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कायोत्सर्ग प्रतिमानों पर बायीं ओर स्त्री साध्वी जो पुस्तक व पीछी लिये दूसरी ओर साधु वस्त्रखण्ड लिये खड़ा बना है। ऐसा लगता है कि बायीं ओर यक्षी व दायें यक्ष बनाये जाने की जो धारा मध्यकाल में स्थिर हुई उसका जन्म सं० ६ अर्थात् ७८+६=८७ ई. में हो चुका था। खड़ी और बैठी प्रतिमाओं में मुख्य अन्तर यह है कि प्रथम कोटि की प्रतिमा पर सिंहांकन अनिवार्य है जबकि दूसरी में खम्भे । एक प्रतिमा पर जिसे सं०७६ में बनाया गया था, दायीं ओर अर्द्धचेलक साधु, तत्पश्चात् त्रिरत्न पर धर्मचक्र व बायीं ओर तीन स्त्रियाँ, जो हाथों में कमल लिए लम्बी धोती, कुण्डल व चूरी पहने बनी हैं श्राविकाएं हैं। ये काफी लम्बी हैं, ऐसा लगता है कि विदेशी है।
आयिकाएं ज्ञान के लिए पुस्तक व शुद्धि के लिए पीछी लिये आभूषण रहित बनायी गई हैं। इन्हीं के साथ धाविकाएं कई ढंग से साड़ी बांधे, माथे पर टीका पहने, कान व हाथ तथा पैरों में आभूषणों से मंडित रूपायित की गई हैं । ये दायें हाथ से माला बायें हाथ से साड़ी का छोर, कहीं हाथ कमर, पर रखे, क्वचित पुष्प लिए पायी जाती हैं । इनके साथ छोटे बालक हाथ जोड़े जा भी दीख जाते हैं । कहीं कहीं पर गौण स्थान पर हाथ जोड़े या पुष्पथाल लिए जो दासी हो सकती है, बनाई गई है। धर्मचक्र के दायीं
ओर वस्त्रखण्ड (अग्गोयर) व पीछी लिए साधु तदुपरान्त बांये कंधे पर उत्तरीय या अधोवस्त्र का आधा छोर डाले दायें हाथ में माला पकड़े श्रावक या गृही बने हैं । इनके साथ भी छोटे बालक वंदना की मुद्रा में पाये जाते हैं। सबसे किनारे पर दास हाथ जोड़े बने पाये जाते हैं।
अचेलक-अग्गोयर-अर्द्धफालक' के अन्य उल्लेखनीय निदर्शन कण्हश्रमण, कछौटे' व एक प्रतिमाखण्ड' पर साधु वस्त्रखण्ड लिए है, नग्न है व हवा में उड़ता हुआ बना है सामने छत्र व मालाधारी विद्याधर बना है।
-३० : तीन श्रावकों से अनुसरित वन्दन मुद्रा में जिनकल्प साधु (वसुदेव सं० ८० उत्कीर्ण है, कंकाली टोला, मथुरा)
जे-६२३. जैन मागम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० २१३; ले० जन, जगदीश चन्द्र, जैन धर्म, पृ० ४१६, ले० शास्त्री, कैलाश चन्द्र, वाराणसी,
बम्बई ४॥ २. बी-२०७। .. जे-१०५।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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