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स्वानुभूति से रसानुभूति की ओर
-आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी की काव्य-क्षणिकाएं
डॉ० मोहनचन्द
स्वानुभूति जब रसानुभूति का संसर्ग पाकर समष्टि तक पहुंच जाती है तो तत्त्वचिन्तन की अभिव्यक्ति काव्यशक्ति से गुंजायमान रहती है। सच तो यह है कि विश्व प्रसिद्ध धर्म ग्रन्थों की असाधारण लोकप्रियता का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी है कि धर्मप्रभावना को काव्य साधना का मणिकांचन संयोग मिला । काव्य का स्वर पाते ही अभिव्यक्ति देश-काल-पात्र की संकुचित परिधियों से ऊपर उठकर विश्वजनीनता का रूप धारण कर लेती है परिणामतः उद्घाटित सत्य किसी व्यक्तिविशेष या धर्मविशेष के ही अमानत नहीं रह जाते अपितु समग्र मानवता ही उनसे लाभान्वित होती है । आचार्यरत्न श्री देशभषण महाराज की निम्नलिखित पंक्तियों का भी यही आशय है :
बहुत से क्या एक चिंगारी चाहिए कोयले स्वयं धधक उठेंगे ।
बहुत से क्या एक मनुष्य चाहिए मनुष्यता स्वयं निखर उठेगी। व्यष्टि से समष्टि की ओर पदयात्रा करने से स्वानुभूति का रसानुभूति के रूप में जो रूपान्तरण होता है भारतीय काव्यशास्त्र में उसे 'साधारणीकरण' की प्रक्रिया के नाम से जाना जाता है जिसका तात्त्विक भाव है 'असाधारण का साधारण' हो जाना। ऊपर से ऐसा लगता है असाधारण का साधारण अथवा सामान्य के रूप में परिवर्तन कोई अच्छा लक्षण नहीं है क्योंकि लोकव्यवहार में सामान्य से विशेष बनने की ओर ही लोगों की रुचि देखी जाती है। परन्तु सच तो यह है कि तत्त्वचिन्तन और काव्य साधना की अपनी अलग ही आचार संहिता है। कोई भी अच्छे से अच्छा विद्वान् या विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न कवि भी इस क्षेत्र में आता है तो उसे सर्वप्रथम निजी स्वाभिमान व स्वत्व के बोध को भुला देना होता है तभी वह एक अच्छा कवि या तत्त्ववेत्ता बन सकता है। कारण स्पष्ट है व्यष्टि समष्टि की ओर जा रहा है, असाधारण साधारण बन गया है तथा स्वानुभूति रसानुभूति के रूप में अभिव्यक्त हो गई है। जैनधर्म के प्रभावक आचार्यों में से भक्तामरस्तोत्र के प्रणेता श्री मानतुनाचार्य से भला कौन परिचित नहीं। किन्तु जिनेन्द्र भक्ति के भाव से संपूरित मानतुङ्गाचार्य का 'मान' गलित हुआ सा जान पड़ता है जब वे कहते हैं कि वसन्त काल में आम्रमंजरी जैसे कोकिल को कूजने के लिए विवश कर देती है वैसे ही जिनेन्द्र भक्ति का भाव भी उन्हें 'मुखरित' होने के लिए बाध्य कर रहा है :
अल्पवतं श्रुतवतां परिहासधाम, त्वद्भक्तिरेव मुखराकुरुते बलान्माम् ।
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरोति तच्चारुचूतकलिकानिकरकहेतुः। मानतुङ्गाचार्य की स्वानुभूति रसानुभूति के रूप में 'मुखरित' हुई तो देश-काल-पात्र की सीमाओं से वे ऊपर उठ गए और आदि जिन को बुद्ध, शंकर, ब्रह्मा तथा विष्णु के रूप में देखने लगे :
बुद्धस्त्वमेव विबुधाचितबुद्धिबोधात्वं शङकरोऽसि भुवनत्रयशा करत्वात् । धातासि धीरशिवमार्गविविधानाद् व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ॥
भारतीय काव्य साधना का इतिहास चाहे वैदिक परम्परा से सम्बद्ध हो या श्रमण परम्परा से इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि काव्याभिव्यक्ति या तो 'आराधना' के भाव से उत्प्रेरित हुई या फिर कारुणिक 'संवेदना' ने बलात् काव्य को फूटने के लिए बाध्य किया। आदि काव्य रामायण के सम्बन्ध में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की ऐसी ही धारणा है :
राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है। कोई कवि बन बन जाए सहज संभाव्य है ।।
सृजन-संकल्प
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