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प्रज्ञापनासूत्रे
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रमश्च अवक्तव्यश्च २३ उताहो चरमाणि च अचरमथ अवक्तव्यानि च २४ उताहो चरमाणि च अचरमाणि च अवक्तव्यश्च २५ उताहो चरमाणि च अचरमाणि च अवक्तव्यानि च २६ एते षड्विंशति भङ्गाः ! गौतम ! परमाणु पुद्गलो नो चरमः, नो अचरमः, नियमाद् अवक्तव्यः, शेषा भङ्गाः प्रतिषेद्धव्याः ॥ सू० ४ ॥
टीका-पूर्व रत्नप्रभादिकं चरमाचरमभेदतः प्ररूपितम् अथ परमाण्वादिकं चरमाचरमादिभेदतः प्ररूपयितुमाह - परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं चरिमे ?' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! परमाणुपुद्गलः खलु किं चरमो वर्तते ? किं वा 'अचरिमे,' अचरमो वर्तते ! कि (उदाहु चरमाइ' च अचरमे य, अवत्तव्वए य) अथवा वहुत चरम, अचरम और अवक्तव्य है (उदाहु चरमाई' च अचरमे च अवत्तव्वयाइ' च) अथवा बहुत चरम रूप, अचरम और बहुत अवक्तव्य रूप है ? (उराहु चरमाई च अचरमाई च अवतव्वए य) अथवा बहुत चरम, बहुत अचरम और अवक्तव्य है ? (उदो चर - माईं च अचरमाईं च अवक्तव्वयाई च) अथवा बहुत चरम, बहुत अचरम और बहुत अवक्तव्य रूप है ? ( एते छन्वीसं भंगा) ये छव्वीस भंग हैं ।
( गोयमा !) हे गौतम ! (परमाणुपोग्नले) परमाणुपुद्गल (नो चरमे नो अचरमे, नियमा अवत्तवए) चरन नहीं, अचरम नहीं, नियम से अवक्तव्य है, (सेसा भंगा पडिसे हेयव्वा) शेष सगों का निषेध करना चाहिए ।
टीकार्थ- पहले रत्नप्रभा आदि भूमियों के चरम - अचरन आदि के विषय में विचार किया गया था, अब परमाणुपुद्गल के चरम - अचरम आदि का विचार किया जाता है
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श्रीस्वामी ! प्रश्न करते हैं - हे भगवन् ! परमाणु पुद्गल (१) क्या चरम है ? (२) अथवा क्या अबरन है ? (३) या क्या अवक्तव्य है ? इत्यादि रूप ચરમ, અચરમ અને અવક્તવ્ય (उदाहु चरमाई च अचरमे च अवत्तव्वयाई च) अथवा ઘણા ચરમ રૂપ, અચરમ રૂપ અને ઘણા અવક્તવ્ય રૂપ १ ( उदाहु चरमोई च अचरमाई च अवत्तत्रए य) अथवा घणा यरभ, धदा अयरभ भने अवक्तव्य हे ? ( उदाहु चरमाई च अचरमाई च अवत्तत्र्वयाइ च) अथवा घणा यरभ, घणा अयरभ भने ध
वक्तव्य ३५ छे ? ( एते छत्रीसं भंगा) में छ०वीस लग हे
(गोयमा !) डे गौतम! ( परमाणुपोग्गले) परभानु युगस (नो चरमे, नो अचरमे, नियमा अवत्तव्वए) यरभ नहि, अयरम नही नियमधी वस्तव्य छे (सेसा भंगा पडि सेद्देयच्वा) शेष लगानी निषेध ४२वा लेाये
ટીકા-પહેલા રત્નપ્રભા આદિ ભૂમિયાના ચરમ-અચરસ આદિના વિષયમાં વિચાર કરાયા હતા, હવે પરમાણુ પુદ્ગલના ચરમ-અચરમ અદિના વિચાર કરાય છે—
श्री गौतमस्वाभी प्रश्न ÷रे छे :- लगवन् ! परमाणु युद्दगस ( १ ) शु थरम छे ?