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के ४२ पर्व पूर्ण होने पर उनका समाधिमरण हो गया। समाधिमरण से पूर्व ही उन्होंने भगवान् बाहुबली से सम्बन्धित पर्व ३४, ३५ और ३६ का प्रणयन कर लिया था। भगवान् बाहुबली के चरणों में अपनी आस्था का अर्घ्य समर्पित करते हुए उन्होंने (पर्व३६/२१२) में भगवान् गोम्मटेश्वर की वन्दना करते हुए कहा था कि योगिराज बाहुबली को जो पुरुष हृदय में स्मरण करता है उसकी अन्तरात्मा शान्त हो जाती है और वह निकट भविष्य में जिनेन्द्र भगवान् की अपराजेय विजयलक्ष्मी (मोक्षमार्ग) को प्राप्त कर लेता है
जगति जयिनमेनं योगिनं योगिवर्य
रधिगतमहिमानं मानितं माननीयैः । स्मरति हृदि नितान्तं य: स शान्तान्तरात्मा
भजति विजयलक्ष्मीमाशु जैनीमजय्याम् ।।
आचार्य जिनसेन अपने युग के परमप्रभावक धर्माचार्य थे। तत्कालीन दक्षिण भारत के राज्यवंशों एवं जनसाधारण में उनका विशेष प्रभाव था । शक्तिशाली राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष (प्रथम) ने सम्भवतया उन्हीं के प्रभाव से जीवन के अन्तिम भाग में दिगम्बरी दीक्षा ली थी। ऐसे महान् आचार्य एवं कवि के मानस पटल पर अंकित भगवान् बाहुबली की विशाल प्रतिमा को मूर्त रूप देने का विचार जैन धर्मावलम्बियों में निश्चित रूप से आया होगा। धर्मपरायण सम्राट अमोघवर्ष (प्रथम) का अपने अधीनस्थ राजा बंकेय से विशेष स्नेह था। उदार सम्राट ने राजा बंकेय द्वारा निर्मित जिनमन्दिर के लिए तलेमुर गांव का दान भी किया था । जैन धर्म परायण राजा बंकेय ने अपने पौरुष से बंकापुर नाम की राजधानी बनाई जो कालान्तर में जैन धर्म का एक प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र बन गयी । सम्राट् अमोघवर्ष (प्रथम) के पुत्र अकाल वर्ष और राजा बंकेय के पुत्र लोकादित्य में प्रगाढ़ मैत्री थी। सम्राट अकालवर्ष के राज्यकाल में राजा लोकादित्य की साक्षी में उत्तर पुराण के पूर्ण हो जाने पर महापुराण की विशेष पूजा का आयोजन हुआ। उत्तरपुराण की पीठिका के आशीर्वचन में कहा गया है-महापुराण के चिन्तवन से शान्ति, समृद्धि, विजय, कल्याण आदि की प्राप्ति होती है । अतः भक्तजनों को इस ग्रन्थराज की व्याख्या, श्रवण, चिन्तवन पूजा, लेखन कार्य आदि की व्यवस्था में रुचि लेनी चाहिए । परवर्ती राष्ट्रकूट नरेशों एवं गंगवंशीय शासकों में विशेष स्नेह सम्बन्ध रहा है। राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र चतुर्थ का गंगवंशीय राजा मारसिंह ने अभिषेक किया था। राजा इन्द्र चतुर्थ ने जीवन के अन्तिम भाग में सल्लेखना द्वारा श्रवणबेलगोल में आत्मोत्सर्ग किया। गंगवंशीय राजा मारसिंह ने बंकापुर में आचार्य अजितसेन के निकट तीन दिन तक उपवास रखकर समाधिमरण किया था।
बंकापुर के सांस्कृतिक केन्द्र की गतिविधियों का नियमन आचार्य अजितसेन के यशस्वी मार्गदर्शन में होता था। उनके अगाध पांडित्य के प्रति दक्षिण भारत के राज्यवंशों में विशेष सम्मान भाव था। गंगवंशीय राजा मारसिंह, राजा राचमल्ल (चतुर्थ), सेनापति चामुण्डराय एवं महाकवि रन्न उनके प्रमुख शिष्य थे। आचार्य जिनसेन की प्रेरणा से स्थापित बंकापुर के सांस्कृतिक केन्द्र में महापुराण के महातपी बाहुबली भगवान् की तपोरत विराट् मूर्ति के निर्माण का विचार निरन्तर चल रहा था।
सेनापति चामुण्डराय ने अपने प्रतापी शासक राजा मारसिंह की समाधि के समय सम्भवतया भगवान् बाहुबली की विशाल प्रतिमा के निर्माण का स्वप्न लिया होगा। दक्षिण भारत के शिल्पियों को संगठित करने में जैन धर्म के यापनीय संघ की प्रभावशाली भूमिका रही है। इस महान् मूर्ति के निर्माण की संकल्पना में आदिपुराण को साकार करने के लिए समर्थ आचार्य अजितसेन और आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती का वरदहस्त सेनापति चामुण्डराय को उपलब्ध था। आचार्य जिनसेन की परिकल्पना से भगवान् गोम्मटेश्वर का प्रबल पाषाण पर मुर्त्यांकन आरम्भ हो गया। आचार्यद्वय-अजितसेन एवं नेमिचन्द्र की कृपा से भगवान् गोम्मटेश की लोकोत्तर मूर्ति का निर्माण सम्भव हुआ और इस प्रकार अपराजेय सेनापति चामुण्डराय की धनलक्ष्मी भगवान् गोम्मटेश के चरणों में सार्थक हुई ।
माता गल्लिकायाज्जि को भगवान् गोम्मटेश्वर के मस्तकाभिषेक के अवसर पर असाधारण गौरव देने में भी सम्भवतया कुछ ऐतिहासिक कारण रहे हैं । दक्षिण भारत में यापनीय संघ के आचार्यों का अनेक राज्यवंशों एवं जनसाधारण पर अपने असाधारण कृतित्व का प्रभुत्व रहा है। कन्नड भाषा के प्रारम्भिक अभिलेखों में यापनीय संघ के साधुओं का अनेकशः उल्लेख मिलता है। इस सम्प्रदाय में अनेक प्रतिभाशाली आचार्य एवं कवि हुए हैं, जिन्होंने संस्कृत, प्राकृत, कन्नड आदि भाषा में शताधिक प्रतिष्ठित ग्रन्थों की रचना की है। यापनीय संघ के उदार आचार्य लोकजीवन के प्रति उन्मुख रहे हैं। परिवेश से दिगम्बर रहते हुए भी वे नारी मुक्ति के पक्षधर थे। सम्भवतया इन्हीं आचार्यों के सांस्कृतिक प्रभाव से दक्षिण भारत में नारी जाति को पूजा-अनुष्ठान में विशेष गौरव प्राप्त हुआ। भगवान गोम्मटेश के महामस्तकाभिषेक में गल्लिकायाज्जि का अभिषेक जल समग्र नारी जाति के भक्ति भाव का प्रतीक है।
भगवान् गोम्मटेश्वर के विग्रह के यशस्वी निर्माता राजा चामुण्डराय अनेक युद्धों के विजेता थे। उन्होंने अपने स्वामी राजा मारसिंह एवं राजा राचमल्ल (चतुर्थ) के लिए अनेक युद्ध किए थे। उनके पराक्रम से शत्रु भयभीत हो जाते थे। त्यागब्रह्मदेव स्तम्भ पर उत्कीर्ण एक
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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