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लोकोने द्वेष हतो, अने तेमने हेरान करवामां आवता हता, ते वातो तो अजाणी नथी ज. उपाध्यायजी समर्थ अने सक्षम व्यक्ति हता; तेओ आ बधां अंगे फरियाद करे के ककळाट मांडे ते तो शक्य ज नहोतुं. परन्तु, आ पत्र लखी रह्या छे ते गाळामां, ते चोमासामां, तेमने घणी अडचणो आवी हशे, अने तेना निवारण माटे सबळ प्रयत्नो करवा पड्या हशे तेनो, तेमज विरोधीओए रचेला छेतरामणा प्रपंचोने कारणे समाजमां तेमना माटे प्रवर्तेलो दुर्भाव पण समय जतां नष्ट थईने सद्भावमां फेरवायो हशे, तेनो संकेत आ बे पद्योमा मळे छे.
___ सम्भवतः पर्युषणमां पण तेमने कनडगत वेठवी पडी हशे, अने केटलीक चर्या छाने छाने पण पताववी पडी हशे एवं सूचन, 'छन्नप्रकटभावेन सर्वः सत्यापितो विधि:' (पद्य २७) ए वाक्यथी थतुं जणाय छे. पोते कांईज सिद्धान्तविरुद्ध नथी कर्यु के छूपाव्युं नथी तेवू पण त्यांज तेओ जणावे छे. पद्य २८मां 'क्रमेलक (ऊंट जेवा) खल-दुष्ट लोकोनी अरुचि छतां मने कोई आंच नथी आवी' एवं निवेदन पण सूचक छे. पोते सफलता पाम्या तेना कारणमां प्रभुनी भक्ति अने गच्छपति-गुरुनी कृपा ज कारणरूपे छे तेम (पद्य २९) कहीने तेओ वात आटोपे छे.
आ पत्र मार्गशीर्ष वद तेरसे लखायेलो छे, ते पण सूचक छे, सम्भव छे के अगाउ लखेल पत्रनो उत्तर अथवा तो सानुकूल उत्तर न मळ्यो होय अने आ पत्र पुनः लखायो होय. अन्यथा पर्युषणनो पत्र मागशरमां न सम्भवे. अस्तु.
१६मो पत्र पण राजनगरथी लखायेलो छे, अने शुद्धदन्तनगरे (सोजत) स्थित गच्छपति विजयरत्नसूरि उपर लखायो छे. रत्नसूरि ते विजयप्रभसूरिना उत्तराधिकारी हता. पत्र १५मां पण तेमनो उल्लेख (३१) छे. आ पत्र पण यशोविजयजीना स्वहस्ताक्षरमां ज छे, ४० पद्यप्रमाण छे, अने एक साथे आ बन्ने पत्रो लखाया छे. केटलाक श्लोको बन्नेमां एकसमान छे. गच्छपति वगडीमां हशे त्यारे रत्नसूरि शुद्धदन्तमां हशे. धर्मबिन्दु, उपदेशपदनां व्याख्यानादि बधी वातो बन्ने पत्रोमां समान छे.
विजयरत्नसूरिना वर्णननां पद्योमां कविनी काव्यप्रतिभा तो ऊपसे छे ज, पण साथे तेमनी तर्कप्रतिभा पण सुदृढतया प्रगटी छे. पत्र मागशर वद १३ना लख्यानो उल्लेख आमां पण छे. बे पद्यो अहीं जोवायोग्य छ : पद्य १८मां
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