________________
प्रमैयबोधिनी टीका पद ११ सू० ९ भाषाद्रव्यग्रहणनिरूपणम् स्पृशति, यानि अभिन्नानि निसजति तानि असंख्येया अवगाहनवर्गणाः गत्वा भेदमापद्यन्ते, संख्येयानि योजनानि गत्वा विध्वंसमागच्छन्ति ।।सू० ९॥ ... टीका-अथ भाषा द्रव्याणां सान्तरनिरन्तरादि रूपेण ग्रहणाग्रहणवक्तव्यतां प्ररूपयितु माह-'जीवे णं भंते ! जाई दवाई भासत्ताए. गेण्हइ ताई कि संतरं नेण्हइ निरंतरं गेण्हइ ?' हे भदन्त ! जीवः खलु यानि भापाद्रव्याणि भापातया-भापत्वेन गृह्णाति तानि किं सान्तरंसव्यवधानं व्यवधानपूर्वकमित्यर्थः गृह्णाति ? किं वा निरन्तरम्-निर्व्यवधानं व्यवधानरहित मित्यर्थः, गृह्णाति ? भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'संतरपि गेण्हइ, निरंतरंपि गेण्हइ' है (ताई अणंतगुणपरिवुड्कीए णं परिवुडमाणाई लोयंत फुसति) वे द्रव्य अनन्तगुणवृद्धि से वृद्धि को प्राप्त होते हुए लोकान्त को स्पर्श करते हैं (जाई अभि. पणाईनिसरइ ताइ असंखेजाओ ओगाहणवग्गणाओ गता) जिन अभिन्न द्रव्यों को त्यागता है, वे असंख्यात अवगाहन वर्गणाओं तक जाकर (भेदमावज्जति) भेद को प्राप्त हो जाते हैं (संखेज्जाई जोअणाई गता) संख्यात योजनों तक जाकर (विद्वंसमागच्छंति) विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं।
टीकार्थ-जीव भाषा द्रव्यों को ग्रहण करता है, यह कहा जा चुका है, परन्तु क्या उन्हें बीच-बीच में कुछ समय छोडकर ग्रहण करता है, अथवा निरन्तर ग्रहण करता ही रहता है ? इत्यादि प्रश्नों पर यहां प्रकाश डाला जाता है.' गौतमस्वामी प्रश्न करते हैं-हे भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण कहता है, क्या उन्हें सान्तर अर्थात् बीच में कुछ समय का व्यवधान डालकर या वीच-बीच में रुककर ग्रहण करता है, अथवा निरन्तर अर्थातू बीच में व्यवधान डाले विना-लगातार ग्रहण करता है ? पण हे छ (जाइ भिण्णाइ णिसरइ) २ मिन्न द्रव्योन ४४ छ (ताइ अणंतगुणपरिवुड्ढीएणं परिखुडूढमाणाई लोयंतं फुसंति) ते द्रव्ये। मन शुष्प वृद्धिथी वृद्धि प्रास थतi astrतन २५ ४२ छ (जाई अभिण्णाई' 'निसरइ ताइ असंखेज्ज ओगाहणवणाणाओ गंता) २ मलिन द्रव्याने त्यागे छ तम्मा गसण्यात, अवगाहना वाया संधी run (भेद मावजंति) मेहने प्राप्त थ नय छ (संखेज्जाई जोअणाई गंता) सध्यात योमा सुधा ने (विद्धंसमागच्छंति) विपसने पास थाय छ । • ટીકાથજી ભાષા દ્રવ્યોને ગ્રહણ કરે છે, એ કહેવાઈ ગયું છે, પરંતુ શું તેમને વચમા–વચમાં થોડો સમય ત્યાગીને ગ્રહણ કરે છે, અથવા નિરન્તર ગ્રહણ કરતાજ રહે छ ? विगैरे प्रश्नो ५२ मही प्रश' 'पाय'छे3" શ્રી ગૌતમસ્વામી' પ્રશ્ન કરે છે–હે ભગવન્! જીવ' જે દ્રષ્યોને ભાષા રૂપમાં ગ્રહણું કરે છે, શું તેઓને સાન્તર અર્થાત્ વચમા થડા સમયનું વ્યવધાને રાખીને અગર વચમાં વચમાં રેકોઈને થ્રહણ કરે છે, અથવા નિરન્તર અર્થાત્ વચમાં કઈ વ્યવધાન રાખ્યા सिवाय निरन्तर (सतत) अ५ ४२ छ१ . . . ! . .