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आरम्भसिद्धिनुं अध्ययन, तथा वार्षिक पर्व अने तत्सम्बद्ध कर्तव्यो विषे जाणकारी आपे छे.
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चोथा चरणमां विज्ञप्ति, तत्रस्थ साधुओनां नाम अने वन्दनादि-निवेदन, स्वसहवर्तीओनां नामादि छे, अने दीवाळीए आ महादण्डक - पत्र रच्यानो निर्देश छे. पण तेमां शब्दचमत्कृति अने वर्णसगाईनो उपयोग असाधारण थयो छे. जुओ
" मण्डप, मण्डनीय, खण्डनीय, तमस्काण्ड, उद्दण्ड, पाखण्ड, चण्ड, प्रचण्ड, राजीवखण्ड...", तेमज "नियोग, वियोग, योग, उपयोग, प्रयोग, अभियोग, अनुयोग, भाग्यभोग..." इत्यादि.
अन्तिम पद्यमां दण्डकनुं स्वरूप दर्शाववापूर्वक पत्र पूर्ण थयो छे. एटलुं ज कहीश के आवी रचनाओ संस्कृत वाङ्मयनां महामूलां आभूषण छे. आवी रचनाओने 'आ तो पत्र छे' एवं कहीने उपेक्षा करवायोग्य नथी. अन्यथा 'मेघदूत' पण आम जुओ तो, एक पत्र ज छे !
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आ पत्रनुं ओळियुं (Scroll ) कविवर मुनिमित्र श्रीधुरन्धरविजयजी तरफथी प्राप्त थयुं छे.
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आ बधां
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सादडी (राजस्थान)थी मुनि मेरुचन्द्रे जीर्णदुर्ग-जूनागढमां विराजमान गच्छपति विजयप्रभसूरि उपर लखेल आ पत्र गद्य-पद्यात्मक छे, अने ते सामान्य क्रम प्रमाणेनी ज वीगतो धरावे छे; आमां कोई विशिष्ट काव्यवैभव वगेरे जणातां नथी. आ पत्र ला. द. विद्यामन्दिरथी प्राप्त थयेल छे.
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आ तमाम पत्रो तथा तेनी योजनानो क्रम वांचतां एक मुद्दो स्पष्ट थई जाय छे के मध्यकाळमां पर्युषण बाद- चोमासामां, गच्छनायकादि गुरुजनने आ प्रकारना पत्र लखवानो एक व्यापक चाल हतो. आमां, पर्युषणमां तथा चातुर्मास दरम्यान पोतानी निश्राए थयेल धर्मप्रवृत्तिनो हेवाल आपवानुं तेमज पोतानी भूलो बदल क्षमापना करवानुं प्रयोजन मुख्य रहेतुं. अनुषङ्गे बीजी पण विनंतिओ आ द्वारा थती. पत्रनो आ ढांचो मङ्गल, नगरवर्णन, गुरुवर्णन, स्वक्षेत्रवर्णन, कृत्यनिरूपण, वन्दन-विनय-निवेदन, तत्रस्थ - मुनिगण - नामादि, स्वसहवर्ती मुनिओनां नामादि लगभग सर्वस्वीकृत हतो. परन्तु तेमां पण पोतानी कल्पना शक्ति, काव्यप्रतिभा,
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