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संक्षेप में, बाहुबली कथा विकास की दृष्टि से यदि विचार किया जाय तो बाहुबलिंचरित का मूल रूप आचार्य कुन्दकुन्द के पूर्वोक्त अष्टपाहुड में मिलता है, जो अत्यन्त संक्षिप्त है एवं जिसका दृष्टिकोण शुद्ध आध्यात्मिक है। किन्तु उसी सूत्र को लेकर परवर्ती साहित्यकारों ने अपनी-अपनी रुचियों एवं कल्पनाओं के आधार पर क्रमश: उसे विकसित किया। दूसरी सदी के आसपास विमलसूरि ने उसे कुछ विस्तार देकर भाई-भाई (भरत-बाहुबली) के युद्ध के रूप में चित्रण कर कथा को सरस एवं रोचक बनाने का प्रयत्न किया। अहिंसक दृष्टिकोण के नाते व्यर्थ के नर संहार को बचाने हेतु दृष्टि एवं-मुष्टि युद्ध की भी कल्पना की गई। इसी प्रकार बाहुबली के चरित को समुज्ज्वल बनाने हेतु ही भरत के चरित में कुछ दूषण लाने का भी प्रयत्न किया गया। वह दूषण और कुछ नहीं, केवल यही कि पराजित होने पर वे पारम्परिक मर्यादा को भंग कर बाहुबली पर अपने चक्र का प्रहार कर देते हैं।
११-१२ वीं सदी में विदेशियों ने भारत पर आक्रमण कर भारतीय जन जीवन को पर्याप्त अशान्त बना दिया था। विदेशियों से लोहा लेने के लिए अनेक प्रकार के हथियारों के आविष्कार हुए, उनमें से लाठी एवं लाठी से संयुक्त हथियार सार्वजनीन एवं प्रधान बन गए थे। बाहुबलीचरित में भी दृष्टि, मुष्टि एवं गिरा-युद्ध के साथ उक्त लाठी-युद्ध ने भी अपना स्थान बना लिया था।
१२ वीं सदी तक के साहित्य से यह ज्ञात नहीं होता कि भरत-बाहुबली का युद्ध कितने दिनों तक चला। किन्तु १३ वीं सदी मैं उस अमाव की भी पूर्ति कर दी गई और बताया जाने लगा की वह युद्ध १३ दिनों तक चला था । यद्यपि १७ वीं सदी के कवियों को यह युद्ध काल मान्य नहीं था। उनकी दृष्टि में वह युद्ध १२ वर्षों तक चला था। १३ वीं सदी की एक विशेषता यह भी है कि तब तक बाहुबलीचरित सम्बन्धी स्वतन्त्र रचना लेखन नहीं हो पाया था। किन्तु १३वीं सदी में बाहुबली कथा जनमानस में पर्याप्त सम्मानित स्थान बना चुकी थी। अतः लोक रुचि को ध्यान में रखकर अनेक कवियों ने लोक भाषा एवं लोक शैलियों में भी इस चरित का स्वतन्त्ररूपेण अंकन प्रारम्भ किया, यद्यपि संस्कृत, प्राकृत एवं अन्य भाषाओं में भी उनका छिटपुट चित्रण होता रहा ।
रासा शैली में रससिक्त रचना 'भरतेश्वर-बाहुबली रास' लिखी गई। अपनी दिशा में यह सर्वप्रथम स्वतन्त्र रचना कही जा सकती है।
१५ वीं सदी के महाकवि धनपाल द्वारा "बाहुबलीदेवचरिउ" नामक महाकाव्य अपभ्रंश-भाषा में सर्वप्रथम स्वतन्त्र महाकाव्य लिखा गया। इसका कथानक यद्यपि जिनसेनकृत आदिपुराण के आधार पर लिखा गया । किन्तु विविध घटनाओं को विस्तार देकर कवि ने उसे अलंकृत काव्य की कोटि में प्रतिष्ठित किया है । पश्चाद्वर्ती काव्यों में भरतेश-वैभव (रत्नाकरवर्णी) एवं 'भरत-बाहुबली महाकाव्यम्' (पुण्यकुशलगणि) भी अपने सरस एवं उत्कृष्ट काव्य सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध है।
जैसाकि पहले कहा जा चुका है कि प्रायः समस्त कवियों ने बाहुबली के चरित्र को सम्मुज्ज्वल बनाने हेतु भरत के चरित्र को सदोष बनाने का प्रयत्न किया है तथा पराजित होकर चक्र प्रहार करने पर उन्हें मर्यादाविहीन, विवेक विहीन होने का दोषारोपण किया गया है। किन्तु एक ऐसा विशिष्ट कवि भी हुआ, जिसने कथानक की पूर्व परम्परा का निर्वाह तो किया ही, साथ ही भरत के चरित्र को सदोष होने से भी बचा लिया। इतना ही नहीं, बाहुबली के साथ भरत के भ्रातृत्व स्नेह को प्रभावकारी बनाकर पाठकों के मन में भरत के प्रति असीम आस्था भी उत्पन्न कर दी: उस कवि का नाम है रत्नाकरवर्णी । वह कहते हैं कि विविध युद्धों में पराजित होने पर भरत को अपने भाई बाहुबली के पौरुष पर अत्यन्त गौरव का अनुभव हुआ। अतः उन्होंने बाहुबली की सेवा के निमित्त अपना चक्ररत्न भी भेज दिया । निश्चय ही कवि की यह कल्पना साहित्य क्षेत्र में अनुपम है।
इस प्रकार बाहुबली के साहित्य के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसके नायक बाहुबली का चरित उत्तरोत्तर विकसित होता गया । तद्विषयक ज्ञात एवं उपलब्ध साहित्य की मात्रा यद्यपि अभी पर्याप्त अपूर्ण ही कही जायगी क्योंकि अनेक अज्ञात अपरिचित एवं अव्यवस्थित शास्त्र भण्डार में अनेक हस्तलिखित ग्रन्थ पड़े हुए हैं, उनमें अनेक ग्रन्थ बाहुबलीचरित सम्बन्धी भी होंगे, जिनकी चर्चा यहां शक्य नहीं। फिर भी जो ज्ञात हैं, उनका समग्र लेखा-जोखा भी एक लघु निबन्ध में सम्भव नहीं हो पा रहा है। अतः यहां मात्र ऐसी सामग्री का ही उपयोग किया गया है, जिससे कथानक-विकास पर प्रकाश पड़ सके तथा बाहुबली सम्बन्धी स्थलों एवं अन्य सन्दर्भो का भूगोल, इतिहास, संस्कृति, पुरातत्त्व, समाज, साहित्य एवं दर्शन की दृष्टि से भी अध्ययन किया जा सके।
मानव-मन की विविध कोटियों को उद्घाटित करने में सक्षम और कवियों की काव्य प्रतिभा को जागृत करने में समर्थ बाहुबली का जीवन सचमुच ही महान है। उस महापुरुष को लक्ष्य कर यद्यपि विशाल साहित्य का प्रणयन किया गया है किन्तु यह आश्चर्य है कि उस पर अभी तक न तो कोई समीक्षात्मक ग्रन्थ ही लिखा गया और न उच्चस्तरीय कोई शोध कार्य ही हो सका है। इस प्रकार की शोध समीक्षा न होने के कारण वीर एवं शान्तरस-प्रधान एक विशाल साहित्य अभी तक उपेक्षित एवं अपरिचित कोटि में ही किसी प्रकार जी रहा है यह स्थिति शोचनीय है। गोम्मटेश दिग्दर्शन
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