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, फलस्वरूप अष्टसहस्री ग्रन्थ का विमोचन समारोह आचार्यद्वय (आचार्यरत्त देश भूषण जी और आचार्यवर्य धर्मसागर जी) तथा विद्यानन्द जी मुनिराज आदि साधुओं के सान्निध्य में बाल आश्रम, दरियागज में ही हुआ था।
जंबूद्वीप रचना के लिये जब हस्तिनापुर क्षेत्र का निर्णय लिया जा चुका था तब मैं सन् १९७४ में वैशाख सुदी पूर्णिमा को हस्तिनापुर की ओर विहार कर रही थी। प्रातः कुँचा सेठ त्यागी भवन से विहार कर कम्मोजी की धर्मशाला में महाराज जी के दर्शनार्थ आई। तब अन्य साधु-साध्वियों ने कहा-"आचार्यश्री शौच हेतु निकल गये।".
मैं दस-पन्द्रह मिनट तक बैठी। साथ में चलने वाले श्रावक आकुलता करने लगे और बोले ----
"माता जी ! आपने कल सायकाल में गुरुदेव से आशीर्वाद ग्रहण कर लिया है, अत: अब चलिये, अन्यथा धूप हो जाने से आपको विहार करने में कष्ट होगा।"
मैं परोक्ष में गुरु की वन्दना करके धर्मशाला के बाहर निकली। जरा आगे बड़ी ही थी कि आचार्यश्री सामने आते हए दीखे । मुझे प्रसन्नता हुई और यह श्लोक स्मरण हो आया
आरुरोह रथं पार्थ ! गांडीवं चापि धारय ।
निजितां मेदिनीं मन्ये निग्रंथो यतिरप्रतः ॥ अर्थात श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-हे अर्जुन ! तुम रथ पर चढ़ जाओ और गांडीव धनुष को धारण कर लो। मैं इस पृथ्वी को जीती हुई ही समझ रहा हूं, चूंकि सामने निर्ग्रन्थ यति दिख रहे हैं ।
विहार के समय यदि दिगम्बर मुनि का संमुख आगमन दीख जाए तो समझो सर्वकार्य सिद्ध हो गये । मैंने गुरुवर्य के चरणों में नमस्कार किया। गुरुदेव ने मस्तक पर पिच्छिका रखकर आशीर्वाद दिया । आज हस्तिनापुर में उस जंबूद्वीप संरचना की सफलता को देखकर वह दृश्य सम्मुख आ जाता है ।।
आज जंबूद्वीप-ज्ञान-ज्योति सारे भारतवर्ष में भ्रमण कर रही है और जन-जन को जंबूद्वीप के माध्यम से जैन भगोल का ज्ञान करा रही है तथा भगवान् महावीर के द्वारा दिखाये गये सभी चीन ज्ञान का उद्योत कर रही है। इन सब कार्यों में आज तक मझे गुरुदेव का वरदहस्त मिला है; सदैव ऐसे ही मिलता रहे; यही मेरी मनोकामना है । आपके श्री चरणों में कोटिशः नमोऽस्तु ।
विनम्रता को प्रतिमूर्ति
क्षुल्लक रत्नकीति जी
सर्वश्री १०८ मनि दयासागर जी, अभिनन्दन सागर जी, विजय सागर जी, ऋषभ सागर जी, रयणसागर जी एवं सर्व श्री १०५ आर्यिका गुणमति जी, निर्मल मति जी, सुरत्नमति जी, प्रज्ञामति जी तथा सर्व श्री १०५ क्षु० सुरत्न सागर जी, सूज्ञान सागर जी आदि संघ सहित भगवान् बाहुबलि जी (श्रवणबेलगोल) यात्रा संघ का संचालन करते हुए मैं अप्रैल सन् १९७४ के प्रथम सप्ताह में कोथली-कुप्पनवाड़ी (शांतिगिरि) पहुंचा। वहां पर परम पूजनीय श्री १०८ आचार्य देशभूषण जी महाराज अपने संघ सहित विराजमान थे। समय के अभाववश वहां ठहरने में असमर्थ था। तब उन्होंने बहुत ही विनम्र शब्दों में मुझसे संघ रोकने लिए कहा । मैं इतना ही कह पाया कि मझको तो आपकी आज्ञा का भी पालन करना है और संघ का भी आदेश मानना है। सारांश यह है कि संघ को ठहराने हेतु इतने महान् पद पर होते हुए भी मुझ जैसे साधारण ब्रह्मचारी से भी कहा । आचार्य देश भूषण जी की व्यावहार कुशलता से मैं बहुप्त प्रभावित हुआ। मैं श्रद्धापूर्वक अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि उनके चरणों में समर्पित करता हूं।
-- 0- - महान् उपकारी
क्षुल्लक जयभूषण जी
(श्री १०८ पूज्य कुलभूषण महाराज के शिष्य) आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के महान् उपकारों का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। मैं उनके पावन चरणों में त्रिकाल नमोऽस्तु निवेदन करता हूं।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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