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अशुभ नाम-कर्म का विपाक-(१) अप्रभावक वाणी (अनिष्ट शब्द), (२) असुन्दर शरीर (अनिष्ट स्पर्श), (३) शारीरिक मलों का दुर्गन्धयुक्त होना (अनिष्ट गंध), (४) जैवीय रसों की असमुचितता (अनिष्ट रस), (५) अप्रिय स्पर्श, (६) अनिष्ट गति, (७) अंगों का समुचित स्थान पर न होना (अनिष्ट स्थिति), (८) सौन्दर्य का अभाव, (९) अपयश, (१०) पुरुषार्थ करने की शक्ति का अभाव, (११) हीन स्वर, (१२) दीन स्वर, (१३) अप्रिय स्वर और (१४) अकान्त स्वर। ७. गोत्र-कर्म
जिसके कारण व्यक्ति प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित कुलों में जन्म लेता है, वह गोत्र-कर्म है। यह दो प्रकार का माना गया है-(१) उच्च गोत्र (प्रतिष्ठित कुल) और (२) नीच गोत्र (अप्रतिष्ठित कुल)। किस प्रकार के आचरण के कारण प्राणी का अप्रतिष्ठित कुल में जन्म होता है
और किस प्रकार के आचरण से प्राणी का प्रतिष्ठित कुल में जन्म होता है, इस पर जैनाचार-दर्शन में विचार किया गया है। अहंकारवृत्ति ही इसका प्रमुख कारण मानी गई है।
उच्च गोत्र एवं नीच गोत्र के कर्म-बन्ध के कारण-निम्न आठ बातों का अहंकार न करने वाला व्यक्ति भविष्य में प्रतिष्ठित कुल में जन्म लेता है-(१) जाति, (२) कुल, (३) बल (शारीरिक शक्ति), (४) रूप (सौन्दर्य), (५) तपस्या (साधना), (६) ज्ञान (श्रुत), (७) लाभ (उपलब्धियाँ) और (८) स्वामित्व (अधिकार)। इसके विपरीत जो व्यक्ति उपर्युक्त आठ प्रकार का अहंकार करता है, वह नीच कुल में जन्म लेता है। कर्मग्रन्थ के अनुसार भी अहंकार-रहित गुणग्राही दृष्टि वाला, अध्ययन-अध्यापन में रुचि रखने वाला तथा भक्त उच्च गोत्र को प्राप्त करता है। इसके विपरीत आचरण करने वाला नीच गोत्र को प्राप्त करता है। तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार पर-निन्दा, आत्म-प्रशंसा, दूसरों के सद्गुणों का आच्छादन और असद्गुणों का प्रकाशन ये नीच गोत्र के बन्ध के हेतु हैं। इसके विपरीत पर-प्रशंसा, आत्म-निन्दा, सद्गुणों का प्रकाशन, असद्गुणों का गोपन और नम्र-वृत्ति एवं निरभिमानता ये उच्च गोत्र के बन्ध के हेतु हैं।
गोत्र-कर्म का विपाक-विपाक (फल) दृष्टि से विचार करते हुए यह ध्यान रखना चाहिए कि जो व्यक्ति अहंकार नहीं करता, वह प्रतिष्ठित कुल में जन्म लेकर निम्नोक्त आठ क्षमताओं से युक्त होता है-(१) निष्कलंक मातृ-पक्ष (जाति), (२) प्रतिष्ठित पितृ-पक्ष (कुल), (३) सबल शरीर, (४) सौन्दर्ययुक्त शरीर, (५) उच्च साधना एवं तप-शक्ति, (६) तीव्र बुद्धि एवं विपुलज्ञान राशि पर अधिकार, (७) लाभ एवं विविध उपलब्धियाँ और (८) अधिकार, स्वामित्व एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति। लेकिन अहंकारी व्यक्तित्व उपर्युक्त समग्र क्षमताओं से अथवा इनमें से किन्हीं विशेष क्षमताओं से वंचित रहता है। ८. अन्तराय कर्म
अभीष्ट की उपलब्धि में बाधा पहुँचाने वाले कारण को अन्तराय कर्म कहते हैं। यह पाँच प्रकार का है१. दानान्तराय-दान की इच्छा होने पर भी दान नहीं दिया जा सके, २. लाभान्तराय-कोई वस्तु आदि की प्राप्ति होने वाली हो लेकिन किसी कारण से उसमें बाधा आ जाना,
३. भोगान्तराय-भोग में बाधा उपस्थित होना, जैसे-व्यक्ति सम्पन्न हो, भोजनगृह में अच्छा सुस्वादु भोजन भी बना हो लेकिन अस्वस्थता के कारण उसे मात्र खिचड़ी ही खानी पड़े,
४. उपभोगान्तराय-उपभोग की सामग्री के होने पर भी उपभोग करने में असमर्थता, ५. वीर्यान्तराय-शक्ति के होने पर भी पुरुषार्थ में उसका उपयोग नहीं किया जा सकना। (तत्त्वार्थ सूत्र, ८.१४)
जैन नीति-दर्शन के अनुसार जो व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के दान, लाभ, भोग, उपभोग शक्ति के उपयोग में बाधक बनता है, वह भी अपनी उपलब्ध सामग्री एवं शक्तियों का समुचित उपयोग नहीं कर पाता है। जैसे कोई व्यक्ति किसी दान देने वाले व्यक्ति को दान प्राप्त करने वाली संस्था के बारे में गलत सूचना देकर या अन्य प्रकार से दान देने से रोक देता है अथवा किसी भोजन करते हुए व्यक्ति को भोजन पर से उठा देता है, तो उसकी उपलब्धियों में भी बाधा उपस्थित होती है अथवा भोग-सामग्री के होने पर भी वह उसके भोग से वंचित रहता है। कर्मग्रन्थ के अनुसार धर्म-कार्यों में विज उत्पन्न करने वाला और हिंसा में तत्पर व्यक्ति भी अन्तराय कर्म का संचय करता है। तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार भी विघ्न या बाधा डालना ही अन्तराय-कर्म के बन्ध का कारण है। घाती और अघाती कर्म ____ कर्मों के इस वर्गीकरण में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-इन चार कर्मों को 'घाती' और नाम, गोत्र, आयुष्य और वेदनीय-इन चार कर्मों को 'अघाती' माना जाता है। घाती कर्म आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति नामक गुणों का आवरण करते हैं। ये कर्म आत्मा की स्वभाव दशा को विकृत करते हैं, अतः जीवन-मुक्ति में बाधक होते हैं। इन घाती कर्मों में अविधा रूप मोहनीय कर्म ही आत्मस्वरूप की आवरण-क्षमता, तीव्रता और स्थितिकाल की दृष्टि से प्रमुख हैं। वस्तुतः मोहकर्म ही एक ऐसा कर्म-संस्कार है, जिसके कारण कर्म-बन्ध का प्रवाह सतत बना रहता है। मोहनीय कर्म उस बीज के समान है, जिसमें अंकुरण की शक्ति है। जिस प्रकार उगने योग्य बीज हवा, पानी आदि के सहयोग से अपनी परम्परा को बढ़ाता रहता है, उसी प्रकार मोहनीय रूपी कर्म-बीज, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय रूप हवा, पानी आदि के सहयोग से कर्म-परम्परा को सतत बनाये रखता है। मोहनीय कर्म ही जन्म-मरण, संसार या बन्धन का मूल है, शेष घाती कर्म उसके सहयोगी मात्र हैं। इसे कर्मों का सेनापति कहा गया है। जिस प्रकार सेनापति के पराजित होने पर सारी सेना हतप्रभ
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