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(बृहस्पति) होवा छतां कवि (शुक्राचार्य) ना प्रेमपात्र', आ केवो विरोध ! गुरु अने शुक्रने बने ज नहि, एवी लोकोक्ति छे, तेनो केवो मजानो अहीं विनियोग थयो छे ! तो त्रीजा पद्यमां त्रीजा चरणमां 'मुक्ताजालैर्निजरथपतत्तृप्तिहेतोर्विधात्रा' ए पदोमां 'पतत्' शब्दनो 'पंखी' परक उपयोग पण विलक्षण थयो छे. वात एम छे के नेमिनाथे ज्यारे पाञ्चजन्य शङ्ख फूंक्यो त्यारे विधाता - ब्रह्माजीए तेना नादने सहन केम करी लीधो हशे ? 'ओंकारश्चाथ - शब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा । कण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ" • ए रीते प्रसिद्ध 'आदिब्रह्मध्वनि' जेवा के तेनाथी चडियाता आवा नादने विश्वविधाता कदी बर्दाश्त करे ज नहि; छतां कर्यो, एनुं कारण ए छे के ते शङ्खनादथी क्षीरसागर खळभळ्यो, तेनां आभऊंचां उछळेलां मोजांमां छीपो पण ऊडी, तेमांथी मोती उछळ्यां, ते मोती सीधां विधाताना रथने वारा पंखी राजहंसना मुखमां पड्यां; पोतानुं भावतुं भोजन आम मळी जवाथी ते हंस प्रसन्न/तृप्त थयो, अने ते जोईने विधाता पण ते शङ्खनादने खमी गया ! आ तो कविकल्पना थई. हवे तेमनी तात्त्विक प्रतिपादन - रीति पण जोईए : पद्य ८मां तेमणे जिनप्रवचननुं वर्णन करतां, अन्य विविध दर्शनोए प्रमाणेला शब्दो (तात्त्विक पदार्थों) ने वणी लीधा छे : " सहजमल, दिदृक्षा, वासना, जन्मबीज, प्रकृतिविकृति, माया, अदृष्ट". आ बधां ज वानां 'अतन्त्र' अर्थात् निरङ्कुश छे, तेनो नाश करवो शक्य / सहज नथी; परन्तु जिनप्रवचन ते तमामनो नाश करवानुं व्यवस्थातन्त्र धरावे छे, केमके ते सर्वतन्त्रोमां प्रतिष्ठितप्रसरेलुं छे. आ तो जोके शब्दार्थ ज थयो गणाय; पण विशेषज्ञो आनां गहन रहस्यो जरूर वर्णवी जाणे छे.
वर्गवटी मूळे तो 'स्वर्गवाटी' छे, पण लोको तेने अमुक अक्षर तथा मात्राथी भ्रष्ट करीने हुलामणां / अपभ्रष्ट नामे बोले छे. (पद्य १० ). गच्छपतिनुं वर्णन समग्रतया करवाने बदले फक्त तेमना 'हस्त - हाथ 'नुं ज वर्णन ८ पोथी कवि करे छे, ते पद्यो पण केवां अर्थघन तथा रोचक छे !
व्याख्यानमां पहेलां धर्मबिन्दु अने पछीथी उपदेशपदनुं वांचन, स्वाध्यायमां आचाराङ्गादिसूत्रोनो नित्य - मुख-पाठ, न्याय वगेरे - दर्शनोना ग्रन्थोनुं परिशीलन (२३-२४)चालतुं होवानुं निवेदन तेमनी स्वाध्यायप्रवृत्ति प्रत्ये संकेत आपनारुं छे. २५ अने २६मां पद्यो बहु मार्मिक जणाय छे. उपाध्यायजी प्रत्ये केटलाक
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