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भगवान महावीर : श्रमण संस्कृति के महान उत्थापक
डॉ. नन्दकिशोर उपाध्याय
भारत एक विशाल और महान् देश है। यहां की सभ्यता और संस्कृति भी उतनी ही महान् है। यहां न जाने कितने धर्म और कितनी संस्कृतियां फैली। इनमें वैदिक, जैन एव बौद्ध संस्कृतियों का आज भी उतना ही महत्त्व है। इन तीन संस्कृतियों के सम्बन्ध में हम ज्यामिति के शब्दों में अगर कहें तो कह सकते हैं कि वैदिक संस्कृति एक ऐसी आधार रेखा है जिस पर बौद्ध और जैन श्रमण संस्कृति की दो भुजाएं आपस में मिलकर समद्विबाहु त्रिभुज का निर्माण करती हैं।
'श्रमण' शब्द की व्याख्या के पहले संस्कृति क्या है ? हम इसे समझ लें । संस्कृति शब्द अपने आप में इतना विशाल और महान है कि इसे किसी परिभाषा में बांध लेना सहज प्रतीत नहीं होता है। श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' रचित 'संस्कृति के चार अध्याय" नामक ग्रंथ की प्रस्तावना में पंडित नेहरू ने संस्कृति के सम्बन्ध में लिखा है "संस्कृति है क्या ? शब्दकोष उलटने पर इसकी अनेक परिभाषाएं मिलती हैं। एक बड़े लेखक का कहना है कि संसार में जो भी सर्वोत्तम बातें जानी या कही गयी हैं, उनसे अपने आपको परिचित करना संस्कृति है।" एक दूसरी परिभाषा में यह कहा गया है कि "संस्कृति शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण, दृढ़ीकरण या विकास अथवा परिष्कृति या शुद्धि है। यह सभ्यता का भीतर से प्रकाशित हो उठना है।" इस अर्थ में संस्कृति कुछ ऐसी चीज का नाम हो जाता है जो बुनियादी और अन्तर्राष्ट्रीय हैं। फिर संस्कृति के कुछ राष्ट्रीय पहलू भी होते हैं और इसमें कोई संदेह नहीं कि अनेक राष्ट्रों ने अपना कुछ विशिष्ट व्यक्तित्व तथा अपने भीतर कुछ खास ढंग के मौलिक गुण विकसित कर लिये हैं। भारतीय जनता की संस्कृति का रूप सामाजिक है और उसका विकास धीरे-धीरे हुआ है। एक ओर तो इस संस्कृति का मूल आर्यों से पूर्व मोहनजोदड़ो आदि की सभ्यता तथा द्रविड़ों की महान् सभ्यता तक पहुंचता है। दूसरी ओर इस संस्कृति पर आर्यों की बहुत ही गहरी छाप है जो भारत में मध्य एशिया से आये थे। पीछे चलकर यह संस्कृति उत्तर-पश्चिम से आने वाली तथा फिर समुद्र की राह से पश्चिम से आने वाले लोगों से बराबर प्रभावित हुई। इस तरह हमारी राष्ट्रीय संस्कृति ने धीरे-धीरे बढ़कर अपना आकार ग्रहण किया। इस संस्कृति में समन्वय तथा नये उपकरणों को पचाकर आत्मसात् करने की अद्भुत योग्यता थी। रविन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी कविता 'महामानवेर सागर तीरें' में अनेक सभ्यताओं के समन्वित स्वरूप को संस्कृति बताया है।
संस्कृति को किसी व्याख्या या परिभाषा में बांधना सहज नहीं, किन्तु उसे हम एक रूपक से समझने का प्रयत्न कर सकते हैं । अमरकण्टक पहाड़ से नर्मदा नदी निकलकर अपने साथ चट्टानों को घसीटती हुयी समतल तक आती है । इस यात्रा में ये चट्टान आपस में घिसकर अत्यन्त लघु और सुन्दर रूप ग्रहण कर लेते हैं और लोग इसे ग्रहण कर नर्मदेश्वर भगवान कह कर इसकी पूजा करते हैं। हम समझते हैं ठीक इसी प्रकार सदियों से पूर्वजों की सभ्यताओं और संस्कार के छाप पड़ते-पड़ते जो हमारे पास शेष बची रह जाती है वही हमारी संस्कृति है । भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध इसी श्रमण संस्कृति के दो नर्मदेश्वर हैं।
भगवान् महावीर को श्रमण संस्कृति का उत्थापक कहा गया है। श्रमण का अभिप्राय संन्यासी, योगी, तपस्वी, मुनि, यति एवं साधु से है। पालि के ग्रन्थों में 'समण-ब्राह्मण' का सर्वत्र उल्लेख मिलता है। भगवान् बुद्ध को 'समणो गोतमो' कहकर पुकारा गया है। 'सामञफलसुत्त' श्रामण्य फल का विवेचन प्रस्तुत करता है । श्रमण और ब्राह्मण कहने से ही पता चलता है कि बुद्ध के पहले से ही दोनों संस्कृतियां साथ-साथ चलती आ रही हैं। कुछ लोगों का विचार है कि श्रमण संस्कृति वैदिक संस्कृति के बाद पनपी है। किन्तु ऐसा प्रतीत नहीं होता है। ब्रह्मजालसुत्त में जिन ६२ मतवादों की चर्चा है, वे अति प्राचीन हैं और वे सब के सब अवैदिक हैं। भगवान् बुद्ध के समय जिन छः धर्माचार्यों की चर्चा है वे भी सब के सब अवैदिक हैं, और इनका स्वरूप एक दिन में नहीं
१. संस्कृति के चार अध्याय - रामधारी सिंह दिनकर, प्रस्तावना ।
जैन इतिहास, कला और संस्कृति
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