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रत्नसूरि अने उ. सौभाग्यविजयजीनुं पण नाम छे, ते जोतां आ पत्र सौभाग्यविजयजीथी अलग कोई अन्य उपर लखायो होवानुं मानवुं प्राप्त थाय छे. आ पत्र पूर्ण रूपे मळ्यो छे. आ पत्रनी जे० मुनि श्रीधुरन्धरविजयजी द्वारा प्राप्त थयेल छे.
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आ पत्र १९ अनुष्टुप् श्लोकात्मक छे. काव्यचमत्कृति के भाषावैभवने स्थाने आमां वृत्तान्त-निवेदन अने प्रत्युत्तर ए ज मुख्य वस्तु छे. स्तम्भतीर्थे विराजता श्रीज्ञानविमलसूरि, राजद्रङ्ग अर्थात् राजनगरे विराजता पोताना सम्भवतः पर्यायवृद्ध-गुरुभाई वाचक जीतविमलजीने, तेमना पत्रना उत्तररूपे आ पत्र पाठवे छे. लेखक आचार्य छे, ओटले वडील गणाय, ते अपेक्षाए आने प्रसादपत्री तरीके गणी शकाय; बाकी पत्रमां तेवो कोई निर्देश नथी. केटलाक रसप्रद मुद्दा
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श्रीसुखसागर पार्श्वनाथनुं देरासर तथा बिम्ब खम्भातमां हतुं अने छे, तेमने स्तवीने मङ्गल कर्तुं छे. लागे छे के ते काळे ते बिम्बनुं माहात्म्य विशेष हशे . आवश्यक-वृत्तिनुं व्याख्यान चालतुं होवानुं जणाव्युं छे. ते परथी ते समयना श्रोता जनो केटला प्रबुद्ध अने अभ्यासी हशे ते समजाय छे. पद्य ७मामां स्वर्णरूप्यादिमुद्राथी अङ्गपूजा थयानो पण निर्देश छे. आनो अर्थ ए छे के मध्यकाळमां केटलाक भगवन्तो अङ्गपूजा करवा देता हता, आजनी जेम करावता नहोता. 'अनुसन्धान'नां पृष्ठो पर पूर्वाचार्योनी आवी वातो छपायेली जोईने, पोतानी नवाङ्गी पूजा करावनारा लोको एम विचारवा मांड्या छे के अमने, आना सम्पादकोने पण आ वात मान्य छे; समर्थन कर्तुं छे. आग्रही बत निनीषति युक्ति० ए सुभाषित अहीं सांभरे. पोतानी मान्यता होय तेने साची ठेरववा माटे ज अयोग्य जनो युक्तिओनो/ सारी वातोनो उपयोग करे एवो तेनो अर्थ थाय छे. शाणा माणसोनो स्पष्ट मत ए छे के पूर्वना महान् आचार्योए जे कर्तुं तेने आधार बनावीने आपणाथी तेवुं ना ज कराय. ए महापुरुषोए जे साधना तथा शासनसेवा करी हती तेनो एक छांटो पण आपणे करवा शक्तिमान नथी. शासनप्रभावनाना आवरण हेठळ स्वप्रभावना अने ते माटे दम्भ-प्रपञ्च करवा सिवाय कांई आवडतुं न होय, अने छतां महापुरुषोनी आवी वातोना दाखला लईने पोतानी अङ्गपूजा करावीने अनर्थ - अनाचारोने पोषवा होय, तेवा लोको गमे ते माने, बोले,
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