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नातः परतरो धर्मों नृपाणां यद् रणाजितम् । विप्रेभ्यो दीयते द्रव्यं प्रजाभ्यश्चाभयं सदा ॥
(याज्ञवल्क्य) [ राजाओं के लिए इससे बढ़कर कोई धर्म नहीं है कि वे में प्राप्त धन ब्राह्मणों को दें तथा प्रजा को सदा के युद्ध लिए अभय दान दे दें ।] अभयतिलक— न्यायदर्शन के एक आचार्य। इन्होंने 'न्यायवृत्ति' की रचना की है । अभिक्रोशक-पुरुषमेध का एक वलि पुरुष कदाचित् इसका अर्थ 'दूत' है । भाष्यकार महीधर ने इसका अर्थ 'निन्दक' बताया है ।
अभिचार - शत्रु को मारने के लिए किया जानेवाला प्रयोग । अथर्ववेद में कहे गये मन्त्र यन्त्र आदि द्वारा किया गया मारण, उच्चाटन आदि हिंसात्मक कार्य अभिचार कहलाता है। वह छः प्रकार का है (१) मारण, (२) मोहन, (३) स्तम्भन (४) विद्वेषण, (५) उच्चाटन और (६) वशीकरण । यह एक उपपातक है। श्येन आदि यज्ञों से अनपराधी को मारना पाप है। अभिनवनारायण शङ्कराचार्य द्वारा ऐतरेय एवं कौषीतकि उपनिषदों पर लिखे गये भाष्यों पर अनेक पण्डितों ने टोकाएं लिखी हैं, जिनमें से एक अभिनवनारायण भी है। अभिनिवेश-मन का संयोग-विशेष । इसके कई अर्थ हैं-मनोनिवेश, आवेश, शास्त्र आदि में प्रवेश आदि । मरण की आशंका से उत्पन्न भय के अर्थ में भी इसका प्रयोग होता है। इसकी गणना पञ्च क्लेशों में है
अविद्यास्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः । ( योगदर्शन) ।
आसक्ति, अनुराग और अभिलाष के लिए भी यह शब्द प्रयुक्त होता है। 'बलीयान् सल मे अभिनिवेशः ।'
( अभिज्ञानशाकुन्तल) [मेरा अनुराग बहुत बलवान् है ] दे० 'पञ्चक्लेश' । अभिनीतैत्तिरीय ब्राह्मण एवं वाजसनेयी संहिता में वर्णित पुरुषमेध यज्ञ की बलिसूची में 'अभिप्रश्नी' का उल्लेख हुआ है। यह शब्द 'प्रश्नी' के बाद एवं 'प्राश्नविवेक' के पहले उद्धृत है । भाष्यकार सायण एवं महीधर ने इसे केवल जिज्ञासु के अर्थ में लिया है । किन्तु यहाँ इस शब्द से 'कुछ वैधानिकता का बोध होता है। न्यायालय में वाद
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अभयतिलक- अभिषेक
उपस्थित करने वाले को प्रश्नी ( प्रश्निन्) प्रतिवादी को अभिप्रश्नी ( अभिप्रश्नन् ) और न्यायाधीश को प्राश्नविवेक कहा जाता था । अभिशाप - किसी अपराध के लिए क्रोम रूष्ट व्यक्ति द्वारा अनिष्ट कथन करना एवं सिद्धों के अनिष्टकारक वचनों को शाप कहा जाता है: यस्याभिशापाद् दुःखार्तो दुःखं विन्दति नेपधः । ( नलोपाख्यान )
उत्पन्न होने पर ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध
[ जिसके शाप से दुःखपीडित नल कष्ट पा रहा है। ] अभिश्री - यह शब्द उस दूध का बोध कराता है जो यज्ञ में
सोमरस के साथ आहूति देने के पूर्व मिलाया जाता था। अभिषेक मन्त्रपाठ के साथ पवित्र जल सिंचन या स्नान । यजुर्वेद, अनेक ब्राह्मणों एवं चारों वेदों की श्रौत क्रियाओं में हम अभिषेचनीय कृत्य को राजसूय के एक अंग के रूप में पाते हैं । ऐतरेय ब्राह्मण में तो अभिषेक ही मुख्य विषय है। धार्मिक अभिषेक व्यक्ति अथवा वस्तुओं की शुद्धि के रूप में विश्व की अति प्राचीन पद्धति है। अन्य देशों में अनुमान लगाया जाता है कि अभिषेक रुधिर से होता था जो वीरता का सूचक समझा जाता था । शतपथ ब्राह्मण ( ५.४.२.२ ) के अनुसार इस क्रिया द्वारा तेजस्विता एवं शक्ति व्यक्ति विशेष में जागृत की जाती है।
ऐतरेय ब्राह्मण का मत है कि यह धार्मिक कृत्य साम्राज्य शक्ति की प्राप्ति के लिए किया जाता था । महाभारत में युधिष्ठिर का अभिषेक दो बार हुआ था पहला सभापर्व की (३३.४५) दिग्विजयों के पश्चात् अधिकृत राजाओं की उपस्थिति में राजसूय के एक अंश के रूप में तथा दूसरा भारत युद्ध के पश्चात् । महाराज अशोक का अभिषेक राज्यारोहण के चार वर्ष बाद एवं हर्ष शीलादित्य का अभिषेक भी ऐसे ही विलम्ब से हुआ था । प्रायः सम्राटों का ही अभिषेक होता था। इसके उल्लेख बृहत्कथा, क्षेमेन्द्र (१७), सोमदेव ( १५.११०) तथा अभिलेखों में (एपिग्राफिया इंडिका, १.४.५.६) पाये जाते हैं । साधारण राजाओं के अभिषेक के उदाहरण कम ही प्राप्त हैं, किन्तु स्वतन्त्र होने की स्थिति में ये भी अपना अभिषेक कराते थे । महाभारत ( शा० प० ) राजा के अभिषेक को किसी भी देश के लिए आवश्यक बतलाता है। युवराजों के अभि पंक के उदाहरण भी पर्याप्त प्राप्त होते हैं, यथा राम के 'यौवराज्यभिषेक' का रामामण में विशद वर्णन है, यद्यपि
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