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________________ 24 (बृहस्पति) होवा छतां कवि (शुक्राचार्य) ना प्रेमपात्र', आ केवो विरोध ! गुरु अने शुक्रने बने ज नहि, एवी लोकोक्ति छे, तेनो केवो मजानो अहीं विनियोग थयो छे ! तो त्रीजा पद्यमां त्रीजा चरणमां 'मुक्ताजालैर्निजरथपतत्तृप्तिहेतोर्विधात्रा' ए पदोमां 'पतत्' शब्दनो 'पंखी' परक उपयोग पण विलक्षण थयो छे. वात एम छे के नेमिनाथे ज्यारे पाञ्चजन्य शङ्ख फूंक्यो त्यारे विधाता - ब्रह्माजीए तेना नादने सहन केम करी लीधो हशे ? 'ओंकारश्चाथ - शब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा । कण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ" • ए रीते प्रसिद्ध 'आदिब्रह्मध्वनि' जेवा के तेनाथी चडियाता आवा नादने विश्वविधाता कदी बर्दाश्त करे ज नहि; छतां कर्यो, एनुं कारण ए छे के ते शङ्खनादथी क्षीरसागर खळभळ्यो, तेनां आभऊंचां उछळेलां मोजांमां छीपो पण ऊडी, तेमांथी मोती उछळ्यां, ते मोती सीधां विधाताना रथने वारा पंखी राजहंसना मुखमां पड्यां; पोतानुं भावतुं भोजन आम मळी जवाथी ते हंस प्रसन्न/तृप्त थयो, अने ते जोईने विधाता पण ते शङ्खनादने खमी गया ! आ तो कविकल्पना थई. हवे तेमनी तात्त्विक प्रतिपादन - रीति पण जोईए : पद्य ८मां तेमणे जिनप्रवचननुं वर्णन करतां, अन्य विविध दर्शनोए प्रमाणेला शब्दो (तात्त्विक पदार्थों) ने वणी लीधा छे : " सहजमल, दिदृक्षा, वासना, जन्मबीज, प्रकृतिविकृति, माया, अदृष्ट". आ बधां ज वानां 'अतन्त्र' अर्थात् निरङ्कुश छे, तेनो नाश करवो शक्य / सहज नथी; परन्तु जिनप्रवचन ते तमामनो नाश करवानुं व्यवस्थातन्त्र धरावे छे, केमके ते सर्वतन्त्रोमां प्रतिष्ठितप्रसरेलुं छे. आ तो जोके शब्दार्थ ज थयो गणाय; पण विशेषज्ञो आनां गहन रहस्यो जरूर वर्णवी जाणे छे. वर्गवटी मूळे तो 'स्वर्गवाटी' छे, पण लोको तेने अमुक अक्षर तथा मात्राथी भ्रष्ट करीने हुलामणां / अपभ्रष्ट नामे बोले छे. (पद्य १० ). गच्छपतिनुं वर्णन समग्रतया करवाने बदले फक्त तेमना 'हस्त - हाथ 'नुं ज वर्णन ८ पोथी कवि करे छे, ते पद्यो पण केवां अर्थघन तथा रोचक छे ! व्याख्यानमां पहेलां धर्मबिन्दु अने पछीथी उपदेशपदनुं वांचन, स्वाध्यायमां आचाराङ्गादिसूत्रोनो नित्य - मुख-पाठ, न्याय वगेरे - दर्शनोना ग्रन्थोनुं परिशीलन (२३-२४)चालतुं होवानुं निवेदन तेमनी स्वाध्यायप्रवृत्ति प्रत्ये संकेत आपनारुं छे. २५ अने २६मां पद्यो बहु मार्मिक जणाय छे. उपाध्यायजी प्रत्ये केटलाक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520562
Book TitleAnusandhan 2013 07 SrNo 61
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages300
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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