्तिं धराभारमिहोदुवाह, यथाऽधुनाऽप्युज्झति नो स्वयं फणी ॥८॥ सुबोधसद्बीजसमाजवाप-कृते प्रभुः सप्तफणामिषेण ।। सज्जानि चक्रे विलसद्बिलानि, स्फुरद्रुचीनीह जगद्धिताय ॥९॥ वक्षः स्वकं यो जिनराजनाम-मन्त्राक्षराणां हि पदं विधत्ते । अंहांस्यनेशन्निखिलानि तस्माद्, व्याला यथा सिंहयुताद् वनात् तु ॥१०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ व्यवायविस्तारितमस्तमोत्कर-व्यपोहने भासुरभानुभास्करः । तमीशमाशीविषकेतनं जिनं, सुचित्तवृत्त्या प्रणिपत्य भक्तितः ॥११॥ निजांहिपौः प्रभवः पुनन्ति, धरामलङ्कारयितुं ततोऽत्र । स्वर्गकदेशो हरिणा प्रमुक्तो, विभाति राष्ट्रो नयनप्रियस्सः ॥१२॥ समुल्लसत्श्रीमुनिराजरत्न-विराजितं मङ्गलकेलिधाम । विभासते यत्र पुरं प्रधानं, महीमहेलातिलकावदातम् ॥१३।। सुपक्वसुस्वादुफलादिदानतो, नृणां हि यस्योपवनानि शर्मणे । बभूवुरुल्लासिविलासभाजिनां, मरुद्वनाभानि मनोहराणि ॥१४।। भृङ्गावली मधुकरीपटली प्रकामं, मत्ता प्रसूनविगलन्मकरन्दपानात् । झङ्कारितानि वितनोत्यमलस्वरेण, शर्मावहान्युपवनेषु नृणां हि यस्य ॥१५॥ चाञ्चल्यदोषं परिहीय लक्ष्मी-स्तिष्ठत्यजस्रं स्थिरतां प्रपद्य । अतोऽब्धिरागान्मिलितुं स्वपुत्री, कल्लोललोलत्परिखामिषेण ॥१६।। पयोधिपुत्री पृषताम्बुजाक्षीं, वशां विधातुं शतपत्रजेन । विशालसालच्छलतो व्यधायि, ह्यभङ्गरा सुन्दरवागुरेयम् ॥१७॥ विहारसानूच्छ्रितकेतनाञ्चलोल्लसच्चलत्पेशलपाणिपल्लवैः । ................................... ॥१८॥ ................................. । ........... स्फुरत्सहसेक्षितेषु, मिथस्तके तेषु विलासभाजः ॥१९।। यत्र स्फुटस्फाटिककुट्टिमेषु, बभुर्जना भूषणभूषिताङ्गाः । दिदृक्षवः _ _ _ किन्नरस्य दिवौकसोऽमीव विषात् समीयुः ॥२०॥ सद्धर्ममर्मसमकर्मविधानदक्षा, विक्षिप्तजैनवचनप्रतिपक्षलक्षाः । औदार्यवर्यगुणनिर्जितलेखवृक्षाः श्रद्धाल. लखताः श्रद्धाल. ........................ ॥२१॥ ................. । ............, श्रीराजि राजनगरे नगरप्र _ _ ॥२२॥ वाक्यानिलैरतितरां प्रविचालितोऽपि । स्थैर्यं बिभर्ति पुरि यत्र विशुद्धचेताः, श्राद्धो जनोऽमरमहीधरवन्नितान्तम् ।।२३।। सूरीशनामशुचिसंस्मृतिचन्द्रिकाभि-रुज्जृम्भदुल्लसदुरःसरसीरुहश्च । यस्मिन् शुभार्हतजनो निवसत्यनिद्रः, श्रीकेलिपेशलसुराणकमेरुदुर्गात् ।।२४॥ ...................... Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ हर्षप्रकर्षजनितोत्पुलकप्रपञ्चः, सुक्षोणिमण्डलमिलन्निजकोत्तमाङ्गः । संयोजयन् शयकुशेशययामलं च, शिष्याणुमेघशुभचन्द्रविनयावनम्रः ॥ २५॥ श्रीकण्ठसूनुनयनप्रमितैः प्रशस्तै -रावर्तकैः शुभधिया विधिवत् प्रणत्य । संसारनीरनिधिपारविधाननावं, विज्ञप्तिकां वितनुतेऽतनुभक्तियुक्तः ||२६|| कार्यं यथोदयमहीधरचारुसानौ, भानावुदञ्चति विभास्वति भूरिभासि । प्रातर्महेभ्यशुभसंसदि वृत्तियुक्त - श्रीउत्तराध्ययनवाचनमादरेण ||२७|| अध्यापनं सततमध्ययनं समन्ताद्, योगोपधानपरिवाहनमुग्रभावात् । सानन्दनन्दिभवनादिसुधर्मकर्म, बोभूयते स्म निखिलं च भवत्यजस्रम् ॥२८॥ खर्वीकृताशेषकपर्वगर्व-सर्वस्वपूरे दलिताखिलाघे । महेभ्यसृष्टप्रकटोत्सवौघे, क्रमागते वार्षिकपर्वणीह ||२९|| निरन्तरं भावभरेण भक्त्या, सदर्चनं श्रीजिनबिम्बपङ्क्तेः । मिष्टान्नपानैर्विविधैर्विशेषात् साधर्मिकालीपरिपोषणं च ||३०|| सङ्कल्पितार्थाधिककल्पनेन, कल्पद्रुमादयधिकस्य विश्वे । श्रीकल्पसूत्रस्य सुवाचनं च, नवक्षणैः सक्षणमादरेण ||३१|| दिनानि चाऽद्रिप्रमितानि यावन्निवर्तनं जीववधस्य गाढम् । असाध्यसंसिद्धिनिबन्धनाना - मनेकभेदैस्तपसां विधानम् ||३२|| सुनीतिरीत्यार्जितपृक्तसार्थसुबीजराजीवपनं प्रमोदात् । शस्यामृतश्रीप्रभवाय सप्त क्षेत्र्यां हि पुण्योदकपूरितायाम् ॥३३॥ इत्थं प्रशस्ताखिलधर्मकृत्य - सन्दोहपद्मप्रकरः प्रकामम् । उज्जृम्भते श्रीवरतातपाद- प्रसादचन्द्रातपमाप्रपद्य ||३४|| निश्शेषकामितकरं कनकं प्रतीतं, पाथोधरः क्षितितलेऽखिलसस्यराशेः । विश्वे तथा सकलमञ्जुलमङ्गलाली - हेतुर्यकः शमभृतामधिपश्चकास्ति ||३५|| धर्मोपदेशनविधौ शमिनामधीशः, प्रासीसरद् दशनसन्ततिरश्मिराशीः । पातुं हि भूघनभृतां पततां भवाम्भो- राशौ कृपारसनिधिर्जगदेकबन्धुः ॥३६॥ संसत्समागतजनान् बहुभक्तियुक्ता - नातिथ्यमाप्रथयितुं प्रमदादपीप्यत् । व्याहारसारतरभूरिसुभक्ष्ययुक्त- सद्दन्तकान्तिततिपुंसवनानि नित्यम् ॥३७॥ संसत्समेतवनिता श्रवणेषु चञ्च- च्चामीकरोज्ज्वलसुकुण्डलमण्डलानि । सम्पर्कतो मुनिपतेर्दशनांशुपङ्क्ते-रुद्यच्छशाङ्कपटलीसुखमाश्रयन्ति ॥३८॥ - Jain Educationa International ६१ For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क भक्तासुमद्भृदवनीषु समुद्गतानां, श्रेयोमनोरथमरुद्द्रुसदङ्कुराणाम् । साफल्यमाकलयितुं किल सिञ्चतीह यः कान्तदन्तततिदीधितिवारिपूरैः ||३९|| यद्गीः श्रुताऽपि तनुते भुवनं पवित्रं तच्छिक्षितुं हि घनवाहनशेखराऽसौ । शुश्रूषणां शुचितमां रचयत्यजस्त्रं, राजद्रदालिविमलद्युतिकैतवेन ॥४०॥ चन्द्रावदातविकसद्वदनाम्बुजन्म - कान्तेः पराभवमवाप्य नितान्तमेतत् । शुभ्रं सरोजमपि कश्मलतां बिभर्ति, चुम्बन्मलीमसशिलीमुखमण्डलीभिः ॥४१॥ शीतद्युतिं शुचिवरं बहुशोऽथ सृष्टं, भङ्क्त्वा मुहुर्मुहुरयं शतपत्रजन्मा । उद्धृत्य सारमभितः परिपुष्यतीह, तस्माद् यदीयवदनाब्जविभाप्रपञ्चम् ॥४२॥ अश्रान्तयातपरितान्तसितांशुरेष, विश्रान्तिमाप्तुमिह वाससुखाभिकाङ्क्षी । यद्विश्ववल्लभमुखस्य रुचेर्मिषेण, तिष्ठत्यजस्रमटनोत्कटदुःखभीतः ॥४३॥ यस्योल्लसद्वदनपद्मरदावलीनां, ज्योत्स्ना वियज्जलधिजा तटसंश्रिता हि । संसन्निविष्टजनताननधोरिणीयं, रेजे मरालपटलीव विलाससारा ॥४४॥ यस्याऽधरारुणरुचा धृतशोण (णि) तासु, मुक्तासु चारुतरहारलतागतासु । संसत्समेतवनिताङ्कगतार्भकाल्य-क्षैप्सीच्छयान् धिषणया कुचलीफलानाम् ॥४५॥ शास्त्रार्थसाररसपानपरा यहि पद्मे स्थिता सुपठनोद्यतशिष्यलेखा । भेजेतरां मधुरिमा धरितामृतौघ - झङ्क (ङ्का) रपूरितमुखेव शिलीमुखाली ॥ ४६ ॥ मिथ्याप्रवादमलिनान् परिवादिनोऽमून्, संत्यज्य साधुपमशिश्रियदेष लोकः । हंसव्रजो जलधरानिव सत्तडागं, स्वच्छाशयं मनसि मानसमाकलय्य ॥४७॥ प्रातः प्रभोः शमभृतां सुकृताम्बुराशेः शश्वत्प्रसादसदनं वदनाम्बुजन्म | स्नेहेन लोचनपुटैः परिपीय भव्या, ज्योत्स्नाप्रिया इव भृशं बिभराम्बभूवुः ॥४८॥ यस्य स्मितो_-- वक्त्ररदावलीनां, ज्योत्स्नापयोझर भरैः परिधौतगोष्ठ्याम् । सभ्याननावलिरलं शुशुभेऽम्बुदाम्भो-धौता यथा विज (य? ) ति शारदचन्द्रलेखा ॥ ४९ ॥ दन्तद्य (द्यु?) ति: शुभतमा शुशुभे यदीय- प्रोद्यत्प्रवालविम शोणभासा । बालार्ककान्तिनिचयैः खचितेव काम - मुद्दामकुन्दकलिकापटलीपटिष्ठा ॥५०॥ माहात्म्याद्भुतसारसौरभभरैरापूरयन् दिग्वधू वक्त्राम्भोजततीर्निजान्वयवनीं संवासयन् सर्वत: । ६२ अश्रान्तं भवतापताम्यदसुमत्तापापहारी भुवि, Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only खण्ड २ यहेतुतया विभाति मुनिपः श्रीखण्डशाखिप्रभः ॥ ५१ ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ निरन्तरं भक्तिभरेण संनमत्तनूमतां याप्यतमान्यघानि । जरीहरीतीह यदीयदर्शनं यथा रजांसि प्रलयानिलोत्करः ॥५२।। विपक्षवर्गादवमाशयाच्च, पराभिभूतिं लभते जनो न । पक्षं श्रितः साधुपतेः शकुन्तो, यथोद्धराद् बन्धुरसिन्धुरारेः ॥५३।। कृपासुधापूर्णदृशो जनोऽयं, यस्येक्षणात् स्यान्नवपल्लवश्रीः । प्रदुष्टदोषानलदूषितोऽपि, यथा पयोदस्य जलेन शैलः ॥५४।। सदोषजन्योऽपि मलीमसोऽपि, भवेज्जनोऽयं जगदर्चनीयः । यं संश्रितः स्यान्मृगनाभिजेव, गुणं श्रिता सौरभमेकमुद्धम् ॥५५।। काष्ठं सुरद्रुः सुरसौरभेयी, पशुः पुनश्चिन्तितरत्नमेतत् ।। विश्वे दृषत्खण्डतया प्रतीतं, ततः श्रितः श्रीगुरुमत्र लोकः ॥५६।। शृङ्गारभासुरविभाभरभूषिताङ्ग्यः , प्रातः समेत्य पुरतश्शमिपस्य यस्य । कुर्वन्ति कोमलकराः कमलानिवास-सत्स्वस्तिकादिरचनांसधवा मृगाक्ष्यः ।।५६(५७)।। ता एव तत्र समये किल संमुखीना, वर्धापनं विदधति स्फुटमौक्तिकौघैः । तद्वीक्ष्य वक्ति निपुणो रवितापताम्य-दभ्रं विहाय वदनं श्रयते भचक्रम् ॥५८|| केचित क्रियानिपणतामभजञ्जगत्यां, केचिच्च वाड्मयपयोनिधिलब्धमध्याः । केचित् परोपकृतिकारणमत्र किन्तु, सर्वार्थकृच्छुभनिधिस्तपगच्छनेता ॥५९।। .......... .... । दौःस्थ्यव्यथाध्वंसनदेवभूमी-रुहानुवादैर्दलितप्रमादैः ॥६०।। माद्यन्मनोभूमथनैकपादैः, सुनीतिरीतिव्रततिव्रजाब्दैः । श्रीतातपादैः प्रहतावसादै-निरन्तरं निर्मितसुप्रसादैः ॥६१।। तैः स्वस्फुरत्तनुनिरामयतादिवाच्य-रुच्या मनोघनसुहृत्प्रमदप्रदात्री । कार्या प्रसादविषया स्वशिशोः प्रसद्य, पत्री पयोदपद(ट)ली त्वरितं प्रसन्नैः ॥६२।। अर्हन्मताम्बुजनिशारमणैस्त्रिसायं, कारुण्यपुण्यकरणप्रवणैः प्रणामः । श्रीकान्ततातचरणैघृणयाऽवधार्य भक्त्या नमन्निजविनेयकणस्य शश्वत् ॥६३।। श्रीतातपाददिविषन्मणिमञ्जुसेवा-लब्धेशताम्बुधिसुतासुविलासभाजाम् । दुर्वादिगर्वतिमिरप्रकरप्रभेद, चण्डत्विषां गतरुषां विमलाङ्गभासाम् ॥६४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ प्रागल्भ्यवैभवनिशुम्भितवाक्पतीनां, गाम्भीर्यगौरवविडम्बितबाष्पतीनाम् । विश्वातिशायिमहिमाद्भुतसच्चरित्र-पावित्र्यभृन्निखिलसूरिपुरन्दराणाम् ।। नैजोल्लसन्निरुपमाधिकरूपरम्य-श्रीसद्मनां विजयदेवशमीश्वराणाम् ॥६५।। तथा च तत्र प्रभुपादपद्म-मधुव्रतानाममलाशयानाम् । स्वपाणिपादच्छविसञ्चयेन, निराकृताशेषकुशेशयानाम् ॥६७॥ क्ष्मापालजालपरिषत्समवाप्तचन्द्र-सान्द्रोल्लसत्सुयशसां निजगोविलासैः । विद्यावितानवनितारचिताश्रयानां(णां), श्रीधर्मचन्द्रशुभवाचकशेखराणाम् ॥६८।। श्रीतातचरणैनित्यं, नतिरुन्नतिदायिनी । यथा स्याच्चित्तविषया-ऽवधार्य(र्या ?) च तथा शिशोः ॥६९।। तत्रैव शुभ्रतरभूरियशोभराम्बु-राशिप्लवेन किल पूरितविश्वविश्वाः । साधुव्रजेप्सितसुकार्यविधानदक्षाः, श्रीऋद्धिऋद्धिविजयाभिधकोविदेन्द्राः ॥७०।। मेधावधीरितसुचित्रशिखण्डिजाहि-श्रीरामरामविजया विबुधप्रतीताः । अश्रान्तशान्तविषयादिसपत्नसार्थाः, श्रीसारशान्तिविजया विबुधप्रधानाः ॥७१॥ हृद्यानवद्यबुधवर्ण्यतमैकविद्या-विद्याधरीसमुपगूहनकोविदाश्च । श्रीसूरिराजपदपङ्कजसेवनाप्त-श्रीश्रेणिवीरविजया जितकोविदेन्द्राः ॥७२॥ संवेगरङ्गपरिभावितचारुचित्ताः, श्रीधामसाधुविजया विबुधव्रजेन्द्राः । धीधामचन्द्रविजया गणिधोरणीन्द्राः, सत्कीर्तिकृष्णविजयाश्च गणिप्रधानाः ॥७३॥ निश्छद्महस्तिविजयास्सुयशोवदाताः, श्रीसूरिराजपदपङ्कजभृङ्गतुल्याः । कल्याणसारशुभसंयुतऋद्धिसोमाः, सम्यग्धियश्च उदयाद् विजयाः प्रतीताः ॥७४।। इत्येषां समसाधूना-मनेकगुणशालिनाम् । श्रीतातचरणाम्भोज-शुश्रूषादत्तचेतसाम् ।।७५।। प्रणत्यनुनती नित्यं, स्वविनेयविनिर्मिते । ज्ञाप्ये कृपाब्ध्युषाकान्तैः, श्रीतातैर्विहितेहितैः ॥७६।। तथाऽत्र गणिमुख्याश्च, हीरचन्द्राभिधाः शुभाः । . मुनिस्तथैव वृद्धयादि-चन्द्र(न्द्रः) सद्विनयाञ्चितः ॥७७॥ कर्पूराच्चन्द्रयश्चैव, कुशलाच्चन्द्रयो गणिः । मुनिर्नयणचन्द्राख्यः, साधुयुगलकं तथा ॥७८।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ ६ इत्येते शमिनः सर्वे भक्तिभावितचेतसः । संयोजितशयाम्भोजाः, [प्रणमं]त्यनिशं प्रभून् ॥७९॥ अप्रागल्भ्यान्मतेर्मान्द्यात्, स्मृतेर्दोषात् तथैव च । अनभ्यासाच्च शास्त्राणां, लेखेऽत्र लिलिखे मया ॥८०॥ असम्बद्धमलीकं यत्, क्षन्तव्यं तत् क्षमाधनैः । श्रीतातचरणैः सर्वं, मत्वा तद् बालचेष्टितम् ।।८१॥ तथा यतिशुभोदर्क-सूचाचरपत्रिका (?) । जगत्प्रतीक्ष्यैः श्रीतातैः, शरण्यैः शरणार्थिनाम् ॥८२।। प्रसादविषयीकार्या शिशुसंमदहेतवे । तपोर्जसितपक्षस्य, दशम्यामिति मङ्गलम् ॥[८३]॥ ॥ श्रीः ॥ भद्रमस्तु ॥ (२) श्रीविजयदेवसूरिं प्रति प्रेषितं पत्रम् ॥ ही श्री श्री ६ विजयदेवसूरीश्वरपरमगुरुगुरुभ्यो नमः ॥ स्वस्ति.... लितानि, स्फूर्तिमान् जिनपतिविलसन्त्यः । प्राप यां परमनिर्वृतिमुच्चै _ _ _ सनिदर्शन _ _ ॥१॥ ................... । संस्तुतः सकलमङ्गलसिद्धयै, वैश्वसेनिभगवानयमर्हन् ॥२॥ पादपोतमिह सत्त्वशरण्यं, यस्य शस्यमुरुरङ्गकुरङ्गः । पारमाप्तुमिह संसृतिसिन्धोः, पर्यसेवत स वः शिवदोऽर्हन् ॥३॥ नादरङ्गकलितोऽपि _ _ _, संश्रितो वनमवोचि कुरङ्गः । तद्विहायसविहायसि चेन्दुं, तत्र तन्नयणतः(?) स कलङ्की ॥४॥ कर्णकण्टकतुलामधिरूढं तन्निशम्य वचनं घनसारः । ....च्यतं च विभु ............... ॥५॥ युग्मम् । - - - - - - - हितमोदा-नंदकं दलितदृष्टिमुदाराम् । - - - - - - दुःखिनि दीने, सिद्ध _ _ _ रुणारसराशे ॥६।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ सर्वशर्मकमलाकरमुद्रा-विड(द्र?)वैकतरुणारुणबिम्बम् । स्वर्णवर्णवपुषं सुषमधि, वैश्वसेनिमभिवन्द्य तमद्य ||७|| यत्रार्हत्सौधशृङ्गस्थ-सौवर्णकलशोपधेः । . दृष्ट्वोद्गच्छन्तमादित्यं न [च]क्रा विरहं ययुः ॥८॥ यत्र प्रासादशिखरा-रूढकुम्भा बभुर्भृशम् । पू:पुरन्ध्याहिता दीपा, मन्ये मुक्त्यध्वदर्शकाः ॥९॥ यत्रार्हच्चैत्यमूर्धस्थ-स्वर्णदण्डच्छलादिव । तर्जन्युदञ्चिता पुर्या, नृणां मोक्षाध्वदर्शने ॥१०॥ अर्हच्चैत्यमरुत्कम्प्र-केतुच्छायाशनात् सदा । सर्पान् सर्पाशना यत्र, नाश्नन्ति निहतोद्यमाः ॥११॥ शुद्धस्फटिकहाणि, मिश्राणि शशिरश्मिभिः । यामिन्या _ _ _ _ ते, कटरे कज्जलध्वजैः ॥१२॥ पद्मरागनिबद्धोर्वी-तलसङ्क्रान्तमूर्तयः । स्फुटोपमा _ _ पौरा, लभन्ते यत्र सुश्रियः ॥१३॥ यत्र कासः सरित्तीरे, स्फुटदूषण]तापणे(?) । आकिञ्च _ [न्यं] व्रतिव्राते रुद्रे रुद्रत्वमाश्रितम् ॥१४॥ दोषाकरत्वमेणाङ्के, राजहंसे सरोगता । खले खलत्वमाभाति, न हि पौरजने क्वचित् ॥१५॥ युग्मम् ॥ किञ्च- सिन्धुना स्वसुता रत्नान्यद्रिणा रोहणेन च । सुवर्णं स्वर्णगिरिणा, रजतं रजताद्रिणा ॥१६।। औदार्यं कल्पवृक्षेण, रूपं मकरकेतुना । जगद्गुरुपदोपास्ते-टुंढौके यन्नृणामहो ! ॥१७॥ अतुलबलधराणां नम्रभूमीश्वराणां, मुकुटकुटविनिर्यद्रत्नगोक्षीरपूरैः । स्नपितचरणपद्यैः श्रीगुरूणामुदारै निहतनिखिलविघ्ने तत्र सर्वार्थनिघ्ने ॥१९॥ किञ्च- चर्मन्वतीसरित्तीरे, पुरं भृगुपुराभिधम् । समस्त्यसमशस्यं श्री-समृद्धभवनान्तरम् ॥२०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ ६७ तत्र- कल्याणमल्लोर्वीराट्, प्रजाः पाति वज्रिवत् । तत्सूनुवत् क्षितौ ख्यातो, यज्जयो द्विट्क्षयोद्भवः ॥२१॥ यत्र- धनदाश्च कुबेरा न, महारम्भा न पापिनः । पुण्यजनाः पलादा नो, ईश्वरा न विषादिनः ॥२२॥ अस्माद् विस्मयदानन्द-समुद्यत्पुलकाङ्कितः । नम्रो मूर्ध्नः स्पृशन् भूमि, भालस्थलकृताञ्जलिः ॥२३।। सार्वभौममितावर्ते-रभिवन्द्य श्रीसद्गुरून् । भक्त्या वितनुते ज्ञप्तिं, मेघचन्द्राभिधः शिशुः ॥२४॥ युग्मम् ॥ प्राच्याद्रिताम्रचूडस्य मूजि _ _ _ ते रवौ । सहर्षपर्षदि स्त्रीभि-विहितस्वस्तिकस्थितौ ॥२५।। व्याख्या श्रीशान्तिनाथस्य, चरितस्य जिनेशितुः । सनन्दि श्राद्धवन्द(वृन्द)स्य, द्वादशव्रतरोपणम् ॥२६॥ साधुसाधुसमारब्धा-ऽध्ययनाध्यापनादिकम् । वर्धते सौकृतं कर्म, श्रीमत्तातप्रसत्तितः ॥२७॥ त्रिभिविशेषकम् ।। अष्टाहिका(ह्निका)ष्टपत्राढ्यं, सत्तपः श्रेणिकर्णिकम् । जिनार्चावि[क]सत्कोशं प्रभावनोरुकेसरम् ॥२८॥ सङ्घवात्सल्यपौष्येष्टं, कल्पव्याख्यामधुश्रितम् । भूरिवित्तव्ययामोद-मत्तार्थिमधुकृद्गुणम् ॥२९॥ धन्याधत्तमहापुण्य-सौरभ्यस्पृष्टविष्टपम् । निःशेषतीर्थकृल्लक्ष्मी-विलासैकनिकेतनम् ॥३०॥ सर्वसत्त्वदयानीर-पूरेऽर्हन्मतमानसे । गुरुज्ञानमृणालस्थं, पर्वपर्युषणाम्बुजम् ॥३१॥ भजति स्म भजत्येतत्, सन्ततोत्फुल्लसम्पदम् । सश्रीकतातपादैक-सहस्रकिरणोदयात् ॥३२॥ किञ्च-श्रेयोवल्लीवितानैका-म्भोदसोदरमूर्तये । विजयदेवसूरीन्द्रत्रिजगद्गुरवे नमः ॥३३।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ मुनीन्द्र ! तव मूर्तिं ये, पश्यन्ति दिवसोदये । नश्यन्ति विपदस्तेषां, तमांसि जगतो यथा ॥३४॥ सद्भावैस्ते विभो ! मूर्तिं विधाय विधिरम्बुधौ । हस्तधावनमातेने, मुक्त्या रत्नादि तत् किल ॥३५॥ सद्वस्तुसारमुद्धृत्य, धात्राऽधायि तनूस्तव । क्षिप्तं तत्कश्मलं मन्ये, चन्द्रेऽङ्कमिषतोऽलगत् || ३६ || मन्येऽद्भुतं विभो रूपं, विधाय विधिनोपरि । उत्तार्य लवणं क्षिप्तं, क्षारास्तज्जज्ञिरेऽर्णवाः ॥३७॥ तुहिनद्युतिगोस्तन्योः, सारं संगृह्य ते तनु (नु: ? ) । ध्रुवश्चाऽजीघटच्छङ्के, लक्ष्मसङ्कोचसम्भवात् ॥३८॥ स्थैर्यमार्यशरण्यं भू-र्वर्यधैर्यं तु मन्दरः । गाम्भीर्यं गुरुपाथोधिः, चातुर्यं चतुराननः ॥३९॥ हर्यक्ष: सौ (शौ) र्यमाश्चर्यकार्यौदार्यं सुरद्रुमः । सौन्दर्यं शम्बराराति -रैश्वर्यं मेघवाहनः ॥४०॥ सोमः सौम्यमसाम्यश्रि, प्रतापं तपनोऽद्भुतम् । धिषणो धिषणां वर्ण्या, वाग्देवी सकलाः कलाः ॥४१॥ युष्मत्सद्भाग्यसौभाग्या-कर्षिता इव सद्गुरो ! । एते चाऽढौकयन् भावा, इत्येतानि समेत्य वः ॥ ४२॥ चतुर्भिः कलापकम् । सद्विद्याम्बुधिसोमाः, श्रीवाचकसुधनविजयगणिमणयः । श्रीलावण्यविजयवा-चकसवितारस्तारतेजस्काः ॥४३॥ एतौ सज्जनविबुधा-वर्हन्मतनन्दने श्रितच्छायौ । त्रिदशतरू विजि[त]गुरू, स्वधिया वन्दे त्रिसन्ध्यमहम् ॥४४॥ Jain Educationa International (एतावन्मात्रमेव पत्रमिदमुपलभ्यते) For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ पत्तननगरस्थ-श्रीविजयसिंहसूरि प्रति मण्डपदुर्गस्थ-श्रीमेघचदमुने: पत्रम् एँ नमः ॥ ॐ ही श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री विजयसिंहसूरीश्वरविश्वगुरुपरमगुरुभ्यो नमः । स्वस्तिश्रीणां हेतवे सेतवेऽहं, संसाराब्धेर्लब्धिसंसाधनाय । नाभेयाय श्रीमते भक्तिभावा-न्नित्यं रीत्या प्रीतिपूर्वं नमामि ॥१॥ स्वप्नेषु प्रथमं प्रहृष्टमनसा दृष्टो जनन्या वृषः, ___ज्ञात्वैवं भगवंस्त्वयैव विधृतो लक्ष्मच्छलात् पत्कजे । मात्रा यद् विहितं तदेव भवता कृत्यं कृतं ज्ञायते, सत्यं स्याज्जगतीह तीर्थसदृशी माता हि पूज्या सताम् ॥२॥ स्कन्धे वासवभक्तिवाक्यवशतो दीक्षाक्षणे यः प्रभुः, केशालीमलिवृन्दकज्जलनिभां दक्षो ररक्ष स्फुटम् । नाऽसत्या जनगीरिति स्फुटतरं दृष्टान्तसंस्थापिता, कुर्वन्त्यत्र महान्त एव न सदा मोघामपि प्रार्थनाम् ॥३॥ केशालीच्छलतो बभार भगवान् स्कन्धे निजे लीलया, हन्तुं कर्मभटांश्च खड्गलतिकां मन्येऽहमेवं सदा । देवानां प्रथमः प्रभावभवनो लोकस्थितिस्थापक(को), ___ भूयान् मे शिवमार्गसाधनविधौ वेधा(:) शिवप्रापकः ॥४॥ पञ्चास(स्य)स्य भयेन कम्पितवपुस्त्यक्त्वा वनान्तं निजं, स्थानं निर्भयमाकलय्य मनसा यत्पादपाथोरुहे । प्राप्तो लाञ्छनदम्भतो मृगयुवा जानेऽहमेवं सदा, श्रीशान्तिः शिवतातिरेव भविनां भूयाद् भवापच्छिदे ।।५।। श्रेयः श्रेणिकरः क्षितौ गुणकर: कीर्तिप्रथासुन्दरः, ___बालब्रह्मधरः पराक्रमवरः सत्त्वैकरक्षापरः । तापव्यापहरः प्रतापनिकरः श्यामार्चिरुद्भास्वरः; नेमिः सार्ववरः सुखं वितनुतां धो(धा)राधिपो यः सदा ॥६।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ स्वस्तिश्रीसदनस्य यस्य जगतीभर्तुर्भवाम्भोनिधेः, पातात् त्रातुरुदारवृत्तिमनसा दातुर्विशां शासितुः । चूला मूर्ति चकास्ति विश्वनयनप्रेमोपदादायिनी, मन्ये मोहनगुल्मिनी भ्रमरवत् श्यामा जगत्कार्मणम् ।।७।। यः स्वामी जगदत्ति(ति)तप्तिहरणे प्रावृट् घनासारवन् मिथ्यात्वैकतमः प्रणाशनविधौ यो भानुवद् भासते । शीर्षे यस्य फणीन्द्रसम्मदकृतस्फूर्जत्फटाडम्बरो, जीयात् पार्श्वजिनप्रभुस्त्रिजगतीत्राताऽनुशास्ताऽपि च ॥८|| स्वस्तिश्रीसदनं समग्रसुखदं कल्याणमालास्पदं, त्रैलोक्याभ्युदयप्रदं कलिमलप्रक्षालनं पावनम् । सर्वाभीष्टपरम्परावितरणे चिन्तामणि प्राणिनां, वन्दे भक्तिपुरस्सरं जिनवरं श्रीपार्श्वपार्वं जिनम् ॥९॥ स्वस्तिश्रीयुतपादपद्ममतुलं श्रेयःश्रिदं देहिनां, गीर्वाणैर्नरपुङ्गवैः स्तुतमिति ध्यातं च योगीश्वरैः । भव्यानां भवभूरितापहरणं सिद्धौ दृढप्रश्रयं, वन्दे भक्तिपुरस्सरं जिनवरं श्रीपार्श्वपार्वं जिनम् ॥१०॥ मेरुर्मोदयुते सुरेश्वरगणे यस्य जन्माभिषेकं, निर्मायं विहितैकचन्दनयुतैः स्नात्रवारिप्रवाहैः । प्राप्तः पीतगुणं ततो गिरिरसौ काञ्चनीयो जनोक्तिः, श्रीसिद्धार्थधराधरान्वयमणिः भूयात् स वः सिद्धये ॥११॥ एतांस्तीर्थपतीन् नतामरपतीन् नत्वाऽतिभक्त्याऽन्वहं, कन्दर्पोत्कटसर्पदर्पदलनव्यापारनागान्तकान् । मुक्तिस्त्रीकुचकुम्भकुङ्कमरसानानन्दकन्दाङ्करान्, दुष्टव्याल-मृगारि-कुम्भि-रणभीविध्वंसकानादरात् ॥१२॥ अथ श्रीतपोगणगगनमणि-भट्टारक-श्रीविजयसिंहसूरीश्वरचरणविन्यास पावनीकृतश्रीराजत्पत्तननगरचरवर्णनम्यत्राऽऽरामाश्च रामाश्च, सपुष्पाः फलमण्डिताः । अदृष्टसूर्याः सरसाः, पत्रालीतिलकाङ्किताः ॥१३।। टा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २०१३ चान्दनास्तरवो यत्र, भुजङ्गगणसंश्रिताः । पण्यस्त्रियः सदाकाराः, भुजङ्गगणसेविताः ॥ १४॥ अशोका यत्र मोदन्ते, योषिच्चरणताडिता: । कामिनो यत्र मोदन्ते, योषिच्चरणताडिताः ॥१५॥ इभ्या यत्र पुरे नित्यं, कमलाबद्धमानसाः । समदा यत्र रोलम्बाः, कमलाबद्धमानसाः ॥ १६॥ जलहर्यो विराजन्ते सकुम्भाः प्रक्षरज्जलाः । हस्तिन्यः समदा यत्र, सकुम्भा: प्रक्षरज्जलाः ॥१७॥ दानिनो यत्र शोभन्ते, कृतोन्नतकराः सदा । मदोद्धता गजा यत्र, कृतोन्नतकराः सदा ॥१८॥ सुधावदाताः प्रासादाः, सुवर्णकलशाङ्किताः । यत्र तीर्थकृतां रेजुः, कैलासस्याऽनुजा इव ॥१९॥ ध्वस्तान्धकारैः कलशैः, प्रासादशिखरस्थितैः । निशा-दिवसयोर्भेदो, लक्ष्यते यत्र नो जनैः ॥२०॥ गवाक्षतस्थुषीणां च, दृष्ट्वा चपलचक्षुषाम् । वितर्कयन्ति वक्त्राणि शतचन्द्रं नभस्तलम् ॥२१॥ चञ्चलत्वमपास्य श्रीः, धनिगेहेषु सर्वदा । चकार वासं चतुरा, मन्ये पर्यटनच्छलात् ॥ २२॥ कामुकीकटिदेशेषु, कार्यं स्वाभाविकं सदा । कार्यं कुचमुखेष्वेव तत्रैव करपीडनम् ॥ २३ ॥ निरालम्बत्वमाकाशे सङ्कोचः पद्मिनीदले । दण्डो देवालये यत्र, बन्धनं कुसुमस्रजि ॥२४॥ पारदे मारणं यत्र, कटुता ज्वरिणां मुखे । यत्र म्लानिः सुमे ख्याता, क्षेत्रे यत्र निरीतिता ॥ २५ ॥ मथनं यत्र दधिषु, मारिः सारिषु गीयते । परापवादे मूकत्वं, काठिन्यं शकलेऽश्मनः ॥२६॥ वियोग: कर्मणां यत्र, तापस्तपनमण्डले । वक्रत्वं यत्र शङ्खे स्यात् (द्), लघुता तूले सर्वदा ||२७|| श्रद्धालवः सदाचाराः, पापव्यापपराङ्मुखाः । गुरु-देवरता नित्यं, द्वादशव्रतसुव्रताः ॥२८॥ 2 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ७१ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क यत्र श्राद्ध्यः शुभाचाराः, पात्रदानविधायिकाः । रूपनिर्जितपौलोम्यः, शीलभूषणभूषिताः ॥ २९ ॥ लङ्का शङ्काकुला जाता, चम्पा कम्पमवाप्नुयात् । विशालाऽप्यविशाला हि यत्पुरोऽप्यलकाऽलका ||३०|| देशायातक्रयाणादि-वस्तुविक्रयशालिनी (नि) । श्रीमत्पत्तननगरे, धनि ( न ? ) धान्यविराजिते ॥३१॥ अनन्यरूपसौभाग्य- भाग्यसौन्दर्यशालिनाम् । श्रीमत् (च्छ्री) तातपादानां क्रमन्यासपवित्रिते ॥३२॥ युग्मम् ॥ अथ श्रीमण्डपदुर्गवर्णनम् सदण्डा यत्र राजन्ते, प्रासादाश्चाऽर्हतां सदा । Jain Educationa International - अङ्गुल्या दण्डमिषतो, दर्शयन्ति दिवं किमु ? ॥३३॥ ग्रहणं सूर्य-चन्द्राणां, जडत्वं यत्र वारिणि । दरिद्रतासु दारिद्र्यं, तरुपत्रेषु कम्पता ||३४| द्वैमुख्यं मद्दले यत्र तत्रैव करकुट्टनम् । मोटनं स्फोटनं यत्र, दन्तधावनकर्मणि ॥ ३५ ॥ कुरङ्गत्वं मृगे यत्रो -द्धत्वं समदहस्तिनि । पृषोदरादिषु ज्ञेयो, निपातो यत्र नो पुरे ||३६|| *यत्र निस्त्रिंशता खड्गे, मुष्टिबन्धोऽपि तत्र हि । निर्नामकत्वं यत्राऽसी-न्मत्कुणेषु जने न हि ||३७|| व्यसनं यत्र दानेषु, नीचत्वं यत्र वारिणि । दात्रदेशेषु वक्रत्वं, यत्र पुण्यस्य बन्धनम् ||३८|| यत्र श्राद्धाः सदा दान - विधिविज्ञानशालिनः । जिनेन्द्र धर्ममर्मज्ञाः साधुसेवापरायणाः ||३९|| श्राविका यत्र राजन्ते, सतीजनमतल्लिकाः । जिनधर्मरता नित्यं, शुद्धसम्यक्त्वसंयुताः ॥४०॥ पद्मिन्यो विकसत्कोशा, निर्यद्भ्रमरपङ्क्तयः । स्वकांन्तकरसंस्पृष्टाः, सहर्षाः स्युर्न योषितः ॥ ४१॥ " *इत आरभ्याऽस्य पत्रस्य बहवः श्लोकाः मुनिहीरचन्द्रेण श्रीविजयदेवसूरिं प्रति प्रेषिते पि सन्ति । मुनेरस्य नाम अस्मिन् पत्रे लेखकस्य सहवर्तिषु दृश्यते । For Personal and Private Use Only खण्ड २ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २०१३ त्रियामाविरहोद्भूत-ज्वरापगमकोविदम् । अवाप विधुरा चक्र - वाकी हृदयवल्लभम् ॥४२॥ कुण्डोध्न्यः प्रक्षरद्दुग्धा जिह्वास्पृष्टैकतर्णकाः । दामनीबन्धनं त्यक्त्वा, ययुर्गावो वनान्त ( न्ति) के ||४३|| सस्नेहाः सग(गु)णाश्चैव, तमोदर्शितमार्गकाः । पात्रसंस्था अपि पा (प्रा) पु-र्ना (म्ल) निं कज्जलकेतवः ॥४४॥ लूतातन्तुपटाशङ्का-मवाप रजनीकरः । गतोद्यमा इव स्पष्टं, क्षयमापुश्च तारकाः ॥४५॥ गिरेर्गुहासु वसतिं भेजे भीत्या तमोभरः । अपश्रियः कुमुद्वत्यो, भेजुः सङ्कोचमुल्व (ल्ब) णम् ||४६|| तदेभ्यजनयुतायां, संसदि प्रतिवासरम् । धर्मकल्पद्रुमाख्यस्य, वाचना प्रविधीयते ॥४७॥ श्रीमज्जिनेन्द्रभवने -ऽभवन् स्नात्राणि भक्तितः । तथैव साधुवर्गस्या-ऽध्ययनाध्यापनादिकम् ॥४८॥ इत्यादि धर्मकार्याणि(र्ये हि), क्रियमाणे निरन्तरम् । सर्वपर्वशिरोरत्न-मगाद् वार्षिकसञ्ज्ञकम् ॥४९॥ दुष्टाष्टकर्मसङ्घात- घाति षष्टाष्टमादिकम् । विधानं तपसो जात-मात्मनः शुद्धिसिद्धये ॥५०॥ व्याख्यानैर्नवभिस्तत्रा-ऽनल्पसङ्कल्पपूरणे । वाचनं कल्पसूत्रस्य, कल्पद्रुरिव जङ्गमः ॥५१॥ मार्गणद्रविणादानं, शोषणं दुष्टकर्मणाम् । लोचनेन्दु (१२) मितान् घस्रान्, जीवामारिप्रवर्तनम् ॥५२॥ महामहः समं य(ज)ज्ञे, चैत्यानां परिपाटिका । मन्ये सिद्धिवधूभाले, पत्रालीच (व) मनोरमा ॥५३॥ इत्यादि पुण्यकृत्यानि, बभूवुस्तातनामतः । जायन्ते च तथा नित्यं, तातानां सौम्यचक्षुषा ॥५४॥ अथ परमगुरुगच्छाधिराज श्रीविजयसिंहसूरीन्द्रचन्द्रवर्णनम् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ७३ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क कामं कामगवी-सुरद्रुमलतामुख्याः पदार्थाश्च ये, चिन्तारत्न-विचित्रचित्रलतिका - सत्कामकुम्भादयः । सर्वेषां निजचित्तकल्पितमहाभीष्टार्थसंसाधका स्तेभ्यस्त्वं मम वाञ्छितार्थकरणाधिक्यं दधानो जय ॥५५॥ आस्यं यदीयं प्रतिभाषतेऽत्र, सरोरुहं वाऽतिमनोहर । समुल्लसल्लोचनचञ्चरीकं, सद्वृत्तताशालिविशालशोभम् ॥५६॥ येषां गुरूणां पदपद्मयुग्मं, ये ये नमस्यन्ति सदाऽऽदरेण । तांस्तान् जनानाऽऽशु समाश्रयन्ते, तास्ताः समग्राः सकलाः कलाश्च ॥५७॥ श्रीमत्(त:) सूरिराजेन्द्र(न्दोः), वयं के गुणवर्णने । यत्कीर्तिकामिनीभाले, कस्तूरीतिलकं नभः ॥५८॥ श्रीमत्[ श्री]सूरिराजेन्द्र-निर्माणे ब्रह्मणः करात् । परमाणुकणाः कीर्णाः, कर्ण - कल्पद्रुमादयः ॥५९॥ वर्योऽपि तुर्यारक एव सूरे!, चेतश्चमत्कारकरो न चाऽऽसीत् । प्रशंसनीयः किल पञ्चमोऽयं, यत्र प्रभो ! त्वं जनतारकोऽभूः ॥६०॥ श्रीमत्तपागच्छसुराजलक्ष्मी - र्न त्वां विना शोभत एव देव! । कार्त्तस्वरीयोत्तमभाजनं विना, व्याघ्रीपयस्तिष्ठति नो कदापि ॥ ६१॥ अयि गुरो ! तव कीर्तिनटी स्फुटं त्रिभुवने किल नृत्यति रङ्गतः । श्रवणसम्पुटतः पतिते किमु, शशि- रविच्छलतः शुभकुण्डले ? ||६२|| इलातलमिलन्मु(न्मौ)लिः, संयोजितकरद्वयः । शिष्याणुर्मेघचन्द्राख्यो विज्ञप्तिं तनुतेतराम् ॥६३॥ तथा श्रीतातपादाब्ज - सेविनां शिवकाङ्क्षिणाम् । यथार्हं नत्यनुनती, प्रसाद्य [ ? ] करुणापरैः ॥६४॥ Jain Educationa International खण्ड २ भव्याः! प्रमादमवधूय भजध्वमेनं, सूरीश्वरं विजयसिंहगणाधिराजम् । ऊकेशवंशवरनीरधिपूर्णचन्द्रं, मायारसाधरविनाशविधौ सुरेन्द्रम् ॥६५॥ तत्रैव शुभ्रतरभूरियशोभराम्बु - राशिप्लवेन किल पूरितविश्वविश्वाः । साधुव्रजेप्सितसुकार्यविधानदक्षाः, श्रीहस्तिहस्तिविजयाभिधकोविदेन्द्राः ॥६६॥ मेधावधीरितसुचित्रशिखण्डिजा हि श्रीपं. जितोदयशुभा विबुधप्रतीताः । अश्रान्तशान्तविषयादिसपत्नसार्थाः, श्रीसारसु (मु ) क्तिविजया विबुधप्रधानाः ॥६७॥ For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ श्रीसत्यविजयविबुधाः, विबुधाः श्रीहर्षविजयनामानः । श्रीवीरवीरविजय-मुनयः श्रीलालु(ल?)विजयाख्याः ॥६८॥ तत्राऽत्र हीरचन्द्राख्यो, वृद्धिचन्द्रस्तथा मुनिः । इत्यादयो नमन्ति स्म, तातपादपयोरुहम् ॥६९।। यदत्र लिखितं लेखे, मदीयमतिमान्द्यतः । क्षन्तव्यं तत्क्षमासारै-न्यूनं वाऽधिकमेव हि ॥७०॥ तथाऽत्रत्य सङ्घः प्रणमति । शिशूचितं कार्यं प्रसाद्यम् । तथाऽत्र परिसरे पडधरीपुर मयाणी च नाम ग्राम(मः) द्विस्थानकयोग्यो वर्तते । साम्प्रतं यद्यादेशपट्ट(ट्टे) तन्नाम लिखितं स्यात् तदाऽऽदेशपट्टलिखनावसरे श्रीताता अवधारयन्त्यपि। अन्यच्च- योगोद्वहनादिकविषये बढ्युत्कण्ठा वर्तते । तेनाऽस्मिन् वर्षे तत्कृत्यं भवति तथा विधार्यम् । एतद्विषये श्रीताता एव सामग्रीमिलनप्रभवः । अन्यच्च- श्रीतातचरणारविन्दे मधुकरीभवितुकामः शीघ्रमेवाऽस्मि । तथाऽपि दूरदेशत्वाद् मार्गवैषम्याद् यदि कियन्ति दिनानि लगन्त्यपि । तथा श्रीतातैरेतत्कार्य स्वकार्यांकृत्य येषामादेष्टव्यं भवति तेषामादेष्टव्यमादेश (तेषामादेष्टव्य आदेशः) । क्षेत्रादिसामग्री प्रसाद्या भवति । सा प्रसाद्यैव । नाऽत्राऽर्थे गजनिमीलिका सिंहशौण्डीर्य वा चिन्त्यम् । अथैतत्कार्ये श्रीपूज्यचरणा एव स्रष्टार इति भद्रम् । एँ नमः ॥ श्रीमत्त्रिशलासुतः सौख्यं, तारः परमवीभवः । सततं निर्मिमीतां मे, तारः परमवीभवः ॥१॥ भवभीतिभरात् पान्तु, सकलाः कलायान्विताः । जिनाधीशा जगज्जन्तून्, सकलाः कलयान्विताः ॥२॥ श्रीमज्जिनाधिराजस्य, मतं विभववर्द्धनम् । विश्राणयतु मे नित्यं, मतं विभववर्द्धनम् ।।३।। श्रीमत्सिद्धायिकां स्तौमि, वरदाममदां सदा । हीरालङ्कारसंयुक्तां, वरदाममदां सदा ॥४॥ इतिश्री महावीरस्तुतिः ।। श्रेयोऽस्तु लेखक-पाठ(क)योः ॥ श्रीरस्तु सङ्घस्य ॥ * नेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर, सूरत * * Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ (१२) पुरबन्दिरस्थ-श्रीविजयप्रभसूरि प्रति राजनगरत: पण्डितश्रीनयविजयस्य लेख: स्वस्तिश्रीरङ्गभूमिर्भवभयतिमिरध्वंसहंसप्रकाशः, संकाशः पुण्यकल्पद्रुमनवकुसुमप्रोद्गमस्य प्रसर्पन् । हासः पाथोधिमाथोद्भवदमृतरसस्यन्दमन्दक्रमस्य, श्रीसिद्धार्थस्य सूनोर्जयति भगवतः कोऽप्यहो ! दृग्विलासः ॥१॥ स्वस्तिश्रीदानहर्षात् कृतभविकमनःक्षेत्रपीयूषवर्षाः, सामर्षा मोहमल्लस्मयदलनविधौ ध्वस्तरोषप्रघर्षाः । दुर्धर्षा दुर्मतानां प्रगुणितसमताजन्मभूपारमर्षा भूयासुः सन्निकर्षाद्विपुलवृषपुषो वीरभावप्रकर्षाः ॥२॥ स्वस्तिश्री: पद्मखण्डं ध्रुवमलिमलिनं सिन्धुमौर्वाग्निदुःस्थं, स्फीतां पीताम्बरीयां तनुमपि दलितोद्दामदैत्यास्रमिश्राम् । त्यक्त्वा यत्पादपद्मं धृतरतिरभजत् सर्वतोऽवद्यमुक्तं, मुक्तिस्त्रीभोगलीलां दिशतु स भगवान् भाविनां वर्द्धमानः ॥३॥ स्वस्तिश्रीमन्नतेन्द्रस्फुटमुकुटमणिवातकान्तिप्ररोहै श्छिन्दन्तु त्रैशलेयक्रमयमलनखा दन्तुरा नन्तुरागः । साधाज्जातमोदो मृगपतिरतनोदकदम्भेन सेवां, येषां कामेभकुम्भस्थलदलनरसस्पष्टसान्दृष्टिकेन ॥४॥ स्वस्तिश्रीसद्मपद्मक्रमसमनुसृतानम्रकनेन्द्रमौलि प्रेङन्माणिक्यमालामिलदलिपटलीदत्तविश्वाद्भुताय । भम्भासारे विदम्भाशयभजनपरे पुण्यसम्भारलीलां, रम्भानाथानवाप्यां सपदि विदधते वर्द्धमानाय भद्रम् ॥५।। अङ्कारूढमृगो हरिर्न भुजगातङ्काय सर्पासुह न्निश्शङ्काश्च सुरासुरा न च मिथोऽहङ्कारभाजो नृपाः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ यद्व्याख्याभुवि वैरमत्सरकृतातङ्का न पङ्कावहाः, श्रीमद्वीरमुपास्महे त्रिभुवनालङ्कारमेनं जिनम् ॥६॥ यस्याऽभिधानाज्जगदीश्वरस्य, समीहितं सिध्यति कार्यजातम् । Jain Educationa International सुरासुराधीशकृतांह्रिसेवः, पुष्णातु पुण्यानि स वीरदेवः ॥७॥ अनाकलितमन्यथाकलितमन्यतीर्थेश्वरैः, स्वरूपनियतं जगद् बहिरिवान्तरालोकते । य एष परमेश्वरश्चरणनम्रशक्रस्फुरत् किरीटमणिदीधितिस्नपितपादपद्मः श्रिये ॥८॥ दृप्यद्यन्नखदर्पणप्रतिफलद्वक्त्रेण वृत्रगुहा, शोभा काऽपि दशावतारसुभगा लब्धाऽनुजस्पर्द्धिना । मुक्तिद्वारकपाटपाटनपटू दौर्गत्यदुःखच्छिदौ, तावंही शरणं भजे भगवतो वीरस्य विश्वेशितुः ॥ चञ्चत्काञ्चनकान्तिकान्तिरनिशं गीर्वाणजुष्टान्तिको, ७७ विक्रान्तिक्षतशत्रुरस्तजननभ्रान्तिः सतां शान्तिकृत् । वीरस्तान्तिमपाकरोतु भगवान् कल्याणकल्पद्रुमो, धीरा यस्य सदा प्रयान्ति शरणं पादौ शुभप्रार्थिनः ॥१०॥ गतप्रत्यागतैर्यस्य, स्तवं कुर्वन्ति साधवः । पाण्डित्यडिण्डिमध्वान - भृतब्रह्माण्डमण्डलाः ॥११॥ तथाहि- *सेवारसां रक्षदमाश्रयाच्छा, भूयादयार त्वयि मे क्षतांहः । हताक्षमेऽयि त्वरया दयाभू, च्छायाश्रमादक्षरसारवासे ॥१२॥ वंदे रवीनुन्नतकांतिजातैः, पराजयंतं द्विमतावमाक्षम् । क्षमावतामद्वितयं जरापं, तैर्जातिकांतन्ननु वीरदेवम् ॥१३॥ तेजसाक्षपरवत्तयानया, तातसंक्षुभितहृद्यतारधीः । धीरताद्यहृतभिक्षुसंतता, यानयात्तवरपक्षसाजते ॥१४॥ पाताविद्यामुक्तसंज्ञाप्रकारे, सातेदत्तासर्वगत्यासदामा । मादासत्यागर्वसत्तादतेसा, रेकाप्रज्ञासक्तमुद्यावितापा ॥१५॥ एतेषां गतप्रत्यागतश्लोकानामर्थावगतेः प्रायोऽभावात् पदच्छेदादिकं न विहितं For Personal and Private Use Only सं. । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ तारसारस्वतेद्वाशु-हरते धुसदां मनः । नमदासद्युतेरंह; शुद्धा ते स्वरसारता ॥१६।। वातीताभूस्तेस्वाराधा-मायामानागाराच्छाया । याच्छारागानामायामा-धारास्वास्तेभूतातीव्रा ॥१७॥ नासवाक्षपरावर्त्या-क्तामुदारं त्वदागमे । मेगदात्वरदामुक्ता-ावरापक्षवासना ॥१८॥ संहारधीपक्षमथाप्रकाशं, न ते मनः पुण्यगतं कदाचित् । चिदाकतं गण्यपुनर्मतेन, शंकाप्रथामक्षपधीरहासम् ॥१९।। मतगौरवगत्यास, भेजे रागं त्वयि व्यभाः । भाव्ययित्वगराजेभे, सत्यागं वरगौतमः ॥२०॥ त्वामनंजितमसक्तिमुदंकं, ज्ञामसत्यभृतहृत्वमवंदे । देवंमत्वहृतभृत्यसमज्ञा, कंदमुक्तिसमतं जिन मत्वा ॥२१॥ त्वं सत्यसारस्तनुभावभास्व, शमीदमोदर्कततं श्रियानः । नयाश्रितं तर्कदमोदमीश, स्वभावभानुस्तरसात्यसत्वः ॥२२॥ वैभारसानुक्वपदांचितं त-दवार्यवातव्यसनासहाम । महासनासव्यतवार्यवाद, ततं चिदापक्वनुसारभावैः ॥२३।। बलपात्रनतेद्राक्षु-राभां येन वितागसः । संगताविनयेभाराः, क्षुद्राः तेन त्रपालवम् ।।२४।। तारितेहितदादान-वादेसारकदत्वया । यात्वदंकरसादेवा-नंदादांतहितेरिवा ॥२५।। इत्थं यस्य सुधोर्मिवर्मितमपि स्तोत्रे क्रमैः कोमलै दुःप्राज्ञस्मयदारणात् कठिनमप्युज्जृम्भते नो वचः । वीरः क्षीरसमुद्रसान्द्रलहरीगम्भीरधीराजितः, सोऽस्माकं वितनोतु वाञ्छितफलं धीरस्त्रिलोकीगुरुः ॥२६।। एनं मेरुविराजिराजनगर श्रीवल्लिपाथोधरं, यात्रोत्साहधरैनरैः कृतमहं तत्तत्प्रदेशागतैः । कस्तूरीघनसारचन्दनमिलत्कश्मीरजन्मद्रवै नित्यं निर्मितपूजनं जिनवरं वीरं प्रणम्याऽऽदरात् ॥२७॥ ॥ इति श्रीदेववर्णनम् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ ॥ अथ नगरवर्णनम् ॥ यदीयाः प्रासादा गगनशिखरैस्तुङ्गिममदात्, सह स्पर्द्धाभाजस्तदुपरि भयत्राण्यदुरिव । समुन्मीलन्त्येषु प्रसृमरतर श्रीसमुदयः, परेषु श्यामत्वं स इह जयभङ्गव्यतिकरः ॥१॥ यदीयप्रासादेष्वनलस्थितकृष्णागुरुगुरु स्फुरद्भूमे चञ्चन्मणिकिरणदेवेन्द्रधनुषि । मृदङ्गोरुध्वानस्तनितसुभगे विस्मयरसा दकाले पाथोदभ्रमममरवध्वो विदधति ॥२॥ मणीमुक्ताहारं दधति मम सारं स्तनतटे, सुधामेतां मुग्धास्तव मृगदृशो व्यक्तमधरे । समक्षं लोकानामिति कृतविवादो जलनिधि र्यथावेलं यत्र ध्वनिजनितभीर्वल्गति मुहुः ||३|| अपि त्रासादासादिततरलभावात् स्थितमहो, पदौ पद्भ्यां बद्ध्वा निजजनशुभादृष्टनिहितम् । समादत्ते मत्ते भवति कलहे घर्घररवा न्न रत्नानां राशिं किमु यदधमर्णा जलनिधेः ॥४॥ रमामिभ्याः सभ्याः सुमधुरगिरः सर्वममृतं, यदीयं गाम्भीर्यं जगृहुरगृहस्थाश्च गुरवः । अतो यत्राऽम्भोधिः प्रलपति किमप्यस्फुटरवः, श्रवः प्रीत्यै कस्याऽप्यहह नहि तन्निर्धनवचः ॥५॥ श्रियं दत्त्वा यस्मै तदिह गृहजाममृतिधयो ( मृतधियो) - ल्लसत्प्रेमस्थेमोदधिरधितमूर्च्छद्विरहभी: । असौ वस्तु स्वाप्तं वितरति तदस्मै किमनिशं, न वाल्लभ्यात् सर्वक्षितिवलयवृत्यद्भुततरम् ॥६॥ अहं शङ्के पङ्केरुहजघटजन्मप्रकृतिविद्, यदङ्के पाथोधिर्लुठति तदयं तस्य जनकः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ७९ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ महत्ता चैतस्य स्वमिह जनकायैव ददत स्तदाशीर्दासीति स्फुटमघटमानं किमपि नो ॥७॥ स्मितां यत्र स्त्रीणां वदनततिमुद्वीक्ष्य तमिमं, मुहुः कायव्यूहं निजसुतविधोरेव विमृशन् । तरङ्गै रङ्गैः स्वैर्मुदमिव विवृण्वन् समुदितां, प्रवालोद्यद्रोमा जलधिरिह नृत्यं वितनुते ॥८॥ हृते चन्द्रे देवैस्तनयविरहोर्वाग्निदलितः, स्वमज्ञासीदब्धिः सुतविरहिणामाद्यमधनम् । इदानीं यत्पोतांस्तनयशतमासाद्य मुदितो, धुरि स्वं जानीते तनयसुखभाजां गतवयाः ॥९॥ इलावेलाखेलाप्लुतपवनहेलाहतरत श्रमाणां यद्वाटीष्वमिलितकपाटीकृतमुदाम् । शुभंयूनां यूनां रतिरतिशयं याति किल या, लभन्ते तां देवा अपि न चतुराश्चैत्ररथगाः ॥१०॥ स्फुरत्तारारत्ते तदुपरि परिभ्राम्यदुदक स्फुटश्यामच्छाये बहुमकरदुष्टग्रहभृते । नदन्ते कस्याऽब्धेर्नभसि निशि यत्राऽद्भुतरसं, महामायाच्छायाहितपुटपरावृत्तिमहिमा ॥११॥ जगज्जैत्रा मैत्रावरुणिसदृशा यत्र गुरवो, न लेशादप्यागः किमधिकरवै(वैः?) तत्र नियतम् । नमस्कर्तुं तस्मै तदुदधिरधिष्ठातृजनित श्रिये वेलादम्भात् कलयति न दण्डव्रतशतम् ॥१२॥ भृशं शुधैश्चैलैश्चलतरतरङ्गैश्च मिलितो, यदीयो हट्टाध्वा जलनिधिरुभौ चामरधरौ । वितन्वाते वादं सममणिधनावुद्धररवौ, जयं भङ्गं वोच्चैर्दिशत इह चिह्नाहतिहती ॥१३॥ विमानैर्बोहित्थैर्नभसि जलधौ क्लृप्तगतयो, मनोभव्याहाराः समभिलषितार्थप्रणयिनः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ अविम्लानैर्माल्यैः सुरभितदिगन्ता धनभृतो, यदीयाश्मच्छिद्रोच्छलितजलसिक्तं किल नभो, बभौ गङ्गामज्जत्सुरगजकरोत्क्षिप्तजलयुग् । अधस्तादुत्प्रेक्ष्य प्रतिगजसमुज्जृम्भितमिदं, किमु क्रोधध्वानैर्बधिरयति नद्यां सुरगजः ॥१५॥ यदीयाश्मच्छिद्रोच्छलदतुलपाथोधिलहरी, चरीकर्त्ति स्वान्ते स्मरणपथपान्थं प्रचलितम् । मरुत्पूरक्रूरक्षुभितशतपातालकलश प्रसर्पद्वेलौघं गगनतलभेदव्यवसितम् ॥१६॥ सुधाकुण्डादेतत् फणिगरलतीव्रानलयुजः, नृदेवा देवा वा दधति विभिदां यत्र न मिथः ||१४|| किमुत्फेनं प्रोच्चैरुदितममृतं श्वभ्रविवरात् । यदीयाश्मद्वारोच्छलितजलमुद्वीक्ष्य कवयः, सृजन्तीत्युत्प्रेक्षालहरिपरिरम्भं स्वहृदये ||१७|| न चापज्यारोपो न च परकृतेरादरभरो, न संस्कारा वक्रा न च पलफलालम्बनमपि । भुजेनैव स्पष्टं य इह कुरुते मङ्गलमसौ, Jain Educationa International न्यायसारतया यत्र, सतामस्ति नवं धनम् । प्रवर्त्तते परं यूनां कामिनीभुजबन्धनम् ॥ १९ ॥ कठिनाः केवलं यत्र, कामिनीनां पयोधराः । जडात्मानश्च वीक्ष्यन्ते, वर्षास्वेव पयोधराः ||२०|| यत्र लीलासु नारीणां रसना मुखरायते । गुणग्रहे पुनः पुंसां, रसना मुखरायते ॥ २१ ॥ कथं मारभयं यत्र, कामिनीनां प्रवर्त्तते । अहो ! मारव्यथाकारि, यत् कौमारहरं वयः ॥२२॥ अनीतिर्यत्र नाऽस्त्येव, नाऽपीतिर्विद्यते क्वचित् । अहो ! तदेतदुभयं दुर्घटं घटतां कथम् ॥२३॥ ८१ गुरुः कोऽपि ज्योतिर्विदतिशयि (य?) वान् ॥१८॥ For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ तत्र राजन्वति प्रौढ-स्वर्ग श्रीपश्यतोहरे । श्रीपूज्यांह्निरजः पूते, नगरे पुरबन्दिरे ॥ २४ ॥ ॥ इति श्रीपुरबन्दिरवर्णनम् ॥ ॥ अथ राजनगरवर्णनम् ॥ अन्येषां नयनैककौतुककरी भूयः स्पृहाशालिनां, या विभ्राजति राजराजनगरी राजैकभोगोचिता । चञ्चत्काञ्चनचारुभूषणझणत्कारावधानस्खलद् गच्छन्मत्तयुवक्रमक्लमनमच्चेतोभिरालिङ्गिता ॥ १ ॥ यस्या मध्यमगस्तिपीतसलिलं रत्नाकरत्वं स्फुटं, धत्ते काऽपि न वीक्ष्यते तदिह भूरत्र प्रवालोज्झिता । पाथोधेश्चुलकं चिकीर्षुरुदकं हस्तं हि तावन्मुनिः, चिक्षेप प्रययौ न यावदमलाद्रनोच्चयादप्यधः ||२|| प्रातः पूजार्थरत्नोपकरणकिरणैः स्फारितैः स्वर्णपुत्रै मध्याह्ने मूच्छितायां सदरुणघुसृणैर्व्यापितापैश्च सायम् । चञ्चच्चक्राङ्गपक्षाहतगगननदीशीकराश्लेषरुच्यो, यस्यां सौधाग्रजाग्रद्ध्वजपटकपटस्तन्यते वातपक्षः ||३|| लङ्का सरस्वदङ्के-ऽत्यङ्के याऽवस्थिता सरस्वत्याः । धत्ते तत्सापत्न्यं, कलितालङ्कारसर्वस्वा ॥४॥ तस्या राजनगर्या, वर्याश्चर्यार्पणत्रिदशवल्ल्याः । मणिधनधान्यभृतायाः, पारमिताया वितरणे च ॥५॥ अलङ्कृतशरीरः सन्नुद्भिन्नपुलकाङ्करैः । हर्षवर्षसमुद्भूतैः, कदम्बैरिव सर्वतः ॥६॥ आददानः श्रियं प्रौढ-स्नेहपूरितया दृशा । भृशमुन्निद्रपत्रस्य, शतपत्रस्य सर्वतः ॥७॥ विनयव्यवसायार्ह-वाग्विलासमनोहरम् । आतन्तनीति विज्ञप्तिं, नयादिविजयः शिशुः ॥८॥ यथाकृत्यं चाऽत्र भास्व-त्प्राचीवदनदर्पणे । आरोहत्युदयक्ष्माभृ-च्छिखरं भानुमालिनि ||९|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ प्रापितायां सभायां च, सभ्यैः शोभां प्रथीयसीम् । अपि शक्रसभाशोभां, हसन्त्यामिव सर्वतः ॥१०॥ श्रीमत्क्रमयुतोपान्त्य-स्वाध्यायकृतिपूर्वकम् । वैराग्यकल्पलतिका-व्याख्यानं स्फारितादरम् ॥११॥ उद्योगो ब्रह्मतुल्यादेः, कादम्बर्यादिपाठनम् । सिद्धान्तपद्धति स्फार-विचारपरिचारणम् ॥१२॥ अपरं च यथायोगं, पाठनं पठनार्थिनाम् । इत्यादि धर्मकृत्कर्म, शर्मदायि व्यजृम्भत ॥१३।। तदिदं निजसाम्राज्य-मुद्वीक्ष्याऽऽनन्दमेदुरम् । श्रीमत्पर्युषणापर्व, धर्मसर्वस्वमागतम् ॥१४॥ विदधे विधिना तस्या-ऽप्यातिथेयी किलोचिता । पूर्वमासनदानेन, महाडम्बरकौतुकैः ॥१५॥ ततः पाद्यप्रदानेन, वाग्विलाससुधाभरैः । अर्घपूजाप्रदानेन, युक्तिपुष्पैविकस्वरैः ॥१६।। दिनानि पञ्च श्रीकल्प-सूत्रव्याख्यानमूर्त्तिभिः । कल्पद्रुमफलैर्भुक्ति-विधिप्रीणनपूर्वकम् ॥१७।। प्रभावनाभरैश्चैत्य-परिपाटीप्रथीयसा । तथोत्सवेन महता-ऽभ्यागतागमसूचिना ॥१८॥ ब्रह्मणो भेजुषः प्रीति, प्रसादात् तस्य चाऽऽशिषाम् । सम्प्रत्यपि ददच्छर्म, धर्मकर्म प्रवर्त्तते ॥१९॥ कारणं भगवद्भक्ति-स्तत्र नूनमभङ्गरा । तथा श्रीपूज्यपादाना-मभ्युपास्तिः प्रथीयसी ॥२०॥ ॥ अथ श्रीगुरुवर्णनम् ॥ निरीक्ष्य चन्द्रादधिकं यदास्यं, विधाय चन्द्रं विधिरन्वत । एतज्जयादस्य यशोऽस्त्विति स्व-श्रमेऽपुनर्भावमसौ युयोज ॥१॥ यदाननं संवलितं कलाभि-त्रिंशता दन्तनिभाभिरन्तः । क्व स्पर्द्धतां शीतकरो विमानी, समन्वितः षोडशभिः कलाभिः ॥२॥ चन्द्रेण सङ्कोचयता सरोजं, यदर्जितं रात्रिविलासभाजा । निःशङ्कसङ्कोचितचन्द्रमब्ज-मशोधयद् वैरमदो यदास्यम् ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ पीत्वैव चन्द्रस्य रुचिं यदास्यं, दिने दिने कान्तिविवृद्धिमेति । सा नौचिती पीतपयोनिधीनां, क्रमागतानां न कुले मुनीनाम् ॥४॥ यदीयवक्त्रस्य गुणाकरस्य, दोषाकरेणोपमितेर्विचारः । वाचां क्व सञ्चारमुपैतु सार-सारस्वतश्रोतसि संप्लुतानाम् ।।५।। यदाननौपम्यमवाप्तुमुच्चैः, सम्भावनारूढतदाप्तिलुब्धः । अङ्कच्छलाच्छन्नधृताक्षमालो, मन्त्रं जपत्येष विधुः किमभ्रे ॥६॥ पीयूषसन्तर्पणतो द्विजानां, महेश्वरोपासनया च नित्यम् । यदाननस्योपमितिं कथञ्चि-ल्लब्ध्वा विधुर्नृत्यति मोदमत्तः ॥७॥ बहिर्गतां यां त्रिदशा निपीय, रिक्तां विधुस्तां परिपक्वपुण्यः । मुखीभवन् यस्य विधुः सुधां स्वां, जिह्वामिषादन्तरसौ बिभर्ति ॥८॥ कथं यदीयं विजयेत वक्त्रं, बालो विधुर्येन पिता यदीयः । गृहीतगाम्भीर्यमहत्त्वमुद्रः, कृतो ह्यगस्तेः चुलुकः समुद्रः ।।९।। विधोविधाता वदनं विधातुं, जग्राह स्वस्याऽनवशेषसारम् । भ्रमत्यतोऽसौ किल तूलतुल्यो, निस्सारभावादनिल:(ल?)प्रणुन्नः ॥१०॥ अभ्यर्थ्य तेजो लभते यदिन्दु-र्भानुं मिलित्वा किल मासि मासि । क्व तोल्यतां याचितकेन तेन, निसर्गतेजोऽभिमतं यदास्यम् ॥११॥ यदीयमास्यं च विधुं तुलाया-मधाद् विधाता कुतुकी किमुच्चैः । नत्युन्नती सर्वजनप्रसिद्धे, तत्तत्तुलापात्रगते यदेते ॥१२॥ स्पर्धी दधानः सह यन्मुखेन, मुधा सुधांशुर्यदभूत् कलङ्की । पर:सहस्राः शरदो धुनद्यां, स्नात्वाऽपि तन्नायमुपैति शुद्धिम् ॥१३।। मुख्यः शशी यद्वदनं सुधाब्धि-रन्यः [श?]शी पङ्कजमङ्कभृङ्गम् । नभोनदीसङ्गतमन्यथाऽस्य, कुतस्तदीयोदयतो निमीला ॥१४॥ यदीयवक्त्रेण समं विवादे, विधीयमाने स्खलितः किमिन्दुः । जागति तत्र स्खलितस्य चिह्न-मको न पङ्को गलितांहिरेखः ॥१५।। यदीयवक्त्रेण समं विवादे, कृते विधुर्भङ्गमवाप तूर्णम् । अमर्षणो नित्यमटन् जगत्यां, स वीक्षतेऽन्यं किमु तद्विजेत्रः ।१६।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ विधाय यद्वक्त्रविधं तदीय-ग्रहे वितन्वन् विधुलम्बनानि । ब्रह्मा भचक्रैः क्षपयन् घटी किं, न ब्रह्मतुल्यं स्मरति स्वचित्ते ॥१७॥ पूर्णीभवन्निन्दुरवैति न स्वं, पूर्णं यदास्योपमितानवाप्तेः । अपूर्णमित्यस्य मनः क्रमेण, तनोः कृशत्वं कुरुतेऽनुतप्तम् ॥१८॥ कलाऽद्वयस्योपनिषत् स्वधीता, यथा यदास्ये च सुवृत्तभावात् । अभाणि नैवाऽस्थिरवृत्तभावात्, तथोद्यतेन द्विजनायकेन ॥१९॥ एवंविधश्रीतपगच्छसूरि-पट्टप्रतिष्ठास्पदतां दधानः । मेधाविनामद्भुतधीधनानां, गुणावलोकाय कृतावधानैः ॥२०॥ अचिन्त्यचिन्तामणिकल्पचित्त-सद्मस्फुटीभूतकलानिधानैः । अत्यच्छगच्छप्रभुताप्रदीप-तैलप्रचाराम्भमतिप्रधानैः ॥२१॥ गलद्विषादैविहितप्रसादै-र्धानुयोगप्रवणे स्ववर्गे । द्विषन्मुखाम्भोरुहशीतपादै-विधूतनिश्शेषमहाप्रमादैः ॥२२॥ स्याद्वादपाथोधितरङ्गभङ्गा-वर्तान्तरुद्भ्रामिततीर्थ्यवादैः । सदा विनेयस्य हृदाऽवधार्या, श्रीपूज्यपादैः प्रणतिस्त्रिसन्ध्यम् ॥२३॥ तथा तत्रलक्ष्मीविजया विबुधा, निजधीलक्ष्मीविलासगोविन्दाः । रविवर्धनाख्यविबुधाः, परिषत्परिपोषिवचनसुधाः ॥२४॥ जसविजयाख्या विबुधा-स्तपगच्छस्वच्छराज्यकृतचिन्ताः । धनविजयाख्या विबुधाः, स्नेहसुधासिन्धुशीतरुचः ॥२५॥ तत्त्वविजयाख्यगणय-स्तत्त्वविदो हेमविजयगणयश्च । साध्वी च प्रेमाख्या, मटूः पटूभूतमतिरन्या ॥२६।। इत्यादिसाधुसाध्वी-वर्गः श्रीपूज्यभजननिरतो यः । नत्यनुनती प्रसाद्ये, क्रमेण तन्नामसमनुसृते ॥२७॥ अत्र- सौभाग्यविजय-विबुधाः, स्वाभिमतन्यायजनितसौभाग्याः । कमलविजयाख्यविबुधाः, विबुधा जसविजयसञ्जाश्च ॥२८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ कान्हर्षयः समर्था, गणयः श्रीसत्यविजयसञ्ज्ञाश्च । भीमविजयाख्यगणयो, नरविजयतपस्विनश्चाऽपि ॥ २९ ॥ हर्षविजयाख्यगणयो, हेमविजयसञ्जकास्तथा गणयः । तत्त्वविजयाख्यगणयो, लक्ष्मीविजयाभिधा गणयः ||३०|| वृद्धिविजयाख्यगणय - श्चन्द्रविजयसञ्जकास्तथा गणयः । कर्पूरविजयमुनयः, शुभविजयाख्यास्तथा मुनयः ||३१|| शैक्षो विवेकविजयः, साध्व्यश्च स्थानवासधृतधृतयः । इत्याद्यः श्रीपूज्य-क्रमकमलं नमति वर्गोऽयम् ||३२|| अत्रत्यो निश्शेषः, सङ्घोऽपि च सकलसङ्घमुकुटमणिः । नमति श्रीपूज्यपदौ, नखमणिदशगुणितकान्तिधरौ ॥३३॥ निद्राशीलेषु जनेष्वलसे परिचारके च रविरुद्यन् । स्फोरयति यथा तेज - स्तथा यतन्ते महोनिधयः ||३४|| तत्क्रमविदां न कस्या- ऽप्युपदेश्यं किमपि पूज्यपादानाम् । विज्ञप्यं नु प्रकटं, नतिसमये भाविभावभृताम् ॥३५॥ लेखोऽयं सद्वृत्तैः, सद्योलिखनोदितैर्विदितभावैः । सृजतु परं सौभाग्यं, विहितः सौभाग्यपञ्चम्याम् ||३६|| इति यः ॥ Jain Educationa International -X For Personal and Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ ८७ (१३) श्रीविजयप्रभसूरि प्रति पं.श्रीदर्शनविजयस्य महासमुददण्डकमयो लेख: स्वस्तिश्रीमदमन्दनन्दकनमन्नाकीन्द्रचूडामणिश्रेणीस्रग्मक _ _ _ _ _ पदद्वन्द्वारविन्दः प्रभुः । चेतश्चिन्तितपूर्तये भवतु वः श्रीपार्श्वचिन्तामणिभव्याम्भोजनभोमणिर्गृहमणिस्फारस्फटान्तर्मणिः ॥१॥ स्वस्तिश्रीस्फुरदिन्द्रनीलधवलं वर्म व्यभात् श्यामलश्रीपार्श्वस्य विशेषितं फणिफणारत्नप्रभारेखया । उन्मीलन्नवरत्नकाङ्करशिरः किं नीलवद्भूभृतो, वाय॑न्तर्गतर _ _ [लभा?]कपिशितं कालोदधीयं किमु ॥२॥ स्वस्तिश्रीअमृतद्रवातिवपुर्वल्ली प्र _ _ ल्लसत्कह्लारादतिशायिसौरभभरा यस्योज्जजृम्भे विभोः । शङ्के शान्तरसोऽन्तरालवसतिनिर्यात्यमान्तो(मातो?) बहिस्तस्मै कश्मलघस्मरैकमहसे पार्वाय पुंसे नमः ॥३॥ स्वस्तिश्रीफलकन्दली सकुसुमा मूर्तित्रयी नेत्रयोः, पीयूषाञ्जनवर्तिकाऽञ्जनरुचेर्यस्येव वर्गत्रयी । मूर्ता गारवशल्यदण्ड_[द]लिनी रत्नत्रयीवाऽद्भुता, विघ्नव्यूहविहीनमाह्निकविधं देवो विधेयादयम् ॥४|| स्वस्तिश्रीवृषभः श्रियं सृजतु स श्रीराज _ _ [सिंहा?]वनीप्राणेशः किल राजपट्टधवलप्रासादशृङ्गध्वजः ।। वर्णं टङ्क _ _ [मितं?] _ _ _ चतुर्थांशेन तैलं च यत्, पूजायै निजपूर्वजैरुपहृतं दत्ते _ _ _ _ _ ॥५॥ जयति वृषभतीर्थनाथः सनाथीकृतानाथसार्थः प्रथापूरपाथोधिनाथः पृथुप्रार्थितार्थार्पणव्यर्थितामर्त्यपृथ्वीरुहः प्रोल्लसन्मङ्गलः शस्यभामण्डलश्रीः क्षमालक्षणः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ प्रस्फुरदक्षिणः साधुविश्वम्भरोऽभीक्ष्णसर्वंसहो मेदिनीमण्डलस्येव संलक्ष्यमाणोऽपि साक्षात् परंकुर्त(?) तादात्म्ययोगात् समग्रस्य चाऽऽधारभूतो जगज्जन्मिनां जीवनं पावनं पङ्किलानां पुनः सर्वदा नीरजोपायकारी महासाधनं चाऽपि पुण्यौषधीनां सुसीमामृतात्मेव यादोनिवासः परं नैव कीलालमुच्चैस्तदीयैकसारूप्यतः कृत्स्नकृष्णापहारी प्रतापास्पदं दुस्तमःस्तोमहन्ता निवासो वसूनामविस्पन्दनं दुर्दशद्वीपिदृग्भिर्दुरालोकनीयो बृहद्भानुवन्नो परं कृष्णवा कदापीषदन्विष्यमाणोऽपि किन्तु प्रकाशप्रभूष्णुर्भृशं दैत्यदेवाभिधेयो जगत्प्राणभूतो महावीर्यवर्यो प्रबद्धाभिचर्यात्मको मातरिश्वेव नैव द्विजिह्वप्रियो भञ्जनो नाऽपि नैवाश्रयाशस्य साहायिकं सन्दधत् स्पष्टमुट्टड्क्यमानः सुखस्पर्शसम्पादनत्वाविनान्योपकाराय माकन्दरूपः स्फुरत्केशरोऽशोकरागः सुजात्यप्रियालातिभावोऽतिमुक्तः सदा श्रीफलस्फारपुन्नागपथ्यास्थितिभूमिरुड्जातिवन्नो पलाशी कुजातिर्जडो नाऽपि नाऽचेतनस्तत्सजातीयभावेन नु च्छाययाऽऽह्लादयन् मेरुवद् भूमिमध्यस्थवर्ती सदापारिजातः प्रकृत्या सुवर्णाश्रयश्चूलयाऽलङ्कृता भद्रशालस्थितिस्सन्महानन्दनः श्रीविनीताधिवासीव विद्याविलासः सुपर्वास्पदं वंशवद् विस्तरद्धर्मकर्माधिकारी द्वितीयाश्रमस्थायिवन्नाभिजातो विधातेव कल्याणनामार्जुनस्येव चाऽष्टापदावाप्तसिद्धिः क्रियासिद्धसत्पारदस्येव मृत्योविजेता वृषाङ्को गणेशाच॑पादारविन्दः शिवो भूतभर्ता महातेजसो हेतुरीशानवत् कौशिकप्रीतिकृत्पुण्यपाथोधिनाथप्रवृद्धरसाधारणं साधनं कौमुदीकान्तवत् शान्तचेताः सतां दृक्चकोरीकिशोरीसमुल्लासलेलिह्यमानोल्लसच्चन्द्रमश्चन्द्रिकाचारुनिर्यासरूपस्फुरद्रूपलावण्यधाराप्रसारैकभृङ्गारसारायितस्फीतमूर्तिजगद्भाण्डकुक्षिम्भरिक्षीरनीराकरक्षीरपूरप्रतिस्पर्द्धिकीर्तिधुरीणो धराधीश्वराणां युगादौ पुरोगोऽपि योगीश्वराणां समग्रासुमन्मण्डलस्याऽभिगम्योऽन्तरङ्गारिघोरोपसर्गारिवर्गस्य भीमः स्वगोभिर्नभोरत्नवद् भासयन् भव्यराजीवखण्डं कृतक्रोधयोधावरोधो गलद्विक्रियः सक्रियोऽपि प्रजोपक्रियाव्याकृतालङ्क्रियातर्कसाहित्यशब्दानुशास्तिप्रमाणागमौचित्यवादित्रनृत्यक्रियामन्त्रयन्त्रादिनिःशेषलोकव्यवस्थः पथि प्रस्थितः श्रेयसो मन्मथादित्यसून्माथसामर्थ्यपार्थो जनुर्विलसाकालधर्मव्यथादुःस्थितान् प्राणिसार्थान् सदा सुस्थितान् कर्तुकामः पयःपुष्करावर्तपाथोदवन्माथिमन्थाचलोन्मथ्यमानाधिकक्षुभ्यदम्भोधिवद्धीरगम्भीरनिर्घोषया सर्वभाषाविशेषाहितोल्लेखयाऽनुष्ठितप्रष्ठपीयूषपेयारसोत्कर्षसंघर्षया भाषया भाषयामास नैर्ग्रन्थगार्हस्थ्यपन्थानमुत्थापितानेकदुस्तीर्थिकग्रन्थयूथं कृपामन्थरो यः प्रभुस्तं महाराणकं राणपुर्याः चतुर्वक्त्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ चैत्यैकचिन्तामणीकं मनःकोशदेशे निवेश्याऽऽदरात् ।। इति श्री जिनवर्णनप्रथमचरण:(णम्) । यदिह विपुलवीचिमालीयवेलामहेला विलोलोमिमाला प्रलम्बोल्ललद्वाहुनाला सहेलाऽङ्कपालीयितप्रौढशालाऽनुकूलप्रियं चण्डवातूलयो_यिता चण्डरोचिश्चलन्मण्डलभ्रान्तिदापाण्डुरोद्दण्डपिण्डीरपिण्डानुषङ्गप्रसङ्गादनायाससंजायमानस्फुरद्रौप्यभृङ्गारशृङ्गारवप्राचलोपत्यकाभित्तिभागं सलीलानुवेलागमद्वार्धिवेलाजलोल्लोलकल्लोलसंसिक्तसङ्कीर्णताकीर्णचूर्णिप्रवालाङ्करानेकमुक्तामणीसप्तपर्णीवराटीकणश्रेणिकाचूर्णपूर्णीभवद्वालुकापेशलोत्तालवप्रावनीप्राङ्गणं निम्ब-जम्बीर-जम्बू-कदम्बप्रियङ्गच्चमालूर-हन्ताल-कक्कोल-ताली-तमाल-प्रियाला-ऽऽम्र-कालेय-पुन्नागनारिङ्ग-नागागुरु-श्रीफलैला-लविङ्गा-र्जुना-ऽशोक-कोशातकी-केतकी-सल्लकीधातुकी-यूथिका-मल्लिका-जाति-वासन्तिका-जातिकोशा-ऽभया-मातुलुङ्गेङ्गदीगोस्तनी-सिन्दुवारा-ऽतिमुक्ता-ऽञ्जना-ऽम्लातका-ऽश्वत्थ-ताम्बूल-वल्ली-शिवाकेसरोसीर-पूगादिनानावनीजन्मवल्ल्यौषधीवीथिमत् पौरपौरीपरीहासवासोचितारामरम्योपकण्ठप्रदेशं झरन्निर्झराद्रिप्रतिच्छन्ददानाम्बुधाराप्रवाहोग्रदन्ताबलग्रैवघण्टाटणत्कारनिर्धाटितप्रत्यनीकावनीनायकानीकिनीकं स्रवन्तीपतिः स्वेन विष्टभ्य तिष्ठत्यपाच्यां यदन्यासु काष्टासु सर्वासु वेलाजलापूर्णखात्याऽभितोऽपारसंसारसारेन्दिरामन्दिरं मानसान्तर्विमृश्येव मन्ये तरङ्गिण्यधीशेन रङ्गत्तरङ्गैरनुष्ठीयमानोपकण्ठप्रतिष्ठाननाट्यप्रियप्रौढलिङ्गाम्बुधाराभिषेकक्रियाराधकाधीयमानातिसाधारिकाविश्रमं यस्य पौरन्दरीपूर्तसारूप्यमाप्नोति यदानवारिव्रजस्तत्र चाऽऽस्ते गुरुः केवलं गौरवार्हः सुराणामिहत्यस्तु लोको घनो दानशौण्डो गुरुर्दानवैर्मानवैर्दैवतैर्वन्दनीयः पुरी नाऽऽसुरी याऽपि यस्मात् सुपर्वीद्विषस्तत्र यत्राऽखिलः पर्वपुण्यप्रवीणो जनो नागराजस्य पूर्नाऽपि येन द्विजिह्वाधिवासा हि सा संनिवेशेऽत्र पैशुन्यलेशोऽपि नाऽऽस्ते न लङ्काऽपि लङ्काधिराजेन राजत्वती याऽपि तस्यां निवासी निशाटः पलादोऽखिलः कर्बुरः क्रूरकर्माऽत्र साधर्मिको धार्मिकः शुद्धबुद्धिविधेयो विधिज्ञो धनी धीरसन्धः कृती सत्यवक्ता परार्थप्रियः पात्रवप्ता कृपालुः सुशीलः सलीलः कृतज्ञः क्रियासुप्रतिज्ञो विगानानभिज्ञः समज्ञारसज्ञः शुचिः कोमलालापकेलिः कुलाचारशाली कुलीनः कलाधामकैलाशशैलाधिवासाऽलका यस्य लीलाप्रकाशाय नाऽलं ह्यमुष्यां समुद्रो न नेता परं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ किंनरो गुह्यकेशः कुबेरोऽत्र धात्रीधवः क्षत्रियः सच्चरित्रः पवित्रश्चरीकति राज्यश्रियं विक्रमादित्यवद् विक्रमी विक्रमादित्यराजा यदभ्रंलिहादभ्रनभ्राड्गमाभ्रौघशुभ्रप्रभाविभ्रमभ्राजमानाप्तभट्टारकौक:पताकालुलत्तालवृन्तानिलोद्वास्यमानोष्ममाध्याह्निकामर्त्यमार्गाध्वनीनं क्वचिन्म माणिक्यवैडूर्यरक्ताङ्कमुक्तामणीमालिकाग्रन्थनव्यग्रमाणिक्यवित्पाणिचक्रं क्वचिद् गीतनृत्यौचितीचञ्चुचन्द्राननाचारुचेक्रीय्यमाणोच्चकैश्चर्चरीरीतिनृत्यप्रपञ्च क्वचिच्चण्डपाण्डित्यभाण्डावितण्डोक्तिवित्पण्डिताखण्डलैर्मण्डलीमण्डितोद्दण्डवाक्ताण्डवाडम्बरम् । __ विमलसलिलवापिकाकूपकासारकुल्यादिनीराशया गच्छदागच्छदिन्दीवराक्षीमिथःसंकथामाल्यबन्धावनद्धार्यचर्यावदाचार्यहर्यक्षचातुर्यगाम्भीर्यधैर्यक्रियाकाण्डसंवेगसौभाग्यभाग्यादिनानागुणालीप्रसूनं विहारोल्लसद्वैजयन्तीरणत्किङ्किणीनिक्वणाकर्णनाच्चन्द्रशालाशरद्रात्रिविश्रान्तवैदेशिकाकस्मिकस्वर्विमानागमभ्रान्तिमातन्वति श्रीमदाराध्यपादांहिपाथोजकिञ्जल्कपुञ्जातिपावित्र्यशोभाभृते तत्र राजन्वति श्रीमति श्रीत्रयोविंशतीर्थेशमूर्तित्रयेणेव लोकत्रयीत्राणकृच्छातकुम्भीयकुम्भाङ्कितो यद्विहारो यदीये सदेशे त्रिकोशेन व(वि)न्ध्याचलोपत्यकाप्राग्वसद्राणपूर्भूमिरम्भोरुभालस्थलस्थूलमुक्ताफलव्योमकूलङ्कषावीचिविक्षोभकर्मक्षमोदग्रदण्डस्फुरत्पट्टिकोपात्तविश्रान्तिनित्याटनश्रान्तनक्षत्रवृन्दद्युसद्मालयारोहणारोहणश्रेणिकारूपसोपानराजीविराजच्चतुर्दिक्प्रतोलीचतुर्भद्रविंशन्महामण्डपाधित्यकोर्वीत्रयीतोरणस्तम्भभूमीगृहोद्यच्चतुष्कोणिकाचङ्गशृङ्गाङ्किताशीतिसङ्ख्यानिकाहत्कुटीव्यूढवातायनप्रौढपाञ्चालिकाधातुपाषाणरूपाप्रमाणानणीयःकनीयःस्वयम्भूप्रतिच्छन्दकानन्दिनन्दीश्वरद्वीपशत्रुञ्जयाष्टापदार्हत्सहस्राढ्यकूटोज्जयन्ताचलश्रीसमेताद्रिसत्सिद्धचक्रादिनानाप्रकारोरुपट्टः सदाबाललम्बालवालान्तरालोरुराजादनः पद्मिनीगुल्मसंज्ञाविमानप्रतिज्ञातकेलिस्त्रिकालज्ञधर्मावनीपालधामाऽधुनावर्तमानप्रधानार्हदावाससामन्तभूपावलीचक्रभृद्विष्वगामोदमेदस्विमाकन्दमालावलीढः स देवाधिदेवादिदेवावतारो विहारो विभाति प्रजापावनं तातपादाभिवादैकपारायणश्रावकश्राविकानेकलोकोद्धरात् सप्तपर्णीपुरात् प्रेरितः प्रेममित्रेण सम्बोधितः शुद्धबोधप्रधानेन नीतिज्ञतां वै विनीतोऽन्तरङ्गानुरागेण सन्धीरितो धीरबुद्ध्यम्बपालीककोशीकृतोत्तानपाणिः शिशुर्दर्शनो विप्रदीप्यज्जयेत्यग्रवर्त्यक्षरो दक्षजानन्दनाक्षिप्रमावर्तवृद्धप्रणामात् प्रणनम्य सम्यक् प्रणम्रोत्तमाङ्गः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २०१३ प्रविज्ञापयत्यत्रवर्तित्वजन्यं यथा कुम्भजित्कुम्भिकुम्भोद्भवेनेव सिन्दूरपूरेण ताम्यत्तमस्तोममातङ्गनिस्तर्हणप्रोच्छलच्छोणितेनेव शोणान् सहस्रं करान् भास्करो यो बिभर्ति स्म तस्मिन्नवाप्तोदये पद्मिनीप्राणभूते प्रभाते भवत्स्वस्तिकादिप्रभायां भृशं तत्ववेत्रिभ्यसभ्यौघविभ्राजितायां सभायां भवत्यन्वहं वाचना सूत्रमात्रैव षष्ठाङ्गसूत्रस्य सूत्रार्थतश्चाऽऽदिमाङ्गस्य चम्पूकथारम्भसिद्ध्यादिकाधीतिरित्यादिकं कर्म धर्म्यं क्रमोपेयुषि प्रोषिताशेषषट्कायदुःखे सुखे वार्षिके पर्वणि प्राणिसङ्कल्पकल्पद्रुकल्पागमव्याकृतिर्नन्दलक्ष्यक्षणा सक्षणा चाऽष्टघस्रावधि प्राणिसंरक्षणा प्रार्थकप्रत्तसद्दक्षिणा पत्रिनेत्रैकविंशद्वयीषोडशोद्यद्दशाष्टाहिकापक्षषष्टाष्टमादिश्रप्रसर्पत्तप:क्लृप्तदुष्कर्मनिस्तर्हणा स्नात्रसप्तैकभेदप्रणीतार्हणा साधुसाधर्मिकाध्राणकृत्पारणाऽऽडम्बरस्पष्टचैत्यप्रपाट्यादिपुण्यक्रियोत्सर्पणा निर्व्यवायं बभूव प्रभूणां प्रभावप्रथिना परम् । ९१ भुवनगगनमण्डपो मण्डनीयोऽन्वहं खण्डनीयं तमस्काण्डमुद्दण्डपाखण्डजाड्यं चयैश्चण्डरोचिः प्रचण्डप्रतापैः प्रकाश्यं च राजीवखण्डं विधेयो जगज्जीवलोके प्रबोधस्सदाऽऽशामुखानां प्रदेयः प्रसादः प्रणेयो घनो मेघसङ्घातसंजातसादा(दो?) निवेश्यः समुल्लास उच्चैस्तरामार्यचक्रे निशाटेष्वटाट्यानिषेधोऽभिधेयोऽपदेश्योऽपि दोषोद्गमो विग्रहध्वंस आपादनीयो रसप्रौढिमापोषणीयः, पृथिव्यां यदीयं यशः कुन्दकैलाशकर्पूरपीयूषपारीन्द्रमुक्तालताकौमुदीदेवदन्तीन्द्रदुग्धोदधिस्पर्द्धिसिद्धापगासीम्नि सिद्धाङ्गनोद्गीयमानं समाकर्णयन्नुच्चकर्णं तदास्वादनासादितातीवसातत्यसौहित्यपूर्तिः परित्यक्तनानानलाद्यङ्करास्वादनस्तुन्दिलो नाऽभवन्मामकीनोदरक्रोडवर्ती मृगः स्तोककश्यामिकाहेतुरित्याशया श्वेतरश्मिर्महोपक्रियाप्रत्यनुष्ठानकामी मुखाम्भोजभूयं समुद्भाव्य भट्टारकानेष संसेवते नित्यमित्यूहति प्राज्ञवर्गो, नियोगोऽप्यहो पद्मसूनोर्वियोगोऽप्यहो दुर्निवार्यान्तरायस्य योगोऽप्यहो सन्मुहूर्तक्षणस्योपयोगः प्रयोगोऽप्यहो देवसूरीशितुस्तत्कराम्भोरुहस्याऽभियोगोऽप्यहो सङ्घभट्टारकस्याऽनुयोगोऽप्यहो सर्वसिद्धान्तदुग्धोदधेर्भाग्यभोगोऽप्यहो. सम्यगेषां हि येषां क्रमाद्येषु गच्छाधिपत्यैकसाम्राज्यलक्ष्मीर्यतोऽनेन निर्धारिताऽपेयुषी नाऽपि रुद्धा त्वराऽऽह्वायिताधेयभावावबुद्धा प्रतिष्ठापिता पूर्णवित्तव्ययाडम्बरो निर्ममे संनिधानीबभूवे यकेषां करः प्रस्फुरद्दक्षिणो धीरधर्मोपदेशक्रमे कल्पवल्ल्याः किमु प्रोल्लसत्पल्लवः कल्पनादानशौण्डः शिरोनेमुषां धर्मलाभाशिषं व्यञ्जयन् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क पर्षदो दीर्घिकायाः प्रभुज्योतिरम्भोभृताया इवाऽम्भोरुहं दर्पण: किं नु दीक्षामृगाक्ष्याः त्रिलोकीजन क्षेमयोगक्षमस्येव धर्माधिपस्याऽऽतपत्रं जय श्रीपताकेव कन्दर्पवीरप्रभुष्णुप्रभूणां प्रदीयेत केनोपमा यच्छशाङ्कः क्षयी भास्करस्तापकारी हरो मुण्डमालामिलन्नीलकण्ठः सुपर्वप्रभुर्गोत्रभित् कैटभारिः स्फुटं कूटतानाटकी विश्वरेताः कुलालक्रियाकर्मठः स्वर्मणिः प्रस्तरः स्वर्द्रुमोऽचेतनः कामधेनुः पशुर्भव्यभावा अमी भाव्यमानास्फुटादीनवा एवमेवं गुणश्रेणिकामल्लिकाननैः पूर्णचन्द्राननैः पूज्यपञ्चाननै: सौवशारीरिकस्वास्थ्यवृत्तान्तपत्री प्रसाद्या शिशोः प्रीतये यज्जने जीवितालम्बनं दूरदेशस्थितस्ये (स्यै) तदेव प्रणामोऽवधार्यस्त्रिसायं शिशोः सोऽपि चाऽनुप्रणामः प्रसाद्यः परेषामृषीणां समासेदुषां संनिकर्षं सपाण्डित्यलक्ष्मीकलक्ष्मीयशोराशिभास्वद्यशोरम्यरामप्रथावद्धनप्राज्ञचूडामणीनां सतत्त्वर्द्धितत्त्वस्फुरत्सत्यसुप्रेमसौभाग्यहेमादिकानां गणीनां विराजज्जयेत्यग्रवर्णद्वया नामिहत्यास्सुमाणिक्यलक्ष्मीक्षमाकृष्णशान्तिस्थिरस्थायिरासादयः साधवः स्वामिपादानमाऽत्रत्यसङ्केन नित्यानघेनाऽभिवन्दन्त आद्यैर्मयि प्रेम कार्यं हितं चोचितं चेतितव्यं जिनेशप्रणामक्षणे स्मार्य ईशैः शिशुस्सह्यमस्मिन्नसभ्यं यदि स्यान्महादण्डकोद्दामपर्णश्रियः पर्णमात्मीयकर्णावतंसीक्रियासुः स्वयं स्वामिन: प्राप्तमेतत्प्रपूर्ति प्रदीपालिकायामिति स्वस्तयः ॥६॥ - खण्ड २ प्रतिचरणमक्षराणां, नवनवतियुतानि नवशतानि स्युः । स महासमुद्रनामा, दण्डक उदयश्रियं दद्यात् ॥ इति श्रेयः ॥ Jain Educationa International [बहारना भागे - ] ॥ पूज्याराध्य ॥ सकलभुवनजनाभिनन्दनीयाभिरामनामधेयभागधेयाप्रतिरूपरूपधेयभट्टारकश्री१०६श्रीविजयप्रभ पं. दर्शनविजयग. पं. सिंघसत्कलेखदण्डक १-९९ -x For Personal and Private Use Only मुनिश्री धुरन्धरविजयजी - सङ्ग्रहगत Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ (१४) जीर्णदुर्गस्थ -श्रीविजयप्रभसूरिं प्रति सादडीनगर तो श्रीमेरुचदमुने: पत्रम् स्वस्तिश्रीसदनं जिनेशवदनं स्तौम्यन्वहं सुन्दरं; पापध्वान्तरविं सुखप्रदर्काविं सर्वैनसां ध्वंसनम् । वाञ्छादानसुपर्वरत्नसदृशं श्रीपार्श्वनाथार्हत: (त) आदेयाह्वयमिन्दुतुल्यमहसं सूर्याङ्गसंमिश्रितम् ॥१॥ स्वस्तिश्रिया (यं) यच्छतु पार्श्वनाथो दशावतारोऽञ्जनतुल्यकायः । कृष्णः किमाछोटितमुक्तनागः ( ? ) ॥२॥ स्वस्तिश्रियो भेजुरमुं जिनेन्द्रं, जिनाभिधं श्यामतनुं विचिन्त्य । आस्यादिपानीयरुहान्वितं च वामेयमर्हत्प्रभुमागमेशम् ॥३॥ श्रेयोदगिरं प्रणमज्जनतं, कन्दर्पहुताशनशान्त्यमृतम् । देवेन्द्रनरेन्द्रमुनीन्द्रनुतं, वामातनुजं प्रणमामि मुदा ||४|| पञ्चतत्त्वमयं पञ्च-वर्णात्मकममुं जिनम् । पञ्चपरमेष्ठिरूपं, पञ्चभूतस्वरूपकम् ॥५॥ प्रोक्तमागमविद्यायां, स्वरूपं यस्य चाऽर्हतः । नागादिविषहर्तृत्वं तं वन्दे पार्श्वतीर्थम् ||६|| स्वस्ति श्रीनिकराचितांहिकमलं श्रीपार्श्वनामाधिपं, सेवे सर्वत एव वाञ्छितलसद्दानैकचिन्तामणिम् । भव्याम्भोजविबोधनैकतरणि कन्दर्पवृक्षद्विपं, द्वीपाभं भवनीरधौ जनमहाकष्टच्छिदं नित्यशः ॥७॥ एनं श्रीमन्तं श्रीमन्तं श्रीवामेयममेयमहिमानं सहस्रधामानं प्रणतिउ (त्यु) दयाद्रिशिखरारूढ (ढं) विधाय श्रीध्येयपादपाविते श्रीमति तत्र सादडीनगरतो धरणीतलमिलन्मौलिः संयोजितकरकमलकुड्मलो मेरुचन्द्रस्सविनयं सप्रणयं सोल्लासं सहृल्लेखं त्रिगुणद्वित्वकरणप्रमितावर्त्तवन्दनेनाऽभिवन्द्य यथाविधि विज्ञप्तिपत्रमुपदीकुरुते ॥ Jain Educationa International ९३ For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क खण्ड २ यथाऽनन्यथासिद्धञ्चात्र प्रातस्सभायां सराजप्रश्नीयस्वाध्याय श्रीशत्रुञ्जयकल्पवृत्तिव्याख्यानप्रभृतिधर्मकर्मणि प्रवर्तमाने क्रमागतं श्रीवार्षिकपर्वाऽपि महामहोत्सवपूर्वकं निरस्तप्रत्यूहव्यूहं समजनि श्रीमत्पूज्यपरमपूज्यनामधेयमहामन्त्रस्मरणकरणानुभावतः । अपरम् - सूरीशो बहुसूरिवृन्दमुकुटायेत प्रभो ! भाग्यवान्; पुण्याढ्यप्रतिमस्तपागणपते (ति: ? ) बुद्ध्या समर्तुगुरो (समः स्वर्गुरो: ? ) । गां भ्रान्त्वा सकलां स्वशासनवतीं राज्यं स्थिरं स्थापयेः; गीतार्थान् बहुश्रावकान् दृढमतीन् धर्मे भवेदुन्नतिः ||१|| बुद्ध्या जितदेव - गुरुर्मुनिप: (प!), दूरीकुरु संशयमत्र जने । वीरेण यथा प्रतिबोधितकाः, विप्राः शतवेदसुवेदमिताः ॥२॥ भव्यलोको गुणग्राम- रञ्जितो सूरिईशितुः । इन्द्रस्य कुण्डलद्वैतं, सूर्येन्दुमिषतो ददौ ||३|| सूरीश्वरः श्रीविजयप्रभः स्याद्, भव्याङ्गिनां वाञ्छितभूरिलक्ष्म्यै । मुखप्रभानिर्जितपद्मकान्तिः, सुवर्णवर्णो गजराजवीङ्खः ||४|| शीलोपमानीकृतयक्षिकानुजः, बुद्ध्या समानीकृतवज्रनाथ: । क्रियानुमानीकृतसज्जगद्विधु [:], सूरिश्च पूर्वार्यसमस्त्वकं प्रभो ! ||५|| इष्टं नभोब्जगुणितं द्विजपेन युक्त-मष्टाहतं शरहतं शरबाहुभुक्तम् । शेषं वसुघ्नमथ जीव समेतवर्षैः श्रीसूरिराज ! परिपालय साधुवर्गम् ||६|| ९४ " यथा स्यादुद्गते सूर्ये, नभसि भ्रमति ध्रुवम् । तमोध्वंसः श्राद्धवर्गे, तथा त्वयि तपागणे ||७|| सूरीश्वरः श्रीविजयप्रभश्च यथार्थनामो विजयप्रभः स्यात् । श्रिये जनानां विदितागमार्थः, समः क्रियायां तपसि प्रभूणाम् ॥८॥ व्याख्यारञ्जितभव्यलोकनिकरस्तन्नन्दिषेणोपमः; भव्यानां भवनीरधिप्रतरणे पोतायमानोऽनिशम् । त्वं जीया मुनिनायकस्त्वदभिधाजप्तुर्नरस्य ध्रुवं, विघ्नध्वंस इवाऽभवद् भुवि सदा साक्षाच्च कल्पद्रुमः ॥९॥ तं वन्दे मुनिनाथं, प्राक्सूरिव्यूहतुल्यगुणनिकरम् । बहुशास्त्रविदिततत्त्वं पञ्चाचारक्रियाप्रवणम् ॥१०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ आवारकं वारितवानशेषं, सयत्नरत्नत्रयीशीलनेन । मिथ्यात्वमुख्यांश्चतुरोऽपि हेतूम(न्), समूलमुन्मील्य मुनिप्रभो ! भो ! ॥११।। त्वदर्शनं वाञ्छति भव्यलोको, यथा मयूरोऽत्र पयोमुचः किम् ? । यथा चकोरो ग्रहनायकस्य, रेवाङ्गजो वाऽथ फलात् रसालम् ॥१२॥ इत्थं स्तुतः श्रीविजयप्रभप्रभुः, प्रभुर्मुनीनां जगति प्रतीतः । चतुर्विधे धर्मगणे यथोदयः, तपागणे नाम तथा विधेयम् ॥१३॥ ___ एवमौदार्यधैर्यगाम्भीर्याद्यनेकगुणगणनिकरैः रञ्जितानेकनगरनागरप्रकरैः अनेकलब्धिदत्तवाञ्छितशङ्करैः शिवकरैः क्षेमकरैः स्वकीया(य)मनीषासमानीकृतद्वादशपादैः सकलभव्यलोकाज्ञानध्वान्तनाशनसहस्रपादैः वदनमरीचिसमानीकृतहिमपादैः सदासुप्रसादैः कृतमहाप्रसादैः श्रीवन्धपादैः सौववपुःपरिकरनिरामयतादिसमाचारसूचिकपत्रीमरालबालिका सद्यः प्रसद्य प्रसाद्या । तथा सांवत्सरिकक्षामणापूर्वं मदीया नतिरवधार्योपवैणवम् । तथा तत्रत्य महोपाध्याय श्रीविनीतविजय ग., पं. आनंदसागर ग., पं. धनविजय ग., पं. जसविजय ग., पं. रविवर्द्धन ग., ग. तत्त्वविजयप्रभृतीनां नत्यनुनती प्रसाद्ये । तथाऽत्र ग. लावण्यचन्द्र, मु. सुखचन्द्र, मु. रतिचन्द्र, ऋ. रासाप्रमुखाणां नतिरवधार्या । तथाऽत्र सकलसङ्घस्य नतिरवधार्या । तथा मदुचितं कृत्यं प्रसाद्यम् । तथा कृपावल्लीवितानवृद्धि घनाघनायितव्यं चेति भद्रम् ॥ कार्तिक व. ११ शुक्रे । ॥ पूज्याराध्य- ध्येयत(म)-सकलसकलभट्टारकभट्टारकवृन्दवृन्दारकविभुभट्टारकश्री १७ श्री विजयप्रभसूरीश्वरचरणसरसीरुहाणाम् जीर्णदुर्गे इयं विज्ञप्तिः ॥ -X ला. द. विद्यामन्दिर, अमदावाद सू. ४३४१३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ (१५-१६) महोपाध्याय-श्रीयशोविजयगणिलिखितं लेखद्वयम (१) वर्गवटीनगरे श्रीविजयप्रभसूरि प्रति प्रेषितं पत्रम् स्वस्तिश्रीमान् गुरुरपि कविप्रेमपात्रं प्रकामं भर्ता भासामपि कुवलयानन्दतत्त्वैकनिष्ठः । वर्णातीतस्थितिरपि च यः सर्ववर्णाश्रमेभ्य स्तं त्रैलोक्यप्रथितयशसं स्तौमि तीर्थेशमाद्यम् ॥१॥ स्वस्तिश्रीमान् सुचिरमचिरानन्दनः सोऽत्र नन्द्यात्(द्) यत्पादाब्जं प्रणतदिविषन्मौलिमाणिक्यकान्तिः । उत्सर्पन्ती दिवि दिनकरोत्सङ्गरङ्गप्रसङ्गा कालिन्दीव स्फुरति रतिदाऽऽलोककानां जनानाम् ॥२॥ स्वस्तिश्रीमान् जयति जगति क्षुब्धदुग्धाब्धिवेला हेलाघातस्फुटितविततव्यक्तशुक्तिप्रसूतैः । मुक्ताजालैर्निजरथपतत्तृप्तिहेतोर्विधात्रा सोढः प्रौढः किमपि गहनः शङ्खनादः स नेमेः ॥३॥ स्वस्ति श्रीमान् नतफणिफणस्फारकान्तिप्रतानै र्यो दिक्कुक्षिम्भरिभिरभितो ध्वान्तमुच्चैभिनत्ति । तं श्रीमन्तं कमठशठताव्यापशैलैकवर्ज़ __ तेजस्तीव्र(व) दधतमतनूत्साहभाजो भजामः ॥४॥ स्वस्तिश्रीभिर्विशाले चरमजिनपतौ विश्वपाले कृपाले धाम्ना बालेऽप्यबाले जयति सुरकृता पुष्पवृष्टिः सुभाले । वेताले सप्तताले भू(धृ?)तवपुषि मुहुर्दत्तताले कराले दर्पोत्तालेऽत्यराले ददति पविसमां मुष्टिमत्राऽन्तराले ॥५॥ अथ प्रत्यादेशा विलसदुपदेशा विदलित स्मरावेशा देशान् निजपदपवित्रान् विदधतः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २०१३ शुभोद्देशादेशात् कुनयगहने शातनकृतो जिनेशाः क्लेशान् वः सपदि दलयन्तूज्ज्वलगुणाः ||६|| सहस्रांशोजैत्रं यदुरुगुणबोधेन तमसः पुरस्तादस्ताघं किमपि लसति ज्योतिरमलम् । तदार्हन्त्यं सत्यस्थितिपदमदंजं (म्भं ?) भवभय प्रणाशि प्रोन्मादोन्मथनमथ चित्ते प्रणिदधे ॥७॥ सहजमलदिदृक्षावासनाजन्मबीज- प्रकृतिविकृतिमायादृष्टमुख्यैः पदौघैः । यदभिहितमतन्त्रं नाशने तस्य तन्त्रं, जयति जिनपतन्त्रं सर्वतन्त्रप्रतिष्ठम् ॥८॥ सद्यः सारस्वतोद्गार-सुधासारोपबृंहितान् । विनिर्माय नमस्कारान्, भूयस्कारान् वृषश्रियः ॥९॥ ॥ इति श्रीदेववर्णनम् ॥ ९७ अथ नगरवर्णनम् । तत्र प्रथमं वर्गवटीनगरी वर्ण्यतेया स्वर्गवाटी किल सत्फलर्द्धिर्विश्वोपकाराय कृता विधात्रा । वात्सल्यतस्त्वेष जनोऽभिधत्ते यां वर्णमात्राच्युतकेन मन्ये ॥१०॥ या वेधसा नूनमकारि लङ्काऽलङ्कारसारं सकलं गृहीत्वा । इतोऽपमानात् किमु सा न झम्पासम्पातमब्धौ सहसा ततान ॥ ११ ॥ पुनाति यां वै श्रमणाधिराजो न्यासैः पदाब्जस्य जनौघवन्द्यैः । कुतोऽधिका वैश्रवणाश्रिता स्यात्, तस्याः सकाशादलकाऽधिकारैः ? ॥१२॥ यदर्हदुच्चस्फटिकालयानां, कैलाशशैलाधिकवैभवानाम् । तुल्योपभोगाय समायकाय - व्यूहश्रियं वाञ्छति वामदेवः ||१३|| यदीयचैत्यालयतुङ्गशृङ्ग-वेल्ल [द्] ध्वजप्रान्तकशाभिघातैः । अनूरुविश्रामसुखं दिनेश - तुरङ्गमालस्यनिवारणात् स्यात् ॥१४॥ तस्यां श्रीवर्गवट्यां पुरि दुरितशतध्वंसकृत्पूज्यपादप्रत्यासत्तिप्रसङ्गोपनतततमहोल्लासशोभाभृतायाम् । तारुण्याम्भोधिवीचिप्रचयपरिचितैः पक्ष्मलाक्षीविलासै रम्भासौभाग्यभङ्गीसरससुरपुरीगर्वसर्वङ्कषायाम् ॥ १५॥ ॥ इति श्रीवर्गवटीनगरवर्णनम् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ अथ श्रीराजनगरवर्णनम् - न्यासभाजनमभङ्गमहो यविष्टपत्रितयसारभरस्य । नो सुरासुरकृतं परचक्रौपाधिकं च भयमस्ति हि यत्र ॥१६।। रत्नभाग इव तज्जलराशेर्योगिपीतपयसोऽस्त्यवशिष्टः । यत् प्रकृत्युपनतादतिदेशन्यायतो हि विभवोऽस्ति परत्र ॥१७|| भोगिनां भोगसर्वस्वहेतुर्यत्सम्पदां पदम् । योगिनां योगहेतुश्च द्रव्यतो लूक्षचर्यया ॥१८॥ तस्माच्छ्रीराजनगरान्नगराजिविराजितैः । अभ्रंलिहैऍहैश्चित्तचमत्कारसुरद्रुमात् ॥१९॥ संयोजितकरद्वन्द्वो विनयोल्लासभासुरः । उदञ्चत्पुलकः प्रेमप्रारभारापूर्णमानसः ॥२०॥ द्विघ्नतर्कमितैः सम्य-गाव॥रभिवन्द्य च । विज्ञप्तिं तनुते शिष्यो यशोविजयसञ्झकः ॥२१॥ यथाकृत्यमिह प्राची, विभूषयति भास्करे । सभायां परिपूर्णायां, जायते धर्मदेशना ।।२२।। व्याख्यातो धर्मबिन्दुः प्राक्, सुधानिस्यन्दसुन्दरः । उपदेशपदव्याख्या, जायतेऽथ श्रवःसुधा ॥२३।। स्वाध्यायो नियतः कण्ठात्(द्), द्वितीयाङ्गादिगोचरः । न्यायादिपाठनप्रौढि-विचारस्य प्रचारणा ॥२४।। उपस्थिता अपि ध्वस्ताः, प्रत्यूहास्तु परःशताः । उपायैः प्रबलैर्वातै-र्घनाघनघटा इव ॥२५॥ अस्तो विपरिणामश्च, प्रतारणकृतो नृणाम् । महापर्वाऽपि नीतं च, प्रौढिमेवं क्रमागतम् ॥२६।। छन्नप्रकटभावेन सर्वः सत्यः(त्या)पितो विधिः । सर(म)यान्न मया किञ्चि-दविरुद्धमपहृतम् ॥२७॥ देवे गुरौ च कल्याणीभक्तेर्व्यक्ते श्रुतोद्यमे । न मे क्रमेलकखलारुच्याऽभूत् काचन क्षतिः ॥२८॥ भक्तिर्भागवती हेतुः, श्रेयःकर्मण्यमूदृशि । श्रीमतां पूज्यपादानां, प्रसादश्च शुभोदयः ॥२९।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ अपरमथ श्रीविजयप्रभसूरिवर्णनम् । तत्र हस्त एवाऽष्टकेन वर्ण्यते - यावतां समुपगृह्य गुणांशान्, यत्तनुं शतधृतिः प्रणिनाय । शङ्खवज्रमकरादिकलक्ष्मा यत्करः स्फुरति तावदुपेतः ॥३०॥ यत्करः स्फुरति रोहणशैलो रत्नभूरिति न चोद्यमिदं नः । नामतोऽपि किल येन सुरत्नं, स्थापितो विजयरत्नगणेन्द्रः ॥३१॥ अङ्गुलीभिरुदितोज्ज्वलशाखो यत्कर: सुरतरोरवतारः । इष्टदानजनितं सुकृतं यत् _ _ _ _ _ _ तत्परिणामः ॥३२॥ _ _ _ _ _ सुरशाखी यत्करो निखिलभाग्यसहायः । किन्तु तत्र फलदाननियन्ता रक्षिलक्षसम एकनियोगी ॥३३॥ योगिनो भवति वैभवभाजा, यत्करेण विबुधत्वमिहैव । अन्यजन्मनि तथा फलदातुर्योगतोऽपि तदयं बहु मेने ॥३४|| यत्करेण विबुधत्वमुदीतं यच्चतुर्दशगुणार्द्धगुणस्य । अप्यपूर्वकरणादधिकद्धा , तेन चित्रतरलं हृदयं नः ॥३५॥ भालमालय उदारगुणानां, यत्करश्च सुकृतोदयसूची । तुल्यभाग्यविधिसूचकमेतत्, सूत्रभाष्ययुगवद् द्वयमिष्टम् ॥३६।। यत्करौ जनुरवाप यदब्नं, तेन तत्र वसति स्थिरलक्ष्मीः । इत्यदःकलितपृष्टतलानां, प्राणिनां तदुदयः स्फुट एव ॥३७॥ तैरच्छश्रीतपागच्छ-सन्ततिव्रततिद्रुमैः । प्रणतिः शैशवी धार्या, श्रीपूज्यैरुपवैणवम् ॥३८॥ तत्र पं. गंगकुशलगणि, पं. हेमविजयगणि, पं. प्रीतिविजयगणि, पं. शुभविजयगणि पं. विमलविजयगणि, पं. उदयविजयग., ग. सौभाग्यविजयप्रभृतीनां श्रीपूज्यचरणकमलपरिचरणपरायणानामनुपूर्वा नतिः प्रसाद्या। अत्र पं. ज्ञानविजयग., पं. वीरविजयग., पं. सत्यविजयग., पं. भक्तिविजयग., पं. हितविजयग., पं. पुण्यविजयगणि, गणि कान्तिविजय, ग.गुणविजयप्रभृतिः साधुवर्गः पटूभूतमतिवैभवमटूप्रभृतिसाध्वीवर्गः सङ्घश्चाऽनघः श्रीपूज्यपादान् भक्तिभरनिर्भरः प्रणमति । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ विज्ञप्तिः प्राक्कृता सैव, सम्प्रत्यनुवर्त्तते । स्मार्यो विनेयः श्रीपूज्यैः, श्रेयःकार्यविधौ धुरि ॥३९॥ यत् किञ्चिल्लिखितं लेखे, भवेत् झूणं प्रमादतः । तत् क्षन्तव्यं क्षमाधार-क्षमाश्रमणपुङ्गवैः ॥४०॥ मार्गशीर्षेऽसिते पक्षे, दक्षतरदुरासदः । सद्यः पद्यैस्त्रयोदश्यां लेखोऽलेखीति मङ्गलम् ॥४१॥ पूज्याराध्य ॥ सकलभट्टारकसभाभामिनीभालस्थलतिलकायमान-भट्टारक श्री १९ श्री विजयप्रभसूरीश्वरचरणाब्जानामयं विज्ञप्तिलेख: श्रीवर्गवटीनगरे । यस्मात्परत्र न शिखी न च मेघवृन्दं नैवाकरा न निधयो न ही न मो(र्त्यः)(?) नो चन्द्र-सूर्यगतिरस्ति न चोपरागः तन्मानुषोत्तरनगं प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥१॥ महाप्राणे हि निष्पन्ने, कार्ये [च] कश्चिदागते । सर्वपूर्वाणि गुण्यन्ते, सूत्रार्थाभ्यां मुहूर्त्ततः ॥२।। समणीमवगयवेयं', परिहार -पुलायं-मप्पमत्तं च । चउदसपुवी-माहारगं च न कयाइ संहरई(इ) ॥३॥ बावी[स]सहस्री आवश्यकमध्ये ॥ पूर्वगणनं परिशिष्टपर्वणि एकेन पण्डितेनोक्तम् - न तृणानि न तोयानि देवे दिग्विजयाघने (दिग्विजयोद्यते ?) । अपरपण्डितेन - विना त्वदरिवक्त्राणां, तन्नारीनयनानि च ॥१॥ एकं चक्षुर्वरीवर्ति, सूरदासाभिधः कथम् ? । विवेकाख्यं द्वितीयं न, यथोक्तस्य तथैव हि ॥१॥ त्वयि सत्यपि शून्यमेव रे, जडराजन् ! पदमस्ति हि नभः । इति केतुकशाग्रताडनां, ददते यन्निलयाः सितत्विषः ॥१॥ -x Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १०१ (२) शुद्धदन्तनगरे श्रीविजयरत्नसूरि प्रति प्रेषितं पत्रम् स्वस्तिश्रियाऽऽभिंतमनिन्दितमंहिपद्मं, वीरस्य धीरचरितस्य सदा भजामः । मन्ये त्रिपृष्टभववैरनिवारणाय, सिंहो यदङ्कमिषतः प्रणयी सिषेवे ॥१॥ स्वस्तिश्रियाऽऽश्रितमुपैमि जिनं वितन्द्रं, सिद्धार्थपार्थिवकुलाम्बरपूर्णचन्द्रम् । उद्ध्वंदमः किमु तपस्यति नाऽमराद्रि-र्यत्कान्तिसाम्यमिह लिप्सुरुपात्तमौनः ॥२॥ स्वस्तिश्रिये भवतु वीरजिनः स यस्या-ऽङ्गुष्ठाग्रघट्टनवशेन चले सुमेरौ । अन्येऽपि हन्त चलितैः शिखरैर्विवतुः, शैलाः सगोत्रसमदुःख-सुखव्यवस्थाम् ।।३।। स्वस्तिश्रियः किशलयन्तु वनानि विष्वग, वीरस्य धीरिमभृतः करुणाकटाक्षाः । यस्याः फलानि विपुलानि पुलोमपुत्री-नेत्रालिलेह्यसुखमाअनुषङ्गजानि ॥४॥ स्वस्तिश्रियां निधिरितावधिशर्मदाता, त्राता जगत्त्रयजनस्य भवान्धकूपात् । ख्याताऽद्भुतोज्ज्वलगुणः सुकृतस्य धाता, ज्ञातात्मजो भवतु वीरजिनः शिवाय ॥५॥ आस्वाद्य यद्वाक्यरसं बुधानां, पीयूषपानेऽपि भवेद् घृणैव । नमामि तं विश्वजनीनवाचं, वाचंयमेन्द्रं जिनवर्द्धमानम् ॥६॥ स्वर्गे श्रीराजनगरं, जन्माऽऽसादयति स्फुटम् । यन्मूर्त्तिः कल्पवल्लीव, जाता सर्वार्थसाधनम् ॥७॥ अनङ्गसङ्गसङ्गरप्रसङ्गभङ्गमङ्गलं, श्रयन्तमन्तरङ्गरङ्गसौख्यमत्यनर्गलम् । कलङ्कपङ्कवारिदं हृदन्तरे स्थितं सतां,* ... ॥८॥ तमेनमेनसः परं-महो महोमिवर्मितम् । प्रणम्य वीरबोधिदं, त्रिलोकचित्तशुद्धिदम् ॥९॥ ॥ इति श्रीवीरजिनवर्णनम् ॥ अथ नगरवर्णनम् । तत्र श्रीशुद्धदन्तनगरवर्णनम् - सोज्झितं न खलु सम्पदां पदं, स्वोज्झितं यदि कुतः पुनर्ग्रहः । सत्यवाक्यविधयोपचारतः, शुद्धदन्तमिति यन्मयोह्यते ॥१०॥ यत्र सत्रपनितम्बिनीजनो नेति दानविषये न भाषते । भाषते निधुवने प्रियं प्रति, प्रान्तकर्मणि च धर्मकर्मठः ॥११॥ ★ श्लोके चतुर्थः पादो नास्ति - सं. । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ यगृहोन्नतगवाक्षलक्षतः, कामिनीशुचिमुखैर्विनिर्गतैः । लक्षचन्द्रमिव वीक्ष्यतेऽम्बरं, वासरेऽपि विततस्मितच्छविम्(वि) ॥१२॥ ग्रीष्मरात्रिषु यदुच्चवेश्मनां, सुभ्रुवामुपरि कान्तकेलिषु । हारवित्रुटितमौक्तिकव्रजं, स्वीकरोत्युडुधियाऽऽगतो विधुः ॥१३।। मेरुमेकमधिगत्य सत्यतां, स्वश्रियामधिगताऽमरावती । यत्र तैर्बहुतरैजिनालयैः, किं ततोऽपि किल नाऽधिको गुणः ॥१४।। एकमेरुकरणादतिश्रमं, प्राप्तवान् न किमु यत्र मन्यते । भूरिचैत्यगृहमेरुकारिणां, शिल्पिनामधिकसिद्धतां विधिः ॥१५।। विभ्रमोद्धरगतिप्रतिष्ठया, यत्र सम्भ्रमकरान्मदादपि । राजमानवशतो निरङ्कुशा, वारणेन तरुणी न जीयते ॥१६।। तत्र श्रीशुद्धदन्ताख्ये, नगरे नगरेणुताम् । रथप्रथाभिः कुर्वाणे, गीर्वाणेनाऽपि वर्णिते ॥१७|| ॥ इति श्रीशुद्धदन्तनगरवर्णनम् ।। अथ श्रीराजनगरवर्णनम - रजःस्थानि यच्चत्वरे स्वीक्रियन्ते, ह्यपां सम्प्लवैः साभ्रमत्याऽनुवर्षम् । सुरत्नानि साऽभ्येति कान्तं च रङ्गाद्, भवत्येष रत्नाकरस्तेन सिन्धुः ॥१८॥ कविः कोऽपि यत्र स्थितः पाण्डुपत्र-प्रवालोपमां खेलतः किं न दत्ते । द्वयोस्तेन चेद् भूयते सावधान-स्तदा वक्तृबोद्धव्यसुव्यक्तियुक्तिः ॥१९॥ आद्यमर्थशक्तिसमुत्थमुपायविषयं व्यङ्ग्यव्यङ्ग्यम्, द्वितीयं शब्दशक्तिसमुत्थमुद्देश्यविषयं साक्षाद् व्यङ्ग्यम् । भोगिनां भोगसर्वस्व-हेतुर्यत्सम्पदां पदम् । योगिनां योगहेतुश्च, द्रव्यतो लूक्षचर्यया ॥२०॥ तस्माच्छ्रीराजनगरान्-नगराजिविराजितैः । अभ्रंलिहैऍहैश्चित्त-चमत्कारसुरद्रुमात् ॥२१॥ संयोजितकरद्वन्द्वो विनयोल्लासभासुरः । उदञ्चत्पुलकः प्रेम-प्राग्भारव्याप्तमानसः ॥२२॥ आवर्तेरभिवन्द्य, प्रद्योतनसम्मितैरमितभक्तिः । तनुते विनीतविनयो विज्ञप्तिमसौ यशोविजयः ॥२३।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १०३ यथाकृत्यमिह प्राची, विभूषयति भास्करे । सभायां परिपूर्णायां, जायते धर्मदेशना ॥२४|| व्याख्यातो धर्मबिन्दुः प्राक्, सुधानिस्यन्दसुन्दरः । उपदेशपदव्याख्या, जायतेऽथ श्रवःसुधा ॥२५॥ स्वाध्यायो नियतः कण्ठा[द्], द्वितीयाङ्गादिगोचरः । न्यायादिपाठनप्रौढि-विचारस्य प्रचारणा ॥२६।। उपस्थिता अपि ध्वस्ताः, प्रत्यूहास्तु परःशताः । उपायैः प्रबलैर्वातै-र्घनाघनघटा इव ॥२७॥ अस्तो विपरिणामश्च, प्रतारणकृतो नृणाम् । महापर्वाऽपि नीतं च, प्रौढिमेव क्रमागतम् ॥२८॥ छन्नप्रकटभावेन, सर्वः सत्यापितो विधिः । समयान्न मया किञ्चि-दविरुद्धमपहृतम् ॥२९।। देवे गुरौ च कल्याणी-भक्तेर्व्यक्ते श्रुतोद्यमे । न मे क्रमेलकखलारुच्याऽभूत् का च न क्षतिः ॥३०॥ भक्तिर्भागवती हेतुः, श्रेयःकर्मण्यमूदृशि । श्रीमतां तत्रभवतां, प्रसादश्च शुभोदयः ।।३१।। अथ श्रीविजयरत्नसूरिवर्णनम् - रूपं विद्यानुरूपं तनुरपि सुभगा चारुतारुण्यपूर्णा भ्रातुर्योगोऽपि भूयः सुखनिधिरवधिर्वाचि कश्चित् सुधायाः । प्रौढायः सम्प्रदायस्तदिह सुरुचिते स्फीतगीतार्थसार्थे येषां पक्षो विपक्षोद्दलन[स]दुचितो दुर्लभाः किङ्कराः के ॥३२॥ कुर्वाणानामजस्रं प्रणयरसजुषां तन्त्रगोष्ठी गरिष्ठां येषां गीतार्थपक्षो जयति यतिजनश्रेणिचूडामणीनाम् । यस्याऽग्रे हन्त वाचस्पतिरपि करयुक् तिष्ठति प्रेमबद्धः, को वा दौवारिकत्वं व्रजति न विबुधो विस्मयोत्तालचेताः ।।३३।। पुण्योदर्केऽसि तर्के पटुरुत सुतरां रागवानागमार्थे स्वच्छन्दं छन्दसा वा मदयति पतितो मक्षु शब्दार्णवे वा । साहित्ये संहिता ते मतिरिति विततस्फूर्जदुक्तिप्रबन्धा यत्पक्षस्याऽपि बाला विदधति कुदृशां तुण्डकण्डूविनोदम् ॥३४।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क Jain Educationa International एकावच्छेदकत्वाद् विघटयति भृशं बाधमात्मानुकूलं; येष्टापत्तिस्तयैव प्रतिहतविषयाः सर्व एवाऽन्यतर्काः । तेनाऽर्थापत्तिपत्तिव्रजनिहतपरानीकतर्कप्रमाणः पक्षं स्याद्वादराजो(ऽ)नुगुणयति गुणी यस्य तस्मै शुभानि ॥ ३५ ॥ जाह्नव्यां शैवलन्ति स्मितकुमुदवने व्यक्तमिन्दीवरन्ति स्फूर्जत्कैलासशैलप्रविततशिखरे साम्बुपाथोधरन्ति । दुःपक्षाकीर्त्तयस्ता रजनिवदसिताः श्वेतयत्कीर्त्तिराशौ ब्रह्मण्यध्यस्तखन्ति प्रसृमरधवलध्यानभृद्धारणीये ॥३६॥ यत्तेजोनिर्जितः सन् रविरथनवरं ( रनवरतं?) मन्त्रजापं वितेने धृत्वाऽब्जे पद्मयोनित(स्त) दनु स विदितः सर्वदा पद्महस्तः। तेनाऽभूत् स ग्रहाणां पतिरतिशयितः किन्तु सम्भ्रान्तजापान् मुख्यं लेभे फलं नेत्यतनुतनुमनस्तापरूपं तदर्चिः ||३७|| तैरच्छश्रीतपागच्छ-सन्ततिव्रततिद्रुमैः । श्रीमदाचार्यहर्यक्षै-रवधार्या नतिर्मम ||३८| प्रसाद्या चाऽनुनति: पं. पुण्यसुन्दरगणि, पं. महिमसुन्दरगणि, पं. ज्ञानविजयग., पं.प्रेमविजयग., ग.लक्ष्मीविजयप्रभृतीनाम् । अत्रत्य पं. ज्ञानविजयग., पं. वीरविजयग., पं. सत्यविजयग., पं.भक्तिविजयग., पं.कल्याणचन्द्रग., पं. वृद्धिविजयग, पं.हितविजयग., पं.पुण्यविजयग. ग.कान्तिविजयग., ग. गुणविजय साध्वीमटू -प्रभृतिवर्गः समस्तसङ्घश्च प्रणमति श्रीमदाचार्यचरणान् ॥ मार्गशीर्षाऽसिते पक्षे, दक्षेतरदुरासदः । सद्यः पद्यैस्त्रयोदश्यां, लेखोऽलेखीति मङ्गलम् ॥३९॥ पूज्याराध्य ॥ सकलभट्टारकसभाभामिनी भालस्थलतिलकायमान- भट्टारकी १९ श्रीविजयरत्नसूरीश्वरचरणाब्जानामयं विज्ञप्तिलेखः श्रीशुद्धदन्तनगरे || * * स्फुटतरलिखनोद्यमे पटिष्ठाः, प्रणयगरिष्ठगृहीतशिष्टलीलाः । बुधगजविजया नमन्ति पूज्यक्रमयुगमाशु दशाटकादुपेताः ॥१॥ कस्त्वं ? पापं, कृशाङ्गः कथमजनि भवान् ? मे जनन्या वियोग:, का माता ते ? वियोगः कथमजनि तया ? मारिनाम्नी मदम्बा । नीता सा सौरिगेहं पटुतरवचसा साहिना हीरसूरे:, क्व स्थाता ? हीरसूरेर्वचनमवितथं यो न मन्येत तस्मिन् ॥१॥ लावण्यविजय जैन ज्ञानभण्डार, राधनपुर प्रत नं. ९६३ * For Personal and Private Use Only खण्ड २ " Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १०५ (१७-१८) पं. श्रीतत्त्वविजयस्य पत्रद्वयम् (१) वर्गवटीपुरस्थं श्रीविजयप्रभसूरि प्रति प्रेषितं पत्रम् स्वस्तिश्रियं(यां) चन्दिरमन्दिरं स-द्देवाधिदेवं क्षपितान्तरारिम् । अमानसद्भूतगुणाभिरामं, युगादिदेवं प्रगुणीकरोमि ॥१॥ स्वस्तिश्रियां(या) संश्रितमद्वितीयं, सम्यक्त्वचारित्रगुणावलीढम् । विपक्षपक्षक्षयकारिवीर्य, श्रीआदिदेवं परिशीलयामि ॥२॥ स्वस्तिश्रिया संश्रितमंहिपा, यस्य प्रभो[:] श्रीवृषभध्वजस्य । नो चेत् कथं कामितमातनोति, तनूमतां कल्पलतेव साक्षात् ॥३॥ स्वस्तिश्रियं तनुमतां स तनोतु शान्तिः, सन्तापतापितजनस्य कृतप्रशान्तिः । नित्यं करङ्गसहितोऽपि न यः कुरङ्ग-श्चित्रं विलोकयत भो विबुधाः समस्ताः ॥४॥ सच्चक्रचित्तप्रणयं विधत्ते, न जातु दोषाकरतां विधत्ते । श्रीशान्तिनाथो जयतात् पृथिव्या-माश्चर्यकृत् कोऽपि नवो मृगाङ्कः ॥५॥ स्वस्तिश्रिये स भगवान् हरिणो यदहि, भेजे सदैव हरिणाऽऽश्रितमित्यवेत्य । मन्ये न तस्य पशुता सहजाविवेका-दासीत् पृथक् पदसमासविवेकनिष्ठा ॥६॥ स्वस्तिश्रियां(या) रमणमुत्तमबोधवन्तं, श्रीशान्तिनाथभगवन्तमुपास्महे तम् । चन्द्राश्रयादबलयाऽपि हृताक्षिशोभः, प्राप्तुं महत्त्वमुचितं हरिणोऽभजद् यम् ॥७॥ श्रीआचिरेयजिनराजकिरीटमेनः(न)-मेनःसमूहपरिमर्दनसावधानम् । मौलौ निधाय विधिसङ्घटितप्रणाम-प्रोद्दामभक्तिपरिणामनितान्ततुङ्गे ॥८॥ स्वस्तिश्री: समशिश्रियद् यदुकुलक्षीराब्धिशीतयुतेः, श्रीनेमेश्चरणं भवान्तकरणं विश्वत्रयीवत्सलम् । सञ्चिन्त्येति निराकरिष्यति दमी नूनं कलङ्कं मम, ____ख्यातोऽयं चपलेति विश्वजनतासङ्कल्पकल्पद्रुमः ॥९॥ गोपीगणैर्यो नवयौवनाभि-विहस्यमानोऽपि सरागवाग्भिः । विकारिभावं न गतः स्वचित्ते, सोऽरिष्टनेमिः शरणाय भूयात् ॥१०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ स्वस्तिश्री रमते यदीयचरणाम्भोजे समुत्कण्ठिता, भास्वद्भक्तिभरावनम्रसुमनःश्रेणीसमासेविते । सप्तस्फारफणामणीगृहमणिश्रेणीसमुद्योतिते(तं), त्रैलोक्यं तमहं नये स्तुतिपथं श्रीपार्श्वचिन्तामणिः(णिम् ) ॥१२॥ सोऽस्तु श्रिये नम्रसुरासुरेन्द्र-व्रजः सतां पार्श्वजिनेन्द्रचन्द्रः । प्रासादमासाद्य बभूव यस्य, द्विजिह्वमात्रो धरणेन्द्रनामा ॥१३।। पार्योऽस्तु पार्वाधिप(भिध)यक्षसेव्यः, सिद्धयै सुपर्वा(व)प्रभुभिनिषेव्यः । यदंहिपद्मं भुजगाधिनाथः, संसेवते स्वर्गमिवाऽऽप्तुकामः ॥१३॥ स्वस्तिश्रीरभजद् यदीयचरणं चक्रादिचिह्नाङ्कितं, ____ दुष्टारिष्टविनाशनं निजपतिं ज्ञात्वेति मन्यामहे । स श्रीवीरजिनेश्वरो विजयतामानम्रसंक्रन्दन श्रेणीशेखररत्नरश्मिसलिलस्नातांहिपङ्केरुहः ॥१४॥ त्वया महामोहमहीधवस्य, सेनान्यवीरैरजिता जिताऽसौ । अतो यथार्थं तव नाम देवैः, कृतं महावीर इतीव देव! ॥१५॥ यो गच्छतो मोक्षपथेऽन्तराय-करो भवत्यार्यजनस्य विश्वे । त्यक्तः स रागो भवता ततस्त्वां, श्रीवीतरागं प्रवदन्ति विज्ञाः ॥१६।। ॥ इति श्रीपञ्चतीर्थजिनवर्णनम् ॥ अथ वगडीनगरवर्णनम् - यत्राऽर्हतां मन्दिरमौलिदेशे, ध्वजव्रजो राजति राजमानः । सम्पूर्णशीतद्युतिमण्डलश्री-गङ्गातरङ्गव्रज एष मन्ये ॥१७।। यस्मिन् जिनानां सदने चकासा-म्बभूव कुम्भः शुभशातकौम्भः । पुरीगरीयःसुखमेक्षणाय, कूटं सुधापायिगिरेरिवाऽऽगात् ॥१८|| निवर्ण्य (निर्वर्ण्य) यस्मिन् वसनाभिरामाः, पाञ्चालिका आर्हतमन्दिरान्तः । वितर्कयन्तीति बुधाः सतर्कं, नृत्याय किं देववशाः समीयुः ॥१९॥ चैत्योच्चयो यत्र विजित्य पापं, मुक्ताच्छलायासभवोत्थितोष्मा । स्वमस्तकस्थां विततां पताकां, जयश्रियं वक्तुमिवोच्चचाल ॥२०॥ यस्मिन् लसत्श(च्छ)शधराश्ममणीपिनद्धा, श्रीवीतरागसदनालिरलञ्चकार । जम्भासुहृत्पुरमदं प्रविजित्य साल-माला जयस्य किमु पौरगणैः प्रकृ(क्ल)प्ता ॥२१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्मिन् जिनालयशिर:स्थितिमादधानः, पुष्णाति हेमकलश: सुदृशां प्रमोदम् । किं सैंहिकेयभयतो नभसोऽवतीर्य, पाथोजिनीपतिरमन्दमुपाजगाम ॥ २२ ॥ यस्मिन् जिनौक:शिखरेषु दण्डः, वने कुरङ्गः कुसुमेषु बन्धः । सारीषु मारिर्जडता सरस्सु, रजः पयोजे द्रुदले प्रकम्पः ||२३|| निस्त्रिंशताऽसाविभजं मदत्वं, कुशीलता लाङ्गलिनां हलेषु । चन्द्रे कलङ्कः स्फटभृत्कुलेषु, द्विजिह्वतोच्चैर्न तु सज्जनेषु ||२४|| उत्तालतालतलसालरसालमुख्या, यस्मिन्नियाय गरिमां विपिने द्रुमाली । छत्रावली किमु मनोजमहीभुजं तन्- मूर्द्धाग्रभागवसतीं रचयाञ्चकार ॥२५॥ जिनालये यत्र विभाति केतु-श्चलन् (त्) समीरत्वरयाऽतिक्रान्तः । नरा-ऽसुरा-ऽमर्त्यगणां(णान्) प्रणन्तुं, जना[न्] समाकारयतीति जाने ||२६|| यस्मिन् जिनावसथधूपितधूपधूमं सङ्गं दिवः प्रविदधन्तमुदीक्ष्य साक्षात् । अभ्यर्णकानननिवासिकलापिवृन्दं, सन्तुष्टिपुष्टिमगमद् घनसम्भ्रमेण ||२७| यस्मिन्ननेकविजिगीषुपरक्षितीश-मातङ्गसङ्गमलिनं (न)त्वमिवाऽपकर्तुम् । स्नानार्थमेव सुरसिन्धुगलज्जलौघै - रुच्चैर्विवृद्धिमनुगच्छति यत्र वप्रः ||२८|| आक्रीडनाय सुरकिन्नरकामिनीनां यत्कानने प्रतिकलं समुपेयुषीना (णा) म् । नानाद्रुमप्रपतयालुपरागभङ्गी, मूर्द्धस्य (स्थ?) कल्पतरुपुष्परजस्तृणाति ॥२९॥ चैत्योच्चयं यत्र निरीक्ष्य साक्षा- दतुच्छमुक्ताफलगुच्छपुच्छम् । प्रेक्षावतां मेरुगिरेर्दिदृक्षा, सौहित्यसाहित्यमुपेयुषी द्राग् ||३०|| यत्र स्फुटस्फटिकसङ्घटितार्हदौक:- शृङ्गे ललास निशि सत्प्रतिबिम्बमिन्दोः । साक्षात् किमिन्दुरिह मार्गयितुं निरङ्कां भास्वत्प्रभां जिनपरिश्रयमन्वतिष्ठत् ॥३१॥ यत्राऽऽपणेषु विललास रसोद्भवाली, श्रीमन्महेश्वरमहर्द्धितटाकपाली । नैकद्विषन्मृगदृगश्रुजलप्लुतायाः, पुष्पस्य पङ्क्तिरुदये(रुदयेन च ? ) वीरुधः किम् ॥३२॥ यस्मिन्नप्रतिमप्रतापतपनः स्वीयप्रजापालको, १०७ राज्यं प्राज्यतरं भुनक्ति सततं क्षोणीभुजङ्गाग्रणीः । गत्वा यो मरुभूमिकास्वसुहृतः संहृत्य यावद् युधि, प्रत्यागच्छति तद्वशाश्रुहृदिनी तावत् पुरः प्रे ( प्रै) क्षत ||३३|| यत्रास्तोकसमृद्धलोकवनिता वातायने संस्थिताः स्मृत्वा श्रीविजयप्रभस्स (भस्य ) सुगुरो रङ्गद्गुणानां गणम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ गानं पानमिवाऽमृतस्य वचसां पूरैर्दधत्योऽधिकं, __चक्रुर्देवम॒(म)गीदृशामनुकृति रागातिरेक:(क)स्थितेः ॥३४॥ स्वच्छातुच्छदुकूलवारणघटारङ्गत्तुरङ्गावलीलाभाद् यत्र समागता धनदवत् प्राप्ताः प्रभूता(तां) श्रियम् । सार्थेशाः स्वपुरं गताः प्रतिकलं प्राणप्रियाणां गणैरन्ये इत्युपलक्षिता न शपथादानेन विश्वासिताः ॥३५।। तपोग्नियोगान्न लभेत याव-दात्मार्जुनं शुद्धिमतीव तावत् । न युज्यते निर्वृतिमुद्रिकाया-मितीव केचित् तपसा परीताः ॥३६।। इत्थं लसन्नैकजिनेन्द्रसद्म-प्रणाशितोद्दामतमःप्रचारे । राजन्वति श्रीमति तत्र सत्रे, श्रीपूज्यपादौ नगरे रमाना(णा?)म् ॥३७|| ॥ इति श्रीवगडीनगरवर्णनम् । अथ श्री वीजापुरस्याहपुरवर्णनम् - स्व:पुरीप्रहितसारमार्गणे, व्योम्नि दर्शयति दन्तसन्ततिम् । तिष्ठति प्रतिभुवं निरुध्य यद्, यत्र विज्जपुरदुर्गसंस्थितः ॥३८॥ तस्याऽस्ति पार्वेऽप्यतिशोभमानः, समृद्धिसत्स्याहपुराभिधानः । ज्ञातं हि वादं कुरुतेऽत्यहर्निशं, अन्योन्यसम्पद्ग्रहणाय उद्यता ॥३९।। दण्डो जिनेन्द्रायते(तने) न लोके, सुमेषु बन्धो न तु सज्जनेषु । धर्मादिकार्ये व्यसनी मनुष्यो, न स्त्रीषु यस्मिन् नगरे समस्तः ॥४०॥ दरिद्रतादुर्भगताभिभूतो, यस्मिन् पुरे नाऽस्त्यखिलोऽपि लोकः । न रोग-शोकौ परवञ्चना नो, वने कुरङ्गो न गृहे नरस्य ॥४१॥ न स्वप्नमार्गेऽपि कदाचिदेव, शरीरकम्पोऽस्ति शरीरभाजाम् । समीरयोगे द्रुमपत्रजातं, विनैव यस्मिन् नगरे प्रशस्ते ॥४२॥ नितम्बिनीनां निकरः प्रकृष्टः, प्रासादमध्ये जिनराजराजाम् । पूजां विधत्ते प्रतिघस्रमेत्य, यत्र प्रसूनः(न)प्रकरैः प्रभाते ॥४३।। यस्मिन् समागत्य पुरे निवासं, कुर्वन्त्यनेके व्यवहारिवर्गाः । सदासदाचारदृढप्रतिज्ञाः(ज्ञा), निर्वाहको(का) वाग्गुणवान्(वत्)कृतज्ञाः ॥४४॥ श्रीपूज्यपादाम्बुजसेवनायो-द्यता रता धर्मकथासु नित्यम् । वसन्त्यनेके श्रमणानुकूलाः, सुश्रावका यत्र पुरेऽतिदक्षाः ॥४५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १०९ यत्र राजपथसङ्गतैर्गजै-रङ्गजैरिव महापयोमुचाम् । गर्जिताङ्कशतडिद्विराजितैः, सिच्यते मदजलेन भूतलम् ॥४६।। यज्जवोद्धतहयालिदर्शन-त्रासभृद्रथहयानुवृत्तये । अम्बरे किमु रविर्धमत्ययं, व्यत्ययं व्रजति नैव शासि[तः?] ॥४७|| रम्भासौभाग्यदर्पप्रमथनपटुतारूपशृङ्गारसारप्रागल्भे(ल्भ्ये)न प्रियाणां युवहृदयभिदाऽव्यर्थशस्त्रश्रमेण । क्रीडामात्रप्रियेण स्मरनरपतिना सर्वसामन्तनीत्या, प्रायः सौराज्यभाजः सकलसुखनिधेः सर्वदा सेव्यमानात् ॥४८॥ यस्मिन् पुरे पौरजनोपकर्ता, दुर्जेयवैरिव्रजमानहर्ता । विराजते भानुरिव प्रतापी, महद्व(हाब)ली राजति स्याह-सक्कन्दरः ॥४९।। औदार्यधैर्याद्यनणुप्रधान-गुणौघधारी रिपुमानहारी । यथार्थनामा यवनाधिनाथ-भूपालचूडामणिरस्ति यत्र ॥५०॥ श्रीजैनसिद्धान्तविचारचारु-हद्वासनश्राद्धविराजमानात् । भूभामिनीभालललामभूताद् विद्यापुरः(र)स्याहपुरप्रधानात् ॥५१॥ महाप्रमोदामृतरत्नराशि-कल्लोललीलावहनेत्रमीनः । पीनप्रसर्पद्विनयेन भक्ति-चान्द्रीयप्रोल्लासितसच्चकोरः ॥५२॥ धूर्जटिसुतनयनमिता-वर्तेः किल पुलकपक्ष्मलोरस्कः । अभिवन्द्य तनोतितरां, विज्ञप्तिं तत्त्वविजयशिशुः ॥५३।। [त्रिभिः कुलकम्] कृत्यं चाऽत्र यथा प्राची-मुखताम्बूलसन्निभे । अम्भोजिनीमुखोल्लास-प्रावीण्यपटुरोचिषि ॥५४|| प्रीत्या रथाङ्गदम्पत्यो, रह:क्रीडैककारणे । लोकाक्षिमुद्रणोदन-तमोराशिनिवारणे ॥५५॥ सभायां भासमानायां, सभासारैर्महाजनैः । श्रीशत्रुञ्जयमाहात्म्यं(त्म्य)-वाचनं कर्म(ण)पावनम् ॥५६।। तृतीयाङ्गस्य स्वाध्यायं(यः), तमस्तोमनिषूदनम् । पठन-पाठनं चाऽपि, साधूनां योगवाहनम् ॥५७।। इत्यादिधार्मिककृत्यो-पधानादौ च कर्मणि । श्रीमत्पर्युषणाह्वाने क्रमप्राप्ते सुपर्वणि ॥५८।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ कल्पितानल्पसङ्कल्पा-ऽवाप्तिकल्पद्रुमोपमम् ।। साडम्बरभरं श्रीमत्-कल्पसूत्रस्य वाचनम् ॥५९।। साधर्मिकाणां वात्सल्यं, दानं चाऽऽनन्दमेदुरम् । षष्ठाष्टमादिकं मास-क्षपणान्तं तपो व्यधात् ॥६०।। चतुर्थारकतुल्यत्वं, येन स्यात् पञ्चमेऽप्यरे । वीतरागसमापत्ति-रिव ध्यातरि निश्चले ॥६१।। इत्यादि शुभकृत्यानि, समभूवन् भवन्ति च । श्रीतातपादपाथोज-प्रसादोदयतोऽपरम् ॥६२॥ ॥ इति श्रीवीजापुर-स्याहपुरवर्णनम् ।। ॥ अथ श्रीविजयप्रभसूरिवर्णनम् ॥ - तपागणेन्द्राऽनुपमान् गुणांस्ते, सहस्रजिह्वोऽपि न वक्तुमीशः । तदा समग्रान् लिखितुं समर्थो, ह्यहं कथं मन्दमतिर्भवामि ॥६३।। सूरीश्वरश्रीविजयप्रभाख्य-स्त्वन्नाममन्त्रं हृदयाब्जकोशे । धरन्ति ये धीरतया नरास्ते, सम्प्राप्नुवन्तीप्सितमाशु सौख्यम् ॥६४॥ धैर्यं मन्दरतः क्षमां भगवतो बुद्धि सुराचार्यतः, सौभाग्यं स्मरतः श्रियं धनदतो गम्भीरतामब्धितः । दानं दैवतवृक्षतः प्रसृमरां कान्ति निशानाथतः, धात्राऽऽदाय विनिर्मिता मुनिपते! मूर्तिस्त्वदीयाऽद्भुता ॥६५।। यद्रूपं मकरध्वजस्य सदृशं मन्दाकिनीनिर्मलं, चेतश्चिन्तितवस्तुपूरणपरं पादारविन्दद्वयम् । पीयूषोज्ज्वलितामृतद्युतिसमं वक्त्रं वपुश्चाऽमलं, दृष्ट्वा मे हृदि जायते मुनिपते! मोदो महाश्चर्यकृत् ॥६६।। यः स्वीकरोति मुनिनायक! तावकीनं, सङ्कल्पकल्पतरुकल्पपदारविन्दम् । तं संश्रयन्ति सतताखिलमङ्गलानि, सूरीशमुख्यविजयप्रभसद्गरिष्ठः(ष्ठ)! ॥६७।। भूभामिनीभालललाटवृत्ता-कारं मुखं ते गुरुराज! भाति । धात्रेव लावण्यरसस्य रक्षा-कृते कृतं स्थालमिदं विशालम् ॥६८॥ तपागणेशा बहवो बभूवु-स्तपागणे निर्जितवादिवृन्दाः । परं तपोमुख्यगुणैरशेषै-रत्यद्भुतस्त्वत्सदृशो न कोऽपि ॥६९।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १११ कूर्मोन्नते त्वच्चरणारविन्दे-ऽरुणा विभो! भाति नखावलीयम् । सेवां विधातुं शशिनेव साक्षात्-सम्प्रेखि(षि)ता तारकसन्तति[:] किम् ॥७०॥ स संस्तवार्हः कलिकाल एषः(ष), यत्र प्रभो! त्वं मम नायकोऽभूत् । शुभेन किं तेन युगत्रयेण, यत्रांऽहिसेवा तव नोपलब्धा ॥७१।। तव क्षमागार! महानगार!, बुद्ध्या जितो देवगुरुश्चकार । स्वयं निवासं गगनान्तराले, स्वकीयचित्ते किमु लज्जमानः ॥७२॥ कलाकेलिगेहं कलाकेलिदेहं, कलालापमस्तोकलावण्यपुण्यम् । महालाभवन्तं भवन्तं भवन्ति स्तुवन्ति ज्ञवृन्दानि धीवस्तुवन्ति ॥७३॥ हृताघप्रपञ्चोरुचञ्चद्विचार-प्रचारप्रियाचारुसञ्चारु(र)चारु । तव ज्ञान-विज्ञान-वैदुष्य-लक्ष्मी-विलासः किलाऽसह्य एवाऽन्यतीर्थे:(W:) ॥७४॥ तपागणाधार! तवाऽनुरूपः, क्षमाधरः कोऽपि मया न दृष्टः । यतः कृतघ्नेषु नरेषु जातो, भवान् कृतज्ञः करुणार्द्रचित्तः ॥७४।। अगण्यपुण्यो जयति प्रसिद्धः, सूरीश्वरः श्रीविजयप्रभोऽसौ । तारामिषात् तस्य गुणव्रजस्य, स्फुटा विधेः खे गणनादिगेषाम् ॥७५।। तेषां श्रीपूज्यपादानां, लेखो नैकोऽप्युपागतः । अद्ययावदिहाऽब्दे तत्, स प्रसाद्यः कृपापरैः ॥७६।। तैर्निर्जितानेककुतीर्थवादैः, सदा वदान्यत्वकृतप्रसादैः । आचारनिष्ठानिहतप्रमादैः, परम्पराप्राप्तपरप्रवादैः ॥७७॥ क्षमाश्रयत्वाद् विगलद्विषादै-विश्वत्रयीसेवितपुण्यपादैः । शिशोर्बुधोत्तंसयुजोऽवधायी(ा), श्रीपूज्यपादैः प्रणतिस्त्रिसायम् ॥७॥ तथा तत्र - गणहितचिन्तननिरता, विबुधाः श्रीहेमविजयगणिमुख्याः । प्रीतिविजयाख्यविबुधाः(धा), दक्षा: शिक्षाविधानपराः ॥७९॥ विबुधाश्च उदयविजयाः(या), वैयावृत्यादिकृत्ययेन(?) पराः । रूपविजयाख्यविबुधा-स्तथा बुधा लब्धिविजयाख्याः ॥८०॥ सौभाग्यविजयगणयो गणयः प्रतापविजयसञ्जाश्च । तपनिष्ठखिमाविजयो दयाविजयाख्यास्तथा मुनयः ॥८१।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ इत्यादौ मुनय(नि)वर्गे, श्रीपूज्यचरणकमलभक्तेऽस्मिन् । नत्यनुनती प्रसाद्ये, यथाक्रमं सत्क्रमोत्तुङ्गैः ।।८२॥ धीरविजयाख्यविबुधाः(धा), गणयः प्रेमविजयसज्ञाश्च । एकत्रस्थानसंस्थित-वृद्धस्तु सहजविजयगणिः ॥८३॥ इत्यादिसाधुवर्गः, सङ्घोऽत्रत्यश्च विनयनम्राङ्गः । श्रीपूज्यचरणकमलं, प्रणमति भक्त्योल्लसच्चित्तः ॥८४|| मुनिचन्द्रत्रिशर(१७३५)मिते वर्षे हर्षेण श्याहपुरनगरे । कृष्णस्तु माघपञ्चमि(मी), इति मङ्गललेख(खो) लिपीचक्रे ॥८५।। ॥ इति श्रीविजयप्रभसूरिविज्ञप्तिरियम् ॥ (२) उदयपुरस्थं श्रीविजयरत्नसूरि प्रति प्रेषितं पत्रम् स्वस्तिश्रीरमणः करोतु कुशलं श्रीमारुदेवाभिध स्तीर्थाधीश्वरसत्तमस्तनुमतामानम्रसङ्क्रन्दनः । यस्यांऽशे रुचिरालिसन्ततिरिव श्यामा जटा कोविदै दृष्ट्वाऽतर्कि किमित्यसौ स्थितवती कादम्बिनी भूधरे ॥१॥ स्वस्तिश्रियं दिशतु भूपतिविश्वसेन-वंशाम्बरद्युमणिरस्ततमा जिनेन्द्रः । उच्चैरचिन्त्यगरिमा किल यस्त्रिलोकी-मित्रप्रसिद्धिमभजन्मृगलाञ्छनोऽपि ॥२॥ स्वस्तिश्रियां मम परं परिरम्भशर्म, सम्पादयत्वनघधर्मनिधिः स शान्तिः । मा भूद् वनेऽपि गगनेऽपि च सैंहिकेयाद्, भीतिर्ममेति हरिणो भजते यदंहिम् ।।३॥ स्वस्तिश्रिये स भवताद् भवतान्तिभेदी, नेदीयसीमुपदिशत् शिवमार्गनिष्ठा[म्] । निर्लक्ष्म यन्मुखमभून् मृगसेवयेन्दू, रकर्यदंहिमभजत् तमिवाऽनुगन्तुम् ॥४॥ यस्याऽग्रतः सुमनसः सुमनोभिमुक्ता, युक्तं बिभीत्य(विभान्त्य)लमधःकृतबन्धनौघाः । एतासु यत् त्रिजगतीजनचित्तमोह-सम्पादकत्वमिदमद्भुतमाततं न (?) ॥५॥ स्वस्तिश्रीः शुभदं यदीयचरणं प्राशिश्रियत् पूजितं, पौलोमीपतिना सुमेरुशिखरे निर्माय जन्मोत्सवम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ ११३ श्रीचिन्तामणिपार्श्वदेवमतुलज्ञानैकरत्नाकर, दृप्यदर्पकदर्पमर्दनमहादेवं प्रणम्याऽऽदरात् ॥६।। स्वस्तिश्रीः फलदायकः स भवतां भूयाद् भवापायहृत्, पार्श्वः श्रीभगवान् कठोरकमठोदग्रस्मयध्वंसकृत् । यस्याऽम्बा शयनीयगा निशि तमस्यप्याशु पार्वे स्फुटं, सर्पन्तं भुजगं निरीक्षितवती पार्वेति संज्ञा ततः ॥७॥ शिरःस्थनागेन्द्रफणामणीनां, मिषेण दीपानिव सप्त दधे । यो नित्यमुद्योतयितुं जगन्ति, स पार्श्वविश्वप्रभुरस्तु सिद्ध्यै ।।८।। दत्त्वा च दानानि तपांसि तत्त्वा, लोकोत्तरं मोहरिपूंश्च हत्वा । येनाऽजितं वीरयशस्त्रिधाऽपि, स वीरदेवः शरणं ममाऽस्तु ॥९॥ इति श्रीवीजापुर-स्याहपुरमण्डनश्रीतीर्थवर्णनम् ॥ अथ उदयपुरनगरवर्णनम्यस्मिन् जिनेश्वरगृहेषु सुवर्णकुम्भोः (म्भो), भास्वत्प्रभाभिरभितः प्रसरीसरीति । अश्नन् रुषो(षा?) निजकमूर्द्धगभानुभानू-नाहारतुल्यतरमुद्गिरतीव मन्ये ॥१०॥ जिनस्य चैत्योपरि निष्ककुम्भो, यस्मिन् पुरेऽतीव विभाति रम्यः । किं सिंहिकापुत्रभयादिवाऽभ्रा-दागत्य भानुः शरणं प्रपन्नः ॥११॥ सन्दृश्यते पाण्डुपलाशकल्पो, दिवा निशेशो गगनाङ्गणस्थः । जगत्त्रयव्याप्तजिनप्रताप-सूर्योदयेनेव हतप्रभावः ॥१२॥ स्वच्छातुच्छदुकूलवारणघटारङ्गत्तुरङ्गावलीलाभाद् यत्र समागता धनदवत् प्राप्ताः प्रभूतां श्रियम् । सार्थेशा स्वपुरं गताः प्रतिकलं प्राणप्रियाणां गणैरन्ये इत्युपलक्षिता न शपथादानेन विश्वासिताः ॥१३॥ तपोग्नियोगान्न लभेत याव-दात्मार्जुनं शुद्धिमतीव तावत् । न युज्यते निर्वृतिमुक्ति(द्रि)काया-मितीव केचित् तपसा परीताः ॥१४॥ आदेयहेयो(ये) सदसत्प्रवृत्ति(त्ती), सम्यक् श्रुतेरेव विदन्ति दक्षाः । इतीव केचित् पुरतो नराणां, समुद्यता धर्मकथाप्रथासु ॥१५॥ सर्वेषु दानेषु रमानिदानं, ज्ञानस्य दानं भगवद्भिरुक्तम् । अतः श्रुतज्ञानरहस्यसङ्ख्या-सङ्ख्यानतानाः कतिचिद् विविक्ताः ॥१६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ योगादृते नो फलमुच्चिनोति, महागमाद्यध्ययनप्रवृत्तिः । पर्णीव मूलेन विनेति केचित्, योगाभियोगोपचितप्रयोगाः ||१७|| दानादिभिर्युक्तमपि प्रकामं, लयोज्झितं कामयते न मुक्तिः । ततोऽर्हतां नाम पिधाय चित्ते, ध्यानप्रधाना इतरे च केचित् ॥१८॥ श्रियाऽनुकूलं विनयः प्रकृष्टं मूलं मतं श्रीजिनशासनस्य । तस्माद् गुरूणां प्रतिभा गुरूणा - मातन्वते सद्विनयं च केचित् ॥१९॥ वैराग्यशाणप्रतिघर्षणेन, यावन्न तीक्ष्णं शमशस्त्रमुद्यत् । मोहाद्यरीणां प्रशमः क्व तावद्, वैराग्यभाजः कतिचित् ततोऽन्ये ॥२०॥ यद्गृहोज्ज्वलगवाक्षविस्फुरत्- कामिनीमुखसहस्रवीक्षणात् । वैरिवर्गपतितः पलायते, भीतभीत इव शीतदीधितिः ॥२१॥ यत्र नक्तमनुबिम्बचुम्बिता, किन्तु शीतमहसोज्झितामृतैः । निर्मितं मधुरताधुरन्धरं, वापिकासु सलिलं विराजते ॥२२॥ यत्र नीलमणिसौधमूच्छितं, शङ्क्यते विधुमयूखमण्डलम् । राहुबाहुकृतवल्गन श्रमो -दीतघर्मकणतारकाङ्कितम् ॥२३॥ यत्र हारनिकरे विसूत्रिते, कामकेलिरभसान् मृगीदृशाम् । प्रातराततरविद्युतिभ्रमाद्, भाति बालकरलालनोद्यमः ॥२४॥ न्यञ्चदञ्चितमनोभवोद्धतो- द्भ्रान्तघोटकघटानुकारिभिः । यत्र सत्रपवधूविलोकितै - जयते तरुणचित्तविक्रिया ॥२५॥ यत्र बालवनिताधरामृत - स्यन्दि गानमधिगम्य विस्मिताः । नाऽधुनाऽपि सुरलोकयोषित- स्तद्भवां जहति निर्निमेषताम् ॥२६॥ वायुरेव किल यत्र तस्करः, पौरसौरभसमग्रसम्पदाम् । केवलं प्रियतमेषु बन्धनं सुभ्रुवां ललितबाहुवल्लिभिः ||२७|| केवलं कठिनता पयोधरे, श्यामता च महती कचोच्चये । वक्रता च सुदृशासु वीक्ष्यते, भ्रूतटे कृतककोपशालिनि ॥२८॥ म्लानता सुमनसां निशाव्यये, नो कदापि विपुले धनव्ययम् (ये ? ) । कामकेलिषु नकारघोषणा, पोषणा सुसुदृशां न चाऽर्थिनाम् ॥ २९ ॥ इत्थं निजाचारविचारभार - प्रतानिनीसारविसारिमृक्षैः । प्रतिश्रयो यत्र बभौ यतीन्द्रैः सपर्ववृन्दैरिव नाकिलोकः ||३०|| ११४ Jain Educationa International " For Personal and Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ यत्रोद्योतपुरः सुरः पुरसमो(?) गर्वसर्वंकषश्रीसौभाग्योद्भूतभव्योत्सवभवभजनश्रेणिविभ्राजितायाम् । पूज्य श्रीपूज्यपादाम्बुजयुगलरजोराजिभिः पावितायां, सम्यक्त्व-ज्ञानगोष्ठी-चरणचतुरताभावभृद्भावितायाम् ॥३१॥ ॥ इति श्रीउदयपुरनगरवर्णनम् ॥ अथ वीजापुर-स्याहपुरवर्णनम् स्वां सुतां चिरयदेकवासिनीं यत्र सजिगमिषुः पयोनिधिः । आययौ नृपसरोमिषान् मुनेर्भीतितः कृतकभिन्ननामभृत् ॥३२॥ यत्र बन्धुवियुजो वणिग्जना, भान्त्ययोगिगुणवेश्मगा इव । तेषु तेन सततं प्रवर्त्तते, शुक्लतुर्यचरणोचित: (ता) स्थितिः ||३३|| कुम्भयोनिमुनिकोपभाजनं, या विहाय जलधि रमा किमु । यत्र स्याहपुररत्नसञ्चया, क्वापि दुर्गभुवि वासमासदत् ॥३४॥ यद्वनेन कुसुमौघसौरभ - स्फारचैत्ररथजैत्रसम्पदा । जीयते स्म ननु नन्दनं वनं, लज्जया क्वचिदगोचरं गतम् ||३५|| तस्माद् भूपालसेनाद्विरदहयरथोल्लोल भूगोलभारभ्रश्यन्नागेन्द्रचूडामणिकिरणतडिद्भग्नपातालमूलात् । भूपो वप्राग्रजाग्रन्मणिमिलितदिवानाथकान्तिप्रचारोदञ्चच्छर्वेक्षणाग्निद्रुतविधुदलितस्वर्नदीदिव्यकूलात् ॥३६॥ यत्र सागर इवाऽभिवीक्ष्यते, कुम्भयोनिमुनिपीतपान्थसि । केवलं धनवदापणव्रजे, प्रत्नरत्ननिकरः परिस्फुटः ||३७|| यद्गृहाद्रिशिखरं मृगीदृशा माननेन्दुकलनेन जायते । स्वर्नदीचकितचक्रवाकिका - वक्त्रनिर्गतमृणालमांसलम् ||३८|| भानुकान्तिभरतप्तवप्रभू - भा (र्भा) नुकान्तघनतापविह्वला । या पिबत्यमृतरश्मिममण्डलं, प्रोच्चसौधशिखरानना निशि ||३९|| देवतृप्ति - मृगसेवनादिना, यद्वधूमुखतुलामनाप्नुवन् । बिम्बचुम्बिपरिखोन्दुके बभौ दत्तकम्प इव दुःखितो विधुः ||४०|| लाञ्छनोद्दलनवाञ्छया विधु -स्तुङ्गयद्धरणशैलसानुषु । सौचमुल्लिखति शीतगुर्वपु-र्वेदना नहि कलङ्कतोऽधिका ॥ ४१ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ११५ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ [स्व:]प्रभूः(भुः) सपदि यामतोलयत्, स्वः पुरेण सह दिव्यसम्पदा । भूव्यवस्थितिनभोभिसर्पणे, तद्विशेषगुरुताविवेचके ॥४२॥ नानादेशीयगुण-व्रजसङ्करसम्भवनवरसाढ्यात् । धर्मार्थकामयोने-वी(र्वी )ज्जापुर - स्याहपुरनगरात् ॥ ४३ ॥ विनयावनतस्कन्धः, प्रेमसम्बन्धबन्धुरः । श्रीमदनूचानगुण - स्मृतिजातप्रकृष्टत् ॥४४॥ अकुण्ठोत्कण्ठया पूर्णो, भक्तिप्राग्भारभासुरः । त्वरमाणमनोराज्य-प्राज्यस्नेहविलासवान् ॥४५॥ तरणिप्रमितावर्तै-र्वन्दित्वा श्रीबुधान्वितः । विज्ञप्तिं तनुते शिष्य - स्तत्त्वविजयसञ्ज्ञितः ॥४६॥ यथाकृत्यमिह प्राची - मुखादर्शित्वमीयुषि । भास्करो (रे) तस्करध्वान्त - ध्वंसनाय कृतोद्यमे ॥४७॥ शीतगौ भानुकान्त्यग्नौ स्वं वपुर्लघु जुह्वति । तत्रैव जायमानेव, तारादारानुधावते ॥४८॥ भानोर्भयेन निर्गत्य, जगज्जनविलोचनात् । निद्रायां च निलीनाया-मुलूकानां कुटुम्बकै: (के) ॥४९॥ जाते प्रभाते घुसृण-च्छटासिक्तजगत्त्रये । सभायां परिपूर्णायां सद्भिः सद्भावबोद्ध (द्ध) भिः ॥५०॥ व्याख्यायमाने श्रीशत्रुञ्जय माहात्म्य ( त्म्ये) प्रतिवासरम् । विधीयमाने स्वाध्याये, चतुर्थाङ्गागमस्य च ॥५१॥ प्रवर्त्तमाने सद्योगो - पधानादौ च कर्मणि । पर्वणि क्रमतः प्राप्ते, श्रीमत्पर्युषणाभिधे ॥५२॥ . क्षणेषु नवसु श्रीमत् - कल्पसूत्रस्य वाचनम् । अजायत महोत्साह-चमत्कृतजगज्जनम् ॥५३॥ अष्टाहिकादिदुस्तप्य-तपसस्तपनं तथा । वपनं वित्तबीजस्य, धर्मभूरुहसिद्धये ॥५४॥ वनीपकजनानां च, दानेन परिपोषणम् । शोषणं भवबीजस्य, कन्दर्पशरमोषणम् ॥५५॥ ११६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ ११७ धर्मकर्माण्युदप्युच्चै-र्जातं सञ्जायतेऽपि च । उपधानव्रतोच्चार-सन्मालारोपणादिकम् ॥५६॥ सर्वस्यामपि धर्मस्यो-न्नतावस्यां निबन्धनम् । कृपाऽनूचानपादानां, प्रत्यूहपटलच्छिदाम् ॥५७॥ अपरम् - ॥ इति श्रीवीजापुरस्याहपुरवर्णनम् ॥ अथ श्रीविजयरत्नसूरिवर्णनम् - यदीयकेशैः कृतबर्हग), बी धृतहीक इव प्रणष्टः । जिगीषया स्कन्दमपि प्रपन्नो, लेभेऽर्द्धचन्द्रं महतोऽपमानात् ॥५८॥ गुणा(णां)स्त्वदीया(यान्) तपगच्छनाथ!, वक्तुं समर्था न भवन्ति देवाः । अतः कथं मन्दमतिः प्रभोऽहं, भवामि तान् वर्णयितुं समर्थः ।।५९॥ विजयरत्न! तपागणनायक!, श्रितमनिन्दितमंहियुगं यकैः । तव नरप्रवरैर्जगतीह तं, न हि विमुञ्चति रागवशाद् रमा ॥६०॥ क्षमानदीनायक! नायक! श्री-तपागणेशाऽद्भुतभारती ते । यैः कर्णजाहं विहिता प्रधानै-नरैर्न तस्य प्रभवन्ति दोषाः ॥६१॥ स श्रीमान् विजयी जयी विजयतां सूरीशचूडामणिः, श्रीमत्श्री(च्छी)विजयरत्नसूरिसुगुरुर्गाम्भीर्यवारांनिधिः । यस्य श्रीगणनायकस्य नयनानन्दप्रदं दर्शनं, दृष्ट्वा महृदये भवत्यविरतं हर्षप्रकर्षो महान् ॥६२।। आराधितं त्वच्चरणारविन्द-मेकाग्रचित्तेन यकैनरैस्तान् । नरान् नमन्ति प्रकटप्रभावान्, सदेवविश्वत्रितयीमनुष्याः ॥६३।। यः संस्तुतो यच्छति मोक्षलक्ष्मी, तपागणेशो जगतीजनस्य । वदान्यमुख्यं सुगुरुं विमुच्य, तं कं श्रयेत् प्राज्ञजनोऽन्यमत्र ॥६४|| हृतारिष्टदिष्टप्रकृष्टप्रहृष्ट-स्वधीमृष्टसंक्लिष्टता शिष्टता ते । कनिष्ठा न दृष्टा गरिष्ठा नु दृष्टा, वरिष्ठाशयैरिष्टदृष्ट्याऽविरोधात् ॥६५।। विपक्षप्रतिक्षेपदक्ष! त्वदंहि,(?) प्रभोऽध्यक्षलाक्षारसक्षालितेव । परि(री)क्षाकरी दक्षतालक्षणाना-मरुक्षाक्षरक्षारतासक्षणानाम् ॥६६।। हरशिलोच्चय-हार-मरुन्नदी-हसिततारक-शीतकरश्रियम् । अनुहरन्ति परिस्फुरितव्रता-युधवला धवला तव कीर्तयः ॥६७।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ गुरुसमागममात्रसमुद्भवद्-भवविरक्तमतिस्त्वमहो! यथा । इह विमुक्तगृहा नवयो(यौ)वने, स्फुरतिके रतिकेलिवने तथा ॥६८॥ यां विधाय विधिना कृतार्थता, स्वश्रमस्य निरवापि चेतसि । प्रत्यतिष्ठ(ष्ठि)पदिति प्रगल्भधी-श्चारुमूर्त्तिगुरुरेव निर्मिता ॥६९।। अगण्यपुण्यो जयति प्रसिद्धः, गुरुर्गरीयान् विजयरत्नसूरिः । तारामिषात् तस्य गुणव्रजस्य, स्फुटा विधेः खे गणनादिगेषाम् ॥७०।। क्षमाश्रयत्वाद् विगलद्विषादै-र्जगत्रयीसेवितयुग्म(पुण्य)पादैः । शिशोर्बुधोत्तंसयुजोऽवधार्या, श्रीतातपादैः प्रणतिस्त्रिसायम् ॥७१॥ तथा तत्र - . कलितस्वपरविशेषा, सम्मतिशास्त्रा(स्त्रम्) इवाऽस्मदिष्टतमाः । पण्डितपर्षमुख्याः, श्रीपुण्यसुन्दरो( रा) विबुधाः ॥७२॥ श्रीविमलविजयविबुधाः(धा), विबुधाः श्रीज्ञानविजयनामानः । महिमासुन्दरविबुधाः(धा), गणयः श्रीलक्ष्मीविजयाख्यः(ख्याः) ॥७३॥ लाभसागराख्यगणयो, वर्गे श्रीतातचरणभक्तेऽस्मिन् । नत्यनुनति(ती) प्रसाद्ये, यथाक्रमं सत्क्रमोत्तुङ्गैः ॥७४|| अत्र- धीरविजयाख्यविबुधाः(धा), गणयः [श्री]प्रेमविजयनामानः । अत्रालयाधिष्ठाता, वृद्धश्च सहजविजयगणिः ॥७५।। इत्यादिमुनय(मुनि)वर्गः, श्राद्ध-श्राद्धीश्च विनयनम्राङ्गः(?) । श्रीगुरुचरणकमलं, प्रणमति भक्त्योल्लसच्चित्तः ॥७६।। विज्ञप्तिरियं लेखः, ऋषि-विधु-त्रि-बाणमानमितवर्षे । फाल्गुनसितसप्तम्याम्, इति मङ्गलं स्याहपुरनगरे ॥७८।। ॥ इति श्रीविजयरत्नसूरीश्वरविज्ञप्तिरियं लेखः । -xशेठ आणंदजी कल्याणजी जैन पुस्तकभण्डार लींबडी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ (१९) श्रीपद्मानन्दमुनिलिखितो विज्ञप्तिलेखः श्रीगुरुभ्यो नमः ॥ स्वस्ति श्रीरभवद् मरालदयिता नव्या पदाम्भोरुहे Jain Educationa International नित्यं वासमुपेयुषी स्वयमतः शृङ्गारिताभाजनम् । ज्ञात्वैवोत्सुकमानसाऽऽश्रयवती लोलेक्षणा लोचन: (न-) भ्राम्यद्भृङ्गविनोदनोदनमिदं तज्जीवनाद् दूरगम् ॥१॥ रम्यारिष्टवरिष्ठलष्टविलसत्प्रोद्दामधामास्पदं चञ्चल्लोलशिखाप्रथाः प्रथयते यस्यांऽसयोर्वंशयोः । शोभां हाटकभूधरोद्गतलसत्सच्चित्रवल्याः स्फुटं सर्वानन्दपदप्ररोहधरणीं विश्वर्द्धिविख्यातिनीम् ॥२॥ यस्यांऽसयोर्हाटकहारिवर्णयोः, शिरोरुहाणां लतिका विरेजे । स्वर्णाद्रिकूटस्थघनावलीव, सार्वाग्य – कृष्णपतिस्वरूपाः ॥३॥ श्रीनाभिनन्दन ! महोदयदीप्तदेह !, श्रीनाभिनन्दनमहोदयदीप्तदेह ! श्रीनाभिनन्दनमहोदयदीप्तदेह !, श्रीनाभिनन्दनमहोदयदीप्तदेह ! ॥४॥ सुरावलः शोभननन्दनाढ्यः, प्ररूढकल्पद्रुमशालमानः । सुपर्वपर्षत्परितोषहेतू: (तु:), श्रीमारुदेवः सुरभूधरोऽभूत् ॥५॥ वृषाङ्को धूर्जटी देव:, शङ्करो घनवाहनः । महाव्रत्यभवो योऽस्ती - शानो रुद्रो महाव्रती ॥६॥ वृषाङ्कोऽपि वृषैर्हीनो, वृषलाञ्छनकोऽपि यः । मृत्युञ्जयो मृत्युकोऽपि मृत्युञ्जयनरेरितः ॥७॥ स्वस्तिश्रीभृदुरीकृतो यदि कृतो भीतः कुरङ्गोऽप्ययं सौवाङ्के विनिवेश्य लाञ्छनमिषादित्याप्तभावादिव । सिंहाद्यैरभिभूत एष गहने कान्ताकटाक्षैः पुरे लीनोऽप्यब्जमभूत् कलङ्ककृदहो त्रायस्व मामप्यतः ॥८॥ पारापतोऽपि यदि देहसमर्पणेन, प्राग् नाथ! मेघनरराजभवेऽप्यरक्षि । सम्प्रत्यवाप्तभुवनोत्तमवैभवोऽपि, स्वान्तार्पणेन किमु नाऽवसि मां भवाब्धेः ॥९॥ ११९ For Personal and Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ शशिनि तावदितोऽस्मि कलकतां, जिनप! राजिमतीषु कुरङ्गता[म्] । विमलगानरसे स्पृहयालुता-मिव मृगो ह्यचिरातनयं श्रितः ॥१०॥ स्वस्तिश्रिया समधिगम्य पदारविन्दं, यस्य प्रभोस्सुरनरा अपि पूजयन्ति । गोपालवामनयनाश्रिततोयजातं, यद्वद् विहङ्गमपतिप्रमुखा रमन्ते ॥११॥ स्वस्तिश्रिये पार्श्वजिनाधिराज(जः), पटिष्ण(ष्ठ?)चिच्चङ्गिमचारुवाजः । क्षमाक्षमानिःकृति(निष्कृति?)मैकगञ्जः, प्रोद्यत्तपःकर्मविशालपिञ्जः ॥१२॥ स्वस्तिश्रिये कस्य न यस्य पाद-पङ्केरुहं जातमशेषसत्त्वे । अभक्तितो भक्तिवशाद् व(?)जापि-दृष्टान्तभूतावुरगासुरेन्द्रौ ॥१३॥ यो वर्णोऽन्तस्थताद्यैः कलुषितहृदयः सोऽपि नीतो महत्त्वं जन्याख्याभ्यां स्वकाभ्यां 'यल' इति यमलं वर्णयोः किं विश्रृ(स)ष्टम् । इत्थं जानन्निवादेस्त्वमसि जिनपते ! वीरदेवाऽत्र लोके नूनं छेद्यं जडत्वं तदिह न ध्रियते सर्ववेत्रिश्वकेन ॥१४|| नैकद्यं प्राप विप्रस्तव वरभुजयोः सेवनाभिः कियद्भि र्लोभार्थेऽन्त्यौ महाख्यौ श्रमणगुणनिधे! नाममध्यं तदा तौ । त्वत्पादाम्भोजसेवाश्रयणनिपुणधीश्चञ्चरीकायमाणो निर्लोभार्थी कृतार्थी किमिह निजपदाम्भोजसेवाविहीनः ॥१५।। तान् जिनेन्द्रचन्द्रान् विगततन्द्रान् नमितसुरेन्द्रान् प्रणामपदवीमानीयप्रोच्चैर्यत्र जिनेन्द्रसद्मशिखरश्रेणीषु दण्डावली स्फूर्जद्रत्नमरीचिवीचिनिचयैः प्रक्षालयन्ती नभः । लीलालिङ्गनकौतुकं विदधते यत्राऽमरीणां गणाः ___ कामस्थामवशंवदाः प्रियतमैर्युक्ता वियुक्ता अपि ॥१६॥ यत्रोत्तुङ्गविहारशृङ्गविलसद्दण्डावलीस्तम्भता मन्योन्यं किल कामकेलिकलहे सिद्धाङ्गनानां प्री(प्रि)यैः । यात्युद्वन्धनहेतवे ध्वजपटोऽप्युद्दण्डवाताहतो निर्जन्न(?) व्यजनायते मृगदृशां कामश्रमापास्तये ॥१७॥ प्रासादोत्तुङ्गशृङ्गध्वजपटविलसद्दण्डपाण्डित्यदम्भा दुबाहुर्वावदीति त्रिभुवननगरीर्या पुरीति प्रकर्षात् । हंहो! आयातपूर्वो यदि किल कमलाकेलिकन्दर्पसर्पः(प) आस्ते वो जागरूकस्तर्हि(?) गरुड इवाऽस्त्येष मे चण्डदण्डः ॥१८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १२१ प्रासादोद्यत्पताकाऽञ्चलचपलरणत्किङ्किणीकोटिरावै रात्रौ सङ्गीतरि(री)तिप्रवणमतिमतां जागरं या करोति । प्रातः प्रासादघण्टारवमुखरहरीकुञ्जगुञ्जन्मृदङ्ग ध्वानान्नाट्यं नटद्भि(:) शिखिभिरुपहितं कोकिलामञ्जुगी[तम्] ॥१९॥ वित्तोपायनजीविनः सुरगणा मत्तोऽभवन् दिग्गजा वाताद्यै रजसो विशुद्धकरणाच्चन्द्रादयो द्योतनात् । पातालाद् भुजगाधिपोऽपि चरणव्याजाच्च मां सेवते विश्वस्येयमितीव बोधनकृते याऽऽधत्त चण्डध्वजम् ॥२०॥ उच्चैर्दण्डपताकिकाकपटतो याऽपूर्वसल्लेखिनी मन्ये स्वं भुजमुद्विधाय लिखतीत्युच्चैर्नभोमण्डले । नाऽर्हद्भ्यः परमेश्वरा न च रवेस्तेजो परन्नापरन्(म्) व्यु(व्यू)ढं व्योमतलात् तथैव न पुरी मत्तोऽधिका विष्टपे ॥२१॥ लोकोद्धारधुरन्धरा वयमितो गर्जन्तु भां दिग्गजाः . क्षोणीपीठसमुद्धृतेर्भुजगराड् गर्वं दधातू(तु) क्षणम् । मेघाद्याः क्षितिजीवनोपकृतितो पुवै(पूर्वे) स्थितं तन्वतां चिन्तातीतफलप्रदा वयमतो हृष्यन्तु मण्यादयः ॥२२।। विश्वोद्योतकरा वयं वयमितिच्छायाभृदर्कादयो देवानां पदवी तले प्रमुदिता नित्योदयं कुर्वताम् । यः कश्चिन् न हि मन्यते जिनपतिं तस्यैष दण्ड: पटु मूर्व(र्द्ध)स्फोटनकृत् करे भ्रमति मे वक्तीव या पूरिति ॥२३।। माद्यन्मत्तमधुव्रता रणजणझंकारबद्धादराः(रा), गर्जदिग्गजगल्लभित्तिपटलीस्त्यक्त्वा पुरा स्संस्तुताः(?) । उद्यन्नूतनगन्धबन्धविवशा मेघभ्रमं तन्वते यत्रोत्तुङ्गविहारशृङ्गकलशेषूच्चैः पतन्तोऽनिशम् ॥२४॥ यत्र श्रीजिनमन्दिरेषु सततं कल्याणकुम्भा बभु भूयः सौरभलालसे:(सैः) सुमनसां मालाप्रसूनव्रतैः । श्यामीभूतमुषा इतीव भगवद्भक्त्यैकबद्धादराः(रा) एतेऽद्यापि किमङ्ग नैव मनुजा मोक्षश्रीयां(या) भाजनम् ॥२५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क उत्फुल्लामलकोमलोत्पलदलव्यालोलभृङ्गावली झङ्कारारवगीतगाननिपुणाः सौवर्णकुम्भा बभुः । यत्राऽर्हत्सदनेषु सौवविभवस्वर्गत्रपासम्भवां (वा) गायन्तीव जयश्रियं जिनपतिप्रसादवृन्दस्य किम् ? ॥२६॥ उद्यत्पीनपयोधरप्रतिभटाश्चञ्चत्कुटा रेजिरे यत्र श्रीजिनचन्द्रचन्द्रशिखर श्रेणीषु लब्धास्पदाः । भूपीठात् कलिकश्मलादिकलुषान्निर्गत्य रम्भास्तनै र्वैराद् देवगृहेऽप्यगन्तू (न्तु) मनसो तिष्ठन्निहैव ह्यमी ॥२७॥ भोगान्ते परिणाममन्थरदृशो व्यामूढसिद्धाङ्गनाः, कामव्याकुलभर्तृदत्तनखरश्रेणीविदीर्णस्तनाः । यत्र श्रीजिनसद्महेमकलशान् प्रालेयसच्छीतला नौत्सुक्यात् परिरभ्य गाढमुरसा शश्वल्लभन्ते सुखम् ॥२८॥ यत्र स्फाटिकजैनसद्मशिखर श्रेणीस्थकुम्भावली मुद्यत्तप्तसुवर्णचूर्णघटितामालोक्य जातत्रपाः । मन्ये पीनपयोधराः स्मितदृशां नंष्ट्वाऽविशन् कञ्चुके काठिन्योपचिताश्च चूचुकमिषात् श्यामं मुखं चक्रिरे ॥२९॥ कुर्वन्तः शतचन्द्रितं शुचिनभः शृङ्गारयन्तो दिशः पुष्णन्तो नगर श्री ( श्रि ) यं रुचिभरैः स्यन्तस्तमोमण्डलम् । मुष्णन्तो दिवि तारकान् रुचिभरैः सौवर्णकुम्भा बभु र्यत्र श्रीजिनराजसद्मशिखर श्रेणीप्रवेणीगताः ||३०| कुम्भोऽयं किल चक्रवर्त्तितनयो वप्ता च पीताम्बुधे राजन्माग्निविशुद्धि(द्ध)शीलविमलस्सर्वाङ्गसौन्दर्यभाक् । कल्याणेषु वसुप्रमेषु जगतामाद्यं तथा मङ्गलं मन्येऽधारि कुटैरितीव मुकुटीभूतः शिरस्यर्हताम् ॥३१॥ शीतांशुर्विहरन् विहङ्गनिगमे व्यामूढगत्याऽन्यदा यत्रोत्तू (तु) ङ्गजिनेन्द्रसद्मशिखरप्रान्तादवाप्तक्षतः । मन्येऽतः समभूत् कलङ्ककलुषो नो चेत् कुतोऽतः परं Jain Educationa International खण्ड २ भूयो भ्रंशभिया विलम्बितगतिर्नित्यं शशाङ्को भवेत् ? ||३२|| For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १२३ यत्रोत्तुङ्गजिनेन्द्रसद्मशिखरप्रान्ते सू(सु)तीक्ष्णेऽक्षलत् । ---------- तत्रैकस्तुरगः पयोधिरसनापीठेऽपतच्चाऽष्टमः प्राप)त्तत्प्रभृति प्रभु(भू)तविभवः सप्ताश्वसञ्ज्ञां रवि(विः) ॥३३॥ रात्रौ यत्र जिनेन्द्रसद्मशिखराण्याभान्ति वृक्षा ई(इ)व, । येषां बिभ्रति तारका विकसिता व्योम्नि प्रसूनव्रतम् । नेत्रानन्दविधायकं फलमयं तत्राऽलगच्चन्द्रमाः(मा) नो चेद् देवतया कथं कथमयं व्यावर्ण(l)ते सज्जनैः ? ॥३४॥ यत्र जननीरागाः पुत्राः क्रीडावन-पर्वताश्च, न नृपाः(३), सारङ्गाल्युपचितानि वनानि नगराणि च(२), यत्र नीरङ्गाः मत्स्याः (२) न तु जनाः, घनाघनाः(ना) मेघाः(घा) न तू(तु) यन्निवासिनः, कादम्बरीकथा इवाऽप्रापितान्ताः स्त्रियो बुद्धयश्च(२), ध्रियते दानसौरभमिभैरिभ्यैश्च (२), मात्रागणना छन्दःशास्त्रेषु (२), मित्रोदयद्वेषिनो(ण) उलूको(काः)(२) न तु विषयजनाः । चित्रं चपरद्रव्यापहारिणो यत्र व्यवहारिजनाः (२), न तु चौराः । किं वर्ण्यतेऽधिकं देशो, लेशो नास्ति कुकर्मणाम् । हिंस्य-हिंसकभावोऽपि, कर्माऽधर्मेष्व योज्यते(?) ॥३५॥ तत्र देशे यत्र पुरे प्रमाणशास्त्रतोऽप्यधिकप्रमाणता (२) यत्र न द्रव्यप्रमाणं(२) न गुणानां मानं (२) बुद्धकि(द्धिक?)रणमानान्यपि कर्माण्यनेककर्माणि (२) सत्यपि सामान्ये सामान्यजनभावः (२), परं विशेषघटनायां सास्रघट्टनम् (२), अनेकशो यत्र समवायाः (२), प्रागभावपरिपालनमपरिपालनं च सदाऽसत्सद्वस्तुनिष्पत्तौ । प्रद्ध्वंसाभावाभावोऽपि धर्मा(म)कर्मणि । कुकर्मण्यत्यन्ताभावः । सर्वज्ञातिष्वन्योन्याभावः । यत्र सुसूत्राणि- द्विजवक्षांसि, विपुलशास्त्राणि, धनिगृहाणि परिधानाम्बराणि च (४) । सदा विकसितानि- जनचित्तानि, अरिमण्डलानि, कमलाकरेषु कमलानि, करावयवाश्लिष्टभूषणानि च (४) । सदा सुरभिसम्पन्नानि भोगिगृहाणि सन्त्यसुरगृहाणि च, न सन्त्यधमर्णगृहाणि । सुरगृहाणीवा-(णि चा)ऽन्तर्मन्दिराणि(?) बहिश्च गोकुलानि कमलाकरेषु कमलानि(नी)व (२) । यत्राऽरिष्टवासिनो रिष्टं भजति (२) । यत्र सरोगाणि हंसयमलानि, न त्वजन(?)श्राद्धकुलानि । यत्र श्राद्धकुलानि न जातानि सदूषणानि विधाधरकुलानि(नी)व * श्लोके द्वितीयपादः प्राप्तो नाऽस्ति । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ निःपुण्यकुलानि(नी) व । यत्राऽसत्प्रतिपक्षः केवलान्वयी वंशः । दण्डप्राप्तानि कुग्रामणीव यत्र पुरे जिनभवनानि । सदा गुरुवासितानि श्रद्धालुचित्तानि, जिनभवनानि, भोग्यम्बराणि, सदौषधानि च (४) यत्र राजा पूर्वो दिक्पतिरप्यसङ्क्रन्दनः, अकृतान्तो धर्मराजा(२) प्रवेता(त्ता)ऽप्यजडमतिः(२) अनुत्तरोवनः । य _ _ वैरिणं दृष्ट्वा, शमं कारयति स्फुटम् । वैरिणोऽपि च तं वीक्ष्य, सन्तापं यान्ति तत्कथम् ? ॥३६।। समुद्रालङ्कारोऽङ्गुलिदेश इव यो देशः मेरुरिव सुवर्णाकरः । विप्राकारनिरूपकाणि यज्ञसूत्राणीव यत्र नगराणि । यत्र पुराणि सरांसि(सी)व कमलाकराणि । यत्र रामारमालि(यत्राऽऽरामरमालि) शोभिता वनभूमयो नगरभूमयश्च । प्राकारशोभितं स्त्रीवदनमिव यन्नगरम् । अनेकगोरसान्वितं गोपगोपितं च गोकुलमिव यन्नगरम् । कथं न नाकादवशिष्यते ? यत्र सुराधिपसेवन(नं) गृहे गृहे रम्भाविलासः नाकवासिनः क्षमायुताः विगतवसनाः सर्वे सतीपतयः सर्वे पोशाः न विनायकाः स्थाने स्थाने धनदाः सू(सु)धां(धा)न्यभोजिनः (२) अपाका मुनयः नाधिगतविमानाः यत्र निर्ग्रन्थाः मुनयः मार्गणा बाणाः परेच्छाकारकाः समर्थाः नाऽपरे । यत्राऽऽस्फालनं तालयोः, कुट्टनं पटहस्य, ताडनं मर्दलस्य, बन्धनं तोरणानां, प्रेरणं भेाः, नाऽन्येषाम् । बहुलायाः शिशवो शिशवस्व(श्च) । यत्राऽलङ्कारोपचितानी(नि) शरीराणी(णि), न तु वदनानी(नि) । यत्र लोकैर्विस्मारितानि गृहाङ्गणानि, न तु शास्त्राणि । चित्रं यत्र राजा दण्डकृद्राम इव दोषाकरोऽपि राजा । प्रतापवान् सूर्य इव कुवलयविबोधकश्चन्द्र इव ।। वसुस्थितनयो न्याई(यी), योऽभवद् वसुधाधिपः । . सोऽस्तु सुस्थितलोकानां, शोकापनयनोत्सुकः ॥३७॥ दण्डो दण्डिकरे दत्तः, छत्रे वा सम्यगाप्यते । तेन लोके त्यक्तशोके, दण्डवार्तेति नोच्यते ॥३८।। श्रीमत्(न्) ! तत्र भवत्पाद-विन्यासाधिकपाविते । तत्र च(?) श्रीमति श्रीके, श्रीराजनगरे पुरे ॥३९।। अनेकपालिसंशोभि, तडागं राजमन्दिरम् । यत्राऽऽस्ते सर्वदोत्कृष्टं, दानवारिविराजितम् ॥४०॥ अनेकमार्गणाकीर्णं, गृहिद्वारं सरास्पदम् । सम्यगाप्तफलं रम्यं, वाहनास्थितिमञ्जुलम् ॥४१।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ ह्रस्व-दीर्घगुणोपेतं, नानावर्णविभूषितम् । नगरं राजते यत्र, सज्जनाश्रितचित्तवत् ॥४२॥ अनेकवादितनादविडम्बितानि जिनसदनानि वादिकूलानीव । घनघनसाराभिषिक्तानि भूतलानीव जिनभवनानि । यत्राऽशोका: (का) लोका: (का) वृक्षाश्च । गीतार्थावेदकाः भट्टाः, श्राद्धाः, गान्धर्वाश्च | मनोर्थसिद्धिकृतः सुरा इव नराः । जिनभवने श्वर्गा(र्वगाः) अमृतभुज इव अप्सर (र: ) सम्भोक्तारोऽमरा इव नरा: (रा) दानकरा अप्यगजाः । I I तस्माद् विद्यापुरतः, पद्माण( न )न्दो विनेयपरमाणुः । संयोजितकरकमलो विधिवद्विज्ञप्तिकां तनुते ॥४२॥ श्रीमत् शान्ति (श्रीमच्छान्ति) जिनेन्द्रस्य, चरित्रं सुधियां पुरः । व्याख्यायतेऽत्र समहं, रचनाकलिताश्रये ॥४३॥ प्रस्तुतं पठनं पाठन - मुपधानं सुयोगवाहनं चाऽपि । इत्यादि धर्मकृत्ये, प्रजायमानेऽथ निर्विघ्नम् ॥४४॥ वार्षिकपर्व समागा - दखिलसुपर्वातिसर्वगर्वहरम् । तत्राऽभूत् सानन्दं, व्याख्यानं कल्पसूत्रस्य ॥४५॥ अपि [च] द्वादशदिवसान्, मारिनिवारणपटुः पटहघोषः । श्रीतातपादकीर्त्ति (र्त्ति) - कीर्त्तनपाठ इवाऽपाठीत् ॥४६॥ तथा चतू (तु) र्मास - [क] वत्सरादि- सत्पारणे पोषणमार्हतानाम् । स्नात्रादिनाऽर्हत्प्रतिमार्चनं च, सञ्जातमद्याऽपि च जायतेऽत्र ॥४७॥ अनेकषष्टाष्टमदुस्तपानां, विधापनं याचकदानदानम् । श्रीतातपादातुलनाममन्त्र - स्मृतिप्रभावप्रकटोदयेन ॥४८॥ अपि च १२५ तव संस्मरणमनःप्रसरे ये कृतहर्षरङ्गा दर्शनतो विकसितनयनास्ते शिवसौख्यभराङ्गाः । जीवन्तोऽपि मृतास्ते ये भवदविनयकृतरङ्गाः (ङ्गा) देवगणैरपि ते महिता ये तव सेवनसङ्गाः ॥४९॥ वन्द्यः किं न हि रेणुकणो यस्तव चरणे लग्न: (ग्नो) निस्तीर्णोऽपि स एव जना (नो) यस्तव वचसि विलग्नः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ कोटीशोऽपि भवद्विरहे नग्नेभ्योऽप्यतिनने: (नग्न: ?) हीनधनोऽपि सर्वधनो यस्तव शिक्षामग्नः ॥५०॥ धन्यास्तेऽप्यणवो नियतं ये तव चरणासक्ताः ता कलिता अपि नो मनुजा ये तव चरणविरक्ताः । सिद्धिसुखाभिमुखा अपि ते ये तव सेवनभक्ताः स्तुत्यास्ते नु भवन्तू (न्तु) सदा त्वद्वचनामृत्यु (मृत) युक्ताः ॥५१॥ ते धन्यास्तव चरणयुगोपासनबद्धमनस्का:(स्का) धन्यास्तेऽपि कथं न स्युस्तव संस्तवनवचस्काः । दृष्टिपथं तव ये भगवन् ! वन्द्यगतिं लभतां ते देवाधीश ! विनम्य ! विभो ! त्यक्तभवोदधितां ते (?) ॥५२॥ म (मा) न्यस्सोऽपि नखो मुनिराट् ! यस्तव चरणे रक्तः (क्तो) हीननरोऽपि न मत्सदृशो यस्तव भक्तिभक्तः । कृत्यकृतो (त्यो)ऽपि कथं नो ते येषां हृदि तव वास: भवदास(श)यविनिहितसदनास्तेषामस्मि सुदासः ॥५३॥ किमभ्रमातङ्गमिषाद् यशस्ते, चकार पूतं परनाकलोकम् । नो चेत् कुतोऽसौ किल शुभ्रतायाः पदं कवीनामिह संस्तवाय ? ॥ ५४ ॥ डिण्डीरपिण्डपटुताश्रयणप्रयोगी सन्मानसा श्रयि (य) शमामृतपूर भोगी । किं केवलाभिनवबोधरसैकयोगी, यः शङ्क्यते कविजनैः स यशः श्री ( श्रि) ये स्तात् ॥५५॥ कलिकालकालकाल-व्यालव्यापादने निपुणबुद्धिः । निधि (ध)नीकृतविकृतिकरः करोत् (तु) भद्रं भुवनपीठे ॥५६॥ इत्याद्यनेककविगणकृतकीर्त्तिकीर्त्तनैः प्रसादलहरीतरङ्गितैः कृपारसागरै: (रै) नमिताखिलनागरैः शिष्यकल्पितकल्पद्रुमैः सौवाङ्गारोग्यपरिकरनिरामयताद्युदन्तप्रापकप्रसादपत्रप्रापणेन प्रमोदनीयः शिशुलेषः (शः) । किञ्चोपवैणवं शिशुः प्रणमति श्रीपूज्यपादपादपङ्केरुहाणि प्रसाद्ये वः तत्र ।। ॥ इति गच्छाधीशकङ्गललिखवाविधि सम्पूर्णः ॥ मु. गौतमविजयलिपीकृतम् । थिरपद्रः । कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर, कोबा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ३१०९१ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १२७ (२०) समीनगरस्थ-तपगच्छपतिं प्रति सिद्धपुर-लालपुरतो श्रीविद्याविजयस्य पत्रम् स्वस्तिश्रीः शान्तितीर्थेशं, द्वितीयेन्दुमिवोदितम् । अम्भोधेरिव भक्तस्य, प्राप्य वेलेव वर्धते ॥१॥ स्वस्तिश्रीश्चन्द्रलेखेव, श्रीशान्ति _ _ _ _ _ । वर्धते नु दिनं प्राप्य, कलया कलयाऽधिकम् ॥२॥ तं श्रीमन्तमनन्तश्री-दायकं जिननायकम् । श्रीआचिरेयमानीय, पन्थानं प्रणतेर्मुदा ॥३॥ सुधावलिप्तप्रासाद-मञ्जुमण्डलमण्डिते । विशुद्धसारसम्यक्त्व-धारकश्रावकोत्तमे ॥४॥ देवगुर्वादिशिष्टानां, गुणगानपरायणे । श्राविकानां समुदाये, दानकल्पद्रुमोपमे ।।५।। श्रीमति श्रीमति तत्र, वन्द्यपादपवित्रिते । यथार्थनाम्नि [श्री] प्रौढे, श्रीसमीनगरे वरे ॥६॥ प्रकृष्टपञ्चप्रासाद-सारसिद्धपुरस्य तु । शाखापुराल्लालपुरात्, श्रीशान्तिजिनमन्दि[रा]त् ॥७॥ विनयो विनयानम्र-भालस्थलकृताञ्जलिः । विद्यादिविजयस्साधुः, विज्ञप्तिं तनुतेतराम् ॥८॥ प्रयोजनं यथा चाऽत्रां-ऽशुमालिन्युदये सति । सभायां श्रीपरिशिष्ट-पर्वस्या_रावाचनम् ॥९॥ श्रीमदाराध्यपादानां, श्रीमतां ध्यानमुत्तमम् । इत्यादिसुकृतश्रेणी-सिद्धिसौधं समेधते ॥१०॥ श्रीमत्पितृसमानानां, ध्येयानां धीमतां सदा । श्रीमतां श्रीमतां मम, सं_स्मृत्यनुभावतः ॥११॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ अपरं- अनन्याजन्यसौजन्य-लतावनपयोधरैः । स्वकीयप्रस्फुरद्धैर्य-तर्जितामरभूधरैः ॥१२॥ समग्रगुणरत्नौघ-प्रस्फुरन्मकराकरैः । संसारकक्षपञ्चाक्ष-वृक्षोन्मूलनसिन्धुरैः ।।१३।। मन्मनोऽम्भोजविस्मेर-सहस्रकिरणोपमैः । भव्यचित्तचकोरैक-शरच्छीतरुचिप्रभैः ॥१४|| गताखिलविषादैश्च, सुप्रसादैः सदा भृशम् । वन्द्यैः प्रसादमाधाय, लेख: प्रेष्यो मुदे परम् ॥१५।। लेखागमने भूयांसो, संजाता वासरा विभो! । न तत्र वेद्मि के(को) हेतु(:), प्रसाद्यो मे यथातथम् ॥१६।। अथ प्रसादमाधाय, प्रसाद्यस्त्वरितं मम । प्रसादलेख: श्रीवन्द्यै-विज्ञेया प्रणतिस्तथा ॥१७|| तथाऽत्र - श्रीमद्भग[व]त्पादानां, पण्डितानां तथैव च । गणिनां विमलाद्धीरा-द्धीराद्विजयानामपि ॥१८॥ क्षेमाच्च वर्धमानाद्वि-जययोरनगारयोः । ज्ञेये [प्र]न(ण)त्यनुनती, ज्ञाप्ये तत्रत्यानां यथा ॥१९॥ यद्वचोऽमृतमाधुर्य-जिता नंष्ट्वा सितोपला । शलाकां स्वमुखे क्षिप्त्वा, काचघटीं विवेश किम् ॥१॥ कलाकलापकाम्यश्री-कुमुदोद्बोधकारकः । छायासम्भारसंयुक्तो, यः शशीव विराजते ॥२॥ अगण्यपुण्यनैपुण्य-लावण्यादिमसद्गुणैः । यः सुधीः शोभते बन्धु-रत्रोच्चैरिव वारिधिः ॥३।। --x मनिश्रीधुरन्धरविजयजी-सङ्ग्रहगत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ (२१) श्रीविजयचन्द्रसूरिं प्रति वाचक-श्रीविजयचारित्रस्य लेख : नमः श्रीविघ्नच्छिदे नमः ॥ यस्याः समीपे हरिसिद्धिसंज्ञका बभौ भवानी जनपूर्णकामदा । श्रीपार्श्वनाथांहियुगं प्रणन्तुं मेरो: सुशृङ्गादिह चे ( चै ) व भारती ॥ १ ॥ पुण्ये सुमासेऽत्र गृहे गृहे च गेयं च श्रोतुं पुरवर्णिनीनाम् । नानानुरूपं प्रविधाय गौरी कैलाशशृङ्गाच्च समागतेव ॥२॥ * * * Jain Educationa International स्वस्ति श्रीसदनं प्रकामदलनं संसारविध्वंसनं सद्धर्मप्रतिरूपणं गुणगणं वन्दामि तावत् जिनम् । कर्मोद्भ्रान्तितदुःखिजन्तुशरणं मोक्षस्य सन्दर्शनं संसारार्णवतारणं प्रतिदिनं मोहाग्निकंवर्षणम् ॥१॥ यत्र श्राद्धविचारसारचतुराः कुर्वन्ति धर्मार्हतम्, यत्र ज्ञानविरामरागनिपुणाः तन्वन्ति तत्त्वात्मकम् । यत्र प्राज्ञप्रतिष्टबुद्धिषु पराः पाठन्ति विद्यावली: च्छात्राणां प्रतिवासरं प्रियगिरा गायन्ति गीतं शुभम् ॥२॥ यत्राऽनेकमृदङ्गदुन्दुभिमहातौर्य्यत्रिकेणापि ते सत्पूजागुणपुष्पचन्दनद्रवै: अर्चन्ति तीर्थादिमम् । श्राद्धाः कान्हजिकेन सङ्घपतिना कारापिते चैत्यके यो देवो वृषभः सदा सुखकरो भूयात् स वो मङ्गलम् ॥३॥ श्रीमद्रामपुरे मनोरमपुरे सन्नीतिवृद्ध्यात्मके राज्ये चारुणि ब्रह्मरूपकथनं संसारविच्छेदकम् । धर्मं वक्ति जिनोक्तिपद्धतिमयं श्रीसूरिसार्दूलकः श्री श्री श्रीविजयेन्दु श्राद्धपुरतो भट्टारकः प्रत्यहम् ||४|| यत्र श्रीपार्श्वनाथं नमति प्रतिदिनं सिन्धुसिप्रामिषाच्च त्रिश्रोता क्षीरकूपारनु स्वयमगमत् यत्तडागस्थलात्तु । १२९ For Personal and Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ कृष्णेनाऽप्युद्गृहीत्वान्युरगगुणयुतं मेरुमन्थानदण्डं कृत्वा द्रष्टुं सुरत्नानि युगविधुमितं तानि दृष्ट्वा जहर्ष ॥५॥ यस्योपकण्ठे शुभसस्यरक्षणे क्षेत्रेषु गोपा बहुधा ब्रुवन्ति । शिरो विधूनच्छुशुभे सुधान्यकं गुरूपदेशादिव सत्यमार्हतम् ॥६॥ विविधधैर्यगुणादिकधारणं जरठदुर्जयमन्मथवारणम् । सकलशास्त्रविनोदसुकारणं प्रतिदिनं प्रणमामि मुदा गुरुम् ।।७।। स्वयशसा धवलीकृतविश्वकं चतुरतातनुसद्मनि दीपकम् । स्वकीयरूपमनोदयजीपकं प्रतिदिनं प्रणमामि मुदा गुरुम् ॥८॥ विजयचन्द्रसूरीन्द्रमुनीश्वरं वदनचन्द्रसहर्षविकस्वरम् । निजललाटसुभास्करभास्वरं प्रतिदिनं प्रणमामि मुदा गुरुम् ॥९॥ भविककामुकभावुककारणं मदनदारुणवारणवारणम् । मरणजन्मजराभयहारिणं विमलपञ्चमहाव्रतधारिणम् ॥१०॥ सकलमङ्गलसञ्चयपूरणं हरिसमानतमोभरचूरणम् । गजपतेरिव मन्थरचारिणं नमत सद्गुरुमाभवतारणम् ॥११॥ क्षोभनं मोहनं दोहनं पावनं कर्मणां देहिनां मेधिनां धर्मिणाम् । लावनं रक्षणं वर्द्धनं पालनं स्तौमि नत्वा गुरुं भक्तियुक्त्याऽनिशम् ॥१२॥ को लक्ष्मीपतिभूषणं वपुषि किं कुं पाति का बादरैः (?) । को गौरीपतिमौलिमण्डनयुगेऽस्मिन् मानिता कस्य वा ?। के सम्यक् निजभावभावनपरा: के सन्मुखास्सङ्गरे । एषामाद्यशुभाक्षरेषु गदितो जीयाच्चिरं सो गुरुः ॥१३॥ बहिल्ापिकेयम् ॥ तस्मात् पवित्रं परमं सनातनं सौहाईहाई शुभसौख्यकारकम् । लेलिख्यते पत्रमिदं मया मुदा कनीयसा पत्कजसेवकेन ॥१४॥ विजयचारित्रवाचकसाधुना सुमुनिलालजीकेन सहाऽणुना । सुऋषि वृद्धि-खुमानयुतेन च सुगुरुसंस्तवनेन सदा मुदा ॥१५|| युगमिता मिता(?) विततिर्नतिपूर्विका प्रतिदिनं क्रियते क्रमवन्दना । भविकशाखिसुधा(धो)दकसारिणी मदनदुर्द्धरसिन्धुरवारिणी ॥१६।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १३१ अमरसुन्दररूपप्रदायिनी विशदता कवशास्तुविशायिनी (?) । भुवनकीर्तिसुधीसुखकारिणी सुगुणदीपकस्नेहसुधारिणी ॥१७॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।। विजयचन्द्रसूरीन्द्रमुनीश्वरान् सकलशास्त्रविनोदसुधीश्वरान् । पुरवरेषु विराजतिरातिथौ(?) रुचिररामपुरे सुपरिस्थितान् ।।१८।। सार्दूल इव सार्दूलः दुर्वारमारवारणे । पयोदो गुणवर्णाभ्यां सेवते गुरुपत्कजम् ।।१९।। जीवराजो दयायुक्तो कन्दर्पदर्पदर्पकः । तारुण्ये ललनालक्ष्म्यौ त्यक्त्वा यो व्रतमाददे ॥२०॥ रूपेण रुचिरं नाम रूपचन्द्राभिधानकः । नित्यं सुपठते शास्त्रं गुरूपदेशकारकः ॥२१॥ एभिः सुशिष्यैर्गुणपण्यपूरणैः सदा प्रसन्न मनोनुगामिभिः । साराजमानान् गुरुभक्तियुक्तिभिः हितोपदेशेन सुधर्मकारकैः ॥२२॥ रुचिरचम्पकपत्रवनावली विहगकूजितषट्पदकाकली। मदनलालनमानसमानिनी रमति यत्र सदा गजगामिनी ।।२३।। सकलपर्वसुपर्वसुपर्वणि सुकृतदानदयावृषचारुणि। अभिगते समकारि सुसङ्घकैः गुरुमहोछव-देवसुपूजनम् ॥२४॥ परमपावनकल्पसुसूत्रकं सुकृतसञ्चयसन्ततिपूरकम् । रसविधुप्रमितैः शुभवाचनैः अघहरन्तमवाचि मया तदा ॥२५॥ शुभप्रतिष्ठसुसङ्घसुमुख्यकैः प्रवर श्रोत्रपुटेन मुदा श्रुतम्। विशदधर्मगुणैर्गुरुपर्वकं विमलभावनया परिभाषितम् ।।२६।। शतमिता भु(ऽभ)वन् श्राद्धा पौषधव्रतधारिणः । सांवत्सरिकपर्वस्य परत्र हितकाम्यया ॥२७॥ कल्पस्य शुभभोज्यं च पञ्चाननस्य सद्मनि । जातं सन्मानसंयुक्तं ताम्बूलादिकपूर्वकम् ॥२८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ सुधन्यो धनराजाह्वो-ऽकार्षीत् पारणपावनम् । लघुकल्पस्य लौल्येन लाभस्य वृष-श्रेयसाम् ॥२९।। श्रीगुरुपर्वसत्कस्य रायचन्द्रेण धीमता । कारितं भोजनं मिष्टं मोदकैस्तु विशेषतः ॥३०॥ एवं सद्गुरुदेवपूजनक्रियानुष्ठानध्यानादिभिः, जातं श्रीगुरुवासरं बहुमहैराराधितं भक्तिभिः । श्रीमद्भिः शुभक्षामणं प्रतिदिनं ज्ञेयं त्रिसन्ध्यं सदा श्रीसांवत्सरिपर्वकस्य भवतां वाच्यं मुनीनां च नः ॥३१॥ तूर्णं प्रदेया भवतां च पत्री ही भवानां शुभसौख्यकी। यथा प्रमोदो लघुसेवकानां सञ्जायते तत्प्रतिवाचनेन ॥३२॥ लेखेऽत्र यत्किञ्चन न्यूनवृद्धि प्रमादतो नः परिशोधनीयम् । दक्षैः सुधीभिश्च कृपा विधेया यथा शिशूनां वचनं जनेता ॥३३।। अभय जैन भण्डार, बीकानेर नं. २०६७६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १३३ (२२) जालौरनगरस्थ-भ. श्रीजिनसुखसूरि प्रति उपाध्याय-श्रीविद्याविलासगणिनो लेख: पत्रं उ. श्रीविद्याविलासगणिलिखति पूज्यान् प्रति - स्वस्तिश्रीसदनं वृषौघवदनं श्रीनाभिभूपाङ्गजं, सत्सौभाग्यविशालभोगकमलालीलाप्रदं प्राणिनाम् । तं देवं प्रण(णि)पत्य यस्य विमलायोध्यानकीर्तिभृशं (?), ___चान्द्रया पार्वण एष एव मयका लेखोऽधुना लिख्यते ॥१॥ तत्राऽऽदौ नगरवर्णनम् - अस्ति प्रशस्तसुधाधवलितकोमलामलविहितचित्रैरपि विचित्रैः सरभसकेसरकेसरिसहस्रखरकरनि(न?)खरधाराविदारितमत्तमातङ्गकुम्भस्थलविगलितमुक्ताफलशबलितभूषणभूषितरामाजनवदनचन्द्रचन्द्रिकाप्रकाशितगवाक्षजालैर्मदमुखरराजहंसकुलप्रतिबिम्बितकोलाहलमुखरितपद्मरागहीरकाश्मजटितकुट्टिमतलैर्वेश्मभिरुपशोभितं; दिशि दिशि तारानिकरमिव कुसुमगण(णं) समुद्वहद्भिररुणाभिघातपरवशरविरथतुरङ्गग्रासविषमित० पल्लवैश्चन्द्रमृगनिगरणाऽमृतरसनिकरजातसेकैः मत्तकुम्भिकुम्भस्थलदारणोद्यतसिंहैरिवोत्फुल्लकेसरैर्गगनंलिहसारविहारैः पुनः सारिष्टैरपि चिरस्थितिभिरुपवनपादपैश्च, तिथिपरेणाऽप्यतिथिसत्कारपरेण, असंख्येनाऽपि संख्यावता, अमर्मभेदिनाऽपि वीरतरेण, अचक्रेणाऽपि सुदर्शनेन, अविदितस्नेहक्षयिणाऽपि कुलप्रदीपेन, पौरजनेनाऽनुगतं; शश्वद्वैयाकरण-नैयायिकादियुक्तिजालाकुलीकृताशेषकविचक्रवालैः प्रतिदिनसंसेव्यसंसेव्यमानगुरुचरणविशुद्धान्तःकरणवृत्तिश्राद्धजनगणैः शुद्धधर्माचरणैर्मण्डितं; भट्टभट्टारकैश्चाऽनवरतदह्यमानकालागुरुधूपपरिमलोद्गारैर्वासागारैः पक्वेष्टिकचितोटजनिविष्टश्रेष्ठविदग्धजनप्रस्तूयमानकाव्यधर्मकथाश्रवणोत्सुकितवृद्धैः शिशुजनकलकलारवनिवारणकृतक्रुद्धैः सन्ध्यावन्दनप्रतिक्रमणोपविष्टविहितव्यवस्थैर्बहुगृहस्थैश्चाऽनेकनरनारीजनगणस्वस्वकार्यागमनत्वरैश्चत्वरैश्चाऽपि विराजितम् । पुनर्यत्र योगेषु शूल-व्याघातचिन्ता, विपल्लवता वृक्षेषु न तु लोकेषु, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क खण्ड २ दानविच्छेदः कदाचित् करिकपोले, दाक्षिण्यं दिनिश्चये न तु कुमार्गगोपने, शृङ्खलाबन्ध: काव्यग्रन्थने (ग्रन्थे / ग्रथने ) षु, उत्प्रेक्षाक्षेपः काव्यालङ्कारेषु, मारयोगोदयो यौवनोदये शारिक्रीडासु च अधररागता तरुणीगणेषु न विदग्धजनेषु, वृद्धमपि यत् सुन्दरीपरिवृतोपकण्ठे भर्भरीभासुरं श्रीजालौरनगरम् । तत्र स्थितेषु अनवरताभ्यस्तसाहित्यविद्याप्रबोधोद्भूतप्रभूतनव्यभव्य १३४ काव्यकलाप्रावीण्यसम्यग्विज्ञातच्छन्दोऽलङ्कारनाटकशाटकादिविविधप्रबन्ध खण्डपाण्डित्यव्यपगतसन्देहससन्दोहनिरवद्यगद्यगोदावरीप्रवाहवावदूकाखर्वगर्वगरिमास्तम्भेषु उदयाचलकूटकोटिप्ररूढागूढजपाकुसुमकान्तिदिनकरकरनिकरप्रतिमाभ्युदयप्रतापप्रसाधितप्रचण्डानेकसामन्त भूपालभूपपतिसततप्रणतपादारविन्देषु व्यक्तमुक्ताफलस्तोमनिर्मलकीर्तिप्रसरपूरितदिगन्तरेषु अगण्यधन्यपुण्योद्भूतलावण्य स्वकपोलानल्पकल्पनातर्जितत्रिदशाचार्यवर्यचातुर्येषु गाम्भीर्यादिगुणग्राममण्डिताऽ - चातुर्यकलितसुधामधुरवचनसम्बुद्धप्रबुद्धमुनिमण्डलीसम्पादितनिस्सीममहिमप्रभूत प्रभावालब्धमाहात्म्येषु सुहृदयहृदयैकवेद्यनिरवद्यविद्वज्जनमण्डलीमण्डनायितविकटवाक्छटाटोपपाटनोत्पन्नयुक्ति (क्त) युक्तिमुक्ताशुक्तिजालाकुलीकृताशेषप्रकटप्रघटकार्थसांख्यमीमांसकौलूक्यशाक्यसौगततैत्तरीयादिसिद्धान्तसत्सदसद्विवेचनैकातिशायिदक्षेषु युगप्रधानलब्धपदप्रधानेषु भट्टारकश्रीमच्छ्री श्री १०४ श्रीजिनसुखसूरिप्रणतपादारविन्दयमलेषु सत्यार्थाभिधानप्रधानोपाध्याय श्रीधर्मवर्द्धनगणि उ० श्रीराजसागरगणि विविधवाचकवाचंयममधुकरसंसेव्यमानमल्लिकाकुसुमप्रतिमकोमलपत्कमलेषु । विविधविटपिगणराजितसुरभिकुसुमविमलकेतकीकुड्मलविवरविनिर्गतमधुर मधुधारासारसीकरकणनिकरास्वादमधुकरझङ्काररवकरम्बितारामात्, अनेकाभिरामारामाराजितविदग्धजनगणप्रगुणगौरवगौरीकृतसकलदिग्वलयात्, रुचिरालयात् श्रीसोझितनगरात् सद्विनयात् उ० विद्याविलासगणिभि: पं. विद्यामूर्ति - लब्धशील-अभयमूर्त्तिज्ञानप्रभु-विद्यारङ्गप्रमुखगुरुविनयाभिमुखसाधयन्तयुतै: (?) स्पष्टाष्टोत्तरशतनमत्कन्धरैर्द्वादशावर्त्तवन्दनतत्परैः विहितभवत्क्रमकुशेशयसम्मुखमुखविनयकलाकलापचतुरैर्निगद्यते । तथा च प्रतिदिनं भवत्कृपाकटाक्षवितरणादेव देवसुरसरि ङ्ग इव Jain Educationa International 1 For Personal and Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १३५ रङ्गसङ्गो विलसतीह । सर्वदानन्दकन्दसन्ततिरस्तु तत्र तत्रभवत्सु, यतिततिषु च तथैव । तथा – तत्र सुखेन तस्थुषां श्रीसङ्घस्य धर्ममार्गेऽनघे प्रवर्तयतां चानन्तरं परिहासप्रकास(श)विविधकथाकलापालापपरिशीलनचतुरशृङ्गारिजनमनोऽनिन्द्यप्रमोददानैकपटुः कामकलाकुशलसधवकामिनीयामिनीसुरतभरपरिश्रमोद्दामिनीसौत्सुक्य विहितशीलालङ्कारविभूषणसुश्लोकबिब्बोकः आस्तिकजनकृति(त)जिनपतिपूजास्नात्रश्रुतिशकुलीसिद्धान्तस्तोमश्रवणपवित्रितजन्मसौख्यास्पदः सर्वलौकिकदौर्वादिकपर्वगर्वपर्वतेषु कुलिशपात इव धर्मिणां सुखवात इवाऽऽजगाम षण्मतोपनिषण(ण्ण?)निर्दूषणधिषणाभूषणपर्युषणासर्वपर्वाधिराजः । तत्रोत्पन्नविवेकच्छेकसाधर्मिकजनकृतप्रयत्नबलाहीनेताभिधानः कृतपारणाकारणोद्यमादुद्भूतप्रभूतधर्मवर्मपरिवृतो भृशं हृष्टः सांवत्सरिकपौषधव्रतिनां खगखाक्षि(२०५)प्रमितानां चतुर्मोदकेन सघृतखण्डरसनाप्रमोदकेन पारणकमकारि । यत् पुनरन्येऽपि स्वकीया बन्धुजनाः स्वजनाश्च चक्रुर्जक्षणं तत्क्षणम् । सर्वा प्रमितिः पञ्चसत्याः(?) समजनि । भवत्पत्कमलयमलं नमो मे शिष्यवर्गस्याऽनिशमवगाहतां गाढम् । सर्वोऽपि सङ्घो नंनमीति चतुरं भवन्तमत्रत्यस्तत्रभवन्तम् । लघुसम्पादिताऽपि सुवर्णमालाखचिता शब्दालङ्कारमण्डिता मत्पत्रीपुत्री, तस्याः पाणिग्रहणं कार्यमार्यैः । तथा कृपावद्भिः भवद्भिरपि तत्रत्यपर्वाराधनस्वरूपं विज्ञाप्याशयैरिति भद्रम् ॥ ये पाथोधितटं विलम्ब्य सहसा भ्रश्यन्ति लोलोर्मयः, किं स्तव्याः श्रुतिसन्निधिं प्रतिगताः संख्यावतां सद्गुणाः । श्रीमच्छ्रीजिनसौख्यसूरिसुगुरोभिन्दन्ति नोनावलाः । __त्रैलोक्ये विदितावदातयशसः श्लाघ्यास्तके सादरम् ।। युगप्रधानभट्टारकश्रीजिनसुखसूरीन् प्रति......... -x Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ (२३) जहन्नाबादस्थ-श्रीजिनसुखसूरि प्रति राजनगरतो श्रीलब्धिविजयानां विज्ञप्ति: स्वस्ति श्रीमन्तमर्हन्तमनन्तातिशयनिलय-त्रिभुवनवलयप्राज्यसाम्राज्यलक्ष्मीपतिमधरीकृतप्रणतशतक्रतुशिरःकोटिकोटीरतटजटितलोहितमणिमयूखनखवृन्दममन्दानन्दकन्दोद्भेदननवाम्बुदमभिनन्दनमभिनम्य रम्यमनसा श्रीमज्जहन्नाबादे वादिवदमदसर्पसारि-द्रुकर्ममर्माविद्-धर्माधर्मादिषट्पदा निरूपणविदुर-प्रतिपक्षवक्षस्थलभिदुर-लोकोत्तरचारुचमत्कारकरतारयशोराशिरश्मिधवलीकृतदिगन्तसप्तभङ्गीतरङ्गिणीतरङ्गिततनु-मनुजराजराजिहृदयराजीवमधुकर-स्मरविकारहरणजितकरण-शरणैकस्थान-गुणनिधानेषु सकलजनमण्डलीश्रवणकुण्डलीकृतनामधेयेषु युगप्रधानेषु श्रीश्रीश्रीश्रीमच्छ्रीजिनसुखसूरिभट्टारकेषु सत्साधुमण्डलीमण्डितेषु श्रीमद्राजनगरतो विनयनयललाटतटघटिताञ्जलिसम्पुटानां लब्धिविजयानां पं. महिमोदयजयविशालकीर्तिविशालचिरंगांगजीप्रमुखपरिवृतानां नमस्कारपुरस्सरा विज्ञप्तिः । श्रेयोव्रततिरिह तत्रभवद्भवन्नामधेयालवाललालितकृपादृष्टिसुधावृष्टिसंसिक्ता चोत्सर्पति । तत्रत्या च प्रतिप्रत्यूषमेधमानाऽऽशास्यते । तथा चतुर्मासत्वावच्छेदकावच्छिन्नानि दिनानि जातानि, परं प्राभवप्रवृत्त्यव्युत्पत्तिविच्छित्तिकारकं प्रेमपीयूषपात्रं विचित्रप्रवृत्तिसूचकं पत्रं नोपस्थितम् । तत्र को हेतुः ? तथाऽत्र चैत्रसुदिद्वितीयायां विशेषाशेषोदन्तमुक्ताफलमयूखा पत्री [स]मेता, गतास्सन्तापतापा हृगोचरतां गताश्च सर्वे समाचाराः । अपि मया _ _ _षा छदा उपढौकिताः, परं प्राभवं प्रत्युत[र]छन्द(छदं) नो समेतं, तस्मादद्यापिपर्यन्तं सं[दे]हदोलायामेव स्थितोऽस्म्यस्मि ॥ -x ला. द. विद्यामन्दिर, अमदावाद (मुनिश्रीधुरन्धरविजयजी द्वारा) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ (२४) मेडतानगरस्थ - श्रीजिनलाभसूरिं प्रति जयतारणतो वाचक-श्रीजीवनदासस्य लेख: स्वस्ति श्रीवरशङ्करादिविधियुक् श्रेयस्करं भास्करं, सद्विद्याविशदांशुभिर्दिविस (ष) दां पूज्या (जा) स्पदं श्रीपदम् । श्रीवामेयममेयगेयसुगुणग्रामाभिरामं सदा, नत्वा श्रीगवडीपुरस्थममलं सौख्यश्रियोर्दायकम् ॥१२॥ अपि च- स्वस्ति श्रीनन्दसानन्द- सुधास्यन्दिचिदम्बुदम् । कल्याणकदलीकन्दं, वन्द्यं संवन्द्य पार्श्वपम् ॥२॥ मरुदेशोऽखिले देशे, रम्यो रम्याणि तत्र नगराणि । नगरेषु मेडताख्यो, रम्यो यत्र स्थिताः पूज्याः ॥३॥ वञ्जुला सुव्रता गाव, उर्वी तत्रोर्वरा मता । भव्या नरो यत्र पूज्यै-श्चातुर्मासी कृता शुभा ॥४॥ औदार्यगाम्भीर्यगुणैरलङ्कृता - नलड्ङ्कृता (न्) वाक्सुधयाऽतिरम्यान् । सूरीश्वराणां मुकुटायमानान् युगप्रधानान् जिनलाभसूरीन् ॥५॥ श्रीसूरिभूरिगुणगुम्फिततारहार- विभ्राजमानहृदयान् हृदयाभिरामान् । सद्धर्ममार्गबहुभावितचित्तवृत्तीन्, भट्टारकोत्तमजिनादिमलाभसूरीन् ॥६॥ विमलसद्गुणरत्नमहोदधीन्, वचनमिष्टसुसारसुधानिधीन् । जययुतान् जिनलाभयतीश्वरान् सुकृतिनां कृतिनां बहु सम्मतान् ॥७॥ अगण्यपुण्यान् नयनाभिरामान्, प्रावीण्यभाजः सदसद्विवेकिनः । म (स) न्नामसञ्ज्ञान् जनताभिवन्द्यान्, सूरीश्वरान् श्रीजिनलाभसूरीन् ॥८॥ पाठकादिबहुसाधुसान्वित- चि (च) ञ्चरीकप्रतिमैश्च सेवितान् । प्रोल्लसत्क्रमकुशेशयान् सदा, जैनलाभगुरुसूरिसिन्धुरान् ॥९॥ जयतारणकृतसौख्यनिवासो, गणिवरवाचकजीवनदासः । सहित: पण्डितसूरिजमुनिना, प्रणति च वक्ति वच: सुविचारम् ॥१०॥ सर्वदा सुखमत्राऽस्ति, कृपेक्षणनिरीक्षणात् । तत्राऽपि तत्समीहेऽहं, श्रीजितां श्च (च) दिवानिशम् ॥११॥ Jain Educationa International १३७ For Personal and Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ अथ स्तुतिः यूयं पूज्या गुणैर्योज्याः, न्याय्याः (य्या) न्यायविदां वराः । कृपादृष्टिसुधावृष्टि-रभिषेच्या ममोपरि ॥ १२ ॥ गुणरत्ननदीना ये, न दीना ये परर्द्धिषु । मिथ्यात्वाहिप्रवीना(णा) ये, प्रवीणा ये समश्रुतौ ॥१३॥ ते यूयं कस्य नुर्वन्द्या, नो वन्द्या नो विधानतः । अनवद्यानिन्द्यसौन्दर्य-वर्यगाम्भीर्यभाजनाः ॥१४॥ युष्मज्जलजशब्देन, भक्त्युत्कण्ठाधरा नरः । प्रत्यहं पूज्यवक्त्राब्ज-दर्शनेन च किं पुन: ? ॥ १५॥ युष्मत्स्पर्द्धकरा ये, युष्मत्सभ्याश्च येऽत्र सम्मान्याः । सज्जनजलजविकाशे, विबुधैरिह यूयमुच्यन्ते ॥१६॥ युष्मद्विषां च शीर्षे, पुनरपि यूयं सदोज्ज्वला यशसा । ते ते भवन्तु सकला, अकरपपूर्वं (?) वयः पूज्याः ॥१७॥ आर्याद्वयं प्रेषितमद्य मोदाद्, युष्मत्समीपे सततं सुखाय । सभ्यान् समाहूय विचार्य ह्यर्थं प्रतिच्छदे लेख्यमनुग्रहेण ॥१८॥ मदादेशस्थले पूज्यैश्चतुर्मासी यदाऽकृत । मह्यं पूज्यचतुर्मासी-स्थानं देयं नयः स च ॥१९॥ अथवाऽलं विचारेण राज्ञा यः क्रियते नयः । महोपरोक्षादारभ्य (?), मय्यैवाऽत्राऽवसर्पिणी ||२०|| अमिताक्षरसंयुक्तं, पत्रमागामि श्रीजिताम् । अमितानन्दमच्चित्ते, तेन भावि सुखाकरम् ॥२१॥ युष्मत्कृपादृष्टिप्रसादतो वयं, कुर्मो वचोयुक्तिविचारचातुरीम् । यत् कोकिलः कूजति माधुरं वच, इष्या ( ? ) भ्रमञ्जर्यनुभावतस्तत् ॥२२॥ प्रीत्यमत्रं कृपाछत्रं, विचित्रं विशदाक्षरैः । सत्रादपि पवित्रं च, प्रतिपत्रं प्रदीयताम् ॥२३॥ रामपक्षेभभूमान (१८२९ ) - वर्षस्य शुभकारिणः । नभस्यस्य च राकाया - मिति: (ति) श्रेयो दिने दिने || २४|| Jain Educationa International ॥ इति श्रेयः ॥ कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर- कोबा, नं. ५२७४३ For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १३९ (२५) श्रीलक्ष्मीचब्दाचार्य प्रति मुनिपरमानन्दस्य लेख: श्रीजिनाय नमः ॥ स्वस्तिश्रीश्रेयसाप्त्यै प्रवरहिमभरक्षीरधिक्षीरहीरडिण्डीरक्षीरनीरप्रभवशुचिलसत्कान्तिशुक्लीकृताशम् । नित्यानन्तैकवासं जगति परिसरद्ध्वान्तविध्वंसदक्षं, चाऽर्हन्तं सन्मृगाङ्कं प्रणमत सततं को मुदं वर्धयन्तम् ॥१॥ स्रग्धरावृत्तम् ।। अथ नगरवर्णनम् ॥ अखर्वगर्वहर्यैश्च, दुर्दान्तो दान्तदन्तिभिः । रथैः पादातिकैर्यत्र, प्राज्यं राज्यं विराजते ॥२॥ श्रीकर्मसिंहो नरनाथ ईड्यो, न्यायार्जितश्रीभृतकोशगेहः । निसर्गधैर्यावलिलचिताब्धि-र्दुष्टारिसिंहो वरिवर्ति यत्र ॥३॥ अतिलसत्कनकाभरणस्फुर-न्मणिगणि(ण)धुतिदीपितदिग्गणाः । गुणगणप्रथिताः पुरुपौरुषाः, अपरुषाः पुरुषाः खलु यत्र च ॥४॥ विमलकमलनेत्रं प्रस्फुरच्चन्द्रवक्त्रं मृदुतरतलहस्तं रूपसम्पत्प्रशस्तम् । कलितललितगात्रं स्फीतिमत्प्रीतिपात्र ___ मविरतमभिरामं स्त्रीकुलं यत्र कामम् ॥५॥ तदुपकण्ठमहीकमलाकराः, गतलसत्कमला: कमलाकराः । ददति यत्र मुदं कमलाकराः, विमलचारुलसत्कमलाकराः ॥६।। ये तं जगति विख्यात-मुत्तममुत्तमप्रदम् । पटियाला नाम पुरं, सुप्रतिष्ठमधिष्ठिताः ॥७॥ ज्ञानाम्बुपूरपरिवृद्धिविधौ द्विजेशाः, रत्नाकरा इव गभीरगुणोपपन्नाः । दारिद्र्यदुःखतिमिरौघहरिप्रभावा स्तस्मिन् वसन्ति खलु ते मुनिवृन्दवन्द्याः ॥८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ समस्तास्तीकृता भावा-रातयः कीर्तयस्तताः । येषां स्वेषां सदभ्यस्त-शस्तशास्त्रप्रपाठनात् ॥९॥ सच्चारित्रोदकस्तोम-प्रसिक्ता बधपादपाः (?) । स्वपादपद्मरजसा, प्रीणिताशेषविष्टपाः ॥१०॥ सिद्धान्तसिद्धान्तविचारदक्षाः, दूरीकृताशेषविपक्षपक्षाः । उन्मादिदुर्वादिमदैकशैल-नाशेन्द्रवज्राधिकसत्प्रभावाः ॥११॥ सर्वज्ञोपज्ञधर्मज्ञा, अज्ञज्ञानविधौ पराः । परोपकारसत्कार-कारप्राग्भारभासुराः ॥१२॥ सुवर्यौदार्यगाम्भीर्य-धैर्यसौन्दर्यसुन्दराः । सौभाग्यभाग्यवैराग्य-योग्यारोग्यगुणाकराः ॥१३।। ये शिक्षयन्ति सततं विनयं विनेयान् दुःकर्मघर्महृदभर्मसुधर्ममर्मम् । उद्दामदुर्दममदद्विरदैकवृन्द सिंहोद्धताः सकलदुःखविनाशकाश्च ॥१४|| द्वादशघ्नगुणप्राप्त-मानैर्गुणगणैर्युताः । आचार्यवर्या नांगाधं-भूमितश्रीभिरन्विताः ॥१५।। श्रीलक्ष्मीचन्द्रनामानः सूरयो जितसूरयः । भूरिश्रेष्ठर्षिभिः सेव्य-पादपद्मगुणालयाः ॥१६।। श्रीमच्छीपूज्यपादाब्ज-मधुपैः सुगुणोत्तमैः । श्रीरघुनाथजित्कैश्च महर्षिपदधारकैः ॥१७॥ जुहारमल्लमुनिभि-हुंकमाब्जैस्तथा पुनः । शिवदासैः सिरदार-मल्लैर्लाभेन्दुसंज्ञकैः ॥१८॥ भागचन्द्र-रायभाण-सुमेरुमल्लसाधुभिः । हिन्दूमल्लैश्च सन्तोष-चन्द्रकै रतिरामकैः । तथा माणिक्यचन्द्रैश्च दयाचन्द्रैस्तथाऽपरैः ॥१९।। सदा चञ्चदाचारसारैकविद्भि भवद्वाक्यपीयूषपानैकतृष्णैः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २०१३ शुभैर्लक्षणैर्लक्षितैर्भक्तिमुख्यैः, शुभैः साधुवृन्दैर्युता(तां)स्तान् मुनीन्द्रान् ॥२०॥ श्रीमद्विक्रमनगरं, सकलकलारम्यमानुजग्रामम् । कृतिजनविहिताशों भं, बहुविलसद्राज्यसाम्राज्यम् ॥२१॥ तत्र स्थितः सदाचारो, भवदाज्ञापरायणः । पूज्यपादैकसद्ध्यानः, परमानन्दसंज्ञकः ॥२२॥ मानमल्ल-धर्मचन्द्र-लालचन्द्रैश्च संयुतः । टीकमेन्दु- सुजाणाभ्यां गुलाबाह्वेन वा पुनः ||२३|| स्यात् षष्टिप्रमार्जनकैः, द्वादशावर्तवन्दनैः । वावदीति भृशं पूज्यान्, वन्दित्वा वचनं त्वदः ||२४|| प्रमोदवल्ली भवतां कृपावता - मुल्लासमाप्नोति कृपासुदृष्टित: । सैवाऽनुघस्त्रं भवतां सुपार्श्व - पार्श्वस्य पार्श्वस्य कृपादृशः स्तात् ॥२५॥ यूयं गुणगरिष्ठेष्ठाः परमेज्याः कृपालवः । तीर्थकृत्पदमारूढा गणभृत्पदधारकाः ॥२६॥ वयं तु सेवका एव, मनसाऽपि हि नाऽपरे । पूज्यराजैर्महाराजै - रिति ज्ञेयं शुभाशयैः ||२७|| ममोपरि सदा पूज्य - राजराज ! दयार्णव ! । कृपादृष्टिर्विधेयाऽऽप्ता, सुधावृष्टिसमाऽसमा ॥२८॥ संघाज्ञया चाऽष्टिकायां, कल्पसूत्राभिधानकम् । मया हृद्यं वाचितं त-च्चितं पुण्यं महत्तरम् ॥२९॥ तथा संवत्सरीघस्रे, पौषधग्राहिणो नराः । एकत्रिंशन्मिता ज्ञेयाः श्रावकाः सूरिपुङ्गवैः ||३०|| श्राविकाभिश्च भव्याभिः, शीलितं शीलमुत्तमम् । विचित्रं च तपस्तप्तं, गानमङ्गलपूर्वकम् ॥३१॥ तथाऽष्टिकाया हृद्यायाः, क्षाम्यन्ते क्षामणा मया । पूज्यराजैश्च क्षन्तव्याः, साधुवृन्दसमन्वितैः ||३२|| , १. 'विहितसुशोभं' इति पाठः सम्भवेत् । २. अष्टाह्निकायां, पर्युषणायाम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १४१ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ इत्यादिमैः समाचारैः, समाचारैश्च पर्वणः । अदः स्वरूपं सर्वज्ञैः, पूज्यराजैः कृपालुभिः ॥३३॥ सुवर्णवर्णवर्णितं, सुलेखलेखमुत्तमम् । निरीक्ष्य हृष्य मानसे प्रदेयमञ्जसा दलम् ॥३४॥ वियन्निधाननागेन्दुं (१८९०)-मिते वर्षे तथाऽऽश्विने । पक्षे सिते त्रयोदश्यां, लिखितो लेख उत्तमः ॥३५।। श्री श्री १०८ श्री श्री श्री पुजजीसाहबसु साहा हुकमचंद करणीदांन केसरीसीव करणीदांन जीवणमल नथमल नवलमल सुरजमल ताराचंद पनालाल सादलसी सालमचंद बाहादरमल जीवराज धनसुख जसकरण वरढीयारी वंदणा बार १०८ अवधारसी. आपरै दरसणरी अभलीषा घणी छे. सुदरसण वेगे देरावसी कीरपा करनै घणे मानसु........ १. आ पछी भिन्न भिन्न गृहस्थोनी आ ज प्रमाणे सही-हस्ताक्षरोथी ते पृष्ठ तथा तेनो पाछलो भाग घणे सुधी भर्यो छे. जे नामो उकेलवानुं विकट छे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १४३ (२६) जेसलमेकस्थ-श्रीलक्ष्मीचन्दाचार्य प्रति विक्रमपुरतो मुनिश्रीपरमानन्दस्य लेख: श्रीजिनेश्वराय नमः ॥ स्वस्तिश्रीस्थितिभूतिविच्युतिमयं विश्वं हि विश्वं ध्रुवं, यस्याऽऽदर्शतलेऽमलेव, विमले सत्केवले भासते । दीबंध्यामृतदायकं(?) नरसुरव्यूहैररं सेवितं, तं वामेयमहं जिनं प्रणिपनीपत्ये परामोदतः ॥१॥ अथ नगरवर्णनम् भूमीश्वरो यत्र सदैव राजते, नित्यं सदाचारयुतोऽयुतोऽहंसा । दुष्टार्यहङ्कारसमूहशैल-नाशेन्द्रवज्राधिकसत्प्रभावः ॥२॥ यस्मिन् पदं शासति पित्र्यमीतयः, प्रतापसन्त्याजितवासभूमयः । सन्त्रासिता दैववशाद् वने वसद्-दुष्टारिसन्दोहनिवासमादधुः ॥३॥ स्वर्गादौ यस्य सत्कीर्ति-रुज्ज्वला गीयते सुरैः । शास्त्रानुसारव्यापारः, शिल्पज्ञानविशारदः ॥४॥ श्रीमूलराजेश्वरराज्यराजो, न्यायाजितश्रीभृतकोशगेहः । निसर्गधैर्यावलिलङ्घिताब्धि-र्दुष्टारिसिंहो गजसिंहनामा ॥५॥ चतुभिः कलापकम् ॥ विचित्रचित्राः सुतरां पवित्राः, विशालशाला: सुतरां विशालाः । अतीव रम्या नरनाथनम्याः, जिनालया यत्र सतां हितालयाः ॥६॥ लसत्कीर्तियुक्ता धनश्रेणिसक्ताः, जिनाज्ञावहाः बिभ्रतः श्राद्धधर्मम् । जनानां वरा दुष्टमार्गातिरिक्ताः, सदा दाद(न)दा दानिनो यत्र सन्ति ॥७॥ लसति यत्र हि रम्यवधूजनो, निखिलपूरुषचक्रमनोहरः । चकितबालकुरङ्गविलोचनः, शरदुडुव्रजनाथवराननः ॥८॥ बहुविहङ्गमराजिकृतास्पदं, विशदवारिजराजिविराजितम् । अमरसागर इत्यभिधं सरो, लसति यत्र विशालतरं वरम् ॥९॥ सद्राकाहिमरश्मि-कुन्द-हिमवच्छूभैस्तथाऽभ्रल्लिहै:, प्राज्यापाम्पतिपुत्रिभिर्बहुविधैः सौधैः सदा सुन्दरे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ तस्मिन् देवपुरोपमे सुखकरे ये संस्थिताः सूरिपाः, श्रीमज्जेसलमेरुनामनि पुरे विश्वम्भराभूषणे ॥१०॥ अथ श्रीपूज्यानां स्तुतिः - लुङ्कागच्छं सनाऽच्छं बृहतमहिपुरोत्थं वरं श्रीवराढ्यं, ख्यातं मह्यां विपश्चिद्वरमणिजलधि सन्ततं शासतो वै । तेजोव्यूहोज्जटालज्वलनततिभरज्वालिताः शत्रुवर्गाः, श्रीलक्ष्मीचन्द्रजित्का हिमकरकिरणाभैर्गुणैः शोभमानाः ॥११॥ शीलं हि तेषामकलङ्कितं च, द्रष्टुंमनाः पञ्चशरः समेत्य । सङ्कल्पयोनिर्हदि लज्जितोऽभूत्, व्यर्थश्रमो दृप्त इति प्रलीनः ॥१२॥ अतीवोग्रपुण्या जनौघैः सुनम्याः, सुगुप्तीर्दधानाः जितानङ्गमानाः । विनष्टारिपक्षा लसत्साधुपक्षाः, शुभैर्लक्षणैर्लक्षिताः साधुशिष्याः ॥१३।। शुभगणगणैर्नानावर्णप्रसूनविगुम्फितां, सदुचिततरां येषां वाणीमशेषजनप्रियाम् । प्रवरगुणिनां युक्तामारोपयन्ति शिरस्सु च स्रजमिव जनाः शश्वद्भक्त्या मनोहरणीमिह ॥१४॥ यदीयपादाम्बुजसेवनाप्त-विज्ञप्तिपारागसुधां निपीय । सच्छिष्यभृङ्गा हतजाड्यरोगा, महाप्रमोदं द्रुतमालभन्ते ॥१५॥ ध्रुवं सर्वविद्यासमुद्राः सुभद्राः, जगद्विश्वजीवेषु चेतोदयााः । वरौदार्य-गाम्भीर्य-धैर्यैर्गरिष्ठाः, जगद्विस्तृताचारु(र) भूरिप्रतिष्ठाः ॥१६॥ स्फुरद्रम्यराजीवपत्रालनेत्राः, समस्ता कलाकीर्णशुभ्रांशुवक्त्राः । सदा ध्यायमानोल्लसन्मूलमन्त्राः, सुगात्राः सदा पाठितानेकछात्राः ॥१७॥ आचार्यवर्या नागाशा(१०८)मिताभिः श्रीभिरन्विताः । सर्वज्ञोपज्ञधर्मज्ञाः, लक्ष्मीचन्द्रा मुनीश्वराः ॥१८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १४५ भवत्पादपाथोजएकालिमकैः (टेकादिमल्लैः?), ___ प्रकृत्या विशिष्टैरुमेदादिमल्लैः ।। जुहारादिमल्लैस्तथा शम्भुरामै-महादेवदासैस्तथा भारमल्लैः ॥१९॥ हुकमेन्दुरायरा(ग? )ण-लूणकर्णसुशिष्यकैः । सिरदारमल्लजित्कैश्च, हिन्दूमल्लैस्तथा पुनः ॥२०॥ सुमेरादिमल्लैः सुसन्तोषचन्द्रै-भवद्वाक्यपीयूषपा+कतृष्णैः । सदा चञ्चदाचारसारैकविद्भिः, शुभैः साधुवृन्दैर्युतान् तान् मुनीनान् ।।२१।। श्रीमविक्रमनगरे, सकलकलारम्यमानुजग्रामे । कृतिजनविहिताशोभे(तसुशोभे), बहुविलसद्राज्यसाम्राज्ये ॥२२।। तत्र स्थितो रामधनः, परमानन्दस्तथा पुनः । मानमल्ल-धर्मचन्द्र-भागचन्द्रेश्च संयुतः ।।२३।। कर्मचन्द्र-टीकमेन्दु-सुजाणादिसुशिष्यकैः । आईदानेन [च] पुनः, द्वादशावर्त्तवन्दनैः । वावदीति भृशं पूज्यान्, वन्दित्वा वचनं त्वदः ॥२४॥ षट्पदीयम् ॥ प्रमोदवल्ली भवतां कृपावता-मुल्लासमाप्नोति कृपासुदृष्टितः । सैवाऽनुघस्रं भवतां सुपार्श्व-पार्श्वस्य पार्श्वस्य कृपादृशः स्यात् ॥२५।। वयं तु सेवका एव, नाऽपरे मनसाऽपि हि । पूज्यराजैरिति ज्ञेयं, विद्यारत्नाब्धिभिः खलु ॥२६॥ मनोलतायां मे पूज्य-राजराज! दयार्णव! । कृपादृष्टिविधेयाऽऽप्ता, सुधावृष्टिम(स)माऽसमा ॥२७॥ अष्टिकायां मया हृद्यं, कल्पसूत्राभिधानकम् । सङ्घाज्ञया वाचितं त-च्चितं पुण्यं महत्तरम् ॥२८॥ तथा संवत्सरीघस्त्रे, पौषधग्राहिणो नराः । एकोनविंशतिमिता, ज्ञेयाः सूरिपुरन्दरैः ॥२९॥ सीमन्तनीभिर्भव्याभिः, शीलितं शीलमुत्तमम् । विचित्रं च तपस्तप्तं, सम्भाविताऽपि च भावना ॥३०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ तथाऽष्टिकाया भव्यायाः, क्षाम्यन्ते क्षामणा मया । पूज्यराजैश्च क्षन्तव्याः, कृताञ्जलिपुटेन हि ॥३१॥ सर्मा(मा)चारैः समाचारैः, स्वरूपं पर्वणस्त्वदः । इत्यादिमैः पूज्यपूज्यै-ज्ञेयं ज्ञेयविचारिभिः ॥३२॥ सुवर्णवर्णवर्णितं, सुलेखलेखमुत्तमम् । निरीक्ष्य हृष्य मानसे, प्रदेयमञ्जसा दलम् ॥३३।। अब्दे युगेभ-नागेन्दु-मिते(१८८४) ह्याश्विनमासि वै । राकायां भार्गवे वारे, लिखितो लेख उत्तमः ॥३४॥ तत्रत्यानां सर्वेषां श्रद्धालूनां श्रद्धालूनां धर्मलाभो निवेद्यः श्रीमद्भिः पूज्यराजराजैः ॥ श्रीश्रीश्री१०८श्रीश्रीपुजजी साहबारा सदा सेवग हुकमी वरढीया साह हुकमचंद-करणीदांन-केसरी-सवजी-रूपजीवणमल-करणीदांन-नथमल नवलमल-सादुलमल........ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १४७ (२७) श्रीरामचन्दसूरि प्रति श्रीरघुनाथमुने: पत्रम् (सं. १८८५) स्वस्तिश्रीवरवर्णिनीप्रियतमं विश्वत्रयैकाधिपं, प्रत्यूहप्रशमाय कामदमपि प्रेष्ठं परं कामदम् । प्रास्ताकं पुरुहूतपूजितपदं पार्श्वप्रभुं पावनं, प्रख्यातं प्रणिपत्य सत्यमनसा कायेन वाचाऽपि च ॥१॥ सत्या सेचनके सुधादिमसरःसज्ञे पुरे तस्थुषां, ____ चातुर्मास्यविधानसाधनकृते श्रीपूज्यराजामिदम् । विज्ञप्तिच्छदनं प्रमोदसदनं पत्पद्मयोः प्राभृतीकुर्वे प्राकृतबन्धुरं गुरुधियः ! शश्वत् क्रियासुः कृपाम् ॥२॥ युग्मम् ॥ सिवसिरिसुख(क्ख)निहाणं, तं जियमाणं सुलद्धनिव्वाणं । वंदामि वद्धमाणं, जिणप्पहाणं विसुद्धवरनाणं ॥१॥ जस्सत्थि संपयं तित्थं, सव्वसत्तसुहावहं । उत्तमं मुत्तिमहिला-मेलणे सुवियक्खणं ॥२॥ [गाहाजुयलं] करंताणं सम्मं जणवयविहारं ज़िणमया रविंदाइच्चाणं सयलसिरिसंघाभिलसियं । कउज्जोग्गाणंता भवियपडिबोहत्थमयले, धरंताणं चित्तं परमसुहमग्गे समहियं ॥३॥ विहरिय सुहंसुहेण, पंचणयक्खायसव्वखित्तेसु । हेमंतगिम्हकाले, सययं दढधम्मराएसु ॥४॥ अह धम्मोवदेसंबु-वुट्ठीए पाउसागमे । हरिउं पावसंतापं, वारियाणं व सव्वगं ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ पंचणयभूमितिलए, भूविक्खाए सुवत्थुरमणीए । पासायपंतिकंते, उण्णयपाग (गा) रपरिवी ॥६॥ बहुदेसागयलोए, गाहावइविंदभूसिए रिद्धे । धम्मियजणगणकमलु - ज्जलगुणमयरंदसुरभिए निययं ॥७॥ अमर (य) सरणामरुइरे, पज्जोसवियाण णयरम्मि | सप्पुरिसाण वराणं, सुहसंजमवासियंगाणं ॥८॥ अस्सि दूसमकाले, गणहरसिरिइंदभूइसरिसाणं । सिट्ठट्ठसंपयाहिं, अहियं खलु रायमाणाणं ॥ ९॥ पदलियवाइमयाणं, समिईसमियाण गुत्तिगुत्ताणं । सूराणं धीराणं, गंभीराणं उरालाणं ॥ १० ॥ नयभंगभंगदुत्तर - परमागमसिंधुकण्णधाराणं । सारयसयलकलानिहि-सोयरलुंकागणाहिववराणं ॥ ११ ॥ छत्तीसगुणगुरूणं, जुगप्पहाणाण पहियकित्तीणं । सिरिपुज्जायरियाणं, सिरि (रिसि) वरसिरिरामचंदानं ॥१२॥ सुगुणेहिं महरिसीहिं, धीरप्पवरेहिं दीवचंदेहिं । कम्माइचंदरिसिणा, हरिणामेण य कण्हीएणं (ण) ॥१३॥ सुविणीयसोहणेणं, सोभारिसिणा तहेव अन्नेहिं । भावरिसीहिं हीरा-णंदप्पमुहिं सेवियचलणे ||१४|| सुपुण्णेहि पुणे जणेहिं घणेहिं, सुलच्छीनिवासे सुनामे पुरम्मि । ठिओ सायरं सायवत्ताभिलासी, सया सेवगो तुम्ह निदेसकारी ॥ १५॥ रघुणाहनामधिज्जो, साहू जिणदासभिक्खुणा सहिओ । रामप्पसाएण तहा, दया चंदेण वरुडूणा ॥ १६॥ दुवालस-वत्तविहाणपुव्वं, वंदित्तु विण्णत्तिमिमं करेमि । सयच्चाणिज्जाण वहाणविज्जा - विऊण धीमं पुरओ पमोया ||१७|| उक्किट्ठसायसहिया, सहियाचरणं समंगला हट्ठा । जं अम्हे पकरेमो, अज्झयणज्झावणाइ सविसेसं ॥१८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १४९ सव्वं दीसइ सययं, णिद्धतराए य साणुकंपाए । विलसियमेयं सामी, सोमाए तुम्ह दिट्ठीए ॥१९॥ सण्टङ्कः सम्म जिणिंदागमसारसारया !, विसारया ! संजमजोगजुत्ता । खामेमि भे देवसिए य राइए, आवस्सए पक्खियए वि णिच्चं ॥२०॥ चाउम्मासियसुपडिक्कमणमि खमाविया मए सामी । सुद्धायारवियारो हवइ, पभूणं हि करुणाए ॥२१॥ अहाणुपुव्वीसमुवागएणं, पज्जोसणापव्ववरेण जाओ । पमोयसंपत्तिभरो उरालो, सव्वत्थ(स्स) संघस्स वि चित्तमज्झे ॥२२॥ पण्णरसवायणाहिं, सावगजणकण्णमंदिरं णीओ । त्तत्त्थ(त्त)महत्थो सत्थो, पमोयगो कप्पसिद्धंतो ।।२३।। सम्मं तुम्हाणुभावेणं, धम्मकम्मं पवट्टियं । तवोवुड्ढी विसेसेण, तहा धम्मप्पभावणा ॥२४॥ आलोइयबहुदोसे, नासियरोसे गुणत्थवरकोसे । संवच्छरियपदोसे, विहियाऽऽवस्सयकामधेणुपोसे ॥२५॥ पज्जोसिएण निव्विग्घं, सिरिपुज्जाण भावओ । अभिवंदिऊण सिरसा, खामणा खामिया मए ॥२६।। खमंतु मंतप्पवरस्स पंच-पदत्तयस्संतरिया सरण्णा । महाणुभागा सुकयाणुरागा, तुम्हं वि तुट्ठा सिरिसूरिराया ॥२७॥ दक्खा सिक्खादाणे, एयस्स भवारिसा खमासवणा । नूणं हयंति जुग्गा, धम्मधुरीणा य सण्णाणा ॥२८।। पंचायारधराणं, पुरओ भासेमि किं बहुण्णाणं । उवसमरससंपुण्णा, सिरिपुज्जा मे पसीयंतु ॥२९।। सो वासरो पुण्णफलोववेओ, कया कलापुण्ण समागमिस्सइ । सुहावहं जत्थ भयंतदंसणं, सामी करिस्सामि ससावगोऽहं ॥३०॥ बहुविंदवंदणिज्जं, वरयं भूवालमौलिआभरणं । तुम्हाणं पयकमलं, सरामि सामी सया विमलं ॥३१।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ धण्णा णं ते भविया, कीरइ जेहिं भयंतपयसेवा । इइ संघहिययसेला, अवतिण्णा भावणारेवा ॥३२॥ जयइत्ति शेषः । अत्र गाथास्तु भूयस्य एव दृब्धाः, परंतु त्वरावशान् न लिखितुं पार्यन्ते । इयतैव मया कृता विज्ञप्तिरवधारणीया । सहस्रशः प्रणतिततयस्समुल्लसन्तुतरामनवरतं श्रीश्रीपूज्यजितां पदयोः । भूयसी कृपादृङ् मयि धार्या । दूरस्थोऽपि निजचरणयोरेणुरिवाऽहमवसेयः । किं बहुवर्णव्यासन्यासप्रयासेन ? । अथ च सर्वेषां पूज्यश्रीदीपचन्द्रजित्-प्रभृतिभ्यो मुनिभ्योऽस्माकं वन्दना क्षामणा च निवेद्या । लघीयसामृषीणां सुखपृच्छना विधेया । अत्रत्यानां समेषां श्रावकाणां वन्दना बहुशोऽवधारणीया । कृपासुदृष्टिः सुरक्ष्या । तत्रत्येभ्यः समस्तेभ्यः श्रद्धालुभ्यो मन्नामग्राहं धर्मलाभो निवेद्यः । शश्वत् सुश्रुतं किं शोश्रूयते तैः श्रीमत्पूज्यपादपादेषु [तद्] लेख्यमिति । अत्रात्र (अत्र) भवच्चरणोपासकेन श्रमणोपासकानां पुरतः श्रीपर्युषणापर्वान्तरं श्रीपञ्चमाङ्गव्याख्यानं प्रारब्धमस्ति । तच्च श्रीमद्भदन्तपुङ्गवानां सुदृशा सप्रत्याख्यानादिकं सम्यग् बोभवीति निरन्तरम् । कृपया पत्रप्रसादार्पणं विधेयम् । शुभम् । अह च - अहयहियसहियसामिकरलिहियलेहवायणेण नवनिहाणलाभसरिसो हरिसो मे समुप्पण्णो मणसि । पुन(ण)रवि पसायं काऊण दायव्वो खलु सुहिययहिययहारी सो लेहो । जेण उक्किट्ठतुट्ठिपुट्ठिमणुभवामो तहा कायव्वं सिरिसिरिपुज्जपाएहिं किं बहुणा ? कारुण्णपुण्णाण तवोधणाणं, थेराण सज्झाणपराण निच्चं । वंदामि खामेमि य सामिपाया-भिवंदगाणं गुणसोभियाणं ॥१॥ सिरिदीवचंदाणं तहाऽऽण्णेसिं च । यदत्राऽशुद्धं तत् क्षन्तव्यमीज्य(ड्य)चरणैः ॥ पयाण जुयलं तुम्हें सरंतस्स वएसिणो । दयाचंदस्स नामेणं, सीसस्स बहु वंदणा ॥१॥ विण्णेया नियदासस्स, भुज्जो भुज्जो निरंतरा । अणुकंपाभरो णिच्चं, रक्खणीयं(ओ) विसेसओ ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १५१ ___ तत्थ सुविणीयहीराणंदपाभिइलहुसीसाणं सुहपुच्छणा कायव्वा । अज्झयणे रक्खियव्वं माणसं, जेण अम्हारिसाणं मणसि संतोसो उदयमेइ । कृष्णचन्द्राख्यश्छात्रः कस्येत्याधुदन्तजातः सर्वोऽप्याविष्करणीयः पत्रदूतद्वारा । श्रेयःश्रेणयस्सन्तुतराम् । सिरिविक्कमभूवाओ, इंदियवसुअट्ठचंद(१८८५)परिमाणे । वरिसे असोयबहुले, दसमीए विलिहिओ लेहो ॥१॥ रघुणाहमुणिणा । इति शेषः ॥ सकलगुणगरिष्ठेषु विद्वज्जनवरिष्ठेषु श्रेष्ठेसु प्रेष्ठेषु मुनिप्रवरेषु श्रीमत्सु श्रीगङ्गारामजित्स्वस्मत्कृता अनुनतिप्रणतिपरम्परा निवेदनीया । सुखं च प्रष्टव्यम् । अत्रत्याः सुखसमाचाराः सन्ति । तत्रत्यास्सार्वचार्त(?)वार्तावावदूका पत्रार्पणेन प्रदातव्या इत्यपि वाच्यं श्रीश्रीपूज्यपादैः सदयैः । शुभम् ॥ श्रीः ॥ श्रीमज्जेसलमेरुतः समागते च्छदे पत्रं दास्यामहे ससमाचारम् । अथ पत्रमपि शीघ्रमेवाऽऽयास्यति पथिकस्य चिरगतत्वात् स हि लघुगामीति च हेतोः। ला. द. विद्यामन्दिर अमदावाद नं. ४३८५५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ (२८) श्रीतपगच्छपतिं प्रति पं.श्रीदेवविजयलिखितो विज्ञप्तिलेख: (त्रुटितः) .............. घटने देवद्रु-चिन्तामणीन् ॥२६।। अथ देशवर्णनम् - मन्दाकिनी द्वीपवतीषु वज्री, सुरेष्वशेषेषु नृपेषु चक्री । ऋक्षेषु चन्द्रो गरुडो द्विजेषु, दन्तावलेष्विन्द्रगजो गरिष्ठः ॥२७॥ नगेषु मेरुश्च हरिमंगेषु, तीर्थेषु मुख्यो विमलाद्रिरेव । रत्नेषु चूडामणिरायुधेषु, वज्रं यथा कामदुघा च गोषु ॥२८॥ सैन्येश्वरेषु प्रभुकार्तिकेयः, श्रीकल्पवृक्षो फलदेषु गेयः । श्रीगूर्जराख्यो विषयेष्वमेयो, देशावलीश्रीमुकुटोपमेयः ॥२९॥ [त्रिभिर्विशेषकम्] यावल्लोके गगनसुमणि(णी)मण्डलं सोमभान्वो र्यावद् गङ्गा सुकनकगिरिः शेषनागः सरस्वान् । यावद् विश्वे जलधितनया भारतीनां समाज स्तावज्जीयाज्जगति विदितः सर्वदेशाधिराजः ॥३०॥ नाऽऽपुः समग्राः(ग्रा) विषयाः समत्व-मन्ये दधानाः परमर्द्धियुक्ताः । त्रिवर्गलक्ष्मी: सकलैव यस्य, स्पर्द्धा सदा स्रस्तसमस्तभीतेः ॥३१॥ राज्यं कुर्वति यत्र राज्ञि मनुजाः प्रापुः परां निर्वृति मत्तेभालिसवेगतुङ्गतुरगे न्यायैकसद्धर्मणि । न प्रापुः प्रतिवीरधीरधरणीनाथातिवामध्रुवः सौख्यं क्वापि जयावहे सुविषये श्रीभासुरे गूर्जरे ॥३२॥ महान्नास्ति सदा देशे, विभेदो देव-भूस्पृशोः । उन्मेष-पादचाराभ्यां, यत्र विज्ञायते नरः ॥३३॥ उदारनेपथ्यभृतो जनौघाः क्षामेक्षुतुल्या नयकोविदाश्च ।। यस्मिन् धरेशाः सुरनाथतुल्याः, श्रियां निवेशे रुचिरप्रदेशे ॥३४|| सर्वेषु देशेषु विराजमाने, तस्मिन् गुणैः स्वैर्मुकुटायमाने । श्रीगूर्जरे या नगरीव चूडा-मणीयते वै परमर्द्धियुक्ता ॥३५।। धाः क्षामेव श्रियां निवेश कायमाने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २०१३ अथ नगरवर्णनम् - यत्राऽतितुङ्गा जिनपुङ्गवानां, प्रासादपङ्क्तिर्गगनं व्रजन्ती । परां गतिं मानवमा___नां, विलासिनां सूचयतीव सद्यः ||३६|| नारीदीधितियुक्तवक्त्रनयनाभाभ्यां निशेषाम्बुजौ, शङ्केऽहं विजिता वयं शशधरो मितोङ्कान्वितः । रिदुर्गशरणं स्वलोकमन्य एको यत्राऽशिश्रियदूनकान्तिविभवः प्रासादशोभाभरैः ||३७|| हिलावर्त्त्य कणाः रुपतो यत्र वर्त्तन्ते, वेलेव खलु नीरधेः ||३८|| वातायने संस्थितकान्तकान्ता - मुखैः प्रभ पूर्णेन्दुबिम्बप्रतिमप्रभौघैः सहस्रचन्द्रं गगनं बभूव ||३९|| वनैकदेशा विधवा न रामा हलावलीष्वेव कुशीलताऽपि । स्नेहक्षयो यत्र च दीपपात्रे, दानादिकार्ये व्यसनं च यत्र ॥ ४० ॥ चापल्यमक्ष्णामिह मानिनीनां वसन्न हंसादपरः सरोगः । विहाय यस्मिन् मधुपो द्विरेफं, न श्रूयते यत्र कदापि कश्चित् ॥४१॥ दण्डध्वनिर्यत्र जिनगृहेषु, कलाक्षयश्चन्द्रकलासु नान्ये वेणीभुजङ्गादपरश्च यूनां दंदश्यते नो हृदयं भुजङ्गः ॥४२॥ सीमन्तिनीभ्रूषु च वक्रभावो, वेणीषु बन्धोऽपि कृशोदरीणाम् । गालिप्रदानेषु परेषु यत्र, कार्पण्यमेकं किल सज्जनानाम् ॥४३॥ काठिन्यमेकमतुलं कुचमण्डलेषु, कौटिल्यमेव रमणीचलकुन्तलेषु । प्रेमप्रयोगविसरादपरः प्रयोगः किं विप्रयोगयिह चाऽस्ति न दम्पतीनाम् ॥४४॥ भाग्यान्वितेभ्यसदनेषु हिरण्मयेषु, पाञ्चालिकाचपलचालितचित्तवृत्तिः । यत्राऽग्रतोऽन्यसदनेषु समुत्सहे नो, गन्तुं समुद्यत इहाऽपि सुकामचारी ||४५॥ व्यापारिणः सौरभगान्धिकौघा वसन्त्यनेके मणिमौक्तिकानाम् । कार्षापणज्ञाः सुपरीक्षि (ता) रो, यस्मिन् विशिष्टा व्यवहारिणश्च ॥४६॥ भान्त्यापणस्थानि क्रयाणकानि, यस्मिन् महार्घ्याणि गता लभन्ते । व्यापारिणस्तत्पितरौ विना न, यत्तदूह्य ने ( नै ? ) कानि सुदुर्लभानि ( ? ) ॥ ४७॥ वापी-तटाक-सरसोपवनेषु यत्रा - ऽध्वन्यं प्रयासमखिलं विनयन्ति पान्थाः । उप्तान्यनुप्तसकलानि च सम्भवन्ति, धान्यानि तेन किल तत्र कुतो बुभुक्षा ? ॥४८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १५३ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क नितम्बवक्षोरुहभारनम्रा-स्तारेण हारेण वरेण्यवक्षाः । विहारराजीं परमार्हतानां व्रजन्ति यत्र प्रमदाः प्रमोदात् ॥४९॥ एकातपत्रं त्रयविष्टपानां, घण्टाध्वनिः श्रीजिनराजराज्यम् । ब्रूते जिनानां निलयेषु यस्मिन्, त्रिकालपूजासमयोत्थ एव ॥५०॥ भवभवकश्मलवर्जितदेहा (:) कटितटतानवतर्जितसिंहा (:) । गुरुगुणगानरतिं विदधाना (:) सकलकलाकलिता (:) खलु यत्र ॥५१॥ यत्र लोका न विद्यन्ते, कदापि हि विपल्लवाः । वृक्षौघा यत्र वर्त्तन्ते, सर्वदा च विपल्लवाः ॥५२॥ यस्मिन्निभ्याकुले हस्ति यूथवत् स्तनयुग्मवत् । सीमन्तिन्याः सद्विहारे, विद्यन्ते मानवा नवाः ॥५३॥ कैलाशवद् युते भूत्या सशिवे यत्र सन्त्यलम् । सरोवद् विविधा व्यक्ता अनेककमलाश्रये ( ? ) ॥५४॥ स्त्रीगणो यत्र धात्रीवत् सदाधरमनोहरः । विशुद्धाहारसंयुक्ता, व्रतीशा इव सुन्दराः ॥५५॥ विशालं भालं, भाति भातिमनोहरम् । व्योमवद् विपुलं सारं चन्द्रालङ्कारसुन्दरम् ॥५६॥ स्त्रीगणो यत्र माधुर्य-चातुर्यगुणभासुरः । अक्षमालारतः शुद्ध-साधुवत् सर्वदानघः ॥५७॥ गावो गजा वा तुरगा महिष्यो, यस्य गृहेऽमूनि चतुष्पदानि । स प्राप्यते यो मनुजैः क्षितो, पणे पुरे यत्र विहारसारे (?) ॥५८॥ गृहे गृहे यत्र च वैजयन्त्यः सन्तर्जयन्त्यः सुविमानपङ्क्तिम् । सुरेश्वराणां गुणसागराणां जिनेश्वराणां नतितत्पराणाम् ॥५९॥ यत्र स्त्रियः स्वस्तिकपूरणेन, विशुद्धमुक्तामणिभिर्मुनीनाम् । विभूष्य चैत्यान् वसतिं विभाते, प्रशस्तहस्तेन विभूषयन्ति ॥ ६० ॥ जम्बीर-गूवाक-सदा-ऽऽम्र - रम्भा - शोक - प्रियालप्रमुखद्रुमाणि । तमाल-नारङ्ग-वटा-ऽर्जुनानि वनानि यस्मिन् विहगाश्रितानि ॥ ६१॥ गुरोर्न चन्द्रान्न कुजान्न बुधान्न शुक्रान्न शनेर्न सौम्यात् । न राक्षसो (साद्) वा न च सैंहिकेयात् पराभवांशोऽपि कुतोऽपि राशेः ॥ ६२॥ १५४ Jain Educationa International ―― For Personal and Private Use Only - खण्ड २ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २०१३ ओकांसि यस्मिन् जिनशेखराणां, स्वर्लोकनिश्रेणिनिभानि भान्ति । विमानशोभां प्रभया हरन्ति किं स्यात् पुरः कृत्रिमवर्णनेन ? || ६३ || त्रिसन्ध्यमार्या विधिवन्दनादि, गुरोर्वितन्वन्ति हि नागरौघाः । दानेन युक्ता निरता: स्वधर्मे यत्र प्रभाते प्रकटप्रभावाः ॥६४॥ मं यत्र शोभां मुनयो हरन्ति धनीश्वरा वैश्रमणस्य शोभाम् । हरेः क्षितीशा यदि चोरयन्ति, न्यायैकगेहे च तथाऽपि यत्र ( ? ) ॥६५॥ देवे - गुरौ च प्रतिबद्धरागा: (गा) न्यायेन सम्पन्नधनाश्च चङ्गाः । वसन्त्यनेके वसुधाप्रधानाः श्रद्धालवः स्वार्जितभूरिमानाः ॥६६॥ विराजते श्राद्धततिर्विशुद्ध - मुक्तावदाता ग्रहमण्डलीव । सदानभोगा भुवने प्रसिद्धाः सदा प्रबुद्धा गुरुणा सनाथाः ॥६७॥ श्रद्धालवः सन्ति समस्तशस्त - गुणैर्गरिष्ठाः स्वकुलप्रतिष्ठाः । क्रुधा लघिष्ठाश्च वृषेण पुष्टा दौस्थ्ये दविष्ठा भुवने विशिष्टाः ॥६८॥ उदारनेपथ्यधराः सदाना-स्तपस्क्रियावश्यकसावधानाः । कृतोपयामाः सुखिनः स्वशील - कुलोपमैर्यत्र सहाऽन्यगोत्रे ॥ ६९ ॥ इत्यादिभिः श्राद्धगुणैर्विशुद्धाः श्रद्धालवो यत्र वसन्त्यनेके । पूज्यागमैः शोषितसर्वदौस्थ्ये, स्वीयस्थितेः सूचितसर्वसौस्थ्ये ॥७०॥ विश्वाद्भुतस्थावरजङ्गमश्री तीर्थद्वयावाप्तजये प्रसिद्धे । पुरे वरे श्रीमति तत्र तातैः पवित्रिते रेणुभिरंहिलग्नैः ॥७१॥ विश्वत्रये सकलराजसमाजसांई - दासाभिधो वसुमतीयुवती - Jain Educationa International , १५५ शः । यत्र प्रशास्ति सकलाः सकलाः स्वकीय-प्राज्यप्रजा: प्रतिदिनं प्रबलप्रतापः ॥७२॥ प्रौढप्रतापसदनं कदनं रिपूणां ज्ञाता स्वधर्मनिरतो विदितो जनेऽस्मिन् । कर्पूरपूरकलधौततुषारहार- कैलासशैलशशिकुन्दयशः प्रसारः ॥ ७३ ॥ वापी - प्रपा-कूप-तटाकराजी विराजते यत्र पयः प्रपूर्णा । वयोविलासोचित भूमिदेशा स्निग्धद्रुमैः शोभितसर्वपाश्र्व ॥ ७४ ॥ उत्तुङ्गशृङ्गचङ्ग-वृषभजिनोद्यद्विहारचारुतरात् । वसहीपुरात् तस्ताऽसौ (?) योजितकरकुड्मलो मु (मूर्ध्ना ॥७५॥ श्रीतातपादपादाम्बुजसारपरागचञ्चरीकाभः । श्री भानुचन्द्रवाचकं (क) शिशुः शिशुर्बालबुद्धियुतः ॥ युग्मम् ॥ For Personal and Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान- ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ शिष्याणुदेवविजयो विनयावदातं श्रीतातपादपदसंस्मरणैकचित्तः । सत्प्रीतिरीतिनिपुणं परभक्तिमानं सोत्कण्ठमद्भुतसुमूर्द्धविधिप्रधानम् ॥७७॥ भक्त्या वच:कायमनोविशुद्धया सत्प्रीतिरित्या खलु बालबुद्धया । अत्यादरं फुल्लितरोमकूपो विनेयलेशाणुकणानुरूपः ॥७८॥ षड्वक्त्र - नेत्रप्रमितैरदोषिभि-रावर्त्तकैर्योजितपाणिकुड्मलः । हर्षप्रकर्षादभिवन्द्य वन्दनै- विज्ञप्तिकामातनुते यथाविधि : (ध) ॥ ७९ ॥ प्रयोजनं चाऽत्र विभातकाले स्वयं प्रबुद्धोत्पलपुष्पमाले । स्वाध्यायमध्यापनमर्हदादि-पञ्चप्रमिच्छ्रीपरमेष्ठिजापः ॥८०॥ तपः-क्रिया-लेखन-शोधनादि गुरोः समीपे पठनं च चिन्तनम् । इत्यादिविश्वाद्भुतधर्मकर्म प्रवर्त्तते शर्मसहाययुक्तम् ॥८१॥ श्रीतातपादाह्वयमन्त्रजापान्- मिथ्यात्वदुस्तामसदीप्रदीपात् । विश्वातिशायिप्रथितप्रभावा- दनन्तमाहात्म्यनिधेः पवित्रात् ॥८२॥ १५६ श्रीगुरुवर्णनम् - सूरिः सुखाय मे धीर भवकल्याणराजितः । सूरिः सुखाय मे धीर भव कल्याणराजितः ॥८३॥ विभवभवभावावो, विभवो विभवी विभुः । भुवोवभोविभीभावी - वभावो भुवि भाववित् ॥८४॥ रैरुक्करिकरोरूरूः, कोरेकः ककरोकरः । " क्रूरारिकां ककोकारिः, कककुः करिकाकरः ॥८५॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ आधाय धाष्ट्र्र्यं यदहं स्तुवे त्वां तत्राऽपि भक्तेर्महिमा न शक्तिः । भेको यथा नृत्यति भोगिनष्के तत्रापि सद्गारुडिनः प्रभाव: ॥८६॥ पातालं च भुवस्तलं गतमलं त्वत्कीर्तिमूर्तिः प्रभो ! प्राप्ताऽर्यं त्रिदिवं विगाह्य विदिता स्वर्वाहिनीस्वम्भसः । पूरैः स्वं स्त्रपयाञ्चकार चतुरा वाराच्युता बाष्कणाः कर्पूरेन्दु-तुषार-हार-करका जातश्रमा ते ततः ॥८७॥ श्रीसूरिराज ! भवदीययशः सुरामे, सोमे हरौ फणिफतौ (णे) सुरसिन्धुरेवा | वाण्यां वृषे ग्रहगणेऽपि रुचि बभार, कर्पूरपूरकलधौततुषारतार(:) ॥८८॥ त्वद्वादिनां मदवतां च तदम्बरेऽम्बके, कण्ठे च तन्नयनयोर्युगले मदेतत् । तत्कुन्तले बहुलतामससम्भृतानां तत्प्रोथके सिततरे पृथुतत्पथे वा ॥८९॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १५७ सूरीश ! रत्नविमला बहुरूपिणी सा, जागर्ति या त्रिभुवने खलु चित्रमेतत् । शुद्धस्वरूपसहिता भवदीयकीर्तिः, सर्वत्र पर्यटति या विमला कथं सा? ॥९०॥ त्वं चेद् यदा कल्पतरुस्तदायं, चिन्तामणिश्चेत् त्वमनल्पदाता । पूषा कथं चेद् भवतः प्रतापो मुधैव सृष्टा विधिना मुनीश ! ॥९२।। प्रालेयाचलकुन्दकैरवलसत्कर्पूरपूरोपमे ब्रह्माण्डोदरभासुरः शुचितरस्त्वत्कीर्तिपूरः परः । सर्वेषां च चमत्कृतिं न कृतवान् मेधाविनां शुभ्रिमा यद् वादीन्द्रमुखैर्गुरोर्न मुमुचे विश्वे सिते श्यामता ॥९३।। मुक्तालताचन्दनकीर्तिवल्ली-स्वर्वाहिनीव्याजत एव तारम् । आरुह्य वाँ प्रसरत्यजत्रं, प्रभो ! नभोमण्डपमिद्धभासा ॥९४|| पुष्पाणि पुष्टानि भवन्ति तारा, क्षीराब्धिडिण्डीरसुहारतारा । पीयूषपूर्णोऽपि विधुः फलं तत्, संश्रूयते सर्वजने प्रसिद्धम् ॥९५।। युग्मम् ।। याते दिवं किल यशो नखरायुधेते त्रस्तार्कसोदर इवेति भिया मुनीश ! । तत्कुम्भतः पतितपेशलमौक्तिकौघै-स्तारं वियद् जगति तारकितं बभूव ॥९६।। त्वत्कीर्त्याऽतितिरस्कृता यतिपते ! स्वर्वाहिनी व्योमनि श्रीकण्ठस्य ससाद _ _ सुजटाजूटाटवीकोटरम् । जाने शापमदत्त रुद्रशरणा तस्यै च ते कीर्तये त्वन्नाथस्य सुचङ्गसङ्गविरहो नैकत्र वासोऽस्तु ते ॥९७।। कुन्देन्दुकैलाशतुषारहार-मुक्तासतारसुरशुक्तिकीर्तिः(?) । तिरस्कृता हंसततिस्तवे(स्त्वये)श ! जडाश्रयं मानसमाससाद ॥९८|| श्रीराजेन्द्रसभागतेन भवता वादे समारम्भिते यत्प्राप्तं खलु येन येन भगवन्! वादेन शब्दोत्कराः । क्षुभ्यत्क्षीरसमुद्रसान्द्रलहरीतुल्यैसुशब्दैर्जय स्तेन त्वं त्वयका[पि?] कीर्तिविसरस्तेनाऽपि विश्वत्रयम् ॥९९।। ज्योत्स्नौघः किमु चान्द्रकः ? किमथवा कैलाशशैलाधिपः ? पिण्ड: सारसुधारसस्य विमलः ? कर्पूरपूरोऽथवा ? । प्रालेयाचलतारतारविलसगोदुग्धपिण्डोऽथवा प्रेक्ष्य ! त्वद्यशसां भरः श्रुतवतामित्याशयो भासते ॥१००। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ काचिद् वक्त्रमहीनरूपमनघं भक्त्या प्रमोदात् क्षणाद् बिम्बोष्ठा गजगामिनी सुकृतिनी सीमन्तिनी श्रीगुरोः । बाला लोकयतेऽम्बरं पृथुतरं भ्रान्त्या कया कोविदाः प्रोद्यच्छास्त्रधिया कथं मतिमतः प्रश्नस्य भेदं वद ॥१०१॥ शिष्टश्रेणिशिरोमणिस्ततमति: पौराणिकः श्रीगुरुं सम्प्रेक्ष्य प्रकटप्रभावभवनं चारुप्रभाभासुरम् । वह्नि कोऽपि कथं स्पृशत्यनुदिनं शस्तेन हस्तेन वा धीर! त्वं सुधियाऽन्वितो दो(?) धृतरतिः प्रश्नस्य भावं मुने ! ॥१०२।। गुणागाधवार्धीि कुलोदारदीप(पं) स्तुवेऽहं गुरु कामदं कामरूपम् । नताशेषदेवेन्द्र-नागेन्द्रभूपं लसज्ज्ञानसद्धारिणोऽगाधकूपम् ॥१०३॥ व्योमस्थालं विशालं सुरपतिललनामण्डलो नाथ ! भृत्वा मुक्ताताराफलौघैस्तव भुवि पुरत(तः) स्वस्तिकं कर्तुकामः । मुक्तं तस्योपरिष्टाद् रवि-शशिविलसन्नालिकेरद्वयं च त्वत्पादाब्जं समेति प्रकटगुणगणो वन्दनार्थं मुनीश ! ॥१०४।। भक्त्या श्रीगुरुराजिराजपुरतः श्रद्धावतीभिः सदा नारीभिर्भुवि भावतो विनिहिता मुक्ताफलस्वस्तिकाः । तानालोक्य मतिर्महामतिभृतां प्राप्तं गुरूपासनात् पुण्यं मूर्त्तमिदं तु भव्यभविनामेवं समुज्जृम्भते ॥१०५।। अनाहतानां यशसां निकेतनं, स्वरूपशोभाजितमीनकेतनम् । विधाय रूपं तव विश्वसर्जने विधिः प्रयासं सफलं विनिर्ममे ॥१०६।। मुदा तवोपास्तिमवाप्य मो गुणी गुणीयत्यनघो न चित्रम् । चित्रं पुनश्चेतसि भासते मे, गुणैविहीनोऽपि च मादृशो ना ॥१०७|| एतच्चित्रं विचित्रं त्रिभुवनविदितं नैव कुत्राऽपि दृष्टं नो भूतं नो भविष्यन्न च भवतितरां शृण्वतां पण्डितानाम् । धीधाम्नां त्वद्गुणाब्धिर्दिशि दिशि चतुरः सागरानुत्ततार क्षुभ्यत्क्षाराब्धिमुक्ताफलशशिविलसद्वारिडिण्डीरपिण्डात् ॥१०८॥ भृङ्गैरिवाऽब्नं च सरो मरालै-र्भानुर्यथा भानुभिरेव देवः (व!) । ऋक्षैरिवेन्दुस्त्रिदशैस्तुराषाड् यः सेव्यते साधुपरम्पराभिः ॥१०९॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १५९ अताड्यजाड्यद्रुकरिर्महानो गुणैरशेषैः सुतरामहानः । प्रोद्दामकामद्विपसिंहरूपः छिनत्त्वपोषान् सविपल्लवान् सताम् ॥११०॥ युग्मम् ।। विलोक्य लोकोऽपि गुरून् स्वचित्ते, विकल्पते किं किल कल्पपादपाः । एते ह्यनन्तोत्तमवस्तुदानाः, कल्पद्रुमाश्चिन्तितमात्रदानाः ॥१११।। पूज्येन पूज्यचरितेन गुणैः स्वकीयैर्येन ह्यसीमपरभाग्यमुनीश्वरेण । साम्यं वदन्ति तव_ [ये] शशिनो मुखस्य ते पण्डिता जगति मुग्धधियो विभोऽमी ॥११२॥ संस्मारिता जगति गौतममुख्यपूज्याः(ज्या) भूयाद् गुरुः स भवतां भवतान्तिशान्त्यै । आस्यं तवाऽतिविमलं मलिनो मृगाङ्को ___ मध्येऽमलस्य मलिनस्य समानता क्व ? ॥११३।। विभ्राजते दन्तततिस्त्वदास्ये, जानेऽहमेवं समसूरिरत्न ! । जिह्वाग्रपद्मस्थितशारदाया हारस्य कण्ठे लतिका विभाति ॥११४॥ त्वद्वक्त्रशुभेन्दुमसौ निरीक्ष्य क्षपाकलङ्की मुनिराज! चन्द्रः । मदाच्छशाङ्कोऽभिषुणोति लाञ्छनं सुगौरदुग्धाम्बुधिमेत्य नित्यशः ॥११५।। मेधाप्रधानैः प्रवराभिधान-बुधैः स्वबुद्ध्यो(ड्य)जितभूरिमानैः । मुक्तावदातैर्विमलावदातै-निषेव्यते सूरिसमाजराजः ॥११६।। जगति विजयराजिनोऽपारिजाता: प्रजापारिजाताः सदाखर्वगर्वीतिगुवर्णवागस्तयः प्रणमदमरकोटयः कामदाः कामदाः श्राग् दोषाश्रिताः क्षिप्तदोषाः समुद्रा अमुद्राः पुनः । सकलकुशलधोरणीभिः समृद्धा विशुद्धाः प्रसिद्धा अयुद्धाः प्रवृद्धाः सुसन्धाः स्वयं गुरुगुणगणसल्लताम्भोधराः ज्ञानपानीयरत्नाकराः सूरिराजाः(जा) जयन्तीश्वराः सुन्दराः ॥११७।। सकलसकलभासिनो भासयन्तोऽर्हतां शासनं शंशयन्तः सुमार्गं समग्रं समयेश्वराः अभिनवतरचारुचातुर्यमाधुर्यगाम्भीर्यसौन्दर्यसुस्थैर्यविश्वाद्भुतौदार्यवर्यादिभिः । सुजगति कलिता गुणैः प्रोद्भवद्धीभराः श्रीकराः श्रीकरा: श्रीद(पदवी)धराः शङ्करा भासुराः नति(त)वति धनदानरे सूरिचञ्चच्छिर:कोटिकोटीरकल्पा विशुद्धावदाता यशोराजिताः ॥११८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ यः पापठीत्यद्भुतभक्तिभासुर-स्त्वद्गोत्रमन्त्रं सततं पवित्रम् । योगीन्द्रवंशाभ्रनभोमणिप्रभो ! क्रोडे रमा तस्य तु लोलुठीत्यहो ॥११९॥ श्रेयः श्रेय:सम्पदां सन्निधानं सेवन्ते त्वां ये सदा सावधानम् । सन्तः सन्तो मानसे भक्तियुक्ता-स्तेषां कीर्तिः शालिनी सूरिराज ! ॥१२०।। बिम्बफलोष्ठी कोकिलकण्ठी, सद्गतिहंसिकाऽपि सुकेशी । चम्पकमालां कापि वहन्ती, त्वामभिगच्छन्ती रतये स्यात् ॥१२१॥ सा भारती भाति तवैव शुभ्रा, भागीरथीव प्रकटप्रभावा । जाड्याद्रिविद्रावमहेन्द्रवज्रा, ध्वस्तं ययाऽज्ञानतमोऽस्तमोह ! ॥१२२।। द्रुतविलम्बितमायतलोचना, तव मुखाब्जविलोकनचञ्चला । सुकृतिनी सदनादुपसर्पति, कटिकुचोत्कटतां प्रपटीयसीम् ॥१२३।। वासरान्तघनघनभा-मङ्गनां त्यज हलमुखीम् ।। दुर्मुखीं सपदि मलिनां - श्रीगुरुं भजत भाविकाः ॥१२४।। याचे नाऽहं श्रीः सांसारी: विद्युन्मालादोलालोला[:] । त्वत्पादस्याऽजस्रं सेवा, से(सा)ऽस्तु प्राज्या मैनोहन्त्री ॥१२५।। उपेन्द्रवज्रायुधसन्निभा ते सरस्वती वर्णवती विभाति । अशेषसन्देहमहीधरो(रौ)घे विनिद्रमाकुलदेशनायाम् ॥१२६।। योगीन्द्रस्त्वं कथयसि भुवनेऽहं दयावान् दया मे(?) मन्दाक्रान्ताऽहितमधुसखा दुष्टभावेभसिंहः । स्वामिन् ! दानी कथमसि सदा त्वं यतो वादिवारै प्तिं पृष्ठं त्रिभुवनमहितस्ते कदाप्यर्थितं च ॥१२७|| विस्फूर्जन्मतयो मदेन कलिताः शार्दूलविक्रीडितं त्वां पश्यन्ति च वादिवारणघटा नश्यन्ति वादोद्धराः । त्रस्यन्त्यद्भुतमेतदेव न विभो! चित्रं यतस्त्वां गुरुं भक्त्याऽवेक्ष्य नरामरेश्वरगणा प्रीतिं प्रयान्त्यद्भुताम् ॥१२८॥ ता एव वर्णयामो वयं विशेषेण वैबुधीः श्रेणीः । या जिनराजगुणानां गाने गर्जन्ति मुखचपलाः ॥१२९।। तव गुणगीतिप्रीतिः स्फीतमती स्फ(स्फु)रति मानसे यस्य । धन्यानां मूर्धन्यः स एव सङ्गीयते सदा सद्भिः ॥१३०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २०१३ भवदीयपादपूजां जगत्पते ! जनयितुं मदीयेयम् । हस्तद्वयी च जिह्वा गुणग्रहे ते महाचपला : ( ला ) ॥१३१॥ कल्पद्रुमाधिकफलप्रद ! भक्तजन्तो -स्त्वत्पादपङ्कजयुगस्य ममाऽस्तु सेवा । स्वर्गापवर्गसुख तिसमुक्तमस्ति (?), सेवा भवेन्न महतां विफला कदापि ॥१३२॥ श्रीतातपादैः प्रवरप्रसादैर्गतावसादैर्विगलत्प्रमादैः । श्रीचन्द्रशाखाम्बर भासनैक - सहस्रपादैः प्रणतेन्द्रपादैः || १३४ || सन्दर्भिताः सौववपुःसमीपा - भिवर्तिवाचोपचयैर्वचोभि: । प्रसादमाधाय शिशौ स्वकीये प्रसादपत्र्यस्तु मुदे प्रसाद्याः || १३५ || भूरिवर्षविरहानलतप्तचित्त - सन्नीलकण्ठममलं कलिदोषमुक्तम् । आनन्दयिष्यति च मोदपयः प्रपूरै - स्तृष्णातुरं जगति लेखलसत्पयोदः ॥ १३६ ॥ त्व [त्पत्र]लेखः स्फुटमञ्जुभाषी प्रशस्तहस्ताह्वविमानसंस्थ: । आनन्दयिष्यत्यनिशं विदग्धो विशुद्धवंशप्रभवोऽत्यभीष्टः ॥ १३७॥ यतः सन्तो भवन्तीह, प्रार्थनाभङ्गभीरवः । उदारचरिताश्च स्यु-र्विशेषज्ञा विशेषतः ॥१३८॥ आज्ञारसिकचित्तस्य किङ्करात् किङ्करस्य च । हितशिक्षा हिताः प्रेष्याः प्रेष्यानन्दकृते प्रभो ! ॥१३९॥ दासः प्रेष्यः प्रसादार्थी सेवाहेवाकसेवकः । किङ्करस्तावकीनोऽस्मि तत्प्रसादमपि प्रभो! ॥ १४०॥ पात्रापात्रविचारोऽपि महतां नैव युज्यते । केवलं कृपया लेख-प्रसादेन च पालय ॥ १४१ ॥ वासरोऽवसरः सोऽपि, साऽपि वेला प्रशस्यते । यत्र श्रीतातपादानां दर्शनं जायते शिशोः ॥ १४२॥ दुःप्रापं मन्दभाग्यानां चिन्तारत्नं भुवस्तले । तथाऽस्मादृशां स्वामिन् ! दर्शनं पावनं तव ॥१४३॥ स्वशिशोः प्रणतिस्तातै - रवधार्योपवैणवम् । १६१ भाग्योदये च [मे] साक्षाद्, भाविनी पाविनी पुनः ॥ १४४ ॥ त एव धन्या भुवि ते विशुद्धा (द्धा:), सुजन्मिनस्ते खलु ते कृतार्थाः । सुजीविनस्ते धुरि कीर्त्तनीया-स्ते पुण्यभाजां सुकृतैकभाजनम् ॥१४३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ गृह्णन्ति ये लोचनयामलस्य, शुद्धं फलं दुर्लभमेव विश्वे । ये प्रत्यहं प्रातरवेक्ष्य तात-पादाम्बुजं भाग्यभरेण लभ्यम् ॥१४४|| (युग्मम्) वनस्पतिप्ररोहाणामपि सत्तीर्थवासिनाम् । धन्यत्वं कथयन्तीह, किं पुनो(न)म(म)हतां नृणाम् ॥१४५।। अगण्यपुण्यलभ्ये हि, तीर्थेऽस्मिन् जङ्गमे समे । भक्तिभाजां च साधूनां, सर्वदा पावनात्मनाम् ॥१४६।। युग्मम् ॥ प्रोद्दामवादिकुलकुञ्जरकुट्टनैक-कण्ठीरवा वरगुणाः प्रवरप्रभावाः । ज्ञाताखिलस्वपर__ गणस्वभावाः श्रीधर्म ___वरा(:) समवाचकेन्द्राः ॥१४७|| श्रीमत्तपागणविशुद्धविशालसौध-स्तम्भोपमाविविधशास्त्रगणानि नूनम् । यैः पाठयद्भिरनिशं गुरुगौरवार्हाः(ह) सत्पाठकत्वममलं सफलीकृतं च ॥१४८॥ पण्डिताः पद्मविजयाः, पण्डितोत्तमताजुषः । नयादिविजयास्तत्र, पण्डिता गुणमण्डिताः ॥१४९।। (एतावन्मात्रमेवेदं पत्रमुपलभ्यते) -x ला. द. विद्यामन्दिर, अमदावाद सू. ४३४०४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १६३ (२९) जीर्णदुर्गस्थ-वाचक श्रीविनयविजयं प्रति ___ श्रीहीरचन्दमुने: पत्रम् सधेषु शान्ति कुरुतां स शान्ति-र्नाम्ना गुणेनाऽपि सदर्थनाम्ना । यं शान्तिदेवी भजते स्म भावाद्, विश्वत्रयीलोकविलोकनीयम् ॥१॥ यदीयं हरिणो रम्यं, शिश्रिये चरणाम्बुजम् । स्वीयं संसारसागरं, तितीर्घरिव तारकः(कम्) ॥२॥ एवं(नं) श्रीमन्तमर्हन्तं, कृत्वा प्रणामगोचरम् । श्रीमद्राजकोटद्रङ्गात्, तत्र श्रीमतिपूर्वकम् ॥३॥ शिष्याणु रचन्द्राख्यः, प्रेमपूरितमानसः । सम्भाषते ससन्मानं, भक्तिभारभरावहः ॥४॥ यथाजन्यमिह प्रातः, प्राचीनाचलचुम्बति । मयूखमालिनि ध्वस्त-ध्वान्तप्रकरतस्करे ॥५॥ महेभ्यसभ्यसम्पूर्ण-सभायां वाचनं मुदा । भगवत्याख्यसूत्रस्य, प्राणिनां कर्मपाचनम् ॥६।। पठनो(ने)च्छुकसाधूनां, पाठनं पठनं पुनः । इत्यादिदिनकृत्येषु, विद्यमानेष्वविघ्नतः ॥७॥ क्रमायातं सर्वपर्व-शिरोरत्नसमोपमम् । श्रीमदाब्दिकपर्वाऽपि, स्तुत्यं सुमा(म)नसामपि ॥८॥ यत्र कल्पितम(क)ल्पस्य, कल्पसूत्रस्य वाचनम् । समीरगुणसङ्ख्याकैः, प्रभावनादिसंयुतम् ।।९।। षोडशद्युजीवामारि-पटहोद्घोषणं पुनः । सन्तोषणं मार्गणानां, सर्वसाधर्मिपोषणम् ॥१०॥ महामहसमायुक्तं, निर्वृहं भिन्दवियतः (?) । देव-गुर्वोः प्रसादेन, श्रीमतां च हिताशिषा ॥११॥ यदीयकीय॑कूपारो, नवीनोऽभूत् सुदुस्तरः । परमेषां(परेषां) कीर्तिसिन्धूनां, प्रवेशं न ददौ यतः ॥१२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ अथ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क परापकीर्त्तेर्यत्कीर्त्ति रहसच्चन्द्रनिर्मला । द(दि)शान्धकारनीलाया (यां), निशि तारावलिच्छलात् ॥१३॥ यत्कीर्त्तिव्रतती स्वर्गं, मेरुदण्डेन गच्छती । द्वे फले सुषुवे व्योम्नि, हंसेन्दुबिम्बकैतवात् ॥१४॥ नन्दनादिवनेषूच्चै-र्वीक्ष्य पुष्पानि (णि) निर्जराः । वितर्कयन्ति यत्कीर्त्य - प्सरसां हसनं किमु ||१५|| कीर्त्तिस्रोतस्विनी येषा -मपूर्वा भ्राजतेतराम् । पुष्णन्ती श्रेयः पृथ्वीं तत्, खलाब्धौ नैति कौतुकम् ॥१६॥ हरित्सीमन्तिनीवक्त्रं, सुरभीकुरुतेतमाम् । यत्कीर्त्तिनिकरो राका- - कौमुदीपतिपाण्डुरः ॥१७॥ तैः स्वीयगात्रनीरोग-तासमाचारसूचकः । देव ! दूतो मम प्रेष्यो, महासन्तुष्टये हृदः ||१८|| इत्यनन्तगुणरत्नरोहणै- स्तातपादचरणैरनारतम् । — धारणीयमथ चोपवैणवं, हीरचन्द्रनमनं स्वचेतसि ॥११॥ तत्र श्रीसुकनकाख्यः, सुकान्तेर्विजयस्तथा । नोयमाद्(नेमाद्)विजयनामाऽभूद् - रत्नाद् विजयनामकः ॥२०॥ - तत्कालीकृतवृत्तेन, लिखिता पत्रिका ततः । श्रीमद्भिर्वाचनीयेयं, संशोध्य किल दूषणम् ॥२१॥ कृत्यं शिशूचितं वाच्यं, प्रणम्या जिनराजयः । मन्नाम्ना शनिविजय - दशम्यामिति मङ्गलम् ॥२२॥ शेषसाधु-साध्वीप्रमुखाणां यथार्हं प्रणतिरवधार्या । तथाऽत्रत्यसङ्घः प्रणमति । शिचितं कार्यं प्रसाद्यम् । अन्यच्च क्षूणं यदत्र तत् क्षन्तव्यं क्षमाक्षीरनीरधिभिः श्रीपरमगुरुभिरिति भद्रम् ॥ Jain Educationa International खण्ड २ श्रीमत्तपगणगगनाङ्गणदिनमणिविजयसेनसूरीणां ॥ पूज्याराध्य ॥ सकलवाचकसभाभामिनीभालस्थलभूषणायमान वाचक श्री ९ श्रीविनयविजयगणिचरणाब्जानाम् ॥ श्रीजीर्णदुर्गे ॥ =x— For Personal and Private Use Only नेमि - विज्ञान - कस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर, सूरत Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ (30) पत्तननगरस्थ- वाचक श्रीलावण्यविजयं प्रति श्रीमेघचदमुनेः पत्रम् श्रिये स वः सप्तमतीर्थनेता, यस्यांऽह्रियुग्मश्रयणादवाप । यः स्वस्तिको मङ्गलतामनर्घ्यं सर्वासु सन्मङ्गलमालिका ॥१॥ रेजुः पञ्चफणा यस्य, शीर्षे पृथ्वीभुवः प्रभोः । मन्ये सुमतयः पञ्च, पञ्चाऽऽचारा इमेऽथवा ॥२॥ अष्टाभिर्भवसम्भवैर्नवनवस्नेहैकपाशैर्दृढं, बद्धामिन्दुमुखीं विहाय तृणवद् राजीमतीमादरात् । दीक्षां क्षीणभवोऽभजच्छिववधूसंयोगसद्दूतिकां शङ्खाङ्कः स शिवासुकुक्षिसरसीहंसः शिवायाऽस्तु नः ||३|| यस्मिन् दुष्टकलौ गताखिलमणीयन्त्रमन्त्रप्रभावे, गोमांसाशनदुष्टमुद्गलदलोद्वासिताशेषदेशे । सर्वत्र प्रचुरप्रभावमहिमाविस्तारमाप्तस्तदा; स श्रीपार्श्वविभुर्जगत्त्रयजनानन्दकन्दाम्बुवाहः ॥४॥ स्वस्तिश्रीशरणं गता(त? ) प्रहरणं पुण्यश्रियाः प्रापणं, सत्कारुण्यलतावितानविलसत्संवृद्धिपाथष्कणम् । भव्याभीप्सितपूर्त्तिकामकलशं सर्वापदां वारणं, १६५ श्रीवामेयममेयमञ्जुमहिमापारं मुदां प्रापणम् ॥५॥ अथ परमगुरुसकलवाचकेश्वरवाचक श्री ५ श्री लावण्यविजयचन्द्रवर्ण[न]म् ॥ पद्मं पादतलं मृशद्(?) गतमदं रेखामिषाद् यद् विभो - र्वक्त्येवं जडजेन ते मुखशशिस्पर्द्धा मयाऽकारि यत् । स्वामिस्तीक्ष्णमुखैश्शिलीमुखगणैर्दुर्वेधसा विध्यते, मुक्ताय: (?) खलु मेऽभवत् तत इदं प्रत्यक्षसिद्धं फलम् ॥६॥ भव्याज (न)ना(?)ब्जवनराजिनवाम्बुवाहं, संसेवितामरनरोरु (र) गवृन्दनाथम् । मोहान्धकारहनने सहस्रांशुतुल्यं, श्री ऋद्धि-वृद्धिसुखदं प्रणमामि भक्त्या ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ सर्वातिशायिमहिमाम्बुधिवृद्धिचन्द्रं, संसारसागरपतज्जनयानपात्रम् । कर्माष्टशत्रुहनने कृतसारयत्नं, भव्या नमन्तु गुरुराजसमं प्रमोदात् ॥८॥ औदार्यगाम्भीर्यगुणाभिरामं, कन्दर्पनिर्धा प्र(?)सुशीलसेव्यम् । भव्या जनानां शिवदं नतेन्द्रं, सेव्यं सदा ज्ञानमयं नमन्तु ॥९॥ तपोग्निना त्वद्दहितः स्मरारि-स्तधूमपुजैर्गगनं व्यलेखि । नो चेद् वचःपावनमेव नाथ!, नीलाभ्रकं मेघमिषात् कथं तत् ॥१०॥ इत्यनन्तगुणरत्नरोहणै-स्तातपादचरणैरनारतम् । धारणीयमथ चोपवैणवं, मेघचन्द्रनमनं स्वचेतसि ॥११॥ साधु-साध्वीप्रमुखाणां यथार्ह प्रणतिरवधार्या । तथाऽत्रत्यः सङ्घः प्रणमति । शिशूचितं कार्य प्रसाद्यम् । अन्यच्च योगोद्वहनादिकविषये बयुत्कण्ठा वर्त्तते । तेनाऽस्मिन् वर्षे तत्कृत्यं भवति । भुजनगरादि सम्यक् भवति । तथा एतद्विषये श्रीताता एव सामग्रीमिलनप्रभवः । अन्यच्च श्रीतातचरणे मधुकरीभवितुकामः शीघ्रमेवाऽस्मि, तथापि दूरदेशत्वान्मार्गवैषम्या(द)थ कियन्ति दिनानि लगन्त्यपि । तथा श्रीतातैरेतत्कार्यं स्वकार्यांकृत्य येषामादे(ष्ट)व्यं भवति तेषामादेष्टव्यम् । अर्थतत्कार्ये श्रीपूज्यचरणा एव स्रष्टार इति भद्रम् ॥ अथ - तत्कालीकृतवृत्तेन-पत्रिका लिखिता यतः । श्रीमद्भिर्वाचनीयेयं, संशोध्य किल दूषणम् ॥१२॥ कृत्यं शिशूचितं वाच्यं, प्रणम्या जिनराजयः । मन्नाम्ना शनिविजय-दशम्यामिति मङ्गलम् ॥१३।। श्रीरस्तु ॥ ॥ पूज्याराध्य ॥ सकलवाचकसभाभामिनीभालस्थलभूषणायमान वाचकश्री १९ श्रीलावण्यविजयगणिचरणाब्जानाम् ॥ पत्तननगरे ॥ श्रीरस्तु ॥ -X नेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर, सूरत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १६७ (३१) वाचक श्रीअमरचन्दं प्रति मनिश्रीकर्मचन्दस्य लेख: सत्कर्मचन्द्रो लिखति ओं श्री अमरचन्द्रान् प्रतिस्वस्तिश्रीमन्तमाप्तं परमसमरसीभावमासाद्य सद्योध्वस्ताबोधं विशुद्धं प्रशमसुखवतां योगनिद्रां गतानाम् । प्रत्याहारेण नूनं विशदसुहृदये योगिनां प्रस्फुरन्तं नामं नामं प्रकामं त्रिजगदधिपतिं पार्श्वनाथं सनाऽथ ॥१॥ अथास्ति भूस्पृभिरदभ्रविभ्रमै-मा॑तं च निर्भीतिविभूतिसंयुतम् । अखण्डभूमण्डलभूषणं पुरं, भुवस्तले श्रीफलवर्द्धिनामकम् ॥२॥ प्रशस्तवातायनमत्तवारणै-रभ्रोत्कराभैः सद(र?)दभ्रसद्मभिः । विभाति तत्पत्तनमुच्छ्रितैस्ततैः, सना विमानैरिव शर्मदं दिवम् ॥३॥ तदथ दूरि(र)तरादतिभासते, वियति संचरितैर्मरुदीरितैः । ननु विधातृभिरेव पुरश्रियो, जिननिकेतनकेतनराशिभिः१ ॥४॥ बहुलबिल्वहलिप्रियसल्लकी-बकुलसालतलादिकरोलिकैः । पृथुतरं परितोऽस्ति पुरं हि तत्, सुगहनं गहनं सुफलादनम् ॥५॥ प्रदधतां विमलं सलिलं सदा, जलरुहैदलितैर्ललितैर्लसत् । सुरभिमत् पिहितं प्रमदंकरैः, सुसरसां सरसाम्बुदरामभे ॥६॥ सुविपिनेऽस्ति नु यत्र ततिर्युता, श्रमहरैर्ह रिहारिलतोत्करैः । अनिललोलपलाशलतावृतैः, सघननिम्बकदम्बकदम्बकैः ॥७॥ युग्मम् ।। सुकदलीनिलयेषु कलाभृता, विशदसंहननाः सदृशाननाः । असुखहारिणि यत्र सुकानने, सदयिता दयिता विहरन्ति वै ॥८॥ घनघनेऽभ्रपथे कृतगजिते, गतवतां प्रचकास्तितरां मुदम् । सुशिखिनां सुखिनां प्रियनर्तनैः, शुचिकलापकलापभृतां हि तत् ॥९॥ तदधिवसन्ति ससाताः, शिष्यवातैः समावृताः शश्वत् । कोविदकोटिकलाभृ-च्छीमदमरचन्द्रमुनिराजाः ॥१०॥ १. प्रसादध्वजसमूहैः । २. वृक्षैः । ३. शोभनं शुकपक्षिकम् । ४. सजलघनकृष्णदीप्ति । ५. मर्कट । ६. शाखासमूहैः । ७. चन्द्रेण । ८. पिच्छसमूह । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ बृहदबोधतमोऽपनयन्निवा - स्तमितवादिबुधोडुगणो रविः । विशदबोधमनोहर धामभृत् समुदितो मुदितो हि स भासते ॥ ११ ॥ लसदगण्यगुणान्वितभूघनो, मतिमतामवतंससमो दमी । क्षितितले सविपक्षकविव्रजो, विजयतां जयतां दृढमर्ज्जयन् ॥१२॥ प्रसरिसर्त्ति जगत्सु बृहद्यशः, सकलशारदचन्द्रकरोज्ज्वलम् । बहुमदोद्धतधीरजयोत्थितं शुभवतां भवतां भवतां गुरो ! ॥३१ ॥ अथ चकास्तितरां प्रतिवासरं, सुरगुरुप्रतिमोऽखिलविद्यया । स मृदुवाक् जनरञ्जनकोविदः सुकृतिनां कृतिनां पुनरुत्तमः || १४ || तेषां गुरूणां कमनीयलक्षणं, पादारविन्दद्वयमेनसोऽपनुत् । वन्दारुभूमीशकिरीटसुस्रजां, रजस्समूहरनुरञ्जितं महत् ॥ १५ ॥ नंनन्ति मूर्ध्ना शतशोऽथ भक्तियुक्, सन् कर्मचन्द्रः सुमना मनीषिणाम् । स थांदिलाणान्तपुरं वरं पुरां सदाऽधितिष्ठन् रुचिरं चिरन्तनम् ||१६|| युग्मम् ॥ " यतिस्तु तत्रत्यमिति प्रशस्तं स शस्तुमिच्छन् सुवचस्सविस्तरम् । प्रवक्ति युष्मत्कृपयाऽत्र सद्विभो ! समुल्लसन्ती कुशलावलीत्यलम् ॥१७॥ " अथ च निजाकूतं प्रचिकटयिषुर्ग्रदीयसीमिमां वाचमभिदधामि । भवद्विनेयोऽहकम्, भगोऽद्य श्वो वा श्रीगुरूपान्ते व्रजेयमिति विमर्शं विदधानोऽहकं द्राक् श्रीमतां प्रस्थातमेव मां जानीत । ननु चात्रैव कस्यांचिदभ्यर्णवर्तिन्यामेव पुरि स्थाताः प्रागभ्यर्हिताः कैश्चिदभत ( ? ) । कथं तर्हि सत्वरमेवाऽतिदूरस्थले प्रस्थितवन्तो भवन्तो भवन्तसन्तो ( ? ) ऽथैतर्हि भवद्दर्शनरणरणकवतो ममैकैको वासरो हायनसन्निभो व्यत्येतितरामुपलब्धिमतामनुतरेणाऽवगन्तव्यमिति किं बहुना वाक्प्रपञ्चेन ? । प्रतिपर्णं तूर्णं कर्णाभ्यर्णचरिष्णु कार्यं च । तथोदाहार्यमार्यवर्यैर्द्वार्यचि(?) कृपादृक्मयीति मन्तव्यम् । सद्यो हार्दहृद्यानवद्यहृदयेन लब्धवर्णवरेण्येन भवता शुभवता श्रीमता । मिति: प्रौष्ठपदसितप्रतिपत्कर्मवाट्याः ॥ भवदभ्यर्णवर्त्तिनां मुनीनां नत्यनुनतिततयो यथायथं मन्नाम ग्राहं ग्राहं कर्णजाहोपगूहीकार्याश्चेति मङ्गलममलमलं स्तात् लेखकवाचकयोरिति । श्रीमत्तपोगणीयेन श्रीसागरेण भवदंही प्रणिपनीपत्येते ॥ १. उदयं प्राप्तः । Jain Educationa International -X For Personal and Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १६९ (३२) मङ्गलपुरस्थ-श्रीलब्धिचन्दविबुधं प्रति वीरमग्रामतो श्रीगुणचन्दस्य विज्ञप्ति: स्वस्तिश्रियं वस्तनुतां सनाथः, कृपार्द्रचेता इह शान्तिनाथः । अर्हन् सपर्यां नतदेवनाथ-श्चरित्ररत्नान्वितसाधुनाथः ॥१॥ स्वस्तिग्रहाधीश्वरतुण्डपद्मः, स्वप्नासुरासेवितपादपद्मः । पद्मादिचितैर्युतहस्तपद्मः, स्वाङ्गप्रभानिर्जितहेमपद्मः ।।२।। संसारवाधौ वहनांहियुग्मः, सरोजकोशैः सदृक्षा(शा)क्षियुग्मः । सत्पद्मनालासमबाहुयुग्मः,सुपार्श्वकोपासकदेवयुग्मः ॥३॥ जगत्रयेशः सहसाजितारः, जेयः सदा संसुखसेवितारः । सद्देशनागीरीनरञ्जितारः, जनोरमाजेषु गतावतारः ॥४॥ अशिश्रयद् यस्य पदारविन्दं, मृगो विहायैव वनारविन्दम् । स्त्रिया जितं मे नयनारविन्द-मिवेति पूत्कर्तुमिहच्छविन्दम् ॥५॥ श्रीमन्तमेनं स्तुतिगोचरीकृतं, श्रीविश्वसेनान्वयपुष्करारुणम् ।। श्रीसर्वतीर्थेश्वरदेवकुञ्जरं, देवासुरासेवितपादपङ्कजम् ॥६॥ श्रीशान्तिसोमद्युतिमेव मन्मन:-कात्यायनीनाथललाटपत्रकम् । शीघ्रं समानीय जगच्छिवङ्कर-मापद्धरं वाञ्छितदं च भूस्पृशाम् ॥७॥ यत्राऽधिपो राजति नित्यधर्मा-रक्षापरो जानपदे स्वकीये । द्योतद्विपोन्मूलितवैरिवृक्ष-आशैशवाभ्यासितसर्वविद्यः ॥८॥ यत्र भूमिपपथे मतङ्गजा, बभ्रुरेव सदृशं पयोमुचाम् । गर्जनेन तु मदश्रवेण ह(?), श्यामवर्णतनुना च साम्प्रतम् ॥९॥ राजन्ति तीर्थेश्वरराजगेहा, सच्चित्ररूपान्वितभित्तिदेशाः । स्याद्वादिबिम्बान्वितमध्यदेशा, भक्तालिसंचारितनित्यपूजाः ॥१०॥ यत्राऽऽर्येभ्या धनदसुरवद् याचके दत्तदानाः, सद्धीमन्तो नरपतिसभानित्यसंप्राप्तमानाः । कुर्वन्तोऽहाँ वरजिनपते(?), चन्द्राब्जाभा गुरुवचनरताः सोद्यमाः पुण्यकृत्ये ॥११॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क नार्यो यस्मिन् वनजवदनाः स्पर्द्धयन्त्यः सुरीभी, रूपाधिक्याद् विशदगमनात् श्वेतपक्षैश्च सार्धम् । सारङ्गाक्ष्यो विपुलजघना नित्यविस्तीर्णचित्ताः, शस्याचाराः शुभगुणभरास्तत्परा धर्मकार्ये ॥ १२ ॥ यस्मिन् सन्ति व्रतिजनगणा नित्यसोल्लासचित्ताः, श्रीवीराज्ञाकरणपटवो ज्ञातसिद्धान्ततत्त्वाः । पूतात्मानः शमरसयुतास्त्यक्तसंसारसङ्गाः, संश्रेयोदं चरणमणिकं सोत्सुकं संदधानाः ॥ १३॥ श्री श्रीमति तत्र विशद - मङ्गलपुरनाम्नि बन्दिरे रम्ये । श्रीतातपादपङ्कज-रेणुभरपवित्रितानन्ते ||१४|| श्रीमद्वीरमग्रामाद्, वीरमग्रामाज्जनालिसङ्कीर्णात् । गजरथकरभतुरङ्गम-संपूरितमध्यभागाच्च ॥१५॥ तरणिप्रमितावर्तक-वन्दनकेनाऽभिवन्द्य सोल्लासम् । सस्नेहं सोत्कण्ठं, सहर्षमेवेह सानन्दम् ॥ १६॥ हर्षोद्रमरोमाङ्कर - हृदयो भून्यस्तको विनेयाणुः । गुणचन्द्रोऽथ विधिवद्, विज्ञप्तेः पत्रिकां तनुते ||१७|| शमिहाऽस्ति यथास्माकं, श्रीगुरुसौम्येक्षणावलोकनतः । श्रीमद्दुरुनाममहा-मन्त्रस्मरणेन पुनरपरम् ॥१८॥ वदननिर्जितपूर्णनिशाकरं, शुचिसुरासुरमानवशङ्करम् । कुसुमकेतन हेलनशङ्करं, समतया चिरमानवशङ्करम् ॥१९॥ सकलपापतिमिस्रदिवाकरं वचनपाटवरञ्जितनागरम् । तपकुठारविदीर्णभवाकरं, शमरसामृतसोमजसागरम् ||२०|| नवसुवर्णवनोद्भवबन्धुरं, विबुधमानवसन्ततिसिन्धुरम् । नृपसमाजसुलब्धसदादरं, सकललोकहितव्रतसुन्दरम् ॥२१॥ शिवलताङ्कुरवर्धनवार्धरं, पदपयोरुहसन्नतभूधरम् । भज गुरुं भविलब्धिकलाधरं, स्वतनुधीर (रि) मतर्जितभूधरम् ॥२२॥ पापं तमो याति दिगन्तरं [?], तपः प्रतापांशुमिहेक्ष्य यस्य । स्फुरत्सना द्वादशभेददीधिति ( ? ), नमामि तं श्रीगुरुलब्धिचन्द्रम् ||२३|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - खण्ड २ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १७१ जय त्वं व्रतिनामीश!, जगद्धितपतो(ते?)ऽनिशम् । संव्रतपापकृत्यायः, सन्ति यथा ग्रहालयः ॥२४॥ चरणं त्राणमब्जाभं, भवान्धौ पततां भवेत् । भगवद्! बुधकृत्सेव!, भजेऽहं जनशंभव! ॥२५॥ एकाधारं भवन्नाम, मानां भुवि साम्प्रतम् । मनीषादन्तृषादाप्तं, मया रत्नमिवो(वा?)द्भुतम् ॥२६।। इत्यादिकृतस्तवनैः, श्रीवन्द्यैर्लब्धशश्वदानन्दैः । सुरसेवितपदकमलै-र्वादिद्विपनिकरसिंहतुलैः ॥२७॥ मामकहस्तसरोरुह-निर्मलकेलिकरमधुकरीतुल्या । मद्धृदयामृतवल्ली-चित्ररसविवृद्धिजलमाला ॥२८।। स्वशरीरपरिकराणां, तथासुखोदन्तसूचिका रम्या । प्रेष्या प्रसादपत्री, श्रीगुरुपादैश्च हर्षभरैः ॥२९॥ किञ्चाऽस्माकं ज्ञेया, सन्नतिरुपवैणवं भवत्पादैः । क्वाऽस्ति चतुर्मासान्ते, विहार(रं) कर्तुं च वश्चित्तम् ॥३०॥ श्रीपूज्याचार्याणां, ज्ञायन्त उदन्तकाश्च युष्माभिः ।। सूर्यपुरसामि(मी)प्यात्, प्रयोजनं नो न लिप्यातः (?) ॥३१॥ अन्य उदन्ताः केचिद्, ज्ञेया लोकोक्तिलेखतो वन्द्यैः । श्रीमत्पण्डितपत्रा-ज्ज्ञेयाः केचिच्च वृत्तान्ताः ॥३२॥ वलमानो लेखो मम, हृन्मोदकृते प्रसादितव्यश्च । ज्ञेया नतिरनुपूर्वा, विबुधश्रीरूपचन्द्राणाम् ॥३३।। तत्र श्रीरविचन्द्राणां, गणिनां शुक्लधीमताम् । गणिश्रीलालचन्द्राणां, विजितानेकवादिनाम् ॥३४।। गणिश्रीरायचन्द्राणां, स्ववाग्रञ्जितदेहिनाम् । गणिकल्याणचन्द्राणां, तनुभाजिद्विवस्वताम् ॥३५॥ मुनिलावण्यचन्द्राणा-मनन्तगुणधारिणाम् । अमीचन्द्रमुनीनां च, मुनौ सद्भक्तिकारिणाम् ॥३६।। साध्वीश्रीगुणलक्ष्मीणां, सदृशीनां च सीतया । साध्वीश्रीभावलक्ष्मीणां, पवित्राणां च चेतसा ॥३७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ इत्यादिमुनिसिंहानां, श्रीतातपदसेविनाम् । ज्ञाप्या प्रणतिरस्माकं, यथार्ह नरकुञ्जरैः ॥३८।। श्रीचन्द्रस्य गणेरत्र, पूर्णचन्द्रगणेरपि । मुनेश्च नयचन्द्रस्य, सुन्दरेन्दुमुनेस्तथा ॥३९॥ सुधीचन्द्रमुनेश्चाऽपि, लक्ष्मचन्द्रमुनेरथ । ज्ञाप्या यथार्हमन्येषां, ज्ञेया नतिस्त्रिसायकम् ॥४०॥ ज्ञाप्या विशेषवृत्तान्ताः, पुराणा अपुराणकाः । श्रीगणाधीशपादानां, श्रुताः केचिद् भवन्ति चेत् ॥४१।। त्रिविक्रमकृता चम्पू-रधुनाऽधीयते मया । अत्र शिशूचितं कृत्यं, प्रसाद्यं साधुपुङ्गवैः ॥४२॥ सागारिणामिहस्थानां, नतिर्जेया विशेषतः ।। पत्तने गृहिणां ज्ञाप्या, वृषाशिस्तत्र मामकी ॥४३।। यत्किञ्चिल्लिखितं खूणं, मयेह मन्दबुद्धिना । क्षन्तव्यं तच्च सर्वस्वं, वन्द्यपादैः कृपापरैः ॥४४॥ श्रीसार्वनतिवेलायां, स्मर्तव्योऽहं शिशुर्मुदा । आश्विनपौर्णमास्यां तु, पूर्णेन्दाविति मङ्गलम् ॥४५॥ इति श्रीगुरुलेखः ॥ लेखकपाठकयोः कल्याणं भवतु श्रीशङ्केश्वरपार्श्व नाथप्रसादात् ॥ इति मङ्गलम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १७३ (३३) कोविदवरेण्य-श्रीपुण्यधीरजिमुनिवरान् प्रति श्रीजयकीर्तिमुनिलिखितं पलाशम् स्वस्तिश्रीविलसन्महामणिकलधौतकलितपादपीठतलदीधितिसमवायाविच्छिन्नालङ्कारहारिसंहननराजनिकरोपासितानि विघटितघनपापसन्तापसमवायसपरिधायफलोदयसदिन्द्रनागेन्द्रयोगीन्द्रवृन्दस्तुतानि श्रीमद्वामेयजिनचरणकमलानि मानसकासारे निधाय पञ्चमं प्रीतिपात्रं पत्रं लिख्यते । ' नानाप्रशस्तगभस्तिविशिष्टहीरकगैरिकादिसमवायाविच्छिन्नावनिप्रदेशे श्रीमत्कच्छविषये कान्तितिरस्कृतान्धतमसानेकरुचिरतरमणिमुक्तामुक्ताङ्गनागरिकवधूगतिविलासचलच्चरणचलच्चित्ताभीकेऽनेकाश्चर्ययुक्ते श्रीमण्डवीबिन्दरे स्थितान् निबिडवर्णाज्ञमतितिमिरतिमिरारीन् निखिलवादीन्द्रवृन्दमातङ्गदलनमहानादसमोपमान् श्रीमत्पुण्यधीरजिन्मुनीन् प्रति श्रीमद्विक्रमपुरस्थायिजयकीर्तिमुनिः सादरं सहर्ष नमश्चरीकरीति । कुशलव्यूहमिह वरीवृतीति श्रीमत्पार्श्वदेवकृपाकटाक्षात् । तस्मादेवाऽत्रभवतो भवतो तदेव सततं भवतु । अन्यच्च- युष्मत्कृताक्षरविन्यासं सत्समाचारपूर्ण सुवर्णव(प?)र्णमेकमत्राऽऽगतम् । तद्वाचनेन मन्मानस आनन्दथुरभूत् । अन्यच्च- श्रीमद्भिर्भवद्भिः पलाशं सम्यक् कृतम् । परं मन्मनः क्वचन प्रयोगे संशेते । तथाहि- भवद्भिः माहं माहं इति णमन्तं नत्वा इति क्त्वान्तं च पदं प्रयुक्तम् । तत् समानकर्तृकक्रियापदप्रयोगाभावादनुपपन्नम् । समानकर्तृकक्रियापदप्रयोग एव पूर्वकाले तद्विधानात् । तथा श्रीआदिनाथप्रभुं इत्यत्र सन्ध्यकरणमप्यनुचितम् । न च विवक्षित एव सन्धिः स्यादिति वाच्यम् । विवक्षा हि वाक्ये । समासे तु सन्धेर्विवक्षाया अनपेक्षकत्वात् 'नित्या समासे' इति प्रागुक्तेः । अत्र हि समासः । किञ्च- सर्वत्र सन्धेरनित्यत्वे 'ओदन्तोधौवेता' वित्यादेरानर्थक्यापत्तिः स्यात् । तथा- 'अनेकनीवृदागतवणिजात्मजे'त्यत्र वणिक्छब्दस्य चवर्गतृतीयान्तत्वात् कुत्वेन 'वणिगात्मजे'ति भाव्यम् । तथा'प्रोद्दामप्रज्ञे'त्यादीन्द्रवज्रायामाद्यतगणभङ्गः । अत्रापि कथञ्चिन्निर्वाहेऽपि दुष्टप्रयोगकरणस्याऽनुचितत्वात् । तथा- 'अहर्दिव'मित्यत्र द्वन्द्वानुपपत्तिः, ‘पदार्थतावच्छेदक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ भेदे द्वन्द्व' इति कैश्चिदुक्तत्वात् । तथा- 'फाल्गुनशुक्लषष्ठी - कर्मवाट्यां' इत्यत्र षष्ठीशब्दे पुंवद्भावेन भाव्यमित्यादि प्रतिभाति । १७४ तदेवंभूतप्रयोगभ्रान्तमनस्कानां स्वमतिदोषेणाऽऽविष्कृतपरमतिदूषणानामस्माकं चापलमविगणय्य स्वमतिविलासेनोत्तरं प्रैष्यम् । अन्यच्च - कुमतिकुमुदखण्डनप्रचण्डमार्त्तण्डोपम-सकलामलवेदवेदान्तसिद्धान्तादिविद्याऽवारपारतरण्ड - श्रीमद्व्यासकुलोत्तंस - श्रीमन्नन्दलालजितः किरातार्जुनीयमहाकाव्यस्य पञ्चदश सर्गा अधीताः । अधुना मयाऽभिधानचिन्तामणिर्विलोक्यते । श्रीमतां भवतां स्मरणमहोरात्रे चरीकरीम्यहम् | भवद्भिरपि मदुपरि कृपा सुरक्षणीया । अत्रोचितमनुष्ठानं किञ्चिल्लेखनीयम् । कृपापर्णमाशु देयम् । चैत्रशुक्लसप्तम्यामलेखि पर्णम् ॥ सद्गम्भीरार्थासमापारजैनशास्त्रादिविद्यापारीणजगत्सकलकोविदोत्तमाङ्गकिरीट श्रीक्षमाकल्याणजिते वन्दना मम निवेदनीया ॥ 1 पं. श्रीमद्वीरचन्द्रेभ्यो नतिर्निवेदनीया । पं. श्रीखुस्यालचंदजी पं. पुन्यधीरमुनिसुं पं. विनैहेमरी वंदना घणी कृपा राखज्यो । याद करता रहज्यो । वा. श्रीश्रीश्री अमृतधर्मजीगणिसु विजारी जीवराजरी वंदना । बहु कृपा रक्षणीया ॥ Jain Educationa International -X— For Personal and Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १७५ (३४) मधूकपुरस्थ-भ. महीचन्द-मेकचन्दान् प्रति पूषन्पुरत: श्रीउदयविजयस्य लेख: स्वस्ति सासार-मसारसंसाराकूपारपारप्राप्त-माप्तोपदेशदेशकमावेशवद्वादिवाग्वारिवाहवातव्रात-मनुतीव्रव्रतव्रजजिताजर्जरकर्माण-मृतममृतनिर्यासवासमूर्तिमन्त-मनन्तराय-मनन्तरायज्ञानविज्ञातविश्वविश्व-मुपविश्वसत्श्वासिचित्तचित्तवृत्तिं पुण्यवैवर्तदृष्ट-मदृष्टगुणगणोदन्वदन्तमुदं तन्वन्तमतिमतिपतिशयाम्नातायति-मायतयशस-मनृशंस-मसंशयशयशयितसिद्धिसुखमुषसि आश्वसेन्यं सेनान्यं यतिसेनाया मूर्जा प्रणनम्य सम्यक् श्रीमति तत्रभवद्भवत्पादपङ्केरुहरजःपावितभुवि शुभविभौ रामराज्य इव सलक्ष्मणे कलाकेलाविव रतियुक्ते वामदेव इव समहिमनि ब्रह्मणीव चतुराननेन स्तुते श्रीमधूकपुरे महीवत् सर्वंसहानां मेरुवद् धैर्यजुषां सर्वशास्त्रकषाश्मनि मृष्ट-शिष्टबुद्धीनां भ० श्री ५ श्री महीचन्द्रमेरुचन्द्रपादपाथोजन्मनां श्रीपूषन्पुरात् अवनतोर्ध्वकाय उदयविजयः सबहुमानं सोल्लासं सोत्कण्ठं सहर्षं. अनामयम(मा)रोग्यवार्तया विज्ञपयति, यथाकृत्यं चाऽत्र श्रेयः, श्रेयः श्रेणयः समेधन्ते एधन्ते च भवतां सुगृहीतनाम्नां नामग्रहणपुरस्सराणि सुखानि, अनुभूयन्ते चाऽस्माभिनित्यं विदुःखानां विदुषां गोष्ठीः साध्यन्ते च व्रतकर्माणि, संगच्छते च भवतां दर्शनमृते सर्वमपि सुखमित्यलमतिपल्लवनेन । श्रीमद्भिरङ्गारोग्यादिवावदूकं वाचिकं प्रसादनीयम् आसादनीयं च कालान्तरे मिलनमिति संभाव्यते । तत्त्वं तु तत्त्वविदो विदन्ति । सार्वप्रणामावसरे स्मारणीयोऽहमिति श्वोवसीयम् । प्रथमज्येष्ठमासि बहुलपञ्चमीकर्मवाट्यामजायताऽऽनन्दः ॥ सूरिविजयसेनाह्वो, रत्नसानुर्नवोऽभवत् । निर्मथ्य यः पयोराशि, यशोलक्ष्मी ललौ स्वयम् ॥१॥ नन्दतान्नन्दिहनूमान्, हीररामानुसृष्टिकृत् । सागरान्तर्गतां पञ्च-ग्रन्थीलङ्कामुवोष यः ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ सर्वज्ञशतकच्छद्म-विषं सिन्धुसमुद्भवम् । यः क्षणात् फल्गुतां निन्ये, स जीयात् सोमशेखरः ॥३॥ अजनिष्ट कमासूनुः, चक्रभृत्सगरोऽपरः । यः सागरं बहिश्चक्रे, जम्बूद्वीपात् तपागणात् ॥४॥ रामविज्ञद्वयीं मन्ये, सीरिशाङ्गिद्वयीमिह । न्यवेशि वार्द्धिमुत्सार्य, हीराज्ञाद्वारिका ययोः ।।५।। इत्याद्यष्टकं उ० मुनिविमलकृतमस्ति । श्रीसिद्धार्थकुलाम्बरदिनकर, कीर्तिपराजितसुन्दरसितकर, हितकरकामकरीर तु...जय जय... हित० ॥१॥ अव्ययपदसुखसन्ततिकारण, वृजिनानोकहनाशनवारण, वारणपतिगतिवीर तु...जय जय... वार० ॥२॥ विहितोपशमपयोनिधिमज्जन, स्मितविस्मापितसकलजगज्जन, सज्जनजनवनकीर तु...जय जय... सज्ज० ॥३॥ हेलानिर्जितदुर्जनतमयम, शासनवासितवरवाचंयम, संयमतरुघननीर तु...जय जय... संय० ॥४॥ कमलपलाशसुकोमलकाय, जननमहागतदेवनिकाय, कायाऽवनसुपटीर तु...जय जय... काया० ॥५॥ श्रीत्रिशलाङ्गजसामजभासुर, गुणगणरञ्जितसकलसुरासुर, सुरवरभूधरधीर तु...जय जय... सुर० ॥६॥ कण्ठनिवेशितचम्पकमाल, कविकोकिलकुलसरसरसाल, सालभुजालशरीर तु...जय जय... साल० ॥७॥ कारितजनसुकृतार्जनहेव, गौतमादिगणधरकृतसेव, सेवकवत्सलवीर तु...जय जय... सेव० ॥८॥ इत्थं स्तुतश्चरमतीर्थपतिः प्रकामं, कामाङ्कशद्युतिविरञ्जितजीवलोकः । सूरीशितुर्विजयदेवगणाधिभर्तुः, सेवाविनीतमतिकस्य जयश्रिये स्तात् ॥९॥ इति स्तवः ॥ -x मुनिश्रीधुरन्धरविजयजी-सङ्ग्रहगत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १७७ (३५) श्रीरत्नविजयमुनिवरं प्रति जयपुरसङ्घस्य पत्रम् अहँ नमः - श्रीमत्पार्श्वजिनेन्द्रपादकमलध्यानैकतानाः सदा, श्रेष्ठध्यानयुगेऽतिरक्तहदयाः षटकायिकानां दया । जीवानां च विधायका निखिलसार्वज्ञाऽऽगमाऽभ्यासिनो, व्याख्यानामृतवर्षणेन नितरां धर्माङ्करोत्पादकाः ॥१॥ सत्सिद्धान्तविचारदक्षमतयो दीनोद्दिधीर्षायुताः पाखण्डद्रुमदाहनेऽग्निसदृशाः श्रीसङ्घसम्पूजिताः । अद्य श्रीशुभमूर्तिरत्नविजयाख्याना विराजन्ति ये, तत्पादाब्जयुगेऽस्तु सङ्घजनतामूर्ती सदा वन्दना ॥२॥ सकलजयपुरस्थश्रीसधैर्विज्ञप्तिर्विधीयते स्वामिन्! धन्या सा वसुधा यत्रत्यजनाः श्रीमच्चरणारविन्दसेवानुरता अहर्निशमधुना स्वामिमुखनिःसृतधर्मोपदेशवचनामृतलहरिसम्पर्कात् स्वकीयहृद्गताज्ञानताजनितसन्तापं दूरीकुर्वते ।। स्वामिस्तदेवाऽहर्वयमप्यतिसमीचीनं मनिष्यामहे, यस्मिंश्च श्रीमच्चरणाम्भोजरजोऽस्मदुत्तमाओं पतिष्यति । तदैवास्योत्तमाकं नाम सफलीभविष्यति । स्वामिन्नस्मान् जयपुरस्थान् पावयितुकामैः श्रीमद्भिर्यदाऽत्राऽऽगमनं विहितं तदा चाऽस्माभिरेवं विचारितम् 'अहो ! अतिधन्या वयं येषां कालत्रितयस्याऽपि पुण्यवत्तैव सूच्यते मुनिराजागमनेन' । तथा चोक्तम् हरत्यघं सम्प्रति हेतुरेष्यतः, शुभस्य पूर्वाचरितैः कृतं शुभैः । शरीरभाजां भवदीयदर्शनं, व्यनक्ति कालत्रितयेऽपि योग्यताम् ॥१॥ एवं हि पुण्यवत्त्वे सिद्धे तस्य च पापविघटनोत्तरजायमानत्वेन भवच्चरणारविन्ददर्शनप्रतिबन्धकीभूतपापस्येदानीमभावात् प्रतिबन्धकाभावस्य कार्यमात्रजनक १. पत्रमिदं सचित्रमस्ति । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ त्वाद् भवद्दर्शनमस्माकमवश्यं भविष्यत्येवेति निश्चयेनोत्कण्ठा सर्वेषां वर्तते । श्रीमद्रत्नविजयमुनि-चरणसरोजावलोकनं सततम् । जयनगरस्थजनानां, शुभोदयं सर्वदा दिशतु ॥१॥ स्वस्तिश्रीमत्समस्तसजातीयसाधर्मिकभ्रातृभ्यः, परमचारित्रधारकेभ्यः प्रत्यहं सामायिकाद्यावश्यककरणशीलेभ्यः शुभनगरनिवासिश्रीसङ्घजनेभ्यः इतो जयपत्तनात् सकल श्रीसङ्घजनसमुदायैः प्रेमतो विहिताः प्रणामाः सन्तुतरामत्र कुशलं तत्राऽस्तु । भ्रातरो भवन्तोऽतिधन्या येषामिदानीमेतन्मुनिराजचरणसरोजे भक्तिभरो वर्द्धते तेषां कियान् शुभोदयो वर्ण्यते ? दाधीचद्विजवंशज-नानूलालाभिधेन विदुषा वै । पत्रं निर्मितमेतद्, भवतु मुदे सर्वसङ्घस्य ॥१॥ आर्याछन्दः ॥ लछमीपत-घनपतसींघ-छत्रसींघ-गनपतसींघ-नरपतसींघकी वंदना त्रीकाल-त्रीकाल समय-समय वंचावसी । आप पुज्य हो, ग्यानी हो, गुवालेरमे वीराजमान हो, हम लोगके उपर कृपा करके दरसन दीलावजो । छमछरी समंधी खामना खमाते है, सो खामजो । स्रावक-स्रावकनी धरमधुरनधर साधरमी भाइयांने प्रानाम होजो । [आथी आगल नव जणना हस्ताक्षरमां वन्दना जणावी छे ।] श्रीप्रेमलभाई, वालकेश्वर - मुंबई Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १७९ (३६) श्रीविजयदानसूरिं प्रति प्रेषितं विज्ञप्तिपत्रम् (त्रुटितम्) [...] त्यक्तारं गमिता सरित् सुमनसामति हृदा बिभ्रती, पूत्कर्तुं परिसर्पतीव सविधे पाथोनिधेः प्रेयसः ॥२०॥ त्वद्वागस्खलितप्रवाहमहिमोत्कर्षाभिलाषोत्सुकी भूतस्वान्ततयाऽनगार! जगतीराजीविनीवल्लभ! । प्रालेयाचलतुङ्गशृङ्गशिरसः सम्पातदम्भादसौ, झम्पां द्वीपवती दिवो वसुमतीपीठे प्रदत्ते किमु ॥२१॥ यस्याऽ श्रान्तनिरी(रि)त्वरप्रसृमरव्याहारविस्फूर्जितैः, स्वस्ससिन्धुरदभ्रविभ्रमभरैधिक्कारतां लम्भिता । मज्जद्दिग्गजराजराजिविलुलत्कल्लोलकोलाहलै रूहे शेषहरिन्महेन्द्रपुरतो दुःखं व्यनक्त्यात्मनः ॥२२॥ देव! त्वद्वचनामृताम्बुधिलुलत्कल्लोललीलायित प्राप्तावुत्तरलीभविष्णुहृदयं जोर्दधाना कनी । वप्तः स्वस्य महाग्रहग्रहवतीवाऽऽदाय पादाम्बुजं, प्राञ्चद्वीचिचयक्वणेन रुदती मन्ये मुहुर्याचते ॥२३।। संस्पर्धिष्णुतयाऽनिशं स्वविभवैर्वाचां विलासान् विभो हन्तुं स्वं कियदेतिकां विदधतो व्यालोक्य शङ्काकुलाः । नश्यन्तो न दिशोदिशं किमगमन्नोघा भवन्तः पृथक्(ग्), जाह्नव्या भवनेन चेदितरथा ते स्युः सहस्रं कुतः ॥२४॥ वातान्दोलितसर्वतोमुखमहापीयूषकर्षुप्रिय प्रेवत्तुङ्गतरङ्गपुञ्जसहजैर्यद्वाग्विलासैनवैः । नीता न्यत्कृतिपद्धति दिगधिपप्रत्यक्षमृक्षाध्वनः, सिन्धुर्वीडवशंवदोत्समभवज्जानीमहे निम्नगा ॥२५।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ संहर्षेण विभूषया कृतरुषो यद्वाग्(क्)तरङ्गवजा निर्वर्ण्य प्रतिकर्तुमीश्वरतया न स्वेन मन्दाकिनी । सिद्धान् सिद्धिकृतः प्रतीपहतये किं कुर्वती गोचरं, ___ भक्तेः सिद्धधुनी तदादि भुवने तत्सझया पप्रथे ॥२६॥ सापत्न्यात् शिवया च धूर्जटिजटाजूटाटवीसंस्थिते भूमौ भूधरसार्वभौमशिरसः स्वस्याऽवरोहात् पुनः । और्वास्ये विनिवेशनाच्च लवणीकृत्याऽम्बुधेः स्वधुनी त्युद्वेगादपविघ्नवाग्विभवतां विद्मो विभोर्भेजुषी ॥२७|| इत्यादिगुणसमुद्र-र्वदनाम्बुजवैभवाधरितचन्द्रैः । प्रणमज्जनकृतभद्रैः, पदकजभृङ्गायमानेन्द्रैः ॥२८॥ तातपादैः प्रसाद्या स्व-शिशोः प्रीति वितन्वती । पूर्णा प्रभावमणिभि-निधिकुञ्जी(म्भी)व पत्रिका ॥२९।। शिशोस्त्रिसायं प्रणतिरवधारणीया । तत्रत्यसकलभट्टारकपुरन्दरभट्टारकप्रभुश्रीश्रीश्री हीरविजयसूरीश्वर, पं. लाभविजयगणि, पं. धनविजयगणि, पं. भानुविजयगणि, पं. कीर्त्तिविजयगणिप्रमुखाणां यथार्ह नत्यनुनती प्राभृतीकर्तव्या(व्ये)। अत्यत्र ग. लडू, ग. कीर्तिवर्धन, मु. दयाविमल, मु. हंसविमलादीनां प्रणतिरवधारणीयेति ॥ नेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर सूरत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १८१ (३७) श्रीहीरविजयसूरि प्रति श्रीविजयसेन सूरिभिः प्रेषितं विज्ञप्तिपत्रम् (त्रुटितम्) [...] तदपि मोहकरं न महात्मनां, त्वमसि यस्य विवर्धनतत्परः ॥६५।। गुणगणस्तव यद्गणनातिगः, समगमज्जगतीपरतोऽप्यसौ । त्वयि तथाऽपि गुणस्थितिरद्भुता, तदतिमानवमानसमोहकृत् ॥६६॥ तव विधानविधौ खलु योऽभव-द्विधिरनन्तगुणस्मृतिकृद्विधेः । पुनरुपैति कथञ्चन नाऽप्यसौ, यदि समेति शुभः समयोऽप्यसौ ॥६७॥ कलिरपि प्रसरत्कलिकेलिभृत्, कमलयाऽमलया कलितः सदा । कवलितो भवता भवतो भवेत्, सुखमखण्डितमत्र कुतोऽन्यथा ॥६८|| तव विधाय विधिर्वपुरुत्तमं, पुनरपीश! तथा यतते ततः । विहितवानयमिन्दुमुखान् परं, तव कलाऽपि न तेषु कदाऽप्यभूत् ॥६९।। विहितवास्तव देव! विधिर्वपुः, पुनरयं न तथा यतते यते! । तव कुतोऽपि कदाऽपि यतः कला, जगति नैव जनेऽजनि जातुचित् ॥७०॥ शशिनमेककलक[क]लङ्कितं, तरणिमप्यतितापतिरस्कृतम् । मणिमपीश! दृषन्मयमुत्तमं, जलधिमप्यतिशायिजलालयम् ॥७१।। विहितवान् विधिरेष पराङ्मुखः, सततमेव सतां शुभसम्पदः । स्मृतिमगात्किमु नैव भवान् परं, त्वयि न दोषलवोऽपि यतोऽभवत् ।।७२।। [युग्मम्] गणपतेऽगणनीयगुणास्तव, प्रसरमापुरिमे जगतीतले । मतमनेन न यौगिकमुन्नति, व्रजति यद् गुणिनोऽपि विना गुणाः ॥७३॥ न रमणी रमणीयगुणाम्बुधे-र्मनसि यस्य सदाऽपि समाविशत् । स जयताज्जयताज्जगतीतले, सुगुरुशेखर एष सुखाश्रयः ॥७४॥ अमितमानवमानवदायिनं, मतिमतामतिमोहतमोऽपहम् । नमत नाकिनरेशनतक्रम, क्रमगतागमगौरवकारणम् ॥७५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ त्वमेवाऽसि जगन्नाथ! जगज्ज्येष्ठ! गुणैर्गुरुः । गुरुताऽपि प्रमाणं ते, यस्यां नामाऽपि नाऽन्यजम् ॥७६।। त्वमेवाऽसि जगत्त्राता, त्वमेवाऽसि जगद्गुरुः । जगद्वन्धुस्त्वमेवाऽसि, परमानन्दमन्दिरम् ।।७७।। इत्यनेकगुणग्राम-रमणीयरमास्पृशाम् । दत्तानेकनरश्रीणां, श्रीतातानां ततौजसाम् ।।७८|| लेखो लेख इवाऽत्यन्तं, मनः प्रामुमुदत्तमाम् । शैशवं तदुदन्तोऽपि, शिशुमानसमाविशत् ॥७९॥ [युग्मम्] पुनरप्यनन्तपुण्याढ्यैः, सदाढ्यैर्वपुषः सदा । प्रसादनीया पत्र्येका, श्रीतातैः सुखसूचिका ||८०॥ अत्र च परिसरे - वानरर्षीति नामानो, विबुधा उसाँपुरे । पुरे राजधनाह्वाने, विद्वद्विनयसुन्दराः ॥८१।। मुख्येऽस्मिन् राजनगरे, ज्ञानविमलपण्डिताः । पुरे कुमरगिर्याख्ये, विद्वद्विजयसागराः ॥८२।। वटपल्लीपुरे तस्थुः, पद्मविजयपण्डिताः । मुनिविजयविद्वांसो, नगरे विश्वलाभिधे ॥८३।। कृष्णर्षिगणिविद्वांसः, पुरे सिद्धपुराभिधे । महीशानपुरे तस्थुः, श्रीवन्तमुनिपण्डिताः ॥८४॥ कीर्त्तिसारेति विद्वांसो, विद्यापुरपुरस्थिताः । शुभविजयनामानः, कट्यां पाण्डित्यभाजिनः ॥८५।। एवं ये यत्र विद्वांसो, गणयोऽपि गुणस्थिताः । चतुर्मासी समासीना-स्ते तत्र सुखसंश्रिताः ॥७६॥ निर्विघ्नविहितानेक-पर्वकृत्यकदम्बकाः । सन्ति श्रीतातसेवाया-मासक्तमनसः सदा ॥८७|| भून्यस्तमस्तकस्याऽथ, शिशोः सन्ध्यात्रयेऽपि च । श्रीतातैः प्रणतिः पूर्व-मवधार्या यशोधनैः ॥८८|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २०१३ अथ तत्र - श्रीतातचरणाम्भोज-भक्त्यासक्तसुचेतसः । नाम्ना विमलहर्षाहवाः, श्रीवाचकपदाङ्किताः ॥८९॥ सोमविजयनामानः, पण्डिताः पुण्यपूरिताः । नाम्ना कनकविजयाः, गणयो गुणसंश्रिताः ॥९०॥ लाभविजयनामानो, गणयोऽगण्यगौरवाः । धनविजयनामानो गणयः पूज्यपूजकाः ॥ ९१ ॥ गणयो रामविजया, भानुविजयसञ्ज्ञकाः । गुणविजयाख्यगणयः, सूरर्षिगणयोऽपि च ॥९२॥ गणिश्च कीर्त्तिविजयो, गोविन्दगणिरित्यपि । वृद्धश्च शुभविजयो, हेमादिविजयस्तथा ॥९३॥ एतेऽन्येऽपि च मुनयः, श्रीतातक्रमसेविनः । ज्ञाताज्ञातप्रकारेण, द्विधाऽपि शुभचेतसः ॥९४॥ प्रसाद्याऽनुनतिस्तेषां मदीया सकलश्रियाम् । यतीनां यतिनीनां च, नामग्राहं विशेषतः ॥९५॥ Jain Educationa International १८३ (अपूर्णं त्रुटितं चेदं पत्रमवाप्तम् ।) नेमि - विज्ञान - कस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर सूरत For Personal and Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क (३८) श्रीविजयसेनसूरिं प्रति प्रेषितं विज्ञप्तिपत्रम् (त्रुटितम्) यद्यशःक्षीरपाथोधौ, कान्तिकल्लोलमालिनि । लोकनालिः समग्राऽपि, नौरिवाऽऽभाति मध्यगा ॥७४|| सर्वतः परिवर्द्धिष्णौ, यद्यशः क्षीरनीरधौ । तारकाः पृषतायन्ते, फेनपिण्डायते विधुः ॥७५॥ भ्रमराञ्जनसंकाशं, यद्यशः क्षीरसागरे । अम्बरं चन्द्रम (मा) श्शुभ्रो (भ्रः), शेवालवल्लरीयते ॥७६॥ मनः पवित्रं च वचः पवित्रं वपुः पवित्रं च जनुः पवित्रम् । वयः पवित्रं च यशः पवित्रं येषामपि न्यक्षमहो! पवित्रम् ॥७७॥ अनुत्तरं ज्ञानमनुत्तरं तपो - ऽप्यनुत्तरध्यानमनुत्तरं यशः । अनुत्तरं दर्शनमप्यनुत्तरं, शीलं च येषां धृतिरप्यनुत्तरा ॥७८॥ क्रीडाऽनन्तनिभेन वेश्मनि बलेः क्रीड क्षमामण्डले, कैलासाख्यमहाशिलोच्चयमिषादानन्दयन्ती जनान् । क्रीड स्वर्गिनिकेतने सुरगजव्याजादपीत्थं शुचिर्यत्कीर्तिः परकीर्तिखण्डनपरा चिक्रीड विश्वत्रये ॥७९॥ सदा सरस्वती वक्त्रे करणे चरणेन्दिरा । येषां कुपितयोषेव, कीर्तिर्भ्रमति दूरतः ||८०|| त्रिष्वपि विश्वविश्वेषु, सञ्चरन्ती निजेच्छया । कीर्तिमन्दाकिनी येषां निर्मलीकुरुतेऽखिलम् ॥८१॥ ग्रामोऽत्र कस्याऽपि पुरी परस्य कस्याऽपि देशो भरतं परस्य । येषां तु शुभ्रेण यशोभरेण, विश्वत्रयी व्यापि समन्ततोऽपि ॥८२॥ यशांसि येषां सुरभीणि शार- दीनाभ्रशुभ्राणि मनोहराणि । महासुमानीव सुराङ्गनानां, स्वर्गेऽपि कर्णाभरणीकरोति ॥८३॥ येषां यशोऽहर्निशमेव देव ! सीमन्तिनीभिः सुरलोकमध्ये । सङ्गीयतेऽधोऽसुरवर्णिनीभिः सत्किन्नरीभिर्गिरिकन्दरेषु ॥ ८४ ॥ Jain Educationa International " खण्ड २ For Personal and Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १८५ विस्तीर्णकर्णाञ्जलिभिर्यदीयकं, निपीयते तृप्तिविवर्जितैर्यशः । सुधामनादृत्य सुधाशनाधिपैः, स्वाद्येषु हृद्यामपि सर्वदैव ताम् ॥८५।। निशाकरकरक्षीर-नीराकरजलोज्ज्वलम् । कर्पूरपूरसुरभि, यशो येषां विजृम्भते ॥८६।। श्रीतातपादैरपि पूज्यपादैः, प्रसादमाधाय कृपां विधाय । स्वकीयशिष्योपरि तैः सुवित्तै-रगण्यकारुण्यपरीतचित्तैः ॥८७। स्वशरीरपरीवारा-रोग्यादिसुखसूचिका । तथा पर्युषणापर्व-निर्विघ्नोदन्तदेशिका ॥८८|| हितशिक्षाप्रसादादि-समाचारमनोरमा । प्रसादपत्रिका मेघ-मालेव स्फूर्तिमालिनी ॥८९।। प्रसादनीया त्वरितं, सर्वत्राऽऽनन्दकारिणी । शिशोः शिखण्डिनो हर्ष-प्रकर्षोत्पत्तिहेतवे ॥१०॥ अथाऽवधार्या प्रणतिस्त्रिसन्ध्यं, शिशोविशेषान्नतमस्तकस्य । प्रसादनीया च निजांहिपद्म-मधुव्रतानां मुनिसत्तमानाम् ॥११॥ निजवचनचातुरीभिः, प्रसन्निता यैः सदा परमगुरवः । तेषां वाचकपुङ्गव-श्रीवाचकवि[मल?]हर्षाणाम् ॥९२।। आनन्दितजनतानां, षड्भाषालक्षणेषु दक्षाणाम् । वाचकततिमुख्यानां, श्रीवाचकनन्दिविजयानाम् ॥९३।। तथा- सर्वत्र शास्त्रविषये, कषपट्टककल्पबुद्धिविभवानाम् । आसादितविजयानां, पण्डितवरलाभविजयानाम् ॥९४।। बुधरङ्गविजयनाम्नां, गुरोर्मनोरञ्जनेऽतिरक्तानाम् । अभिरामगुणगणानां, कोविदवररामविजयानाम् ॥१५॥ निर्मलबुद्धिधराणां, बुधसिंहानां च सीहविजयानाम् । गणिवरसधारणानां, गुर्वाज्ञाधरणधीराणाम् ॥९६।। गणिवरमतिविजयानां, तथा च गणिमुख्यतेजविजयानाम् । गणिशान्तेर्विजयानां, प्रशान्तगणिपद्मविजयानाम् ॥९७।। गणिरामविजयनाम्नां, वरकीर्तीनां च कीर्तिविजयानाम् । गणिविनयविजयनाम्नां, चन्द्राद् रत्नाच्च विजयानाम् ॥९८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ गणिधीरविजयनाम्नां, धर्मपराणां च धर्मविजयानाम् । ज्ञानाभ्यासरतानां, क्षुल्लानां कमलविजयानाम् ॥९९।। अन्येषामपि नित्यं, यथोचितं वन्दनानुवन्दनया । सा शैशवी प्रसाद्या, साधूनां सानुभावानाम् ॥१००।। अथाऽत्रत्याः गणिहीरविमलनामा, गणिस्तथा बुद्धिविमल इत्याह्नः । गणिरत्नविमलनामा, मुनिस्तथा नेमिविमलाह्वः ॥१०१।। मुनिजसविमलाह्वानो, मुनिस्तथा मानविमलनामा च । मुनिहर्षविमलनामा, तिस्रः साध्व्यश्च वन्दन्ते ॥१०२॥ रम्यतलोदग्रामा-वस्थितबुधकीर्तिविमलनामानः । कर्पटवाणिज्यस्थित-बुधनयविमला नमन्त्युच्चैः ॥१०३।। सकलोऽपि सङ्घलोकः, प्रणमति गुरुपादपादपद्मानि । आश्विनशुक्लचतुर्थ्यां, विज्ञप्तिरियं कृता सिद्ध्यै ॥१०४|| [अस्य पत्रस्य प्रारम्भिकांशस्य छायाकृतिः (Xerox) अस्माभिर्न संप्राप्ता] -x ला. द. विद्यामन्दिर अमदावाद (मुनिश्रीधरन्धरविजयजी द्वारा) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १८७ (३९-४०) श्रीविजयदेवसूरि प्रति प्रेषितं पं. श्रीलावण्यविजयस्य पत्रव्यम् (त्रुटितम्) __ (१) [...] स्वयं, साकं स्वीयपरिच्छदेन च किमु श्रीनन्दनोऽकारयत् ॥२६।। यया स्वीयशोभातिरेकेण पुर्या-ऽभिभूता पुरी निर्जराणां भरेण । दधाना ततोऽद्वैतदुःखप्रकर्ष, हृदाऽभूतपूर्वं किमु स्वर्जगाम ॥२७॥ विश्वत्रयीनिखिलपत्तननिर्जयिन्या, लक्ष्या यया धनदपूर्गमिताऽभिभूतिम् । मन्ये न दर्शयितुमास्यमलम्भविष्णु-ौंडावशाद् गतवती रजताद्रिशृङ्गे ॥२८।। येन स्वैः पुटभेदनेन विभवैर्विश्वत्रयीपत्तनश्रेणीमानमलिम्लुचैः परिभवं संप्राप्यमाना भरात् । गन्तुं क्वाऽपि न यत्पुरः कथमपि प्राणान् गृहीत्वा प्रभुर्लङ्का मध्य इवाऽम्बुधेर्निरपतत् तद्भीविहस्ताशया ॥२९॥ त्रिलोकीपुरीगर्वसर्वकषायाः, श्रियं प्राप्तुकामा किमु स्वेन यस्याः । किमाकण्ठनीरे प्रविश्याऽम्बुराशे-स्तपस्तीव्रमातन्वतीति स्म लङ्का ॥३०॥ विभीषणो रात्रिचराधिपोऽसौ, निर्विण्णचित्तेति च नायकान्निजान् । विहाय तं गुप्ततमं ततः क्षितौ, लङ्का किमेषा वरभर्तृकाम्यया ॥३१॥ यस्येक्षणाच्च वचनश्रवणादभद्रं, भर्ताऽभवद् विधिवशान् मम कौशिकः सः । उद्वेगभाक् किमिति नाकपुरी कथञ्चित्, त्यक्त्वा किमागतवती भुवि यन्निभेन ॥३२।। भूतेशभूधरनभोगणचुम्बिशृङ्गे, तप्त्वा तपो निधिपतेर्नगरी नितान्तम् । अद्वैतवैभवमवाप्य पुरीमिषेण, भूमण्डले स्थितवती समुपेत्य मन्ये ॥३३।। स्वस्सत्पुरीजित्वरवैभवाया, यस्याः श्रियं प्राप्तुमिवेहमाना । कैलासभूमीधरतुङ्गशृङ्गे, गत्वा तपस्यत्यलका दिवानिशम् ॥३४॥ तक्ष्णोत्येष निरागसां शमवतां यत्तापसानां तपः, ___पत्या पातकिनाऽमुना तदुचितः सङ्गः कथञ्चिन् मम । इत्यारेक्य तपस्विनां सुखकरी स्वस्सत्पुरी यन्मिषात्, सन्त्यज्याऽवततार किं क्षितितले धर्मात्मभिः पूरिते ॥३५।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ अरविन्द इवोन्निद्रे, तस्मिंल्लक्ष्मीनिकेतने । श्रीमत्तातपदाम्भोज-रज:पावितभूतले ॥३६।। श्रीतातपादवरनामपवित्रमन्त्र-ध्यानावधानजनरञ्जकसन्निधानात् । विश्वातिशायिविबुधव्रजराजमानात्, श्रीमत्पुरात् सदहिमन्नगराभिधानात् ॥३७॥ सानन्दं विनयावनम्रशिरसि न्यस्य द्वयं हस्तयो ___ नत्वा शम्भुतनूरुहाम्बकमितावर्त्तप्रणत्या पुनः । भक्तिव्यक्तितरङ्गरङ्गितमना निश्शेषशिष्याणुको, ___ लावण्याद् विजयः समुत्सुकतया विज्ञप्तिकां ढौकते ॥३८॥ प्रयोजनं चाऽत्र विभातकाले, विभावसोरंशुविभातकाले । सभाजनानां गुणभाजनानां, सभासमक्षं जनरञ्जनानाम् ॥३९।। श्रीशान्तिकृच्छान्तिचरित्रवाचनं, वाचंयमारम्भितसूत्रवाचनम् । उपासकश्राद्ध्युपधानवाहनं, मुमुक्षुयोगोद्वहनं विशेषात् ॥४०॥ ब्रह्माननत्रिदृगपत्यपवित्रनेत्र-मेयव्रतोच्चरणपूर्वकचारुनन्दिः । इत्यादिकं सुकृतिनिर्मितपुण्यकृत्यं, प्रावर्तताऽनवरतं ननु जायते च ॥४१॥ अथ परम्परया समुपागते, गणिसुधर्मसुधर्मसुसङ्गते । जिनपतिप्रवरानननिर्गते सुविधिना विधिना समुपागते ॥४२।। बहुलसज्जनमानसमोहने, विबुधनिर्मितसन्नियमोहने । सुविहिताखिलपर्वमहोत्तमे, प्रवरवार्षिकपर्वमहोत्तमे ॥४३॥ अनल्पसङ्कल्पसमीहितार्थ-कल्पस्य कल्पस्य महोदयस्य । नवक्षणैर्दत्तनवक्षणैः श्री-कल्पाख्यसूत्रस्य सुवाचनाऽभूत् ॥४४|| सार्मिकप्रकरपारणकप्रदा(धा)ना(न)-पुण्यं च चैत्यपरिपाटिकया समेतम् । सूर्यप्रमाणदिनजन्त्वभयाभिधान-दानप्रर्वत्तनकुकर्मनिवर्त्तने च ॥४५।। महामहाः सप्तदशप्रकारा, जिनेश्वराणां शिवशर्मकाराः ।। बभूवुरुच्चैश्च जिनालयेषु, विशेषतः स्नात्रमहा महान्तः ॥४६।। तथाऽर्द्धमासक्षपणाद्यनेक-द्वि-पञ्च-पञ्चा-ऽष्टकसङ्ख्यमुख्याः । तपोविशेषा बहवो बभूवुः, पुण्यात्मनां कर्मवनीकुठाराः ॥४७॥ इत्यादिधर्मिजननिर्मितसर्वशर्म-धर्माम्बुधिः सकलसिद्धिमियाय वृद्धिम् । श्रीतातपादसफलोदयिनामधेय-ध्यानोत्तमद्विजपतेरुदयप्रसादात् ॥४८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १८९ अथ गुरुवर्णनम्सुधाशनद्वीपवतीतटे तपः, कृत्वा च मुक्त्वा स्वकलङ्कपङ्कम् । जग्राह किं रात्रिपतिर्यतीन्दो-र्वाणीसुधाशालिमुखावतारम् ॥४९।। श्रीसूरिवास्तोष्पतिना स्वकीर्ते-र्वलक्षलक्ष्म्याऽमृतवारिराशिम् । नीत्वाऽभिभूतिं किमु वाग्विलास-च्छलादुपादायि सुधा तदीया ॥५०॥ रसातले भोगिकुलाकुलीकृते, स्वघातशङ्कां दधती हृदन्तः । प्रणश्य निर्विघ्नमुनीन्द्रवका-कुण्डे सुधा वाड्मिषतः स्थितेव ॥५१|| वाणीविधानावसरे व्रतीन्दो-जगत्सृजा निर्जरसौधमध्यात् । सुधा गृहीता सकला तदादि, सुरा बभूवुः किमु यज्ञभोजिनः ॥५२।। सारङ्गदृक्सन्ततिकान्तवक्त्र-श्रियाभिभूतत्वसमुत्थदुःखात् । त्यक्त्वा क्षयन्तं शशिनं सुधेव, भेजे यदास्यं वचनच्छलेन ॥५३॥ कुमुद्विबोधप्रविधायकस्य, हृदुल्लसद्ध्यानसुधापयोघेः । सुधारस: सूरिसुधाकरस्य, वाणीमिषात् किं प्रकटीबभूव ॥५४॥ धात्रा मुनीन्दो! तव वाक्समूह, प्रकुर्वता तां स्वसुधां गृहीताम् । विभाव्य वार्द्धिः पतितो धरित्र्यां, तारस्वरैरारटतीव दुःखम् ॥५५।। तरङ्गिणीप्राणपतौ स्थितो मां, जनार्दनो मा तुदतात् कदाचित् । सुधा विचिन्त्येति विमुच्य वार्डिं, वाणीमिषाद् यस्य मुखे किमीयुषी ॥५६॥ मिथ्यात्वरोगं जगतीजनस्य, निहन्तुकामेन मुनीश्वरेण । अद्वैतवाणीकपटेन मन्ये, धृता सुधा स्वास्यसुवर्णपात्रे ॥५७|| अद्वैतमाधुर्यजुषा गुरोगिरा, जिगीषितेनाऽधिकसाध्वसोदयात् । निजावनायेव सुधारसेन, स्वस्याभितोऽरक्ष्यत चक्रिचक्रम् ॥५८॥ विधित्सता श्रीव्रतिवासवस्य, वाचं विधात्राऽच्छसुधा गृहीता । बिम्बान् मृगाङ्कस्य तदादि तस्मिन्, कलङ्कदम्भादिव रन्ध्रमासीत् ॥५९|| श्रीसूरिराजस्य मुखस्य शोभा, सम्प्राप्य मौनीहृदयेश्वरेण । अद्वैतवाणीमिषतः स्वयं पुनः, प्रीतेन जाने स्वसुधोपदीकृता ॥६०॥ विश्वामयान् हन्तुमहं प्रभुश्च, न मत् _क _ पिविधोः क्षयितू(तु)म् । तत् तत्क्षयघ्नीं दिश शक्तिमेवं, वक्तुं सुधा यद्वचनं श्रितेव ॥६१॥ श्रीसूरिराजान् निजवाग्विलासै-जिगीषतः स्वं भयतः प्रणश्य । किं चन्द्रकान्ते [ह्य? ]मृतं विवेश, तेभ्यो न चेत् तत् कथमभ्युदेति ॥६२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क यदीयवाचं सृजता विधात्रा, ज्ञात्वा स्वकुण्डादमृतं गृहीतम् । इतस्ततो भ्राम्यति तद्दिदृक्षया, तदादि तद्भ्रष्टफणिव्रजः किम् ॥६३॥ मुनिमहीरमणेन निजेन वाग् - मधुरिमातिशयेन तिरस्कृता । मनसि दुःखभरं दधती सुधा, किमु पपात पयोधिपयः प्लवे ॥६४॥ गाम्भीर्यातिशयैस्त्वया यतिपते ! नीत्वा पराभूततां १९० बन्दीकृत्य च वारिधि स्वपितरं रेखामिषाद् रक्षितम् । चक्षुर्वत्म (म) गतं विधाय रजनीकान्तेन मन्येऽमृतं त्वत्तो मोचयितुं कथञ्चिदपि तं वाणीमिषाद् ढौकितम् ॥६५॥ श्रीमत्सूरिसमाजराजविलसद्वाणीविधानक्षणे, यत्नादम्बुजजन्मना सितरुचेः स्वस्याऽङ्गजस्याऽमृतम् । आदत्तं प्रविलोक्य नीरनिधिना गृह्णातु मा मेऽमृतं मत्वैवं किमु दैत्यजित् स्वसविधे रक्षाकृते रक्षितः ||६६|| त्वद्वत्रं विदधानमम्बुजभवं वाग्निर्मितिप्रकमे, गृह्णन्तं प्रविभाव्य वारिधिशुभस्थानात् समग्रां सुधाम् । गृहणीतान्मम माऽमृतं स्वमनसीत्यभ्यूह्य तद्भीतितो, रात्रिप्राणपतिः प्रणश्य गतवान् मन्ये मुरारिक्रमे ॥६७॥ स्वर्गे सत्त्रभुजां करोम्युपकृति दर्वीकराणां तथा, पाताले पृथिवीस्पृशां पुनरहं नैवोपकुर्वे क्वचित् । सन्तर्त्येत्युपकर्तुमुत्सुकमना भूमीजनस्याऽन्वहं, मन्ये साधुविधो! सुधा तव मुखं ब्राह्मीमिषादाश्रिता ॥६८॥ एवं कोविदवृन्दवर्णितवच:कर्पूरपूरोच्छलत्सौरभ्यप्रकरप्रसारनिचितब्रह्माण्डभाण्डोदरैः । श्रीसूरित्रिदशेश्वरैर्निजवपुःकल्याणवार्त्तापयः पूर्णः पत्रपयोधरः शिशुशिखिप्रीत्यै प्रयः प्रियः ॥ ६९ ॥ स्फूर्जत्कार्त्तिककौमुदीपतिलसत्कीर्त्तिद्युतिद्योतित ब्रह्माण्डैः परमेष्ठिपट्टपदवीपाथोजिनीभास्करैः । श्रीतातैः प्रहितां हितोक्तितडितां क्रोडीकृतामीहते, पत्राम्भोधरधोरणीमतिलसद्वर्णां शिशुश्चातकः ॥७०|| - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only खण्ड २ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १९१ भोगैकनिर्मोकमकैकहेतुं(?), मन्यु विमुञ्चन्निह हायनोत्थम् । इलातलन्यस्तशिराः प्रणाम, करोति वः शिष्यभुजिष्यमुख्यः ॥७१॥ तत्रत्याःचातुर्योत्तमवार्द्धिवृद्धिविधवो भट्टारकग्रामणी सन्मानोचितचातुरीपरिचिता निस्सीमभाग्योदयाः । सूरिश्रीविजयादिसिंहमुनिपप्रद्योतना दीप्तिमद् वर्याचार्यसुसार्वभौमपदवी प्राप्ताः परां सम्प्रति ।।७२।। श्रीजैनशासनसरोवरपुण्डरीकाः, श्रीपूज्यपादचरणाम्बुजचञ्चरीका: । धन्यानगारसदृशा गुणिनां पुरोगा-श्चारित्रपूर्वविजया वरवाचकेन्द्राः ॥७३।। श्रीसूरिभूरिगुणगानविधानदक्षा, लावण्यपुण्यवपुषः कृतदक्षपक्षाः । विश्वे जयन्ति वरवाचकराजहंसा, लावण्यपूर्वविजयाभिधवाचकेन्द्राः ॥७४।। [त्रुटितमपूर्णं चेदं पत्रम्] -x (२) स्वस्तिश्रियं तनुमतां तनुतां स शान्ति-र्यन्नासिका परमविभ्रममाबिभर्ति । यद्वक्त्रपद्मवसतेः किमु दीपिकेयं, लक्ष्म्या ध्रुवोः कपटतोऽञ्जनमुद्गिरन्ती ॥१॥ गन्धज्ञया श्रीजिनभानुमालिना, नीत्वाऽभिभूतिं किमु कज्जलध्वजाः । कामाङ्कशानां कपटेन बन्दी-कृत्य स्म रक्ष्यन्त पदे स्वकीये ॥२॥ यन्नासिकाया विभवातिरेकं, सम्प्राप्तकामं गृहरत्नमेव । स्थाणुस्थयष्टेरुपरीव तिष्ठद्, विनिर्मिमीते स्म तपोऽतितीव्रम् ॥३।। दशेन्धनत्वं मम तीर्थनाथ!, निवारय त्वं किमिदं विवक्षुः । यन्नासिकाकैतवतः समेत्य, निकेतरत्नं कुरुते स्म सेवाम् ॥४॥ जिनेशितुर्नासिकया स्ववैभवै-विनिर्जिता मन्दिररत्नराजयः । दुःखं दधाना हृदि कज्जलच्छलान्, मुञ्चन्ति किं निःश्वसिताग्निधूमान् ।।५।। दिनेश्वरस्येव दिवस्पृथिव्योः, प्रकाशशक्तिं मम देव! देहि । इतीव वक्तुं स्पृहयन् प्रदीपो, नासामिषाद् यस्य करोत्युपास्तिम् ।।६।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ तेजो यथा स्फूर्तिमुपैति नक्तं, मम स्फुरेदह्नि तथा कुरु त्वम् । विज्ञीप्सयेतीव निकेतरत्नं, समागतं नक्रमिषाद् यदन्तिके ॥७॥ सर्वत्राऽप्यपकीर्त्तिरञ्जनवपुः प्रादुर्भवत्यन्वहं तस्मात् तामपमृज्य निर्मलयशो विश्वे विभो! देहि मे । इत्थं वक्तुमना निकेतनमणिर्यन्नासिकाकैतवादौत्सुक्यं कलयन् समेत्य भगवद्वक्त्रेऽवतस्थे किमु ? ॥८॥ सान्द्रं तमःसमुदयं प्रणिहन्ति नित्यं, प्रोद्यत्प्रदीपकलिकेव यदीयनासा । संसारसागरपतज्जनयानपात्रं, तं शान्तिनाथमनघं प्रणिपत्य भक्त्या ॥९॥ अथ नगरवर्णनम्जिनेन्दुना निर्जितया यशःश्रिया, प्रसत्तिमाधातुममुष्य गङ्गया । सोपानदम्भादिव तद्गृहाङ्गणे, रङ्गत्तरङ्गा उपदीकृता निजाः ॥१०॥ बुब्बूलेन मरुल्लतेव विधिना संयोजिताऽहं जग च्छ्लाघ्या पापकपालिना सह विभो! दुःखं जहीदं मम । इत्थं वक्तुमनास्तरङ्गितनभःसिन्धुर्विहाराङ्गणे, चन्द्रारोहणकैतवेन भजते स्माऽभ्येत्य जाने जिनम् ॥११॥ श्रीमज्जिनेन्द्रोऽतिगभीरिमश्रिया, मा मां जयत्वेष इतीव वार्द्धिना । सोपानदम्भात् प्रहिता निषेवितुं, निजास्तरङ्गा भगवद्गृहाङ्गणे ॥१२॥ दाशार्हः स्वपदे दधात्यपि महादेवेन संस्थापितां, प्रीत्या मां निजमूर्द्धनीति भगवन्! दुःखं ममाऽपाकुरु । आख्यातुं किमिदं जिनं धुसरिता स्वीयोर्मयः प्रेषिताः, सेवन्ते पुरिचैत्यचान्द्रविलसत्सोपानदम्भादिव ॥१३॥ भिक्षुत्वमीश! जहि मद्दयितस्य शम्भो-विज्ञप्तिकामिति विधातुमिवोत्सुकाऽर्हतः । चैत्याङ्गणे स्थितवती स्फटिकाश्मबद्ध-सोपानकायिततरङ्गसुरश्रवन्ती ॥१४|| मां मानयेद् गौर्यधिकां यथा शिवः, स्वामिंस्तथा च प्रणयेति वक्तुम् । सोपानदम्भात् सतरङ्गगङ्गा, चैत्याङ्गणस्था भजतीव सार्वम् ॥१५॥ गाम्भीर्यमस्मिन् मयि वाऽतिशायि, जिज्ञासयेतीव सुधापयोधिना । श्वेताश्मसोपानमिषाद् विहारे, निजा लहर्यः प्रहिता जिनान्तिके ॥१६॥ मां संत्यजन्तमहितं न कदाचिदौर्वं, दूरीकुरु त्वमिति वक्तुमिवाऽऽर्णवेन । स्वीयोर्मयः प्रतिजिनं शशिकान्तक्लृप्त-सोपानदम्भत इमाः प्रहिता विहारे ॥१७|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १९३ निपीयमानाज्जलधेरगस्तिना, स्वपानशङ्काकुलिता इवाऽन्तः । प्रणश्य सोपानमिषात् तरङ्गा-श्चैत्ये समीयुः शरणे जिनस्य ॥१८॥ जिनेन्दुना स्वीयगभीरताभि-य॑त्कारभावं गमितः सुधाम्बुधिः । चैत्ये सितारोहणकैतवेन, प्रेषीत् तरङ्गानिव तं निषेवितुम् ॥१९॥ लक्ष्मीक्रीडागृहे तस्मि-न्नरविन्द इव स्मिते । श्रीमत्तत्र भवत्पाद-पद्मोत्तंसितभूतले ॥२०॥ श्रीमद्देवगुरुध्येय-ध्यानासक्तजनव्रजात् । नगरान्नगरोत्तंसा-दहिमन्नगराभिधात् ॥२१॥ आनन्दचन्द्रिकोन्निद्री-कृतमानसकैरवः । लावण्यविजयः शिष्यो, विज्ञप्तिमुपढौकते ॥२२॥ यथाकृत्यं सदा श्रेयः-शिखरी वृद्धिमश्नुते । श्रीमत्तातपादनाम-स्मृतिजकुसुताजलैः ।।२३।। अथ गुरुवर्णनम्अद्वैतशौण्डीरतया वतीन्दुना, विनिर्जितो निर्जरराजवारणः । प्रसन्नतायाः प्रविधित्सया प्रभो-(जानिभेनेव करं वितीर्णवान् ॥२४॥ यतिक्षितीन्दोर्भुजवैभवेना-ऽभिभूयमानं स्वकरं विलोक्य । मन्दाक्षलक्षीकृतचित्तवृत्ति-र्बभाज कुजं किमु कुञ्जरेन्द्रः ॥२५।। पराजितं यद् भुजवैभवेन, कथञ्चिदालोक्य करं स्वकीयम् । दुःखातिरेकेण करी स्वकीये, क्षिपत्यजस्रं शिरसीव धूलीम् ॥२६।। व्रतिक्षितीन्द्रेण जितेन गत्या, जिगीषता तं पुनरात्मना रिपुम् । गजेन तच्छिद्रदिदृक्षयेव, बाहुच्छलात् प्रैषि करः स्वकीयः ॥२७॥ स्वं प्राभृतीकृत्य करं भुजाङ्ग-मध्येतुकामो गतिमज्जिमानम् । आकारदम्भादिव पादपद्मे, गुरोर्गजेन्द्रः प्रणयत्युपास्तिम् ॥२८।। गुरुणा निजबाहुवैभवैः, स्वकरं जेतुमुरीकृतं हठात् । अधिगत्य गजोऽतिसाध्वसा-च्छरणं शैलरिपोरिवाऽऽश्रितः ॥२९॥ अरुन्तुदं भिन्द्धि मदीयबन्धनं, विज्ञप्तिकां कर्तुमितीव यत्पुरः । दोर्दण्डदम्भादयमात्मनः करः, प्रस्थापितः कुञ्जरपुङ्गवेन ॥३०॥ विज्ञाय वाचंयमवासवेन, गृहीतमात्मीयगतेविलासम् ।। पश्चात् ततो मार्गयितुं गजेन, भुजाङ्गहस्तः प्रहितः किमेषः ॥३१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ इत्यादिगुणगरिष्ठैः, पदकजभृङ्गीभवत्सुरवरिष्ठैः । प्राप्ताखिलप्रतिष्ठैः, सुरतरुभिरिव प्रदत्तेष्टैः ॥३२॥ ................ कृतसातैः, कृताघघातैनमन्नृपव्रातः । निमित्तं...... .......... .................. ॥३३॥ ............... मेलिकाम् । प्रसाद्य चेतः कुमुदं प्रसद्य, विकाशलक्ष्मी मम लप्स्यती तत् ॥३४॥ प्रणतिर्मम त्रिसन्ध्यं, भृङ्गीवाऽम्भोरुहे नभोमणिभिः । सम्प्रापयितव्या - - महर्निशं स्वहृदये तातैः ॥३५।। किं च [अपूर्णमिदं पत्रम्] -X कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर कोबा नं. ३१४३३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २०१३ ( ४१ ) रायधन्नपुरस्थ-श्रीविजयदेवसूरिं प्रति प्रेषितम् श्रीविनयवर्धनलिखितं विज्ञप्तिपत्रम् (अपूर्णम्) स्वस्तिश्रियां निधिरयं किल पूर्णचन्द्रः, सौम्याकृती रसजनिर्मलपूर्णभद्रः । प्राञ्चद्वृतोत्थतपइद्ध(?)समृद्धधामा, दोषाकरो मृगधरो जिनशान्तिनामा ||१|| भेत्ता प्रमत्ततमसामुदपेक्षणीयः, सम्पूर्णकामितकरो जनतार्हणीयः । प्रोल्लासयन् कुवलयं मुखतारयाऽऽप्तः, प्रोज्जृम्भते क्षितितलेऽभिनवो निरङ्कः ॥२॥ श्रीशान्तितीर्थेश ! सदोदयस्ते, दन्तालयो क्षीणमहो कलङ्की । शशी न तत् ज्ञास्तु मृषोपमानो - पमेयभावं प्रतितो (?) वदन्ति ||३|| शान्ती नेत्रप्रतिपक्ष एष, सारङ्ग आत्मीयबलं समीक्ष्य । दासीभवंस्ते प्रणिपत्य पाद- द्वयीमसेवीज्जिनलक्ष्मदम्भात् ॥४॥ श्री शान्तिमूर्तिर्मनुजार्तिजित्वरी, सौभाग्यसौन्दर्यगुणैकधीवरी । सर्वार्थदात्रीव सुवर्णपीवरी, जीयात् प्रसन्ना किल कल्पवल्लरी ॥५॥ १९५ एनं श्रीमन्तं श्रीमन्तं श्रीमन्तं श्रीविश्वसेनविश्वसेनविश्वसेनरसेनरसेनरसेनजननदशशतनवदजजीवनजननविकचीकरणप्रवणदशशताधिकभानुभानुकेसरं सकलजगतीमण्डलदशदिगन्तप्रसरत्प्रबलकज्जलामलश्यामलकश्मलपटलतिमिरप्रमाप्रमापणपरांचच्च (?) जननलिनयमलपुनर्नवनभोरत्न-प्रणतामर्त्यमर्त (र्त्य) प्रकरसौरेयकरणत्राणशेखरं खट्खण्डाखण्डापूर्वकरणशान्तिपटहोद्घोषणारवाकर्णनक्षणनिरोगी भूतप्रभूतजनपदास्तोकलोकलोकान्तःकरणारविन्दोन्निद्र निलयनिवसदादेय नामधेयमन्त्रमन्त्राक्षरम् अनेकाच्छकानच्छातुच्छाच्छेद्याभेद्याजेयामेयाप्रष्ठस्पष्टकष्टद कृष्णकर्ममर्मदक्षालक्ष्य_क्षलक्षकक्षदावनिष्पावबृहद्बृहद्भानुभानुतापोपघातोप शान्तीकरणजगदुद्धरणदुष्करपुष्करावर्तजलधरधाराप्रकारं विशिष्टशिष्टशिवङ्करश्रीकुन्थूत्तरतीर्थकरदिनकरं प्रणामापूर्वा (र्व) पूर्वाचलचूलावलम्बिनं विधाय प्रोत्तुङ्गा भ्रङ्कषशृङ्गाग्रभागसर्वीयनिशान्तप्रशान्तप्रतिमार्चनचतुरागण्यपुण्यगुणगणारीणधर्मधुरीणगरिष्ठवरिष्ठाचारचरणकरणसप्ततिगुणगुरुतरगुरुवचनरचनारसास्वादपरिपूर्णान्तःकरणसश्रद्धश्राद्ध श्राद्धीजनालङ्कृते असमावासदोसा (षा?) वकाशनयनानन्दननन्दनवननिर्झरनिर्जरनिर्जरराजवाजिगजराजिवासवावाससंकाशभावभाजिनि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ जगज्जगद्वन्द्यानिन्द्यश्रीवन्द्यपादपादपद्मद्वन्द्वरजःपुञ्जप्रसरपावनीभूतभूतले श्रीमति श्रीमति श्रीमति श्रीरायधन्नपुरे महानगरे प्रशस्तसमस्तमण्डलाखण्डलगूर्जरमण्डलावारपारान्तरीपसमदधिपद्रद्रङ्गतः अक्षितिक्षितितलविनयावनतानुत्तमोत्तमाङ्गललाटपट्टविन्यस्तशस्तहस्तद्वयकुड्मलप्रकटीकृतभक्तिभावोऽमन्दानन्दकन्दोत्पुलकिताङ्गभागोऽशेषारोषहरिषसन्तोषपोषमेदुरमना अकृत्रिमपरमप्रीतिलतामालतीम(मु)कुललालसलालसभसलोपमः शिष्यद्वयणुकसमवायिकारणं विने यो विनयवर्धनः निर्मा पितनव्यनव्यव्याकृतिनामिनामाक्षरप्रमितप्रणामं विज्ञप्तिप्रटकिनी प्राभृतीचरीकरीति । यथाकृत्यं चात्र सकर्णकर्णपुत्रे प्राचीनप्राचीमहेलिकाभालतमालपत्रे उदयोदयाचलप्रष्ठप्रस्थारूढे सहस्रकिरणावलीढे सरससरसीसरसीरुहां परिवृढे दिवसराजन्यास्थानमण्डपासनासीने प्रातः प्रतिदिनं विदीनभावापूर्वालभ्यमहेभ्यसभ्यपञ्चजनपरिपूरितायां परिषदि जीवाजीवविचारसारश्रीजीवाभिगमसूत्रस्वाध्यायविधानश्रीवर्धमानवर्धमानदेशनाव्याख्यानवाचन-षाण्मासिकयोगोद्वाहन-वाचंयमाध्ययनाध्यापनादिधर्मकर्मणि सशर्ममर्मसञ्जायमाने सति क्रमायाते सर्वपर्वाखर्वगर्वामर्षमुषि सकलसकलाविकलपूरुषहर्षपुषि अन्योन्यात्यन्ताभावरुषि पर्वानुत्तमपर्वणि श्रीवार्षिकपर्वणि सक्षणनवक्षणानल्पसंकल्पविकल्पकल्पकल्पश्रीकल्पसूत्र-वृत्तिवाचनसकलजीवामारिप्रवर्तन-कुकर्मनिवर्तन-मार्गणगणमागितार्थसार्थसमर्पण-मासार्धमासक्षपणाष्टाब्दिकाष्टमषष्टादिदुस्तपतपस्तपन-सस्नात्रवादित्रसप्तदशप्रभेदपूजाप्रतिमाहत्प्रतिमापूजन-नवप्रभावनाषरमादिप्रभावनाभवन-समस्तपरमार्हतपारणाकरणकर्करकर्कशशब्दाजल्पन-दुःकर्मकर्ममर्मपाचनादि पर्वपुण्यपुण्यकृत्यं निरपायं समहं समजीजनत् श्रीमत्तातपादनाममहामन्त्रस्मरणकरणोद्भूतप्रभूतप्रभावप्रचयातिरेकादपरम्.... [हांसियामां-] सं. १७०२ वर्षे [एतान्मात्रमेव पत्रं लिखितमस्ति] -x- सागरगच्छ-जैनज्ञानभण्डार, पाटण डा. १९७ नं. ८०१२ - पत्र-१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ (४२) श्रीविजयदेवसूरिं प्रति प्रेषितं श्रीहीरचदमुने: पत्रम् * (त्रुटितम्) स्वस्तिश्रियां सुन्दरमन्दरेण यदीयपादाम्बुजयामलेन । पवित्रितां भासुरभूतधात्रीं, बिभर्ति शेषश्शिरसीति शङ्के ॥१॥ यत्र निस्त्रिंशता खड्गे, मुष्टिबन्धोऽपि तत्र हि । निर्नामकत्वं यत्रासी-न्मत्कुणेषु जने न हि ॥ २५॥ व्यसनं यत्र दानेषु, नीचत्वं यत्र वारिणि । दात्रदेशेषु वक्रत्वं, यत्र पुण्यस्य बन्धनम् ॥२६॥ यत्र श्राद्धाः सदा दान - विधिविज्ञानशालिनः । जिनेन्द्र धर्ममर्मज्ञाः, साधुसेवापरायणाः ||२७|| श्राविका यत्र राजन्ते, सतीजनमतल्लिकाः । जिनधर्मरता नित्यं, शुद्धसम्यक्त्वसंयुताः ॥२८॥ पद्मिन्यो विकसत्कोशा, निर्यद्भ्रमरपङ्क्तयः । स्वकान्तकरसंस्पृष्टाः, सहर्षाः स्युर्न योषितः ॥ २९ ॥ त्रियामाविरहोद्भूत - ज्वरापगमकोविदम् । अवाप विधुरा चक्र-वाकी हृदयवल्लभम् ॥३०॥ कुण्डोध्न्यः प्रक्षरद्दुग्धाः, जिह्वास्पृष्टैकतर्णकाः । दामनीबन्धनत्यक्ता, ययुर्गावो वनान्तरम् ॥३१॥ सस्नेहाः सगुणाश्चैव, तमोदर्शितमार्गकाः । पात्रसंस्था अपि प्रापु-म्लनिं कज्जलकेतवः ||३२|| लूतातन्तुपटाशङ्का-मवाप रजनीकरः । गतोद्यमा इव स्पष्टं, क्षयमापुश्च तारकाः ||३३|| गिरेर्गुहासु वसतिं भेजे भीत्या तमोभरः । अपश्रिकः य (अपश्रियः) कुमुद्वत्यो, भेजुः सङ्कोचमुल्बणम् ॥३४॥ * पत्रस्याऽस्य प्रायः सर्वेऽपि श्लोकाः श्रीविजयसिंहसूरिं प्रति मुनिमेघचन्द्रेण प्रेषिते पत्रेऽपि सन्ति (पत्रक्र. - ११) -सं. Jain Educationa International १९७ For Personal and Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क तदेभ्यजनयुक्तायां, संसदि प्रतिवासरम् । धर्मकल्पद्रुमाख्यस्य, वाचना प्रविधीयते ॥ ३५ ॥ श्रीमज्जिनेन्द्रभवने-ऽभवन् स्नात्राणि भक्तितः । तथैव साधुवर्गस्या -ऽध्ययनाध्यापनादिकम् ॥३६॥ इत्यादि धर्मकार्याणि क्रियमाणे निरन्तरम् । सर्वपर्वशिरोरत्न-मगाद् वार्षिकसञ्ज्ञकम् ॥३७॥ दुष्टष्टकर्मसङ्घात- घाति षष्टाष्टमादिकम् । विधानं तपसो जात-मात्मनः शुद्धिसिद्धये ||३८|| व्याख्यानैर्नवभिस्तत्राऽनल्पसङ्कल्पपूरणे । वाचनं कल्पसूत्रस्य, कल्पद्रुरिव जङ्गमः ॥३९॥ मार्गणद्रविणादानं, शोषणं दुष्टकर्मणाम् । लोचनेन्दुमितान् [ १२ ] घस्रान्, जीवामारिप्रवर्तनाम् ||४०|| महामहः समं य(ज)ज्ञे, चैत्यानां परिपाटिका । मन्ये सिद्धिवधूभाले, पत्रालीव मनोरमा ॥४१॥ इत्यादिपुण्यकृत्यानि, बभूवुस्तातनामतः । जायन्ते च तथा नित्यं, तातानां सौम्यचक्षुषा ॥ ४२॥ सर्वेषां निजचित्तकल्पितमहाभीष्टार्थसंसाधका - अथ परमगुरुगच्छाधिराजभट्टारकश्रीविजयदेवसूरीन्द्रचन्द्रवर्णनम् ॥ कामं कामगवी सुरद्रुमलतामुख्याः पदार्थाश्च ये, चिन्तारत्नविचित्रचित्रलतिकासत्कामकुम्भादयः । Jain Educationa International खण्ड २ स्तेभ्यस्त्वं मम वाञ्छितार्थकरणाधिक्यं दधानो जय ||४३|| श्रीमत्सूरिराजेन्द्र !, वयं के गुणवर्णने ? | यत्कीर्त्तिकामिनीभाले, कस्तूरीतिलकं नभः ॥४४॥ श्रीमत्सूरिराजेन्द्र-निर्माणे ब्रह्मणः करात् । परमाणुकणाः कीर्णाः, कर्ण-व - कल्पद्रुमादयः ॥४५॥ वर्योऽपि तुर्यारक एव सूरे! चेतश्चमत्कारकरो न चाऽऽसीत् । प्रशंसनीयः किल पञ्चमोऽयं, यत्र प्रभो ! त्वं जनतारकोऽभूः ॥४६॥ For Personal and Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ १९९ श्रीमत्तपागच्छसुराज्यलक्ष्मी-न त्वां विना शोभत एव देव ! । कार्तस्वरीयोत्तमभाजनं विना, व्याघ्रीपयस्तिष्ठति नो कदापि ॥४७|| देवानां भवने वने सुरनगे पातालपीठे सदा, कर्णाटे विकटे च लाटविषये भोटे च चौडाभिधे । सौराष्ट्रे किल मालवेऽङ्गविषये त्वत्कीर्तिसन्नर्तकी, दृष्ट्वा किं बहुरूपिणीति विशदा विद्याऽनया शिक्षिता ॥४८।। त्वत्कीर्त्या धवलीकृते क्षितितले भेदो न विज्ञायते, रूप्याद्रेः कनकाचलस्य यमुना-गङ्गातटिन्योरपि । स्वर्भाणोः शशिनो निशा-दिवसयोः काकस्य हंसस्य च, कर्पूराञ्जनयोश्च वृद्ध-नवयोर्नीली-हिमान्योस्तथा ॥४९।। त्वयि(तव) शीलगुणश्चित्ते, चमत्कारं करोति न । यतो नारदर(नादर?)पूर्वासीत्, त्वं(त्वद्?) गुरो! गरिमानिधे! ॥५०॥ अयि गुरो! तव कीर्त्तिनटी स्फुटं, त्रिभुवने किल नृत्यति रङ्गतः । श्रवणसम्पुटतः पतिते किमु, शशि-रविच्छलतः शुभकुण्डले? ॥५१॥ एवंविधैः सद्गुणशोभमानैः, पवित्रचारित्रगुणाभिरामैः । ममाऽवधार्या नतिरेव सूरी-श्वरैः सदा वार्षिकपर्वणोऽनिशम् ॥५२।। इलातलमिलन्मौलि: संयोजितकरद्वयः । शिष्याणुहीरचन्द्रो विज्ञप्तिं तनुतेतराम् ॥५३।। तथा श्रीतातपादाब्ज-सेविनां शिवकाङ्क्षिणाम् । यथाहँ नत्यनुनती, प्रसाद्ये करुणापरैः ॥५४॥ भव्याः! प्रमादमवधूय भजध्वमेनं, सूरीश्वरं विजयसिंहगणाधिराजम् । ऊकेशवंशवरनीरधिपूर्णचन्द्रं, मायारसाधरविनाशविधौ सुरेन्द्रम् ॥५५।। विजयसिंहसूरीन्द्राः, श्रीअनूचानपुङ्गवाः । श्रीमद्धनविजयाख्या, वाचका विश्वविश्रुताः ॥५६।। श्रीराजसुन्दरविबुधा, विबुधाः श्रीहंसविजयनामानः । श्रीऋद्धिविजयविबुधा, विबुधाः श्रीसाधुविजयाह्वाः ॥५७|| -xनेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर सूरत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ (४३) श्रीलावण्यविजयगणिनो लेखस्यांऽश: पदे पदे पुष्करिण्यः, वृत्तहंसोपसेवितसुनीराः । निर्मलवारितरङ्गैः, पूर्णानि सरांसि सर्वत्र ॥१॥ सर्वर्तुकपुष्पफला, आरामाः सन्ति यत्र स श्रीमान् । देशः सदैव सरसो, जयति श्रीमेदपाटवरः ॥२॥ युग्मम् ॥ तत्र- उदयपुरं वरनगरं, मन्दिरमुदयश्रियः समग्रायाः । विभ्राजतेतरां यत्, वसुधावरवर्णिनीतिलकम् ॥३॥ यत्पुरमानन्दकर, जगदृशामृद्धिपूर्णमालोक्य । मन्ये त्रपाभरादिव, लङ्का दृगगोचरत्वमगात् ॥४॥ यत् पुरमनन्यशोभं, दृष्ट्वा धनधान्यनिचयसंनिचितम् । भोगावती प्रनंष्ट्वा, विवेश पातालमिव गुप्तम् ॥५॥ यत् पुरमनेकलोक-प्रकराकीर्णं विलोक्य विश्वाग्यम् । मन्ये लङ्का जगाम, व्योमपथं किमिव गतदर्पा ॥६।। यत् पुरमिभ्यसहस्र-श्रेणीकलितं समग्रगुणयुक्तम् । भुवनत्रयवरपुरवर-निकरशिरोमौलिमाभाति ॥७॥ यत्र पुरे जिनभर्तुः, सद्मान्यभ्रंलिहानि दीप्राणि । गौरीशाचलशिखरो-पमानतामिव सदा बभ्रुः ।।८।। यत्र पुरे सुजनानां, मनांसि शिखराणि जिनगृहाणां च । अत्युच्चानि त्रिदशा-पगापयःपूरविशदानि ॥९॥ सामन्ताखिलनरपति-भालमणिघृष्टचलननलिनयुगः । श्रीजगत्सिहनामा, सान्वर्थो विश्वविख्यातः ॥१०॥ यत्र प्रजापतिरिव, प्रजाव्र शास्ति वसुमतीपालः । न्यायैकनिष्ठचित्तो, भूमितलव्याप्तकीर्तिभरः ॥११॥ युग्मम् ॥ यत्र पुरे प्राकारः, प्रोद्दीप्रद्गोपुरः सदाकारः । विविधायुधसम्पूर्णः, कपिशीर्षकदम्बकाकीर्णः ॥१२॥ सारसुधाभरलिप्त-श्चकास्ति विश्वत्रयप्रमोदकरः । अत्युच्चो हिमवानिव, पुरमन्वेष्टुं किमत्राऽऽगात् ॥१३॥ युग्मम् ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून -- २०१३ २०१ चातकचक्रमयूरा-न्यभृतमरालादिविविधविहगगणैः । परिसेव्यमाण(न)सलिलं, निभृतं मत्स्यादिजलजीवैः ॥१४॥ यस्मिन् पुरे सरोवर-माभाति प्रवरनीरनीरन्ध्रम् । नारीनिकरानेक-क्रीडालीलाविनोदवरम् ॥१५॥ युग्मम् ।। यस्मिन् पुरे महेभ्या, निजरूपपराभिभूतमधुदीपाः । प्रार्थितपदार्थसार्थ-प्रसादनत्रिदशतरुतुल्याः ॥१६।। यत्र श्राद्धसमूहा, जीवाजीवादिरुचिरतत्त्वविदः । यतिजनभक्तिप्रह्वा, वसन्ति दानादिधर्मपराः ॥१७॥ यत्र श्राद्धयः त्रिदशा-ङ्गना इवाऽऽभाति(न्ति) रूपसौन्दर्यात् । शीलविभूषितगात्रा, दानगुणैर्विजितकल्पलताः ॥१८॥ यत्र चतुःपथहट्ट-श्रेणी विभ्राजते विगतसङ्ख्यैः । निभृता भृशं चतुर्विध-धननिकरैर्धान्यपुजैश्च ॥१९॥ यत्रोच्चैः सद्मानि, भ्राजन्ते स्वर्णपूर्णकलशानि ।। सम्पूर्णसुधारोचि:-क्षीराब्धिक्षीरशुभ्राणि ॥२०॥ यत्र पुरे जननिकरो, धर्मात्मा प्रकृतिभद्रकः सौम्यः । विविधाभरणविभूषित-तनुयष्टिनिवसति वदान्यः ॥२१॥ यत्रोपाश्रयपोतः, सुसाधुसांयात्रिकप्रकरपूर्णः । भीमभवाब्धिनिमज्ज-ज्जनवजोत्तारणैकपटुः ॥२२॥ कलितान्यशोक-साल-प्रियङ्ग-सहकार-तालसदृक्षैः । जाती-चम्पक-केतक-कुवलय-कुन्दादिपुष्पैश्च ॥२३॥ सुमनःसमूहसुमनः-शी(शि)लीमुखप्रकरहर्षकर्तृणि ॥ यत्र पुरे विपिनानि, विभान्ति सुमनोमनानीव ॥२४॥ युग्मम् ।। श्रीमत्तातपदाब्जन्यासरजःपूरपूतभूपीठे श्रीमति तत्र समग्रश्रीणा[मु]त्तमनिवासपदे इलामण्डने श्रीइलादुर्गनामप्रधाने पुरे श्रीमति भ्राजमाने जगद्वन्द्यवन्द्यांहिपादाम्बुजन्मद्वयीपाविते तत्र सर्वद्धिरम्ये..... [एतावन्मात्रमेव पत्रं लिखितमस्ति] -x जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ ( ४४ ) श्रीहेमहंसगणिवरं प्रति प्रेषितं विज्ञप्तिपत्रम् श्रीमत्प्रेमपुरस्सरार्हतपद श्रीकन्यया निर्ममे, यत्पाणिग्रहणं नरामरगणे भूगोलरङ्गाङ्गणे । दिव्यस्त्रीधवलौघदुन्दुभिरवे त्रैलोक्यकुक्षिम्भरौ, वीर: प्रेमपुरप्रभुः प्रथयतात् प्रेष्ठप्रतिष्ठां समे ॥१॥ यदेककोणके राज - गृहं यस्यैकगेहभूः । विशाला द्वारवत्यस्य, माहात्म्यं मीयते कथम्? ॥२॥ तत्र श्रीतत्रभवत्पवित्रक्रमकमलयमलकल्पद्रुमसमाराधनप्रवर्धमानमहेभ्यश्राद्धसर्वाङ्गीणगुणश्रीसमृद्धिभासुरे सुरेश्वरसमान श्रीपातसाहिराज्यलक्ष्मी पौलोमीपरिभोगवासभवने वनेचरीकृतानेकवैरिवारराजसभाशृङ्गार- श्रीमल्लदेवप्रभृतियवहरि - व्यवहारि-घटामनोरमे मनोरमेश्वरप्रोल्लसच्छीललील श्लीलमौलिमन्त्रिवीसलादिब्रह्मचारिश्राद्धरत्नसागरे श्रीअहम्मदावादनगरे ॥ उत्तुङ्गस्तनसारभङ्गुरगतिर्गाङ्गेयगौरद्युतिः, स्वर्वापीपुलिनायमानजघना फुल्लारविन्दानना । रत्नालङ्कृतिरात्तपूर्णकलशा नीरङ्गिकाभ्राजिनी, Jain Educationa International भाति त्वत्कपुरप्रवेशकमहारम्भे महेभ्याङ्गना ||३|| हेमाभदेहे सुमहः समूहे मरुल्लतामण्यभिरामनाम । हंसप्रभे हंकृतिताम सेहं सदास्मिदासस्त्वयिहेमहंस ||४|| हेमाभदेहे सुमहःसमूहे, मरुल्लतामण्यभिरामनाम ! | हंसप्रभेऽहं कृति ( त ? ) तामसेऽहं सदाऽस्मि दासस्त्वयि हेमहंस ! ||४|| इत्यादिप्रत्यक्षस्तुतिगोचरीकृतकृतयुगाविर्भावकप्रभावकश्रावकश्रेणिविधीयमान प्रौढपुण्यकरणीयबीजायमानोपदेश-देशविरत्यादिद्विविधधर्मसंसूत्रणसूत्रधारवच:प्रकार-कारस्करप्रवर-पुष्पितफलितसहकारवत्सर्वजनोपकारसार-सारस्वतसिद्धि For Personal and Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २०१३ -- लीलावगाढचातुर्वैद्याम्भोधि- पूज्याराध्यध्येयतम - श्रीहेमहंसगणिचरणकमलान् । परस्परालिङ्गितशृङ्गतुङ्ग- [...] नानातरुभिः कराभैः । छायां सृ [...] ॥५॥ सा० राजाप्रथितसर्करालिङ्गप्रभावनादि ९ प्रभावनासुभग-श्रीकल्पवाचनाजिनालयस्नात्रमहभवन-तपस्तपप्रभृतिपुण्यकर्तव्यानि समजायन्त । २०३ तत्र साधुधौरेय-पं० आनन्दचारित्रगणि-पण्डितप्रवरशुभसूरगणि-प्रकाण्डतपस्विशिरोमणि-समयहर्षगणि- ज्ञानसारगणि-चरणहेमगणि-भुवनदेवगणिसुमतिहंसमुनि-संवेगहेममुनि - सुन्दररत्नमुनि - कमलशेख[ र ]मुनिवराणां चूलागणि- साधुनिधिगणिन्यादिसाध्वीनां च सानन्दं वन्दनानुवन्दने । सो० मल्लदेववरसिंग- चुंडावस्ता सो० । [पत्रस्याऽस्य छायाकृति: (Xerox ) एतावन्मात्रैवोपलब्धा] Jain Educationa International ला. द. विद्यामन्दिर अमदावाद नं. ३०८५४ ( मुनिश्री धुरन्धरविजयजी द्वारा ) For Personal and Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ (४५) श्रीयशोविजयवाचकलिखितस्य पत्रस्य प्रथम रूपम (पत्र-खरडो) स्वस्तिश्रियः प्रेयस ईश्वरस्य, प्रजापतेरप्यभिभूतिहेतुम् । स्मरं जिनोऽहन्नु शशादिवत् किं, पलायते पञ्चमुखः करेणोः ॥१॥ इतस्ततोऽर्थाभिनयाय हस्तः, प्रसारितस्ते जिन! देशनायाम् । तापात्मकस्य प्रमयेऽस्या रक्तो-त्पलायते पञ्चमुखः करेणोः ॥२॥ त्वत्किङ्करत्वेन जिनान्तराय-व्याघ्रः सभीर्दूरमियति जन्तोः । यद् वज्रभृद्वाहनतां प्रपन्नात्, पलायते पञ्चमुख: करेणोः ॥३॥ देवेषु यानैर्बहुधेशजन्म-न्यापत्सु सिंहस्थमिभस्थितोऽवक् । निवार्यतां माद्यति मामकस्य, पलाय ते पञ्चमुखः करेणोः ॥४॥ एकान्तवादेन विभो! त्वदीय-स्याद्वादवादस्य विमर्दनं यत् । तद् युक्तयुक्त्याऽघटमानमेवं३, पलायते पञ्चमुखः करेणोः ॥५॥ तथापि नो ते विघटेत नेतः!, सरस्वती स्याद् यदि शीतलोऽग्निः । स्थिरः समीरः समरुः समुद्रः, पलायते पञ्चमुखः करेणोः ॥६॥ त्वन्नामजापादसुमान्निहन्ति, मोहं महीन्द्रं जिन! यत्सुमन्त्रात् । भेको न किं नृत्यति सर्पशीर्षे, पलायते पञ्चमुखः करेणोः ॥७॥ त्वद्देशनासद्मसदेशवर्ती, शान्तः प्रभो! क्रीडति बभ्रुणादिः । नखायमानस्य सुहृत् सुमैत्र्या, पलायते पञ्चमुखः करेणोः ॥८॥ भवानुदस्थाज्जिन! कर्मचौर -निर्घातनार्थं स्वयमेव बुद्ध्वा । केनोपदिष्टो यदिहोपरिष्टात्, पलायते पञ्चमुखः करेणोः ॥९॥ चतुर्दशस्वप्ननिवेदितोद्य-द्भाग्यं प्रभोऽसूचयदप्रयासम् । क्षेतुं खवृक्षांस्तनुलक्ष्मणस्तत्-पलाय ते पञ्च मुख: करेणोः ॥१०॥ विलोकते योगभृदेव देव!, ज्योतिर्मयं त्वां न तु कश्चिदन्यः । व्यालेन किं वा हठिनाऽपि विश्व-प! लायते पञ्चमुखः करेणोः ॥११॥ १. ५.१-टि. । २. प्रमयाय - प्रापा. । ३. प्रध्वंसते कंस इदं मुकुन्दं - प्रापा. । ४. ०शत्रुप्रा.पा. । ५. रा-टि. । ६. बालेन - प्रापा. । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ २०५ चिक्लेश नेशं मदनः स यस्माद्, हृल्लोभकृष्टौ करिणोऽवपाते । विकारयन् खानि तु चुम्बकाख्यो-पलायते पञ्चमुखः करेणोः ॥१२।। देवाधिदेवस्य वयस्यरूपः, कृतः कटीरेण वरिष्टमूर्तेः । शौण्डीर्यशत्रोनिधनाय गन्धो-पलायते पञ्चमुखः करेणोः ॥१३।। स्वामिन्! महादेव इतस्पृहाक्रुत्, त्वमेव शैवाभिमतस्त्वसत्यः । यत् कालिकासंज्ञसुरस्य हन्ता, पलायते पञ्चमुखः करेणोः ॥१४॥ छत्राशनीचामरभृत् सुमेरौ, स्नात्राय यान् पञ्चतनुर्मुमोद' । धृतेस्तवेन्द्रो यशसाऽस्तचन्द्रो-पलाऽयते पञ्चमुख: करेऽणोः ॥१५॥ चतुर्गात्रं च०(?) । विभो! भवद्भाषितमुक्तिमार्गे, कथं जिहे तत्र यतो ममाऽयम् । कर्माष्टकस्य प्रकृतिव्रजः कू-पलायते पञ्चमुखः करेणोः ॥१६॥ न हीनता ते जिन! रत्नसानोः, कनीयसोऽप्यस्ति बलेन यस्मात् । उच्चाटने भारमपेक्ष्य चित्ते, पलायते पञ्चमुखः करेणोः ॥१७॥ जगत्पते! तेऽर्चनयोपलब्धा-क्षयश्रियः प्राज्यमहैर्जनस्य । अहर्गणश्चित्रसुखेन्दुजायां, पलायते पञ्चमुखः करेणोः ॥१८॥ यथा प्रियः सामज इद्धधामा, भूभृत्कुमार्या नयनोत्सवाय । तथाऽर्हदक्ष्णोर्युगलं यदिन्दू-पलायते पञ्चमुखः करेणोः ॥१९॥ त्वयि प्रसन्ने जगतामधीश!, बिभेमि नाऽहं खलु पापवर्गात् । यथा यथार्थाङ्गबलोदये नो, पलायते पञ्चमुखः करेणोः ॥२०॥ इतीदृशाश्चर्यकृता समस्या-पदेन सन्तः कवयः स्तुवन्ति । अर्हन्तमन्तःकरणातिथित्वं, प्रापय्य तं शान्तिजिनेन्द्रचन्द्रम् ।।२१।। इति श्रीशान्तिजिनेन्द्रचन्द्रनमस्कारपद्धतिः ।। अथ नगरवर्णनम् ॥ यत्र वासवसनाभिमेदिनी-भृत्प्रतापसवितुः समुद्यतः । आतपेन जगति प्रसारिणा, लोहितो जयति यामिनीपतिः ॥१॥ १. स्मरः स आनर्दजितं - प्रापा. । २. अर्थान् जिहानस्य - प्रापा. । ३. गौरीपरीरंभ्यसुरस्य - प्रापा. । ४. रा-टि. । ५. पञ्चतनुर्जजृम्भे - प्रापा. । ६. रदनास्तचन्द्रो - प्रापा. । ७. ७.१. - टि. । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ यत्र पट्टमहिषीमुखं मही-नायकस्य परिमण्डलं किल' । पीतपीतनसपत्रवल्लिकं, लोहितो जयति यामिनीपतिः ॥२॥ व्योमलविशिरसां समुल्लस-त्पद्मरागमणिसद्मनां सदा । यत्र विस्तृतमरीचिसञ्चयै-र्लोहितो जयति यामिनीपतिः ॥३॥ यत्र भूषितवराभिसारिका-चन्द्रकान् स्वजयिनो निशामुखे । ईक्षमीक्षमुदयन् क्रुधावशा-ल्लोहितो जयति यामिनीपतिः ॥४|| प्राप्य यत्र समवर्णतां चतु-र्मासि सूरियशसः प्रकाशते । स्व:करी लसति नीलपूर्वको, लोहितो जयति यामिनीपतिः ॥५॥ आयतायतनसंस्थितो जपा-मुख्यपुष्पपरिपूजितोऽभितः । यत्र जात्यतपनीयनिर्मितो, लोहितो जयति यामिनीपतिः ॥६।। यत्र चैत्यविषये निरन्तरं, सार्वबाह्निकविलेपनार्चया । लक्ष्मणातनयलक्षणं लया-ल्लोहितो जयति यामिनीपतिः ॥७॥ यत्र जात्यकुरुविन्दसोदरैः, सान्ध्यरागनिकरैः परिष्कृतः । कैरवोच्छ्वसनतो दिनात्यये, लोहितो जयति यामिनीपतिः ||८|| [द्रङ्गनामधेयनिरूपणम्] अत्युन्नतः सर्वशिलोच्चयेषु, यथा सुमेरुः समयप्रसिद्धः । सज्जातरूपाद्भुतनन्दनश्री-स्तथोन्नतद्रङ्ग इहोन्नतत्वम् ॥१॥ अभ्युन्नतो हेममयो हिमाद्रि-मन्दाकिनीतोयतरङ्गपूतः । गौरीगुणग्रामवशीकृतेश-स्तथोन्नतद्रङ्ग इहोन्नतत्वम् ॥२॥ यथा स्वयम्भूरमणः समुद्रो, महानुदन्वत् सुगुणैरमुद्रः । सान्द्रः सुधापायिगमागमेन, तथोन्नतद्रङ्ग इहोन्नतत्वम् ।।३।। कैलाशशैलस्य महेशवासा-दलकृतत्वं गिरिचक्रवाले । सुगौरतोच्चैर्गरिमा चकास्ति, तथोन्नतद्रङ्ग इहोन्नतत्वम् ॥४॥ विराजते वासववैजयन्त-स्थलं विचित्रैविबुधावतंसैः । रुद्धं समिद्धं विविधैः प्रसिद्ध-स्तथोन्नतद्रङ्ग इहोन्नतत्वम् ॥५॥ धुसत्पुराधीश्वरवाहनस्य, श्रीहस्तिमल्लस्य यथा प्रथावान् । गणो गुणानां गजमण्डलेषु, तथोन्नतद्रङ्ग इहोन्नतत्वम् ॥६॥ १. स्फुटम् - प्रापा. । २. चन्द्रवंशि विनतो - प्रापा. । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ २०७ कुमुद्वतीकान्तकलाकलाप-स्तेजश्च तेजस्विषु तीक्ष्णरश्मेः । यथा जनानां नयनोत्सवाय, तथोन्नतद्रङ्ग इहोन्नतत्वम् ॥७॥ समग्रवस्तुष्वधिकाधिकारि, यथा सुवर्णं चरितार्थनाम । कल्याणकं पावनतानिदानं, तथोन्नतद्रङ्ग इहोन्नतत्वम् ॥८॥ इत्यष्टकेन द्रङ्गनामधेयस्वरूपनिरूपणम् ॥ अहम्मदावादत ऐषमस्तो, वर्षे चतुर्मासकमेत्य सूरे[:] । ऊनापुरेऽभूत् तदयेन यत् त-न्मन्ये निशायामुदितो दिनेशः ॥१॥ युगे कलौ सत्यपि धर्मराज्य-प्राज्यं नयाढ्यं प्रवरीवृतीति । यदुन्नताख्यं नगरं सखे ! त-न्मन्ये निशायामुदितो दिनेशः ॥२॥ समन्ततो यत्र सरोवरेषु, प्रगे प्रगे स्मेरयतेऽम्बुजानि । आत्मीयमित्रार्तिकृतो विघाता-न्मन्ये निशायामुदितो दिनेशः ॥३॥ स्वपान् निजान् स्वप्नविदां पुरस्ताद्, वदन्ति यत्रेति जनाः समेत्य । नष्टः शशात् सिंह इभः शताक्षो, मन्ये निशायामुदितो दिनेशः ॥४॥ पुमानिया० (?) । यस्मिंस्तरीप्रोषितभर्तृका: स-दृत्ता दिनान्ते वनिता वदन्ति । दृष्ट्वाऽतितापीन्दुमिदं वयस्य मन्ये निशायामुदितो दिनेशः ।।५।। निशिशशित्० । चेडावद्यः कः । आश्चर्यहेतुर्विजयादिदेवः, सूरिः स्वयं यत्र समागतोऽभूत् । तथा यथा वत्सपुरेति धन्यं, मन्ये निशायामुदितो दिनेशः ॥६॥ एके गतौ पश्चिममण्डलान्त-रित्यंशुहानाविति केऽपि यत्र । इत्यालपन्त्यल्पबला हि दैव्या, मन्ये निशायामुदितो दिनेशः ॥७॥ ग्रीवानुगे के ? जिनजन्म कस्यां ? कः कीदृगस्तं व्रजतीति पृष्टः । रात्युत्तरं यत्र जिनोऽञ्जसेति, मन्ये निशायामुदितो दिनेशः ||८|| षष्टाष्टमद्वादशमासमुख्यो-पवासिनो यत्र तपस्विनस्ते । जयन्ति यैः शक्यत एव कर्तुं, मन्ये निशायामुदितो दिनेशः ॥९॥ अनेकशो यत्र जयन्ति यन्त्र-मन्त्रौषधीतन्त्रविदः पुमांसः । प्रभूयते यैर्नियतं विधातुं, मन्ये निशायामुदितो दिनेशः ॥१०॥ -xलावण्यविजयजी जैन ज्ञानभण्डार-राधनपुर. डा. ३४ प्र. १९८५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ (४६) श्रीमेघविजयोपाध्यायप्रणीतं विज्ञप्तिपत्रम् (अपूर्णम्) स्वस्तिश्रियामप्रतिरूपरूपाः, सर्वेऽपि देवासुरमर्त्यभूपाः । तासां विवाहस्थितिहेतवेऽयं, प्रादुश्चकाराऽऽदिजिनं विधाता ॥१॥ आबाल्यतो यः सकलाः प्रजादृशा, साम्येन पश्यन् समभूत् क्षमाधनः । सविश्वसाम्राज्यपदे ससाधनः, स्थितः प्रभुः स्यान्न कथं क्षमाधनः ॥२॥ प्रमादभाजोऽपि समुद्दिधीर्षया, श्रेयांसनाम्नोऽष्टभवानुजीविनः । आद्यो जिनोऽशिक्षयदुत्तमर्णतां, पुरोऽस्य विन्दन्नधमर्णतामपि ॥३॥ महाशयानां चरितं तदीदृशं, भृशं तदन्यद् विमृशन्ति नो मनाक् । यथायथा भृत्यजनस्य सम्पदः, पश्यन्ति हृष्यन्ति तथातथाऽऽत्मना ॥४॥ गुणैनिकृष्टस्य निजानुयायिनो, नतिर्मरीचेर्भरतेन कारिता । पुरो भवान् भासयता स्वयम्भुवा, विनोदकर्मैव महात्मनामिदम् ॥५॥ सदादृताः स्युर्गुणिनो गुणाश्रये, गुणैविहीने तु सताम(मु)पेक्षणम् । न्यायो न किञ्चिन्मम भासते ह्ययं, सार्वत्रिकत्वादधमोत्तमादिके ॥६॥ तद् बालपाशं मलिनं निरर्थं, प्राप्तेऽपि दीक्षासमये ररक्ष । मूलि स्वकीये जगदीश्वरस्य, पश्यतु(?) साम्यं सगुणेऽगुणे वा ॥७|| रक्षन्ति केचित् प्रभवः स्वमीप्सितुं, सम्पादितुं स्वार्थपराः पराचितान् । जाते विधौ तान् न विलोकयन्त्यपि, कथं पशूनां गणनाऽपि तत्पुरः ॥८॥ नराधमानां ध्रुवमाशयो ह्ययं, सतां पुनः स्वाश्रयणे प्रयोजनम् । इतीव लक्ष्मच्छलतः पशुं वृष, कार्यं _ _ पालयतेऽर्हदादिमः(?) ॥९॥ यः स्वामिवात्सल्यमशल्यचेता-स्तनोति भृत्यः स महान् सचेताः । इतीव भद्रो भगवत्पदाब्जा-श्रयेण लेभेऽत्र धुरन्धरत्वम् ॥१०॥ स किंप्रभुः पालयिता न यः स्वयं, समाश्रितानिष्टविशिष्टदानतः । तस्मादिव श्रीऋषभोऽपि युग्मिन-श्चक्रे क्रियाशासनतो मनस्विनः ॥११॥ यः प्राप्य साम्राज्यपदं मदं वह-न्न सेवकानां कुरुतेऽभिनन्दनम् । संतारकाणामिव तारकाधिपः, क्षणाद्वपुःक्षीणदशाश्रयः स्वयम् ॥१२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ २०९ इतीव दुष्पापभरापशान्तये, जयेच्छयैवाऽव्ययराज्यशालिनः । छत्रच्छलादेव शशीवशीशितु-धुंवश्रियेऽशिश्रियदन्तिकं किल ॥१३।। ये केऽप्यधीशा विभवैरधीशा, नाऽनुग्रहं निर्मिमतेऽनुगस्य । ते भूभुजः स्युर्भुजदर्पभङ्गाद्, वराकपाका इव दुर्विपाकाः ॥१४॥ मत्वेति मन्ये वृषभः क्षमीन्दु-श्चतुःसहस्रीमवनीधवानाम् । समं गृहीत्वा व्रततत्परोऽभू-दहो! महोत्साहमतिर्महत्सु ॥१५।। पूर्वं प्रदायैव सुखं स्वसेविने, महोदयं यान्ति महाशयाः स्वयम् । पश्यन्तु सूर्योऽप्यरुणोदयं सृजन्, समभ्युदेति स्वयमस्य पृष्ठतः ॥१६।। नयं किमेनं भगवान् विचारय-न्नाद्यो निजाम्बां कतिचिद् विनेयकान् । महोदयं प्रापयदञ्जसा ततः, परं क्रमेण स्वयमप्युपेयिवान् ॥१७॥ यदुःखमाप्नोति निजानुगामुको, ह्यरुन्तुदं स्यात् तदतीव सुप्रभौ । स्वसेवयाऽऽद्यो भगवान् मरीचये, ददौ पदं स्वं मदपापशामनात् ॥१८॥ न वासुदेवस्य न चक्रिणः श्रियो, नैवाऽऽदृता नाभिभुवा स्वयम्भुवा । दत्ताः पुनस्ताश्च निजानुवर्तिने, मरीचये सुप्रभुता हि तादृशी ॥१९॥ वैराग्यभाजाऽपि च नाभिसूनुना, प्रादायि विद्याधरनायकप्रभा । स्वसेविने श्रीनमये दयालुना, भ्रात्रा समं श्रीविनमिक्षमाभुजा ॥२०॥ कलाभृतः सैव कला महोज्ज्वला, या चेश्वरेण प्रभुणोररीकृता । यस्याः प्रभावादनुजीविनो जनाः, स्फुटं भजन्ते परमेश्वरश्रियम् ।।२१।। मन्ये तदष्टानवति तनूजान्, रणेन रीणांश्चरणे धुरीणान् । सेवाकलायां सुचिरं प्रवीणान्, चक्रे क्रमात् श्रीवृषभः स्वतुल्यान् ॥२२।। न केवलाः स्युर्मनुजेषु दोषा, न वा गुणास्तत् खलु दोषबुद्धिम् । विमुच्य सेवारसिके विधेये, कृपापरः स्यात् परमः प्रभुर्यः ।।२३।। नयं किमेनं हृदये निधाय, महोद्धरं दुर्द्धरतेजसं तम् । आद्यः प्रभुर्बाहुबलि निनाय, परं पदं स्वेन समं समङ्गलम् ॥२८॥ इत्थं प्रभुत्वस्थितितार.... [इतोऽग्रेतनभागस्य पत्राणि विनष्टानि] -x राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर २०४१५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ (४७) पं. श्रीलब्धिविमलेन प्रेषितं विज्ञप्तिपत्रम् (अपूर्णम्) स्वस्तिश्रीभरभाजनं सुनयनं निःशेषलोकावनं, मुक्तासन्ततिराजमानरदनं वाक्योल्लसच्चन्दनम् । नाभेयादिजिनं सुखालिजननं कन्दर्पविध्वंसनं, वन्दे लोभविनाशनं नतजनं मोक्षायतस्पन्दनम् ॥१॥ स्वस्तिश्रीनिलयं दयारसमयं निश्शेषसौख्यालयं, सद्विज्ञातनयं सदोदयमयं निष्पादिताघव्ययम् । गम्भीराम्बुचयं गुणावलिमयं सम्पत्करं निर्भयं, श्रीवामातनयं सदा सविनयं वन्दे प्रवृद्धोदयम् ॥२॥ आख्यातमीश! भवता भवतापतप्त जीवौघचन्दनरसं नरसङ्घवर्याः । केचित् कृपारसमयं समयं निषेव्य, संयान्ति सिद्धिरमणी रमणीयशोभाम् ॥३॥ श्रीमत्कुशेशयमुखं सततं गताशं, खेदं विना मथितकर्मविपक्षविश्वम् । रम्येन्द्रनीलकरणं शरणं तनूपां, शं दायकं भविकदेहभृतां च शैवम् ॥४॥ योऽजय्यो जगतामपीश! भवता प्रोत्सर्पिदर्पोद्धरः, कन्दर्पो विजित: स एष चरणाम्भोजन्म ते सेवते । व्यञ्जत्केसरिलक्ष्मतोऽद्भुतमिव ब्रह्माच्युतेशादयः, स्वायत्ता विहिता मृगा इव मया सिंहेन भाऽन्वहम् ॥५॥ भ्रान्त्वा भूवलयं गता तु गगने त्वत्कीर्तिहंसी सिता, तत्र स्रष्टुमरालसङ्गमवशाद् गुर्वण्यभूत् साम्प्रतम् । मुक्तं भाति ययाऽण्डकं पृथुतरं मन्दाकिनीरोधसि, बिम्बं रात्रिपतेरिदं जिनपतिः स स्ताच्छ्येि सन्ततम् ॥६॥ यस्येशितुः पादयुगस्य तुल्यता, प्रफुल्लपद्मन समं न युज्यते । जडाश्रितेनाऽजडसङ्गिनोऽनिशं, रजोविमुक्तस्य रजोविराजिना ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २०१३ युग्मम् ॥ लघीयसाऽत्यन्तगुरोर्निशायां प्रभावियुक्तेन सदैव सश्रियः । रोलम्बरेखाकृतसङ्गमेन, सुपर्वमर्त्यासुरसेविनो वा ॥८॥ यत्पादयुग्मस्य निकामशोभां विलोक्य जानामि जलप्रसूतम् । जले स्थितं सत् तनुते तपोऽनिशं तत्साम्यमाप्तुं बहुकष्टयुक्तम् ॥९॥ सर्वश्रिय: पादयुगं यदीयं, कामाङ्कुश श्रेणिवरप्रवालम् । समाश्रयन्त्युत्तमशङ्खयुक्तं, गङ्गादिनद्यो मकरालयं यथा ॥१०॥ नमत्सुजनसङ्घातं, नव्यभूघनभाततम् । रमाङ्गजं विगर्हन्तं सर्वदाऽघविवर्जितम् ॥ ११ ॥ चक्रचित्रम् ॥ नानाप्रकारवस्तूनां, याथार्थ्यस्योपदेशकम् । कर्मान्तकारिणं वन्दे, श्रीवीरं रतिकारकम् ॥१२॥ ध्वजचित्रम् ॥ युग्मम् ॥ श्रीर्यदास्यश्रिता नित्या, इतराश्च चलाश्रयाः । क्षणिका विहसन्तीव श्रीवीरं प्रणिपत्य तम् ॥१३॥ सौराष्ट्रराष्ट्रोऽथ जनैः प्रपूर्णः समस्तसम्पद्भरनिर्भरः सन् । कान्ताकुचस्पर्श इव प्रधानो भूयस्सु नित्यं विषयेषु भाति ||१४|| तत् सद्वस्तु न विश्वेऽपि, यद् यत्र नोपलभ्यते । स देशो नाऽस्ति भूपीठे, यज्जनो यत्र नेक्ष ( क्ष्य) ते ॥१५॥ नूपुरालिरिवाऽऽभाति, सदाचरणमण्डना । जनचित्तहरा तत्र, नगरी या गरीयसी ॥ १६ ॥ वनानि यौवनानीव, राजन्ते यत्र सर्वदा । प्रियालपनसाराणि, दधन्ति वयसां श्रियम् ॥१७॥ विभाति यत्र सर्वत्र, हृद्यमुपवनं घनम् । क्रीडातटाककल्लोलैः, संसिक्तद्रुममण्डलम् ॥१८॥ सरलमृदुलकेकानिर्भरो नृत्यरक्तो, विरचयति कलापं नीलकण्ठश्च मन्दम् । विकसितविटपीनां वीक्ष्य रोलम्बचक्रं, भ्रमदुपरितडित्वत् श्यामलं यत्र नित्यम् ॥१९॥ हरिणशिशुगणानां नीरबुद्धि सदैव, जनयति सितकान्तिः स्फाटिको भित्तिभागः । Jain Educationa International २११ For Personal and Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ नवसरसतृणालीलोभमुत्पादयं[ती], क्वचिदसितमणीनामंशुमाला च यत्र ॥२०॥ प्रफुल्लपत्रालिगतालिदम्भतः, समस्तकाष्टासु चरिष्णुदुर्यशः । निःशेषचूडामणिवर्जनार्जितं, दधार यस्मिन् वरकैतकं सदा ॥२१॥ यत्र जातिलतां मन्दं, मन्दं मुग्धां वधूमिव । विदग्धः कामुक इव, सस्वजे मलयानिलः ॥२२॥ पुष्पस्तबकभारेण, ननाम लवलीलता । पीनोरसिजभारेण, भूयसेव कृशोदरी ॥२३॥ वल्ल्याः पत्रावलिस्सारा, राजते सुरभिव्रजाः । जात्यकस्तूरिका श्यामा, मानिनीनां स्त्रियामिव ॥२४॥ पत्रचित्रम् ॥ वसन्तोद्यानपालेन, चम्पकेषु नियोजिताः । आरक्षा इव निःशङ्क, भ्रमन्तीव मधुव्रताः ॥२५।। केकी केकारवं वक्ति, तदायतां(त्ता?) स्फुटाक्षरम् । निर्माति किमिदं प्रश्नम्, अन्यपत्रिपतत्त्रिणोः ॥२६॥ यत्राऽत्युन्नतवृक्षाग्रे, स्ख्यल्यमानान्यहर्निशम् । खेचरीणां विमानानि, क्षणं यान्ति कु(फ?)लायताम् ॥२७॥ नीरकेलिरतस्त्रीणां, त्रुटितैरिमौक्तिकैः । ताम्रपर्णीश्रियं यत्र, दधते गृहदीर्घिकाः ॥२८॥ यद्वप्रे दीप्रमाणिक्य-कपिशीर्षपरम्पराः । अयन्ता(त्ना?)दर्शतां यान्ति, नित्यं खेचरयोषिताम् ॥२९।। कामं शुभ्रसुधाशुचिर्जलधिवत् भूरीष्टकः कल्पवत्, सद्वारो ग्रहराशिवत् सुरचितः स्वर्णाद्रिवत् सर्वदा । यो भ्राजत्कपिशीर्षको विटपिवद् विभ्राजिपाञ्चालि[को], यो वा पाण्डववद् विभासतितरां यस्यां सशालोऽभ्रलिट् ॥३०॥ विभाति धरणो विष्वग, वरकान्तिकलापकः । शिखिवत् धिष्णसङ्घात, इव सत्तमचित्रकः ॥३१॥ प्रोत्तुङ्गप्रचुरेन्द्रनीलवरणशृङ्गाग्रनिर्यत्प्रभा मालानूतनशाड्वलाङ्कुरततिग्रासादने लालसाः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ २१३ ध्वान्तारातिरथावहाः सुहरयो यस्यां स्खलन्तोऽनिशं, ___ कान्तायां परिखेदयन्ति निविडं मध्यन्दिने सादिनम् ॥३२॥ चञ्चत्तोरणराजिराजितमुखाः सर्वार्थसंपूरिता, जात्यस्वर्णमषीरसैर्विलिखितप्रद्योतिचित्रालिभिः । विभ्राजिष्णुगवाक्षसंस्थितललज्जायापतीभूषिताः, प्रासादास्तविषं जयन्ति विभया प्रोत्तुङ्गशृङ्गान्विताः ॥३३॥ मर्यादारक्षणे दक्षाः, सागरा इव नागराः । अपांशुवसना भान्ति, गम्भीरा रत्नपङ्क्तयः ॥३४॥ स्वामिना सम्पदा वा स्याद्, यया तुल्याऽमरावती । गृहाट्टश्रेणिशोभाभिः, परं नैव कदाचन ॥३५।। यस्या गृहाङ्गणस्थाने, स्वस्तिकन्यस्तमौक्तिकैः । स्वैरं क्रकञ्चकक्रीडां, कुरुते बालिकाजनः ॥३६।। यत्सुन्दरीणां सुतनुप्रभाणां, क्रीडागिरी रैवतकोऽस्ति नित्यम् । सुराङ्गनानामिव हैमशैलः, अनेककल्पद्रुवनैविभासी ॥३७॥ यत्सुन्दरीणां च सुराङ्गनानां, किमन्तरज्ञानकृते विधात्रा । निमेषभावो विहितो विशेषो, विज्ञायते तत्परता कथञ्चित् ॥३८|| अनेकमङ्गलोपेताः, कुलीनजनसेविताः । हसन्ति ताविषं यत्र, प्रासादाः सुपताकया ॥३९॥ अनेकशङ्करैर्लोकै-रनेकविधिपालकैः । अनेककविसन्दोहै-रनेकगृहकेतुभिः ॥४०॥ विधुन्तुदवधूवक्त्रै-रनेकपुरुषोत्तमैः । . अनेकगुरुतायुक्तैः, स्वर्ग जयति यत् पुरम् ॥४१॥ युग्मम् ॥ अथ राजवर्णनम् ॥ सर्वलोकहितो दक्षः, परस्त्रीरमणे जडः । यस्यामस्ति महीपालो, परदानसुरद्रुमः ॥४२।। मेरुवद् भाति यत्रेशो, दीव्यद्विबुधसेवितः । नानारामाहितो रम्यः, प्रचण्डतरसाऽन्वितः ॥४३॥ स्तुवन्ति भूपतिं यत्र, मुमुक्षुमिव सज्जनाः । सदा शान्तयशःस्तम्भं, नानादेशविहारिणम् ॥४४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ नृपाज्ञापालका नित्यं, नितान्तचरणोद्यता । यद्राज्ञः पृतना भाति, यतिश्रेणिरिवाऽमदा ॥४५।। यदीयनामश्रवणेन वैरिणः, चण्डप्रतापा अपि यान्ति दूरतः । मदेन मत्ता अपि सामयोनयः, कण्ठीरवस्याऽभिमुखीभवन्ति किम् ॥४६।। नीत्या युतोऽपि विनयी सुकरोऽप्यदण्डः, सश्रीगृहोऽप्यपरमः सुदमोऽप्यजेयः । यस्मिन् विभाति स महाधिपतिः प्रजानां, निःशेषदिग्जिदपि यो विषयेष्वसक्तः ॥४७।। मुखमार्गितदानाप्ति-धनीभवद्वनीपकाः । जिनोक्ततत्त्वनिष्णाताः, त्वदाज्ञापालनतत्पराः ॥४८॥ साक्षाद् वैमानिका देवा, रूपसौभाग्यसुन्दराः । यत्र भान्त्यार्हताः पूता-स्त्वन्नामस्मृतिकारकाः ॥४९॥ युग्मम् ।। एकातपत्रतापत्र-निजाज्ञाया विजृम्भते । रम्भास्पर्द्धिवधूलोके, चारुप्रासादमण्डिते ॥५०॥ स्वस्वधर्मरताशेष-जनमण्डलमण्डिते । अलकापुरसंकाशे, पूज्यपादोपशोभिते ॥५१॥ जिनमन्दिरराजिष्णौ, जीर्णदुर्गाह्वये पुरे । श्रीमच्चरणराजीवैः, पावनेऽनिशसुन्दरे ॥५२॥ युग्मम् ॥ विज्ञातनवतत्त्वादि-चारुश्राद्धसमन्वितात् । मेदिनीकामिनीभूषा-मणेः पत्तनपत्तनात् ॥५३।। इलातलमिलन्मौलिः, शिशुभ्योऽणुतमः शिशुः । सञ्जया लब्धिविमलो, बद्धाञ्जलिपुटस्सदा ॥५४॥ विशाखचक्षुःप्रमितैरदोषैः, सुवन्दनैः शुद्धमनोऽभिवन्द्य । सप्रीति सोत्साहममन्दभक्ति, विज्ञप्तिकामातनुते प्रमोदात् ॥५५।। यथाकृत्यं सदा चाऽत्र, प्रत्यूषे प्रौढपर्षदि । श्रीप्रवचनपूर्वस्य, सारोद्धारस्य वाचना ॥५६।। सद्वृत्तवृत्तियुक्तस्य, तथा पठनपाठनम् । साधूनां श्रावकाणां चो-पधानवहनं महत् ॥५७।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ इत्यादिविलसच्छर्म, धर्मकर्म सुनर्मकृत् । सञ्जायते महामहं, निरपायं निरन्तरम् ॥५८॥ क्रमायातं तथा पर्व, श्रीमत् पर्युषणाभिधम् । हंसानामिव लोकानां, सदा मानसवल्लभम् ॥५९॥ मार्तण्डवत् पङ्कनिराशकस्य, समीरणस्येव रजोहरस्य । सङ्कल्पितानल्पमनोरथस्य, प्रदानदक्षस्य सुपर्वशाखिवत् ||६०|| महार्थयुक्तस्य निधानवत् तथा विचित्रवर्णस्य पयोजराशिवत् । अलब्धमध्यस्य पयोधिवच्चा - ऽचिन्त्यप्रभावस्य महामणीवत् ॥ ६१ ॥ श्रीकल्पसूत्रस्य नवक्षणेषु, नवक्षणेषूत्तमसङ्घसाक्ष्यम् । प्रभावनापूर्वकवाचनोद्य-दुद्घोषणा मारिमृदङ्गकस्य ॥६२॥ तथोत्तमानां तपसां प्रवर्तन - मनेकपक्षक्षपणादिकानाम् । निवर्तनं चाक्रिककुम्भकारा-यस्कारधावद्रजकादिकर्मणाम् ॥६३॥ [ एतावदेव पत्रं लिखितं भाति ] Jain Educationa International =x= २१५ अमदावाद ला. द. विद्यामन्दिर ( मुनिश्री धुरन्धरविजयजी द्वारा ) For Personal and Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ ( ४८ ) श्रीरङ्गविजयलिखितं विज्ञप्तिपत्रम् (त्रुटितम् ) द्व्यणुकसमवायिकारणरङ्गविजयः सविनयं सस्नेहं विधिवद् विज्ञप्तिपत्रं प्रपञ्चयत्यपरम् । शतशः नतिरवधारणीया । श्रीजितां प्रसाद्या । किञ्च श्रीमदाचार्यवर्याणां सुखस्नेहयुक्तं पत्रमत्र प्राप्तम् । संप्राप्याऽद्वैतानन्दः समजनि । किञ्चात आनन्दपुरसत्कगोकलाभिधबलिभुग्रहस्ते पत्रमेकं प्रेषितम् । तन्मध्ये गूढपाटसत्कमुदन्तमण्डललिखितमासीत् । किञ्चात: पत्रमेकं जगत्तारण्यां पत्रमेकं शुद्धदत्यामेवं पत्रत्रयं लिखितम् । तत्प्राप्तं लिखनीयम् । किञ्च सप्त-छदीवन्ध्यपुर - प्राणपुर - देवसूरि-नाडूल- खीमेल सांडेरावप्रमुखसमस्त श्राद्धाः श्रीजितां श्रीमदाचार्यपुङ्गवानां विशेषानुरागिणः सन्ति । संयतयो (त्यो ) ऽपि तथैवेत्यवधार्यम् । पक्षद्वयं नाऽत्र वरीवरीति । स्वप्नेऽपि नैवं हि विचारणीयम् । समस्तसाधुः किल श्रावकौघो नित्यं च युष्मद्वचनानुयायी ॥१॥ I २१६ I इत्यवधार्य पुनरपि पत्रप्रेषणेन मनो मोदनीयम् । किञ्च उ० श्रीसौभाग्यविजयानां पं. विमलविजयानां पं. प्रेमविजय- ग. लाभसागर - मु. लक्ष्मीविजय - साध्वीहीर श्रीप्रमुखसाधुसिन्धुराणां नत्यनुनती प्रसाद्ये । किञ्चात: पं. श्रीउदयविजयगणीनां मु. तिलकविजयस्य च प्रणतिरवधारणीया । मदुचितं कार्य चाऽर्प्यम् । शिष्योऽस्मि, सेवकोऽस्मि, किङ्करोऽस्मि । किं बहुलिपिकरणेन ? प्रभवो ज्ञातारः । पत्रं तूर्णं लिखितमिति बोध्यम् । जिनेन्द्रचन्द्रप्रणामावसरे श्रीमदाचार्याधीश्वराणामभिधानं वारंवारं गृह्यते तदवधारणीयम् । अत्रत्यसङ्घस्य प्रणामोऽवधारणीयः । श्रीजितां विशेषानुरागीत्यवधार्यम् । पारणके श्रीजितां वन्दनेच्छा विशेषतोऽस्ति । पश्चाद्यथा श्रीजितां यथाज्ञा तथा विधीयते । किञ्च प्राग्वाटपक्षीय उ. श्रीमानविजयगणीनां नतिरवधारणीया । श्रीजितां प्रसाद्या नामग्राहं यादवाधीश्वरं प्रत्यहं प्रणौमीत्यप्यवधार्यम् । वलमानं पत्रं प्रदेयम् । मनसा न हेयम् । आश्विन - सिताष्टमीदिने इति मङ्गलमालिका ॥ [पत्रस्याऽस्य प्रारम्भिकांशस्य छायाकृति: (Xerox ) न सम्प्राप्ता ।] Jain Educationa International -X- For Personal and Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ २१७ __(४९) श्रीरूपचदलिखितं विज्ञप्तिपत्रम् (अपूर्णम्) स्वस्तिश्रियाऽन्वितो दद्यान्, नो नाभेयः स शं जिनः । व्यधाद् यशोगतं विश्वं, यस्य खेऽब्जमिषात् शुचिम् ॥१॥ देवाल्यालिर्लसद्वक्त्र-सरोजं किमु सेवते ।। केशपाशमिषात्(द्) युष्मद्-वचःपरागलुब्धधीः ॥२॥ केशपाशमिषेना(णा)ऽयं, खड्गोऽधारि जिन! त्वया । दुष्टाष्टकर्मशत्रूणां, स्कन्धेऽतिपाटनाकृते ॥३॥ किं भुजङ्गोऽभजद् वैनं, केशपाशमिषाज्जिनम् । युष्मद्वक्त्रस्थितब्राह्मी-सुधास्वादस्पृहालुधि(धीः?) ॥४॥ कामाद्रेः किंकृतेऽधारि, जिन क्षिभिदुस्त्वया (?) । स्कन्धे केशजटादम्भात्, श्यामो नीलमणीमयः ॥५॥ प्रभो! स्कन्धे विलिप्तोऽयं, यक्षपङ्कः सुरेश्वरैः । तर्कयन्तीति तत्त्वज्ञाः, बाढं रसिकयाऽनया ॥७|| परीहासकृते रम्या, ब्राया च कमलास्यया । फलिन्या खलु जानेऽहं, प्ररोपिताऽऽम्रतानिनी ॥८॥ युग्मम् ॥ चन्द्रसूर्यौ तुदत्येवा-ऽपवादोऽस्तीति भूतले । तत्स्फेटय जिनाधीश!, मेचकत्वं च मे पुनः ॥९॥ विधुन्तुदो विभुं सेवे, विज्ञप्तिं प्रविधित्सया । समेत्य विष्णुपदात् क्रूरः, केशानां छलतः सदा ॥१०॥ युग्मम् ॥ एनं श्रीनाभिसन्तान-देवाद्रिदेवपादपम् । नाभेयभृङ्गमानाय-मानम्य प्रणाम(पद)पङ्कजम् ॥११॥ ईडरनगरीसज्ञा, पूता सद्भिर्विराजते । श्रीतातचरणाम्भोजैः, कैलासभूरिवेश्वरैः ।।१२।। पौरन्दरीपुरीयं वा-ऽधरागा राजते परा । तत्स्वरूपं विधाय द्राग्, गुरोर्वदनमीक्षितुम् ॥१३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ प्राप्यमाना पराभूति, भूमौ निजश्रिया यया । स्थिता गताऽपि चैकान्ते, स्वर्गे प्रणश्य लज्जया ॥१४॥ स्वर्गपुरी जपन्तीव, मन्त्रं सुप्रकटाक्षरम् । प्राप्तुं तदुपमानत्वं, सुपर्वगणनिक्वणैः ॥१५॥ युग्मम् ॥ निधीशितुगिरेः शम्भोः, जानेभ्यता(?) वरा पुरी । वीक्षितुं कौतुकश्रेणिं, गन्धमाना तलेऽखिले ॥१६।। तत्र श्रीमति सद्भूत-शोभासम्भारभासुरे । समस्तसम्पदां गेहे, जैनविहारशालिनि ॥१७॥ विहाया(य:)श्लेषिप्रोत्तुङ्ग-शृङ्गाग्रशालशालिनि । श्रीतातपादपाथोज-रजत: पूतभूतले ॥१८॥ पुंस-स्त्रीरत्नपाथोधौ, स्वर्णमाणिक्यमन्दिरे । समस्तपू:शिरोरत्ने, ईलादुर्गाह्वये पुरे ॥१९॥ वापी-वनी-तडागौघ-कूपा-ऽऽरामविराजितात् । विद्वज्जनावलीरम्यात्(द्), नाभेयचैत्यशोभिनः ॥२०॥ श्रीमद्देवगुरूपास्ति-तत्परपरमार्हतात् । कल्याणकमलाका(की)र्णात्(), डभोकग्रामतः शुभात् ॥२१॥ सानन्दं ससमुल्लासं, सोत्कण्ठं भक्तिनिर्भरम् । सप्रान्तं प्रेमप्र(प्रो)त्कर्ष-नतसर्वाङ्गमस्तकम् ॥२२॥ प्रमोदान्वितचेतस्को विनेयसर्षपोपमः । तथा सविनयं भाल-स्थलस्थाणु(न)कृताञ्जलिः ॥२३।। पद्मपाणिमितावर्त-वन्दनेनाऽभिनम्य च । विज्ञप्तिं कुरुते कामं, रूपचन्द्रशिशुस्तथा ॥२४|| कृत्यं चाऽत्र यथा पूर्वा-चलचूलावलम्बिना । भूरिभाभासुरीभूते, भूतले भानुशालिना ॥२५॥ हर्षोत्कर्षसमुल्लासि-सभ्यशोभितसंसदि । श्रावकप्रतिक्रमण-सूत्रवृत्तेश्च वाचनम् ॥२६॥ अधा(धी)त्यध्यापनं सप्त-क्षेत्रार्थवपनं तथा । भूरिप्रभावना-याच्या-गतलोकार्थपूरणम् ॥२७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ पाक्षिकादिमसत्पर्व - पौषधादिकदेहिनाम् । मिष्टान्नपान-दानं वा-ऽमारिडिण्डिमघोषणम् ॥२८॥ चतुर्थादिमषष्टाष्ट-माष्टाह्निकादिपक्षका । दुस्तप: तपनं जन्तु जातघातनिवर्तनम् ॥ २९ ॥ भूरिलम्भनिका निष्का - द (दा) नं रागादिशामनम् । सप्तदशप्रकाराढ्यं प्रभूतार्चाविधापनम् ||३०|| नानातूर्यालिनिर्घोष-महामहःपुरस्सरवम् । चैत्यपाटीविधानं स्म, वार्षिकं पर्व जायते ॥३१॥ इत्यादि श्रेयसः कर्म, नि:प्रत्यूहतयाऽभवन् । श्रीमतां प्रभुपादानां, प्रसादोदयतो परम् ॥३२॥ तमः स्तोमः पदं चक्रे, श्रीकण्ठकण्ठकन्दले । कान्तिदम्भाद् यथा युष्मत् - प्रतापभानुना जितः ||३३|| कान्दिशीका निते (स्ते) जस्का, गल्लपल्लसमन्विताः । कुवादिनाभजनूभूम दृश्यमानां च कांश्चन: ( ? ) ||३४|| प्रचण्डतापसंयुक्तं, प्रतापं च यतिप्रभोः । चङ्गं प्रचण्डमार्त्तण्डं, समीक्ष्येवाऽत्र कौशिकाः ॥ ३५ ॥ युग्मम् ॥ युष्मत्प्रतापतापेन, प्रास्ताभामहिमो यथा । पश्चिमाब्धौ ददौ झम्पां, सायंसूर्य: सलज्जकः ॥३६॥ सूर्यो नन्नाम्बुसम्पातं तपस्तीव्रं दधात्ययम् । आलम्बन(नं) विना व्योम्नि, समागतः क्षमालयात् ॥३७॥ त्वत्प्रतापास्तमाहात्म्यो लज्जितः श्रमणप्रभो! । युष्मत्प्रतापसादृश्यं, सम्प्राप्तुं च निरन्तरम् ||३८|| युग्मम् ॥ किं वा वरं वरीतुं ...... Jain Educationa International २१९ नेमि - विज्ञान - कस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर सूरत For Personal and Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ (५०) विज्ञप्तिपत्रम् (त्रुटितम्) [...]यसारकासारस्थास्नुप्रसृमरशंवरभरसमानन्धमानविवेकिजनमनोमरालजालान् असमानलसमाननिरवगानविविधबुधविधिविधीयमानगौरवगानज्ञानविज्ञानविशदसंपदास्पदपरमदर्शनविविगतविपदुपस्पर्शनत्रिदिवशिवरमारमणीयविश्वस्पृहणीयपरमतमसुखसङ्गमहृदयङ्गमविलासं(स)चङ्गिमदर्शनसन्निदर्शनान् संसारासारदुःप्रापपारपारावारपारप्रापणप्रवणवहित्रान् भव्यजीवराजीवराजीवमित्रान् पवित्रविचित्रपुण्यसत्रजनाज्जेगु(?)जातपरममित्रचारुचारित्रप्रगुणगुणानणुसम(मुल्बणमणिश्रेणिसमाश्रयणाचिरत्नरत्नाकरान् निरवद्यहृद्यपद्यगद्यनिषद्यचातुविविव्य(चातुर्विद्य?) निश्छद्मपद्मासद्मपद्ममधुरतरमनोहररससमास्वादषट्पदललितलावण्यलीलाधरान् कमनीयकान्तसतताविश्रान्तनिर्धान्तमञ्जुलसमुज्ज्वलभावनिशान्तसौरभसंरम्भसंशोभमानकोविदरोलम्बकदम्बकीर्तनीयकीर्तिकोमलकेतकीवासितचराचररुचिरकाननान्तरान् तरलसरलाविरलतारकानायकानिव मदीयहयदे(हृदय?)कुम(मु?)दकमनीयकाननविकसनतत्परान् नयविनयदक्षदाक्षिण्यपुण्यपुण्यनैपुण्यविवेकविचारवावल्प(?)कल्पप्रचारसारपरोपकारव्य(?)नित्य वैयावृत्त्यकृत्यकक्षीकारकप्रमुखगुणगणमणिविपणिपणान् निस्तुलमुक्ताफलशशिमण्डलसुरसरिज्जहिमाचलोपलगोदुग्धोज्ज्वलयशःपूरकाचकर्पूरदलपरिमलपरिमलितदिगङ्गनाहृदयस्थलान् तत्तादृक्षसुलक्षवलक्षतमे विपक्षक्षयबद्धकक्षतपःसहस्रकरप्रकाशविकाशितपण्यपुण्यकमलमण्डलान् परमप्रशमशं(सं)यमनिरुपममनोरमविशदकुमदकान[न?] क्रीडारसलालसकलहंससप्रशंसलीलासंधायकान् अनवद्यविद्यासदास्वाद्यफलपटलाविकलवल्लीविताननिरुपनं(म)रसास्वादसुखानुभवविधायि(य)कान् परमरङ्गदुत्तुङ्गगतोद्वेगसंवेगभङ्गीसधरबन्धुरसुधारसोत्साहप्रवाहसेसिच्यमानविद्वच्चयहृदयसारकेदारवारपण्यपुण्याङ्करपूरान् प्रणयिसकतै(?)हिकामुष्मिकमनोमतकदम्बकसंप्रतिपादनतिरस्कृतसुरतरूणां श्रीगुरूणां पादपद्मविशदंप्रशदतः(विशदप्रसादतः?) । विध(पु?)लमङ्गलावलीमल्लिकावल्लिकाविकासवलितमात्र श्रीपूज्यपादप्रसादाम्बुदोदयतः समुपेयिवान् राजहंस इव रमणीयवर्णरूपः शुभमयस्वरूपः श्रीमतां लेखः । समजनि तदर्शनादस्माकं साकं श्रीसङ्घन मनसि प्रसृमरप्रमोदोल्लेखः । श्रीवर्धमान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २०१३ श्रीवर्धमानशासनगगनाङ्गणविराजमान श्रीचन्द्रकुलगण श्रीगुरुमहिमान्व (व? ) ति कमलालताविततिसमुल्लासनसजलगर्जनघनाघनसमानाध्यवसायस्य श्रीसमुदायस्य सादरं सकलपापसन्तापावनिर्वापचारुहरिचन्दनानुवादन श्रीधर्मलाभाशीर्वादेन समभिनन्द्य निरवद्यमुपदिशन्ति । प्राप्ता श्रीसमुदायप्रहिता सहृदयहृदयहिता सज्जनमन:प्रीणनद्र(प्र?)वीणसमाचारसम्भारसारमाणिक्यमणिवारमदाधारमञ्जूषाकारा भविकनयनानन्दसुधारसधारसधारानुकारा सयुक्तिभक्तिव्यक्तितारा विज्ञप्तिका ॥ श्रीसमुदायसक्ती पुण्यपुण्यनिर्वाहचिन्ताचञ्चरीकप्रियतमा श्रीगुरुमानससरोजे सदाविलासलीलालसा क्रीडां कलयति । समयाञ्चितविवेकदानम्लानीकृतसुरसुः भी(?) कुम्भभूरुहमणिमहिमासमवायस्य श्रीसमुदायस्य । तान् श्रीमद्वर्धमानजिनशासनप्रभावनोद्भासनमहोत्सवसन्तानकडम्बकाननवितानसर्वाङ्गीणकजलाकेलिप्रतानविधानधरबधुर (बन्धुर) भाद्रपदाम्भोधरानुकारशोभाधरान् श्रीयुगप्रवरागमपदवीरमारमणीयवु (व)ररमणीक्रीडाविलाससुदर्शनभूधरान् । समाजगाम सुधाधानवन (न्न) यनानन्दजनकः सकलाविकलसमाचारवारिराशिसमुल्लासकः कृष्णाकु (क्ष ? ) रलाञ्छनरेख : श्रीपूज्यपादप्रसादीकृतलेखः । सप्रकाशीबभूव ततः समस्तस्वरूपसमुले (ल्ले) खः । लोकालोकविचारसाररुचिरं संसारतृष्णाहरं, श्लोकोऽयमशुद्धः प्रतिभाति-सं. । २२१ सिद्धान्तामृतसागराद् वरतरं लात्वाऽर्थनांरोत्करम् (ऽर्थरत्नोत्करम्) यद् व्याख्यावरवर्षणेन सततं सिञ्चन्ति भव्यावनिं ते धाराधरसोदरा घनतरं नन्दन्तु सूरीश्वराः ॥१॥ स्वच्छावदातशत[प? ] त्रारिभरेण पूर्णाऽगण्याऽतिवर्ण्यगुणवीचिविराजमाना । धर्मैकसज्जनपावनाय, यत्कीर्तिदेवतटनी प्रसांसार लोके ॥ * शुभं भवत् (तु) लेखक-पाठकयोः ॥ [पत्रस्याऽस्य प्रारम्भिकांशस्य पत्राणि न सन्ति ] Jain Educationa International -x - For Personal and Private Use Only अभय ग्रन्थसङ्ग्रह ४५९१६ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क (५१) Jain Educationa International विज्ञप्तिपत्रम् (त्रुटितम् ) तथा प्रथाप्राप्तगुणैर्गुणाना-मप्याश्रयैस्तद्गणनामतीतैः । वैशेषिकं शैषिकवन्मतं ये, प्रमाणमार्गच्युतमादिशन्ति ॥१॥ श्रीहेमनाम्नः कविराजराजा, व्याजाद् विदूरे प्रणतान्वराजा । सुनीतिषु प्रीतिभृतोऽभिरूपाः, श्रीप्रीतिशब्दाद् विजयागुणाढ्याः ||२|| वैमल्यभाजो हृदये - यत्या-श्छायामनायासतया श्रयन्तः । प्राज्ञेषु मुख्या विमलेतिशब्दान् पदं दधाना विजयेति युक्तम् ||३|| श्रीमद्दुरूणां बहुभक्तिनार्या, स्तनोपपीडं सततावगूढाः । रूढास्तपोभिर्महतोदयेति - शब्देन युक्ता विजया जयन्ति ॥४॥ अब्धिः स्वरूपाद् विविधार्थलब्धेः स्तब्धेतरः श्रीगुरुपादलीनः । लब्धेः __पदात् श्रीविजयो नयानां निधिर्मतीनामवधिः कवीन्द्रः ॥५॥ सेवारसे वासितचेतसस्तद् - भाग्येन सौभाग्यपदा गणीन्द्राः । गणस्य भारोद्वहने फणीन्द्रा, दयादिनाम्ना विजयास्तथाऽन्ये ॥६॥ प्रतापपूर्वं विजया गणीशा, ज्ञातास्तथा ज्ञातचराभिधानाः । परेऽपि सर्वे मुनयो मदीया - नुनामकाप्रस्थितिभि: प्रमोद्याः ||७|| अत्रापि बुद्धास्सुविशुद्धबोधा, आनन्दपूर्वा विजयाभिधानाः । सत्तत्त्वतत्त्वाध्यवसायरक्ताः, श्रीतत्त्वपूर्वं विजयाः प्रवीणाः ॥८॥ छेका विवेकाद्यतिरेककार्ये, विवेकनाम्नो विजया हि धीराः । मेरुप्रभाः स्थैर्यविधासु विज्ञा, मेरोः पदात्ते विजयाः प्रसिद्धाः ||९|| मणिर्गणि तसुस्नवर्गे, सुरङ्गरङ्गाद् विजयो जय । जयादिनाम्ना विजयः सशोभः, सौभाग्यपूर्वं विजयः क्रियावान् ॥१०॥ पुण्योदयप्राज्यमतिः प्रतीतः, प्रज्ञाभिनीतो विजयो मतेश्च । रत्नत्रयीरत्नधरोऽथ रत्नाद्, वाचंयमोऽयं विजयः स्वनाम्ना ॥ ११ ॥ For Personal and Private Use Only खण्ड २ — Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ २२३ इत्यादयः सर्वजने(ना)भिवन्द्या-स्तपोधना बोधनकर्मशूराः । भक्त्या त्रिसायं गुरुपादपद्मं, नमन्ति _ मनिबद्धरङ्गाः ॥१२॥ सङ्घोऽपि सर्वोऽनघपुण्यवृत्ति-स्त्रिसायमीशं नमति प्रसह्य । सदाऽवधार्यं तदिहार्यधुर्यै-धैर्येण सौवर्णगिरेरहार्यैः ॥१३।। विशिष्य शिष्ये विनयाद् भुजिष्ये, कृपासुधावृष्टिविधायिदृष्ट्या । सदा प्रमोदः प्रतिपादनीयः, प्रसादनीयैर्गुरुराजराजैः ॥१४॥ आज्ञाविधेये जनताभिवन्द्यै-विधेयमुद्दिश्य निदेश्यमस्मिन् । भवेत् समर्थः सकलः प्रभूणा-मादेशमासाद्य यतोऽसमर्थः ॥१५।। यः पादपाथोरुहसेवनेन, वृद्धः प्रसिद्धोऽजनि वा स्वदृष्ट्या । यो मन्यतेऽनन्यदिशा ह्यधीशं, विस्मारणीयः स कदापि न स्यात् ॥१६।। हिते नियोगाय तमेहितेऽपि, चिरं प्रयोगाय शिशोः प्रसाद्यम् । पत्रं प्रसादार्थदृशा पवित्रं, चित्रं विशेषैः परमेज्यरूपैः ॥१७॥ गतिः प्रभुर्मेऽस्ति मतिः प्रभुमें, ध्येयं विधेयं शतशोऽभिधेयम् । प्रकाशरूपं हृदये निधेयं, मूर्तं विशेषादिव भागधेयम् ॥१८॥ लेख: पार्वण एष शीतरुचिवच्चञ्चत्कलावानपि, दोषासक्तिकलङ्कितो ननु भवेज्जातोजडध्या _ यात् सौरस्पष्टकरप्रसङ्गवशतः प्राप्तोदयं _ जनैवन्द्य _ _ _ _ मुदे प्रतिपदं भूयान्महामङ्गलम् ॥१९॥ [पत्रस्यैतावन्मात्रभागस्य छायाकृतिः (Xerox) अस्माभिः संप्राप्ता ।] -x (मुनिश्रीधुरन्धरविजयजी-सङ्ग्रहगत) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ (५२-५४) श्रीविजयप्रभसूरिप्रणीता: प्रसादपत्र्यः (१) स्वस्तिश्रीलहरीलसद्युतिरहो सौभाग्यभाग्यैकभूः प्रोत्सर्पत्सुयश:समुज्ज्वलमहाकल्लोललीलोच्चयः । विज्ञाताखिलभावभास्वदतुलज्ञानामृतान्तभृतः स श्रीमान् श्रियमातनोतु भगवत्क्षीरोदधिः सन्निधिः ॥१॥ स्वस्तिश्रिया संश्रितमंहिपा, त्रैलोक्यलोकार्थितमोक्षपद्मम् । सेवे यदीयं मकरोऽङ्कदम्भात्, सोऽस्तु श्रिये श्रीजिनपुष्पदन्तः ।।२।। स्वस्तिश्रियां निधिरसावनिशं समन्ता-नानातमांसि हरते जगतां महोभिः । सत्यं प्रमोदवशतो विदधे विधात्रा, श्रीपुष्पदन्त इति नाम ततोऽस्य लोके ॥३॥ स्वस्तिश्रियं दिशतु सज्जनसेव्यमानो, गम्भीरिमासुगुणरत्नगणैर्गरीयान् । स्पष्टं समुद्र इव नैकजडैरलक्ष्य-स्तीर्थोदयो हि सुविधिर्मकराङ्क आप्तः ॥४॥ चित्रं पवित्रं प्रणयञ्जनानां, पराजितो वाऽप्यपराजितोऽक्षैः । श्रीपुष्पदन्तो जयताददोषा-करोऽपि दोषाकरकान्तिकान्तः ।।५।। वाचस्सतां पान्तु पवित्रमूर्ते-र्धर्मोपदेशे सुविधेजिनेशः । दन्तच्छदोद्यद्द्युतिमिश्रिताः किं, गङ्गातरङ्गास्तरुणार्कभासः ॥६।। स्याद् धर्मिणीति प्रवदन्ति धर्मः, चन्द्रप्रभे तत्त्वमसत् प्रबुद्धाः । विलोकयन्तः सुविधौ सुचन्द्र-प्रभत्वसाक्षात्करणाज्जिनेशे ॥७॥ यस्य स्फुरत्पादपयोजयुग्म-नखांशवस्सन्तु समस्तसिद्ध्यै । मन्ये समन्ताद् दशदिक्पदार्थ-प्रकाशदक्षास्तु मणिप्रदीपाः ॥८॥ यदीयपादद्वयकान्तिपुञ्ज-जलप्रवाहे पतितोऽपि भव्यः । समीहितस्थानमुपैति चित्रं, महानुभावो महतां हि लोके ॥९॥ यन्नाममन्त्रमयमङ्गभृतां नितान्तं, सत्कामकुम्भति सुरद्रुमति त्रिलोक्याम् । सार्वः स कन्दलयतूत्तममोदवृक्षं, चित्रं त्वकं दलयतूच्चयशःप्रवादः ॥१०॥ यत्पादनीरजनखद्युतिदीप्रदीपा-दानम्रकम्रजगतीजनतातमांसि । नश्यन्त्यवश्यमनिशं प्रबलप्रकाशात्, सम्पद्घटां घटयताच्छमताघटोऽर्हन् ॥११॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ तं श्रीमन्तमनन्तधर्माध्यासिताविकललोकालोकविलसत्पदार्थसार्थाकलनकुशलकेवलज्ञानदिवाकरं प्रचण्डोद्दण्डाखण्डब्रह्माण्डभाण्डोदरोद्यद्यशस्त्रिदश तरङ्गिणीतरङ्गाभङ्गनीरपूरप्रवाहपवित्रीकृतदशदिगन्तरं प्रबलविमलध्यानविकराल - कालकरवालकवलितजगज्जनदुर्जयकलाकेलिकलाकलापप्रसरं भक्तिभरप्रणमदमर २२५ कोटीकोटीरकोटिसण्टङ्कितमणिकिरणमण्डलजलकल्लोलान्तरालसमुल्लसदधिकदीप्यच्चरणपुष्करं हर्षोत्कर्षप्रकर्षप्रसिद्धसिद्धिरमणीरमणीयप्राणाधीश्वरं जगज्जनताहितकरं श्रीसुविधिजिननायकपुरन्दरं प्रणामार्कसोदरस्कन्धमध्यमध्यारोप्य श्रीद्वीपबन्दिरात् श्रीविजयप्रभसूरयः सबहुमानमालापयन्ति - यथाप्रयोजनञ्चाऽत्र प्रातः प्रकटप्रभासम्भारसारशृङ्गारशृङ्गारितदिग्दन्तावलदन्तालये विकसितकमलवनसमुच्चलत्परागपुञ्जपिञ्जरितभूवलये स्वकरार्धचन्द्रितयामिनीकामिनीसङ्गरङ्गरसिकरोहिणीप्रिये प्राञ्चदपूर्वपूर्वाचलचूलासम्प्राप्ताभ्युदये श्रीसहस्रकिरणोदये सति महेभ्यसभ्यसंशोभितायां सभायां प्रवर्त्तमानसमस्तसिद्धान्तस्वाध्यायविधानक्रमायातोत्तराध्ययनसूत्रस्वाध्याय- श्रीतार्त्तीयीकाङ्गसूत्रवृत्तिव्याख्या-साधुसाध्वीप्रारब्धाध्ययनाध्यापन - सानन्दनन्दिमण्डन - सश्रद्ध श्राद्ध श्राद्धीजनोपधानोद्वाहन-सब्रह्मब्रह्मव्रतसमुच्चारण-सोद्यापननानातपष्करणमालारोपणदीनोद्धरणादिसुकृतकृत्यसमुदये सोदयं सञ्जायमाने परिपाटीप्राप्त श्रीमदाब्दिकपर्वणि सकलजीवामारिप्रवर्त्तन-कुकर्मनिवर्त्तन-समस्तसङ्गीतगीतनीतिरीतिनटनटन समकालीनवादितवादित्रमाद्यज्जिनभवनपवित्रस्नात्राद्याचारचारिमसप्रभेदसर्वीयस पर्याविरचन-नानादुस्तपतपस्तपन- सप्रभावप्रभावनाभवन- नवनवक्षणनवक्षणकल्पद्रुकल्प श्रीकल्पसूत्रवृत्तिवाचन-सोत्सवातुच्छसाधर्मिकवात्सल्यविधानमार्गणगणमार्गितार्थप्रदान- साडम्बरचैत्यपरिपाटी प्रकटनादिधर्मकर्म सशर्म समजनिष्ट श्रीमद्ध्येयध्यानानुभावात् । अपरं शुभवतां तकृतां कृतान्तनिपुणमतीनां सौवाङ्गान्तिषवार्त्तवार्त्तावावदूकः पर्वलेखस्समागात् । समवगतं च तत्प्रमेयपटलम् । किञ्चाऽस्माकमनुनतिर्ज्ञेया ज्ञाप्या च निकटवर्त्तिनाम् । सकलसङ्घस्याऽस्मद्धर्मलाभो वाच्योऽस्मन्नामग्राहं श्रीजिनपतयः प्रणम्याः । विजयदशम्यामिति श्रेयः ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ स्वस्तिश्रियाऽर्हन्तमनन्तभक्तं, संसेव्यमानं जगदर्चनीयम् । श्लोकप्रतापैर्जितपुष्पदन्तं, श्रीपुष्पदन्तं प्रणिपत्य सम्यक् ॥१॥ हल्लारदेशक्षितिपालमौलि-कोटीरहीराभरणोपमाने । श्रीमित्रपादाब्जरजःपराग-सौगन्ध्यप्राप्ते नगरे नवीने ॥२॥ श्रीपूज्यसद्दर्शनरागरक्त-समस्तमाद्भुतलक्ष्मिसौख्यात् । द्वीपात् पुरो बन्दिरतो विधेयः, कृताञ्जलिविज्ञपयत्ययं हि ॥३।। यथाऽत्र जन्यं जनपूजनीय-श्रीमद्गुरूणां चरणद्वयस्य । कल्पद्रुमस्येव सुसेवनायाः,सदा वरीवर्ति सुखं चिदादि ॥४।। सौभाग्यसौन्दर्यगभीरिमादि-सुरत्नरत्नाकरसन्निभानाम् । काव्या कवीनां कविकोटिराज्ञां, सुधीवराणामपि धीवराणाम् ।।५।। सत्प्रेमपत्रं भवतां मयाऽऽप्तं, प्रहर्षहर्षोदयकृद् हृदन्तः । स्वागान्तिषद्वार्त्तविशेषवार्ता-प्रवृत्तिसंसूचकमिष्टदिष्टम् ।।६।। ममाऽवधार्या प्रणतिस्त्रिसायं, कृपापरैस्सौम्यनिरीक्षणैश्च । सद्यः प्रसाद्यः पुनरप्यमन्द-प्रसादलेखः सततं प्रसन्नैः ॥७॥ मित्रोचितं कृत्यमशेषकृत्य-विद्भिः प्रसाद्यं मनसा प्रसद्य । सर्वीयनामक्षण एव नित्यं, स्मार्यः सुहृत् सज्जनवृन्दसिंहैः ॥८॥ अत्रत्यसङ्घः सकलोऽपि भक्तः श्रीमित्रपादान् ननु नंनमीति । गुणानुरागी पुरतो गुरूणां, भवद्गुणान् वक्ति सदेति भद्रम् ।।९।। पूज्याराध्यमहाप्राज्ञ-सभामण्डनसद्धियाम् । श्रीमत्सौभाग्यपौरस्त्य-विजयानां हि पत्रिका ॥१०॥ [अनु॰] ॥छ।। -x ला. द. विद्यामन्दिर अमदावाद सू. ४३४०८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ २२७ (२) स्वस्तिश्रिया युक्तमसेवि यस्य, स्वभ्रातृशङ्खाश्रितमंहिपद्मम् । सल्लक्ष्मदम्भान्न हि दोषदुष्टं, श्रेयःश्रिये स्ताज्जिननेमिनाथः ॥१॥ स्वस्तिश्रिया यस्य पदारविन्दं, धाराधरं चञ्चलयेव शश्वत् । व्याप्तं समस्तं हरिणेव विश्वं, जीयादयं नेमिजिनो जगत्याम् ॥२॥ स्वस्तिश्रिये स्ताज्जिननेमिनेता, स्वर्भूर्भुवोलोकतमोऽपनेता । त्यक्ता मृगाक्षी मृगरक्षणत्वा-दाजन्मरागिण्यपि येन मड्क्षु ॥३॥ कस्तूरिकाऽत्यन्तमहार्घ्यमूल्या, कृष्णाऽपि यत्कायिकवर्णसाम्यात् । शैवं शिवासूनुरनूनसौख्यं, नेमी(मिः) नराणां नमतां विदध्यात् ॥४॥ यद्देहभासः परितः स्फुरन्त्यो, विभान्ति नम्राङ्गभृतां शिरस्सु । यवप्ररोहा विजयार्थिनां किं, भूयात् समीहितकृते स जिनो जनानाम् ।।५।। दूर्वाऽक्षतांश्चेदनिशं दधीत, दन्तत्विषाराजियदङ्गदीप्तेः । साम्यं तदाप्नोतु वृषोपदेशे, नेमी सदा मङ्गलमातनोतु ॥६॥ नीलद्युतो यस्य शिरःस्फटाग्रमणीश्रियो नीरदवार्दलान्तः । उद्गच्छदुष्णांशुरुचं दधत्यो, मुदं विदध्यादिह नेमिनाथः ॥७॥ चराचरं विश्वमशेषमेवा-ऽमितं प्रभाति प्रतिबिम्बि यस्य । चित्रं चिदादर्शतले वलक्षे, सार्वश्चिदानन्दपदं प्रदद्यात् ॥८॥ यत्पादनीरजनखद्युतिदीप्रदीपा-दानम्रकम्रजगतीजनतातमांसि । नश्यन्त्यवश्यमनिशं प्रबलप्रकाशात्, सम्पद्घटां घटयताच्छमताघटोऽर्हन् ।।९।। तं श्रीमन्तं भक्तिभरनमन्नाकिनिकायकोटीरकोटिसण्टकितानेकाप्रत्नरत्नप्रभाप्ररोहसन्दोहरूपापूर्वप्रदीपश्रेणिदेदीप्यमानक्रमकमलं कर्णिकाचलशृङ्गरङ्गद्वन्दारुवृन्दारकवृन्दविहितजन्माभिषेकचलच्चञ्चलसलिलप्रवाहपूरदूरीकृतामध्यममध्यलोकवर्तिजनवृजिनपङ्कपटलं नैकप्रकृतिविकृतिस्पष्टदुष्टदुष्ठफलाष्टकर्ममर्मधर्मस्तोमव्याकुलीभूतभूतलप्राणिगणविमलमलयजशीतसितवृषोपदेशपेशलवचनरचनाजलधारासिञ्चनसमुद्भूतप्रभूतयशोवादकर्पूरपूरसुरभीकृतत्रिभुवनतलं सकलमहीमण्डलाखण्डलाखण्डप्रोद्दण्डनिर्देशदासीकृताशेषसीमालभूपालाऽसुद्र(?) श्रीसमुद्रविजयराजराजद्धामधामावतरणत्रिलोकीविश्रुतीकृतयादवकुलं विविधाभिभवभवनवनवनवभवधवस्थेमप्रेमपुलकितहृदयराजीवराजीमतीस्निग्धेक्षणवीक्षणक्षणदत्तवागगोचरा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ नन्दमहानन्दपदलीलं श्रीनेमिजिनराजं राजमरालमरालतानाकलितप्रणतिमानससरस्यन्तरालं समारोप्य श्रीजीर्णदुर्गात् श्रीविजयप्रभसूरिभिः सबहुमानमालाप्यते । यथा प्रागभावप्रतियोगि चाऽत्र विपुलावकाशाकाशास्थानिकसिंहासनसमासीनदिनमणीरमणीयमहीपाले निस्सीमसीमन्तिनीविरहव्यथोपशान्तिप्रमुदितावक्रचक्रचक्रवाले तरुणतरणितेजःपुञ्जपिञ्जरीभूतभूतलविभूषावगणितप्रवालकन्दले स्वस्वकर्मकरणसमुद्यतानेकजीवगमागमकलकलारवमुखरितदिग्मण्डले विशाले प्रभातकाले सति जीवाजीवद्रव्यस्वरूपविचारचतुरागण्यगणिमादिद्रव्यकोटीध्वजालङ्कृतगेहराजमान्यधन्यसामाजिकसमाजे श्रीपञ्चमागसूत्रस्वाध्यायानुसन्धान-श्रीजीवाभिगमसूत्रवृत्तिव्याख्यान-यतियतिनीप्रारब्धग्रन्थाध्ययनाध्यापन-सश्रद्धश्राद्ध श्राद्धीजनोपधानोद्वाहन-मालारोपणा-ऽजिह्मब्रह्मव्रतोच्चारण-दीनोद्धरणादिधर्मकर्म सशर्म प्रावरीवृतीत् प्रवरीवति चाऽऽनुपूर्वीसमायातं श्रीशारदिकपर्वाऽपि सुपर्वापि(पि)तप्रतिष्ठं सर्वपर्वाखर्वगर्वपर्वतलक्षपक्षक्षणनशतकोटिसमानं समग्रजीवामारिपटुपटहोद्घोषणानिरस्तसमस्तव्यसनं सद्योवादितानवद्यवाद्यमाद्यद्रङ्गस्थानरङ्गत्सङ्गीतगीतनृत्यन्नर्तकसमुद्गच्छदतुच्छध्वनिघनगर्जज्जिनगृहसहिदप्रतिमप्रतिमार्हणाविरचनं सप्रभावप्रभावनाभवनादिनवनवक्षणनवक्षणकल्पितानल्पसङ्कल्पकल्पद्रुकल्पश्रीकल्पसूत्रवाचनं मासार्द्धमासक्षपणादिदुस्तपस्तपनक्षपिताष्टकर्मीनिकाचनं याचकयाचितार्थप्रदानं प्रकृष्टाभीष्टपिष्टपूरप्रभृतिविविधसुखाशिकासमग्रसार्मिकजनभोजनं साडम्बरसकलार्हच्चैत्यपरिपाटीगमनं समहामहं निष्प्रत्यूहव्यूहं समजायत । संसक्तसन्यासविन्यासध्येयामेयमहिमश्रीसूरिमन्त्रस्मरणकरणासाधारणकारणात् अपरं शुभवतां भवतां धीमतां ह्रीमतां वैराग्यरङ्गरक्तान्तःकरणानां स्वपरिकरवार्त्तवार्तापरिकलितं कविकु.... -X ला. द. विद्यामन्दिर अमदावाद सू. ४३४११ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ स्वस्ति श्रीसङ्गरङ्गत्परिणतिजनिताभङ्गरङ्गप्रसङ्गात्, शालीनालीकमाली विलसति रुचिभिर्भानुमाली नयाली: (ली) । प्रज्ञालीभूतभूतं जगदिदमनिशं यदुणालीप्रणालीसिक्तव्यक्तोक्तिशीलद्रुमगुणभणनाच्चित्रमेतज्जनानाम् ॥१॥ (३) स्वस्तिश्रीर्नलिनीव पीवरतरज्योतिः प्रतापारुणप्राकाम्याभ्युदयेन यस्य भजते भास्वद्विभोज्जृम्भणम् । निःसङ्गाङ्गिगणे स्फुरद्दिनमणिप्रष्ठोऽपि शिष्टैः स्फुटं, Jain Educationa International सश्रीकः पटुकोटिकोटिमुकुटैर्यश्चाऽत्र जेगीयते ॥२॥ स्वस्तिश्रिया निरुपमाभ्रमरूपसम्पत्-सम्यक्स्वरूपविनिरूपितचारुलक्ष्म्या । यः क्रीडति प्रतिदिनं सरसैर्विलासै - निस्सङ्गनिर्मममहानपि गीयते स्म ||३|| स्वस्तिश्रियो मोहनमन्त्रशक्तेर्व्यक्तीकृतिः सत्कृतिभिः प्रशस्या । यो वीतरागः कृतभूरिरागः प्रह्वीकृतः स्वीकृतसौकृत श्रीः ||४|| स्वस्तिश्रियां हेतुरयं सुकेतुः स्वीयान्वये मे समुपैतु चेतः । अनन्यसामान्यगुणाः प्रकामं, द्रव्यं विनापि प्रविभान्ति यस्मिन् ॥५॥ स्वस्तिप्रियाकैरविणीकलाधरः पार्श्वप्रभुर्विद्रुमरुक्कलाधरः । कलावदोघस्तुतसत्कलाधरः, सत्पल्लवोल्लासितसत्कलाधरः ॥६॥ स्वस्तिप्रियायाः प्रियतामवाप्य, कृतार्थतामश्नुत एव जन्मनः । काम्यत्कलाकेलिकलातितायी, यश्चाऽपि चित्रं न कथं जनानाम् ॥७॥ तं श्रीमन्तं श्रीमन्तमर्हणाप्रबर्हार्हतार्हमतानर्हगर्हणावै धुर्यधुर्यवर्यबहिर्मुखपर्षत्प्राचीनबर्हिःप्रतिमताप्राप्तिव्याप्तिसमुद्भवन्नवसाम्राज्यप्राज्यकमलालीलाविलासव्याससाभ्यासलास्यप्रशस्यरहस्यानुभवपराभूतप्रभूतभवप्रभवाभिभवभारव्यथाशङ्करं दुष्कर्मनर्मघर्मक्षपणनिपुणजलायितविमलवृत्तवृत्तिप्रवृत्तिकेवलज्ञानतरुणतरणिकिरणनिकरध्वंसितानन्तदुरन्तदुरितारातिजातिप्रकरं श्रीपार्श्वजिनदिनकरं प्रणामपूर्वाचलचूलाचुम्बिनं निर्माय श्रीमेदिनीपुरतः श्रीविजयप्रभसूरयः सबहुमानमादिशन्ति यथानिमित्ता– धीनात्मलाभं चाऽत्र प्रात[:] श्रीसूर्ये महाभ्युदयदशामधिगतवति महेभ्यसभ्यलभ्यायां सभायां श्रीपञ्चमाङ्गस्वाध्याय श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्रवृत्तिव्याख्यानविधान , २२९ For Personal and Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ प्रधानयोगोपधानोद्वहन-मालारोपण-तुरीयव्रतोच्चारणाद्यनन्तकान्तकृतपातकान्तस्वान्तस्पृहणीयधर्मकर्मणि समनुष्ठीयमाने क्रमसमधिगतं श्रीम[दा] ब्दिकपर्वाऽपि सर्वपर्वसुपर्वसुपर्वराजं विराजत्समहामहमहोत्सवसण्टङ्कनिष्टङ्कितस्पष्टचैत्यपरिपाटीप्रकटनाद्याडम्बरप्राग्भारचमत्कृतसकलविद्वत्समाजं सक्षणक्षणप्रवणतात्मकसङ्कल्पितानल्पकल्पद्रुकल्पश्रीकल्पसूत्राभिनवसुधासारणीदेशीयदेशनासमुज्जृम्भितसुरनरराजं निःप्रत्यूहव्यूहमित्यादि समहं समजनि संजायते च सांप्रतीनसमयेऽपि तुरीयारकवत् सांप्रतप्रवृत्तिः सद्वृत्तिमत् श्रीदेवगुरुप्रसत्तेः । किञ्चाऽस्माकं आचार्यश्रीविजयरत्नसूरीणामनुनतिसहचारिण्यौ उ. श्रीसौभाग्यविजय ग., पं. गङ्गकुशल म., पं. हेमविजय ग., पं. प्रीतिविजय ग., पं. विमलविजय ग., पं. उदयविजय ग., पं. ज्ञानविजय ग., पं. प्रेमविजय ग., [ग.] लाभसागर, मु. लक्ष्मीविजय, साध्वी हीरश्रीप्रमुखाणां प्रणत्यनुप्रणती अवसेये अवसायितव्ये च पारिपाश्विकानाम् । किञ्च शुभवतां भवतां हृद्यगद्यपद्यानवद्यविद्यासद्यस्कसन्दर्भवतां पार्वणलेखः प्रादुर्बोभूयामहे तन्निष्ठशिष्टसमाचारचारै _ _ _ _ _ परमानन्दसम्पदः प्रादुर्भूताः - - - - नघसङ्घस्याऽस्मद्धर्मलाभो वक्तव्यः । _ _ [अस्म]न्नाम्ना श्रीजिनचन्द्राः प्रणन्तव्या माघ सित ६ दिने इति श्रेयः ॥ -x (मुनिश्रीधुरन्धरविजयजी-सङ्ग्रहगत) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ २३१ (५५) श्रीज्ञानविमलसूरिप्रणीता प्रसादपत्री स्वस्तिश्रीर्यत्पदाम्भोजे, सदावासमुपेयुषी । तमानम्य प्रमोदेन, पार्वं श्रीसुखसागरम् ॥१॥ लिखत्युदन्तमानन्द-पूर्णहृत्प्रणयोद्धरः । सद्ज्ञानाद्विमलाभिख्यः, सतीर्थ्यस्सूरिशङ्करः ।।२।। राजद्रङ्गे लसद्रङ्गे, तत्र श्रीमत्पवित्रिते । श्रीस्तम्भतीर्थतः सम्यग्, पूर्णं पूर्णप्रमोदभाक् ॥३।। सातजातं वरीवर्त्ति, श्रीमदिष्टप्रभावतः । कालानुमानतश्चापि, प्रत्यहं प्रश्रयप्रदम् ॥४॥ प्रतिप्रभातं सभ्येभ्यः, पर्षदायां प्रमोदकृत् । व्याख्यानं ख्यातिमद्भव्यं, जायते च प्रतिप्रगम् ।।५।। क्रमागतं च सत्पर्व, वार्षिकं हर्षकन्नणाम् । जिनेन्द्रा_दिसत्कृत्य-धर्मकर्मविनिर्मितम् ॥६॥ नवक्षणेषु सञ्जाता, भावना सत्प्रभावना । स्वर्ण-रूप्यादिमुद्राभिश्चाऽङ्गपूजाऽप्यजायत ।।७।। संवत्सरप्रतिक्रान्तिः, पर्वदानं प्रवर्तितम् । पारणापि [च] सञ्जाता, समहं सदभिष्टजा ।।८।। इत्याद्यनेकसद्धर्म-कर्मवार्ता प्रवर्तते । श्रीमदावश्यकीवृत्ति-व्याख्यानं जायते सदा ॥९॥ श्रीजितविमलाह्वाना, वाचकेन्द्रा जयन्तु ते । यत्कीर्त्तिस्फूर्तिकौमुद्या, भासितं भुवनस्थलम् ॥१०|| बुधगुरुकवयोऽद्यापि, नोज्झन्ते लेखशालिकाम् । त्रैमत्कवर्यचातुर्य(?), शिष्यार्थं किमु तय॑ते ॥११॥ इत्याद्यनेकगुणगण-मणिरोहणशैलशैलसन्मानैः । सज्जनमहेभ्यजनता-प्रदत्तमानैः स्फुरद्ध्यानैः ॥१२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ श्रीमद्भिरस्मदनुनति-रवसेयाऽऽचार्यवर्यसूरीणाम् । सौभाग्यसागराणां, नाम्नामत्यन्तहर्षकृताम् ।।१३।। कविविनयाद्विजयानां, शिष्याणां नव्यरङ्गविजयभृताम् । प्राज्ञगुणसागराणां, सद् न्याना(या)त् सागरगणीनाम् ॥१४॥ खि(खी)मादिसागराणां, शिष्याणां पञ्चमाङ्गयोगभृताम् । ज्ञेया प्रणति(:) शश्वत्, ज्ञाप्या च श्रीमदन्तिषदाम् ।।१५।। प्राज्ञः श्रीभोजविमलः, श्रीजिनविमलाभिधानविद्वांसः । सौभाग्यचन्द्र-नारायण-मुखभवदमिसक्तानाम् ।।१६।। तेषां यथार्थमेतत्(द्), ज्ञाप्यं श्रीमद्भिरनुभवप्रवणैः । अस्मन्नामग्राहं, नन्तव्यास्सकलतीर्थकराः ॥१७|| सादेवनामवणिजा, पत्रं दत्तं पुरा हि । वाचं वाचं परमा, मुदश्च जाता हृदोऽन्तर्मे ॥१८।। पूर्वप्रेम न हेयं, देयं वलमानप्रीतिपत्रं च । तत्रत्या[:] सुविशेषाः, प्रेष्याः प्रेकत्समाचाराः ॥१९॥ -x नेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर सूरत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ २३३ २३३ (५६) श्रीविद्यासागरसूरिग्रणीता प्रसादपत्री (अपूर्णा) श्रीसरस्वतीदेव्यै नमः ॥ श्रीगोडीपार्श्वनाथाय नमः ॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ।। स्वस्तिश्रीगौडिपार्श्वश्शतमखप्रणतस्त्यक्तमोहान्धकारः, सर्वेषां भव्यपुंसामभयवरदानात्(?) धूर्जितः स्फारकीर्तिः । निर्व्याघातप्रपूर्णप्रगुणगणधरज्ञानधर्ता प्रणेता श्रीणां दाताऽघहर्ता विजयति जगदानन्दकर्ता जिनेन्द्रः ॥१॥ अमरसागरसूरिगणेश्वरा, अमरसौख्यकराः प्रभवन्तु मे । अमरवृक्षमिवेप्सितदायकाः, प्रतिभया विजितामरसूरयः ॥२॥ श्रीशान्तिदेवो वितनोतु शान्ति, समस्तभक्तामरमानवानाम् । श्रीविश्वसेनेशकुलार्यमासमः, सद्भव्यचित्ताम्बुजबोधकश्च ॥३॥ विद्याब्धयः सूरिगुणैरलङ्कृताः(ता), विद्याचणा:(णा) ज्ञानकलासमन्विताः । कान्तं पलाशं शिवदं ___णा, लिखन्ति बुरहान(बुर्हान)पुरात् प्रहर्षात् ॥४।। सुखसंयमयात्राऽत्र, कल्याणं मङ्गलं तथा । सदा[पि] वर्त्तते श्रीमद्-देवगुर्वोः प्रसादतः ॥५॥ जालणातो विहृत्याऽव-रङ्गाबादे समागताः । तर्हि तत्राऽस्तिकाश्चक्रुः, प्रवेशोत्सवसुन्दरम् ॥६।। चातुर्मासकविज्ञप्तिं, _ _ _ श्रोतुकामुकः । द्वौ मासकल्पौ यावच्च, तस्थौ [सङ्घाग्र] है: पुनः ॥७॥ सार्द्धद्विमासाः तद्दने, तस्थुः सङ्घा _ _ _ _ । इतश्च बुर्हानपुरस्य, सङ्घो नश्चा _ _ _ _ ॥८॥ - - - - - - - मञ्जुलमाहेता - । रम्याङ्गना गेयसु _ _ _ _ , समग्रवादित्रप्रवाद्यमाने ॥९॥ . अनेक(का) मिलिता लोकाः, केचिद् भावात् कुतूहलात् । मोतीचन्द्रो ददुः _ _ , प्रत्येकं श्रीफलं वरं ॥१०॥ प्रत्यूषेऽस्माभिर्व्याख्यानं(ने), विशेषावश्यकं शुभम् । सद्वृत्तिसंयुतं सम्प्रत्(?), क्रियते सङ्घसंसदि ॥११॥ - - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ कर्मग्रन्थादिकग्रन्थाः, शिष्यानध्यापयत्सु च । शर्मदः सर्वसत्त्वाना-मी(मि)याय पर्वणां पतिः ॥१२॥ समागते च पर्वणि, कल्पसूत्रस्य पुस्तकम् । मोतीचन्द्रेण न्यष्ठाच्च, विहितो रात्रिजागरः ॥१३।। गजारूढ(ढेण)मोरेण(?), पुष्टे सङ्घः समं मुदा । महःपूर्वकमस्माक-मदात्(कं तद्दत्तं?) करनीरजे ॥१४॥ अस्माभिर्दश व्याख्यानं, कृता(:) श्रीसङ्घपर्षदि । पूर्वघस्ने कल्पसूत्रं, प्रवाचितं हिताब्धिना ॥१५॥ जाण(?) श्राद्धसद्मनि, दशव्याख्यानमुत्तमम् । प्रकीर्तिता(तं)प्रमोदेन, मुनिना हर्षकीर्त्तिना ॥१६॥ वार्षिकप्रतिक्रमणं(णे), दत्त्वा च क्षामणं मिथः । प्रत्तं सांवत्सरं दानं, ताम्रमुद्रा तु पेटके ।।१७।। चैत्यप्रपाटिकां कृत्वा, हृतं पाप्मा(प्म)समूहकम् । प्रभावना द्वाविंशति-श्रद्धालव(वैः) वितेनिरे ॥१८॥ अथ पारणाधिकारः - चातुर्मासकपारणं, चन्द्रभाणेन कारिता(तम्) । पटुआज्ञातीयमध्ये, मीठाचन्देन तत्समम् ॥१९।। वृद्धापाक्षिकपारणां, देवीदासो व्यचीकरत् । अपरे तत्पारणक(काः), कृतलेन विधायि(पि)ताः ॥२०॥ त्रैलाधरपारणक(कं), बूलचन्द्रेण बर्फरात् । सकल श्राद्ध-श्राद्धीनां, चक्रे च शुभभावतः ॥२१॥ मुक्तिसमोज्ज्वलं चित्त(:), मोतीचन्द्रसुश्रावकः । विविधानि च पक्वानै-रकारि पर्वपारणा ॥२२॥ अन्ये वार्षिकपारण(णाः) कारिता मकनेन च । बहूनि भव्यलोकानि, शीलव्रतमपालयन् ॥२३।। एकाश्राद्धया(च) सद्भक्त्यो-पवासा स (कृताः) _ _ _ । अष्टावेकाश्राविकया, चैक्या पञ्च भावतः ॥२४॥ [अपूर्णं पत्रम्] -xनेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर, सूरत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ २३५ (५७) श्रीमेघराजगणिवरं प्रति प्रेषिता श्रीविद्यासागरसूरिप्रणीता प्रसादपत्री स्वस्तिश्रीकरसम्भवं जिनपति श्रीसम्भवं संमुदा, भास्वद्भासुरबन्धुरोद्धरतरैः सम्भूषणैर्भूषितम् । वन्देऽहं विधिपक्षचैत्यविमलं दीप्यत्प्रतापाद्भुतं, ___ राजद्राज्यजितारिवंशतिलकं सेनाङ्गजं सौख्यदम् ॥१॥ श्रीमच्छीविधिपक्षदक्षगणपाः सत्साधवः सूरयः, जीयासु[:] कुशलं दिशन्तु गुरवः सम्प्राप्तविद्याश्रयाः । संसाराम्बुधितारकोद्यतधियः सत्योपदेशैर्जनान्, सद्भव्यानमराब्धिसूरितिलकाः सम्बोधिसम्बोधका[:] ॥२॥ तेषां पादयुगं प्रणम्य शिरसा विश्वाद्भुताश्चर्यकृ ___च्छ्रीमत्सूरतिबिन्दराद् गतमयादृद्धेश्च वृद्धगुहात् । विद्यासागरसूरयोः(यो) गणधरा[:] पत्रं लिखन्ति स्फुटं, श्रीमद्वार्षिकपर्ववृत्तिसुखदं श्रेयस्करं भाविनाम् ॥३॥ श्रीमति नान्दसमाग्रामे वा.मेघराजगणिवरेषु श्रेयश्चाऽत्रश्रीमत्पत्तनतो विहत्य जनपान् नत्वा जिनांस्तात्त्विकान्, श्राद्धीनागकृताग्रहादनुजनैः सङ्घः समं सम्मुदा । ग्रामे चान्दसमाख्य एव भगवद्भट्टेवपाश्र्वाभिधं, स्तुत्वा सङ्घजनस्य लालवणिजा भक्तिः कृता सादरम् ॥४॥ नामं नामं जिनान् सर्वान्, प्रदक्षिणस्थितिस्थितान् । हारं हारं मनस्तापं, कारं कारं सुशिक्षिकाम् ॥५॥ ग्रामं ग्रामं विहृत्याऽथ, विधौ संस्थाप्य श्रावकान् । वैराटनगरं प्राप्ता, महोत्सवपुरस्सरम् ॥६॥ युग्मम् ॥ परीक्षरत्नजिन्मुख्यैः, श्राद्धैः सर्वैः कृतोन्नतिः । श्रीपार्श्वकलिकुण्डाख्यः, सद्भक्तिगोचरीकृतः ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ अमरसागरसूरिगणधरा-श्चतुरशीतिगणेषु सुविश्रुताः ।। कुमतवादिषु जित्वरजित्वरा, विजयदा विजयन्तु मुनीश्वराः ॥८॥ तेषां पादयुगं नत्त्वा, मत्त्वा च मुनिपुङ्गवम् । सर्वदा सौख्यदातारं, ध्यातृकामघटं मतम् ॥९॥ मासमेकं तत(:) स्थित्वा, कृत्वा प्रयाणकं शुभम् । सूरतिबिन्दरं प्राप्ता, गुरोः पादप्रसादतः ॥१०॥ तस्मिन् दिने श्रावकवेणिअद्दा-केनाऽथ सन्निमितमहन्महश्च । हरीपुराख्ये प्रथमं मुहूर्त, कृतं च तस्याऽऽग्रहतो विशेषात् ॥११।। ज्येष्ठशुक्ल अथ पञ्चमीदिने, संस्कृतो बृहदुपाश्रयागमः । श्रीफलानि गुरुसङ्घसत्कृते, दत्तवान् सहिकपूरसङ्घजित् ॥१२॥ गौरीगान-स्फुरद्ध्वान-तूर्यघोषपुरस्सरम् । प्रवेशमहोत्सवोऽकारि, कर्पूरेन्दुगुणालिना ॥१३।। आचाराङ्गस्य सूत्रस्य, व्याख्यां प्रवाचयत्सु च । श्रुत्वा श्रद्धालवः सर्वे, भवन्त्युत्तरदर्शनाः ॥१४॥ सिद्धान्तचन्द्रिकापाठः, शिष्यानध्यापयत्सु च । श्राद्धांश्च धर्मकृत्येषु, प्रेरयत्सु गुणालया(न्) ॥१५॥ कल्पामात्योऽष्टाहिकास्त्रि, समगात् सपरिच्छदः । जिनेशाज्ञाधृतच्छत्रः, पर्वराजप्रसन्नदृग् ॥१६।। तदोत्पन्नविवेकेन, ग्रामेष्वमारिघोषणा । घोषिता साहिकपूर-णाऽधिगम्य प्रभावना(म्) ॥१७|| अभयेन्दुगणजिद्भयां, कल्पपुस्तकमुत्तमम् । नीत्वा स्वीयालयं भक्त्या, रात्रौ जागरणं कृतम् ॥१८॥ [सु]प्रभाते हयस्कन्धे, न्यस्य कल्पसुपुस्तकम् । सस्मरध्वजघोषेण, घोषिताम्बरडम्बरम् ॥१९॥ समानीयाऽथाऽस्मत्पाणौ, दत्तं श्रीसङ्घपर्षदि । व्याख्याभिर्दशभिर्व्याख्या, विहिता सुप्रभावना ॥२०॥ पर्वाह्नि द्वादशशतं, सूत्रितं साधुसूत्रतः । मुनिना दीपचन्द्रेण, वितन्द्रेण स्वधर्मसु ॥२१।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ २३७ तपोऽधिकारेदशोपवासा दशभि-रष्टौ षट्दशभिस्तथा । एकेन पञ्चदश च, पञ्च विंशतिभिः कृता ॥२२।। घनैः कृतं तपः षष्टं, शतसङ्ख्याभिरष्टमम् । कर्पूरेण रूप्यमुद्रा, प्रत्ता सर्वतपस्विनाम् ॥२३।। प्रत्तं तेन रूपकैकं, प्रतिवेश्म सधर्मिणाम् । प्रत्ता लभ्यनिकाऽन्यैश्च, पेटक-मोदकादिका ॥२४॥ पारणाधिकारे - आषाढचतुर्मासकपारणा मन्त्रिणा गोडीदासेन, दशकस्य साहि गगलकेन, वृद्धपाक्षिकपारणा अभयचन्दलहुजित्केन, दशकस्य सा. सूरा लालजितकेन, तेलाधरस्य पारणा सा. धर्मचन्द-कुंवरजिद्भयां, दशकस्य बाईकेशरकया, श्रीपर्वपारणा सा. गणेश कपूरकेन, दशकस्य वेणीअद्दासञ्झेन च कारापिता । एवं पर्युषणापर्व, सर्वसत्त्वसुखावहम् । सुखमाराधितं श्रीमद्-देव-गुर्वोः प्रसादतः ॥१॥ भवद्भिरपि तत्रत्य-धर्मकृत्यनिवेदकम् । पत्रं सम्प्रेष्य सम्मोद्य-मस्माकं मानसं पुनः ।।२।। अत्रत्यानां वा.श्रीदानचन्द्रगणि, पं. श्रीविमलचन्द्रगणि, मुनि जयचन्द्रगणि, मुनि सुमतिचन्द्रगणि, मुनि दीपचन्द्रगणि, मुनि वल्लभसागरगणि, मुनि ज्ञानसागरगणि, मुनि हितसागरगणि, मुनि गुलालचन्द्रगणि, मुनि राजचन्द्रगणि, मुनि धिरंमीठाचंदजी प्रभृतीनां नत्यनुनतिर्छया । सङ्घस्य धर्मलाभो लाभ्यः । तथा तुम उत्तम योग्य गरढा पाटभक्त छौ । सदवसरै वीसरता नथी तुमनें श्रीनांदसमा गुढलानौ आदेश छै, ते प्रीछजौ। शिष्य-साधवी सर्वनैं साता पूछवी। वलता पत्र संभारी लिखवा ॥ माह सुदि १३ श्री अचलगच्छे श्रीनान्दसमानगरे-वा.श्रीमेघराजगणिवरेषु श्रीपर्वपत्रम् ।। -x Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ संवत् १७७९ आषाढादि ८० वर्षे श्रीअञ्चलगच्छेशपूज्यश्रीविद्यासागरसूरीश्वरविजयिराज्ये श्रीपर्वतिथिटीपचैत्र सुदि ८-१५ सोमे आसो वदि ८-०) भोम वैशाख वदि ८-०) भोमे सुदि ८-१५ बुधे ३ सुदि ८-१५ बुधे काती वदि ८-०३ गुरौ ज्येष्ठ वदि ८-गुरौ ०)-बुधे १ सुदि ८-शुक्रे १५-गुरौ ४ सुदि ८-१५ गुरौ मागशिर वदि ८-०) शुक्रे आषाढ वदि ८-०) शुक्रे - सुदि ८-१५ शनौ सुदि ८-१५ शनौ पोस वदि ८-०) रवौ श्रावण वदि ८-रवौ ०)-शनौ २ सुदि ८-१५ सोमे सुदि ८-१५ रवौ माघ वदि ८-०) भौमे भाद्रपद वदि ८-०) सोमे सुदि ८-बुधे १५-भौमे सुदि ५ शनौ श्रीपर्व फाल्गुन वदि ८-०) बुधे सुदि ८-१५ भौमे सुदि ८-१५ गुरौ चैत्र वदि ८-०) शुक्रे । सोमे . मासखमण -x नेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर, सूरत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ २३९ (५८) श्रीनागेश्वरभट्टंप्रति श्रीवृद्धिविजयेन प्रेषितं पत्रम् स्वस्तीन्दिरा-गिरांदेव्यौ, यत्र द्वे अपि तिष्ठतः । विरोधिन्याविदं चित्रं, तं नत्वा परमेश्वरम् ॥१॥ भ्राजतेऽभ्रंकषा यत्र, गुर्वी हर्म्यपरम्परा । स्थिता अपि न यत्कूणे, ज्ञायन्तेऽष्टापदादयः ॥२॥ नवं धनं पुण्यवदालयेषु, न बन्धनं यत्र सपत्नचक्रात् । नवा रणाः सद्मसु वाद्यराशे-र्न वारणालेगणनं हि शक्यम् ॥३॥ छत्रेष्वेव तथा दण्डो, धम्मिल्लेष्वेव बन्धनम् । जडभावस्तथा वाप्यां, विवाहे पाणिपीडनम् ॥४॥ वक्रता वनिताभ्रूषु, पद्मस्तोमः सकण्टकः । चञ्चलाश्च ध्वजा एव, न चकोरीदृशः पुनः ॥५॥ मर्दनं पुष्पशय्याया, मधुपाश्च मधुव्रताः । कुरङ्गा हरिणा एव, सपङ्काश्च सरोवराः ॥६॥ दोषागमो रजन्यां च, काठिन्यं कुचयोस्तथा । देवालया विहाराश्च, न तु स्त्रीहृदयालयाः ॥७॥ व्यसनं धर्मकृत्येषु, यत्राऽन्यत्र न तिष्ठति । तत्र ब्रनपुरे नाको-पमाने विबुधाश्रये ॥८॥ श्रीमद्दशपुराद् भावा-दमन्दानन्दमेदुरः । वृद्धयादिविजयः प्रीति-पत्रमारचयत्यदः ।।९।। ॥ अपरम् ॥ शमिहाऽस्ति प्रभोध्येय-नामध्यानानुभावतः । आर्यवर्यवपुःसौख्य-लेखः प्रेष्योऽधुना मयि ॥१०॥ नेत्रानन्दकराः सुदर्शनधराः सर्वाङ्गिचेतोहराः । सल्लावण्यपराः प्रणाशितदराः कारुण्यपुण्याङ्कुराः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ षट्शास्त्रे विदुरा विचारचतुरा विश्वग्यशोभासुराः । राजन्ते जगतीतले सुमतयो ते भट्टनागेश्वराः ॥११॥ यत्कीर्त्तिः कल्पवल्लीव, मेरुदण्डमवाप्य सा । तथैव विस्तृता नूनं, न ममौ विश्वमण्डपे ॥१२॥ यस्य प्रतापतपनो, द्योतयन् जगतस्त्रयम् । प्राज्ञचेतोम्बुजोल्लासी, नाऽस्तमेत्यद्भुतं महत् ॥१३।। सहस्ररसनः शेषः, सहस्राक्षः पुरन्दरः । यदीयप्रगुणान्मेने, वक्तुं द्रष्टुमभूदिति ॥१४॥ नमस्कारोऽवसेयस्तै-र्मदीयो द्विजपुङ्गवैः । वाच्यो मदनभट्टानां, सुहृदां च विशेषतः ॥१५।। अनल्पानि मया पत्रा-ण्यतः श्रीमत्क्रमाम्बुजे । प्रेषितानि पुनर्नागा-दार्याणामेकपत्र्यपि ॥१६।। तथा कृपाप्रतानिन्यां, भाव्यं जीमूतवत्सदा । मदुचितं च कार्यं सत्, प्रसाद्यं पण्डिताधिपैः ॥१७॥ भावत्कोऽस्मीति विज्ञेय-महमेतद्धाधिपैः । किं बहुना बहुज्ञेषु, वचसां रचनाऽधुना ॥१८॥ वलमानं तथा पत्रं, प्रसाद्यं मन्मनोमुदे । त्वरया लिखितं पत्रं, कार्तिकीपञ्चमीदिने ॥१९॥ इति श्रेयः श्रेणिः ॥ श्रीः ॥ -x नेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर सूरत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २०१३ पूर्ति अनुसन्धान - ६०, विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क खण्ड - १मां प्रकाशित १७ पत्रो पैकी पत्रक्रमाङ्क १, ५, ७, १० अने १७ आ पूर्वे विज्ञप्तिलेखसङ्ग्रह (सं. मुनि जिनविजयजी) मां अनुक्रमे ९, १८, १५, १६ अने १९मा क्रमाङ्के प्रकाशित थया छे. आ पत्रो अनवधानवश अत्रे पुनःप्रकाशित थया छे. आ पांचे पत्रोनी अनुसन्धानगत अने विज्ञप्तिलेखसङ्ग्रहनी बने वाचना मेळवी जोतां घणा पाठान्तरो मळ्या. अमुक जग्याओ अनुसन्धाननो पाठ योग्य लाग्यो, तो केटलांक स्थाने विज्ञप्तिलेखसङ्ग्रहनो पाठ अर्थसंगत भास्यो. घणां स्थळे बने वाचनाना पाठ अर्थसंगत बनी शके तेम लाग्युं. थोडांक स्थान अवां पण हतां के निर्णय करवो मुश्केल बने. पत्र - १ 'लेखराजहंस' मां तो पाठोनी योग्यता - अयोग्यतानो निर्णय करवो खरेखर अघरो छे. तेथी आ पत्रनी वि. ले.नी वाचनामां जे जे पाठो अनु. थी भिन्न छे ते तमाम पाठोनी अत्रे एकसा नोंध करी छे. अन्य पत्रोनी पाठनोंधमां बे विभाग कर्या छे : १. जे पाठ अनु. नी वाचनामां सुधारवा जेवा छे २. वि.ले.ना जे पाठ वैकल्पिक लागे छे, मतलब के अनु. अने वि.ले. बनेना जे पाठ अर्थसंगत लागे छे ते पाठ. वि.ले. गत अशुद्धि के सामान्य पदच्छेदना तफावत अत्रे नोंध्या नथी. अनुसन्धान- ६० पत्र १ लेखराजहंस्य विज्ञप्तिलेखसङ्ग्रहगतवाचनाया भिन्नपाठसूचिः *श्लोकःपङ्क्तिः २ १ १ २ २ ३ ३ ४ पाठ: ० प्रकरझर भरो० ० श्रीपृष्ठभासः दत्तुकामा प्रभव० निजदृशौ (शा) Jain Educationa International - - श्लोकः पङ्क्तिः २ ४ ४ ४ ४ ५ ६ २४१ पाठ: ० शुद्धमनसां किमपि तत्तेजो० For Personal and Private Use Only सद्यस्तमः ०भजत् स्वस्मिन् * *आ श्लोक अने पङ्क्तिक्रमाङ्क अनुसन्धाननी वाचनाना छे, ज्यारे पाठ वि.ले. नो छे. मतलब के अनुसन्धाननी वाचनामां ते ते श्लोकनी ते ते पङ्क्तिमा विज्ञप्तिलेखसङ्ग्रहनी वाचना केवो भिन्न पाठ धरावे छे ते अत्रे दर्शाव्युं छे. Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ श्लोकः पङ्क्तिः पाठः श्लोकः पङ्क्तिः पाठः ७ १ ०साद्यतां वन्द्यतां ४४ २ तत् समेऽर्हन् ८ १ ०बहुरूपिणां ४५ ४ चमरम् १० १ ०श्रीप्रतिपूर्णतां ४७ १-२ ०दानन्दप्रदप्रास्तमहद्भय ११ १ ०जन्मवदना ४७ ३ यन्नप्त(?) स्तुति० १२ १ परिणमक्ष्मापैः ४८ १ जयश्रीस्तत् १२ ३ न हि तेनोकैः ४८ ३ दरभूच्छायसङ्घात० १३ २ परिमृज्य सम्मुख०. १ ०करपङ्कज ! १४ ३ ०त्तमोनाशिका ४ विबोधकृत् १५ २ सतां यतिमतां ५४ ३ रक्ष ततोऽरभिद्धी(द्वी)र १५ ४ रागः संस्तुवतां ५४ ४ ०मनदत्त स १६ १ स्वस्तिश्रिया ५५ १ जप दासे० १७ ४ . ०रनन्यथा स्यात् ५५ ३ दादी( दा?)नघ! २ बाह्यां किमाह्वाम् रमादेवी ३ पश्चादा[द]च्चोरवत् ५५ ४ सेनघनवरप्रभः २५ २ पङ्कजत्वम् । ५६ १ येन वृता २७ ४ ०मीते तदादि ५६ २ सिद्धिगामिनी ३० २ तन्नः सिद्धि० ५६ ३ तप्तदुस्ताप ३० ४ ०माहात्म्यभाजः ५७ १ विपक्षौघा ३३ १ स वज्रप्रमुखान् ६० २ जितशुण्डां(ण्ड) लस० ३७ ३ ०रक्तात्मिजन० ६० ३ भक्तियुग भवि० ३८ ४ स कार्पट्यधरः ६२ २ स्तत् त्रैशलेयं ३९ १ जिनाधिपानां कल०६४ ४ हरमरं ३९ २ भुवने त्वदीयम् ६६ १ नमतं तेन ४१ २ गणास्तु यन्न: ६६ ३ भिन्नं मानव० ४१ ४ ०जडाशयं तत् ६६ ४ सन्नयनं जन ४२ ३ परमश्रीप्रदं ६७ २ ०भीतिनीतिः ४४ १ जंजनीतु ततं ६८ १ ०कृन्नक्रवास[:] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ २४३ श्लोकः पङ्क्तिः पाठः श्लोकः पडिक्तः पाठः ६८ २ पातपाच्छी ६८ ४ सर्वज्ञः प्रत्नसातः । ६९ १ ०समानमानः । १ ०कारिणी परा १ ०मेत्य तां पुरं ८१ ४ त उदीत्वरश्रियः ८२ १ न गरीयनगरी० ८२ ४ श्रीमहिमा ८३ २ ०ब्रह्माण्डहत ८७ १-२ पताकयाऽऽवृणते ८७ ४ स्म लज्जया ८८ ३ यन्निलयाः ८९ ४ वृणते ९१ २ गैरिकोद्घटित ९४ ४ व्यजनन् १०२ ४ परिलुब्धिः १०९ (पहेलां) यस्यां११२ ४ ०पयोधराः ११४ ४ रामालिवत्पत्रभृदस्त्य नामा ११५ १ मही या संशया० ११५ २ श्रीदललद्दशा ११६ १ ०कोट्याढ्यनीरं ११६ ४ लग्नोद्यद्धृङ्गव(?) लाद्वर ११७ ३ उत्फुल्लकुसुम० ११८ १ ०मुन्महः श्रि ११९ १ ०द्यद्यत नः स सम्पत् १२० ३ वरं रमाभा ललना हि १२१ १ ०समो महस्वी गाङ्गा० १२१ ३-४ मोददो दोषभेद १२१ ४ एष भाति १२२ ३ त्यजद्वान्तभरं १२४ १ दैवतेन्दुमुखी १२४ ३-४ ०राजिश्रीयंत्रा० १२६ १ श्रीमति नगरे १२७ ३ यत्र विभान्ति १३४ २ ०शिशुः प्रबर्हाम् १३६ २ ०कृत्यकृत्यैः १३८ २ ०पादपदोपघातैः १३९ १ ०तालताली १३९ २ ०क्वणितप्रसारैः १४० १ घरट्टसङ्घट्टन० १५० २ जायते च (स्म) निर्विघ्नम् १५१ ४ प्रद्युम्नरिपुर्जनाः १५१ ४ वितन्वन्ति काम् १५१ ५ ०तमानन्दता १५४ २ ०रुणसमं समता १५७ १ ०न्यत्कारिसुकरं १५८ १ ०चारनिकर १५८ ३ ०कल्कहरं १६९ १ मधुकृत्स्थिति० १७२ १ गुरुतापारकूपारं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ له له سه श्लोकः पङ्क्तिः पाठः १७७ १ प्रभो ! प्रास्त० १७७ २ ०चातुरी तेतिचन्द्रा १७८ ३ प्रत्तसंसार० १७८ ४ कन्त(कं त)द्रयालि- प्रकप्रः(म्प्रः) १७९ २ ०मायेभसिंहम् १७९ ३ महायःस्फुर० १८२ ३ ०पयोजे ममैवं १८३ १ हतानन्त० १८७ ४ ०द्यत्प्रदीपम् १८९ २ जनौघामित १९१ ४ ०स्येह मद्राम्बुज० १९१ पछी द्वितीयमध्यमणिः १९२ १ तमोनुन्नपाशं १९४ २ प्रत्ततन्वस्वधैर्या० १९४ ४ समक्रीडित० १९६ १ ०महद्ध्वनिः १९८ १-२ ०गीतवरा० १९८ ३ घनाघनारावं १९९ ४ सुममं सुगम् २०० १ नंनममत्यसा पापं २०० ३ गच्छमंदम्भसम्भार २०१ २ ०प्रमाददनोऽज्ञपः २०१ ३-४ ०समत्वश्रीश्रीसम्भारं २०३ १ नतमादं श्लोकः पङ्क्तिः पाठः २०३ ३ तत्त्वभृत् त्वां २०५ १ ०प्रभादक्ष २०५ ४ ०तुष्टिपुष्टी भव० २०६ १ नवसद्व(द्ध)नकं २०६ ४ परमसत्यन २०८ २ ०मनामयम् २०९ २ समनिर्भरम् २०९ ३ सदंहतापायं २१० २ गुणवद्गुरु० २१० ३ दमी ननदरः २११ १ नम मीमं न दामीमं २११ ३ मीमाभतारयो २१२ १ ०वासवनाङ्गन २१२ २ ०समधीरतः २१२ ३ सद्दान २१६ ४ ०शर्मप्रदः २१७ २ तेऽमला कामदुर्मदान् २१७ ३ दीनो हन्त्येव २१८ २ ०क्षमनमनमं २१८ ४ रङ्गज्जम्पत्पतत्सद्द० २१९ २ गतालयः २१९ ३ दत्तां निस्तार० २२० २ छिन्द्याद् २२१ १ ०मुदा तारं २२१ ३ यशोध:सुनुता० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून - २०१३ २४५ श्लोकः पङिक्तः पाठः श्लोकः पङ्क्तिः पाठः २२१ ४ सन्याय० २२२ १ यतनाश्री० २२२ १-२ नाऽद्यारजभोघ २२३ ३ प्रतमानय २२४ १ सद्गतसन्नामा २२४ ४ हरनूत ! जनप्रभो ! २२५ १ रुग्धी दारवं २२६ १-२ रम्याऽतिप्रभाकाभ २२६ ३ ०न्यायदो यः स २२६ ४ युग्मम् । परिधिः । २२७ ४ ०कलाभृतम् २२९ १ नागगुणकलावामं २३० ४ दायकं नायकं २४५ २ दिक्षु सत्प्रभाम् २५० ३ श्रीस्थिरासूनुं २५२ २ ०जनवातशरण २५६ ३ काष्ठौघकंस० २६० २ ०जले तूर्णम २७१ १ आनमेन० २७३ ३ सद्रासम० २७५ ४ ०पवैणवं २७६ ४ कृपैकपुत्री २७८ २ प्रसादनीया २८५ २ ०नाम निन्द्यवृ० २८८ २ हारि[सु]विशदरदानाम् २९१ ४ ०कारिवचनानाम् २९७ २ ग्रामवेदमास० ३०० २ ०सज्ञकगणी० ३०३ २ चाम्पर्षेर्वृद्धि० श्लोक १७३ 'षट्पदी' छे. पण वि.ले.सं. मां आने दोढ श्लोक गणी अडधो श्लोक छूटी गयो छे अम छाप्युं छे. वळी श्लोक १९७ 'हरिणी' छन्दमां छे. पण वि.ले.सं.मां तेने बे 'अनुष्टुप्' तरीके छाप्यो छे. तेथी वि.ले.सं. मां कुल बे श्लोक वध्या छे. वि.ले.सं. मां श्लोक २०९ (नसममहं) पहेलां छे अने त्यारबाद २०८ क्रमाङ्कनो (नरौघा०) श्लोक छे. वि.ले.सं. मां श्लोक ३०४-३०५, ३०६ नो पूर्वार्ध, ३०७-३०८, ३१०३११ नथी. तेमज 'इति लेखक०' वाळी अन्तिम पङ्क्ति पण नथी. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ अनुसन्धान-६१ : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड २ अनुसन्धानगत-वाचनायाः शुद्धिपत्रकम् पत्रम् - ५ श्लोकः पङ्क्तिः शुद्धिः १२ ४ प्रकटप्रभावम् ५१ ४ ०कीवाऽऽम्बर० ७५ २ निपुणाः पत्रम् - ७ श्लोकः पङ्क्तिः शुद्धिः १० २ भवतोऽहिलीनाः १४ ३ खरांशुता० २ ०दौःस्थ्यवृक्षाः ३ तं तीर्थनेतार० ३ गृहे प्रदीप्रै० ३७ ३ वर्णिनीनां ४० ३ विनयनतः । ४२ ३ सातिशयं सौवा० ८६ ३ ०बहुले पक्षे पत्रम् - १० श्लोकः पङ्क्तिः शुद्धिः १८ ४ व्यावण्र्ये ४२ ४ वर्षन्तेऽभ्रा यदीरिताः ५० ३ एतेषां ५१ ३-४ श्रीमतोऽनघसङ्घस्याऽ वधार्या वन्दना पुनः प्रशस्तिः पूज्याराध्य पत्रम् - १७ श्लोकः पङ्क्तिः शुद्धिः ३ २ ०कलुषा विकलङ्क० १६ ४ तमसां ३ ०वुपास्य जगती० १ स्वविमान ३ प्रासादद्वय० ___३१ ४ ०पतिर्दीप्यत्प्रतापो० ३४ १ ०मालपुर० ४५ ३ ०सम्पदा ते ०वान्न कलङ्कतां ४९ १ ०लोचन ! - ७१ १ ०राजमानाः ७२ १ ०सच्छ्लोकाः اسم الله الله له له سه Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जून २०१३ ३० ३८ ३९ ४७ पत्रम् - विज्ञप्तिलेखसङ्ग्रहगतपाठान्तरसूचिः * श्लोकः पङ्क्तिः ४ ३ नव्यभव्य० ६ ३ मितदुभयं (?) १२ २ प्रमुदा नितान्तम् २३ १ श्राद्धी ततः २३ १ • लतेव यत्र २४ २ ० मीप्सितार्थ० २७ १ कलशैर्वृतानि • वसुधाऽऽदर्शे २८ १ ४ ३ २ २ विशदीप्रकुर्वन् ५० ३-४ ० सप्तीभाजिष्णु ५९ १ ५९ २ ५९ २ ६२ १ ६५ १ ६६ ३ ७२ २ ५ पाठ: प्रपूर्णमुक्ति० प्रश्रुताध्यापनं ०पाक्षिकापारणानि Jain Educationa International ० मौलिविगलद्गङ्गा० ० कन्यकोत्कुच० व्हाराकृति: ०महिमचयं ० प्रध्वंसमीक्ष्येव जिह्वासहस्र० ०द्यनघगुण० ७३ ८२ ८५ ८८ ३ १ १६ २६ ४८ श्लोकः पङ्क्तिः १ ३ ४ ४ २ यदिह क्षुण्णं पत्रम् ७ ५२ ५७ ६५ ६९ ४ पाठ: ४ विलसत्पृथ्वीव ३ सल्लक्ष्म्येकसुके० ४ १ ३ ०वासं व्यरचत् वि० १ इत्यादिदिनकृत्यानि १-२ ३ ३-४ श्रीमद्धन [दि] विजया लब्धिविजयाश्च गणयो ०म्बुजरुहयुगं सीतक्लेश० यदिष्टदाना० पत्रम् १० For Personal and Private Use Only २४७ ० वराष्ट्राहपक्ष० आद्यं चिदानन्द० ०तीश ! जह्यान्मे सूरिराजाम् - श्लोकः पङ्क्तिः पाठ: १ २ पादपद्म० ३९ ३ दधन्ते परम्रा० ०ज्ञातसेवकाः ४७ २ *आ श्लोक अने पङ्क्तिक्रमाङ्क अनुसन्धाननी वाचनाना छे, ज्यारे पाठ वि.ले. नो छे. मतलब के अनुसन्धाननी वाचनामां ते ते श्लोकनी ते ते पङ्क्तिमा विज्ञप्तिलेखसङ्ग्रहनी वाचना केवो भिन्न पाठ धरावे छे ते अत्रे दर्शाव्युं छे. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ श्लोकः पङ्क्तिः १ ३ पत्रम् श्लोकः पङ्क्तिः २ २ २ ३ ३ ४ ७ ८ a ९ १४ २३ १७ Jain Educationa International अनुसन्धान - ६१ : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड २ नो धीयते ०रमभाः स नाथं कृतं ब्रह्म० प्रणं नेमिनाथं देवदेवो पाठः भवतिभृत्कृत्या० पाठ: ०दीशितरं कदम्भात् व्यपनय स्वजगत्प्र० ३ १ २ २ तत्पक्षता शरण० २ ० मिन्दुतोच्चैः २ व्ययमूषितश्रीः १ ४ १ ० परीष्ठितोऽत्र ० कलुषाधिकलङ्क० ० हतिवित्ततां तां मेन उद्यम् ० गतत्रिरेखा ० २४ २५ २६ २६ २६ ३ २६ ४ २६ ४ २८ २ २९ २ ४२ ४ ४८ ३ ४९ ३ ५६ १ ६३ ३ ६८ ४ ८० २ २ ३ १ २ बाभजत्यु० ० मानसाब्जः ०त्तमोऽद्वल० सार्वौकसां For Personal and Private Use Only ०ध्यानानुभावतः हिमांशुः सदा ऽद्याऽपि व्रतैर्जितः जनवीरा अनुसन्धानने डिभिटस (PDF) स्व३ये आप વાંચવા (નિઃશુલ્ક) ઇચ્છતા હો તો નીચે ४ए॥वेस E-mail ID पर आपनो संदेशो मोडलशो. sheelchandrasuri_darshan@yahoo.com विकलोद्यतेन्दुं नवाम्बुदस्येह ०यामलं सदा Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only KOZOROVO PORNOLNa (उपा. भुवनचन्द्रजी द्वारा मळेल जोधपुरना एक सचित्र विज्ञप्तिपत्र- एक दृश्य, जेमां श्रीनाथजीनुं स्वरूप तथा मन्दिर अङ्कित छे. सौजन्य : राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान). Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (उपाध्याय श्रीयशोविजयजीना हस्ताक्षरनो विज्ञप्तिपत्र : जुओ पृष्ठ 96) आरास्वनीकारकरविकी लगातभनिन्चरत्रनाम स्स्यपदधलनदिबिबमेन लेदानाककानोमनाना२.स्वास राजानरचनलहिला सरकारकोनिचलानेोदि सादधमनकाहनाजोन्न जयतिम्बरशमला नभानुमित्रांतराने अघप्रा देशातजनमानेकातनता तमनापुरम्हादा,किमपिन ननचित्र प्रणिदबेसळम नावानेहमतंत्रअयतिजना 1सयाकाराश्षत्रियः, बासरीवाल नफलाई चियापच जातकाकारकालंकारमा गोविमधिरज माने। कारे१२यदहचटिकालय १३दीपकसम लय निवारणानपान४ताब जानाजाजताया ताकप मकवाया५५६तिनावी सामोरासुर माक्सवाश:पवयुका पानियोगहेश्यम कार मुरकुमारयनि मितेःसम्माचरनवे कळायपरिश्रयाजामहै। २स्वापायनियर: महासुरवाता:उपाये नीतिमेवंक्रमागते२६चत्र कामाकर्मतीच्या श्रीज्यपादाभोलाव