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चक्रवर्ती सम्राट् भरत द्वारा पोदनपुर स्थित भगवान् बाहुबली की ५२५ धनुष ऊंची स्वर्ण निर्मित प्रतिमा का आख्यान श्रवणबेलगोल स्थित भगवान् गोम्मटेश की ऐतिहासिक मूर्ति के निर्माण का मुख्याधार है। इस लुप्तप्राय तीर्थ का गोम्मटदेव से विशेष सम्बन्ध रहा है। अजेय सेनापति चामुण्डराय द्वारा श्रवणबेलगोल में भगवान् बाहुबली की प्रतिमा के निर्माण से पूर्व के जैन साहित्य में पोदनपुर की सुख-समृद्धि का उल्लेख बहुलता से मिलता है। इस महान् तीर्थ के माहात्म्य को देखते हुए पूज्यपाद देवनन्दि (लगभग ५०० ई०) ने निर्वाणभक्ति (तीर्थवन्दना संग्रह, पद्य २९) में इस तीर्थ की गणना सिद्ध क्षेत्र में की है । यदि निर्वाण भक्ति का यह अंश प्रक्षिप्त नहीं है तो पोदनपुर की गणना निश्चय ही प्राचीन तीर्थक्षेत्रों में की जा सकती है ।
एक जनश्रुति के अनुसार चक्रवर्ती सम्राट् भरत ने अपने अनुज बाहुबली की तपश्चर्या एवं मोक्षसाधना के उपलक्ष्य में भगवान् गोम्मटेश की राजधानी पोदनपुर में बाहुबली के आकार की ५२५ धनुष ऊंची स्वर्ण प्रतिमा बनवाई थी। कालान्तर में प्रतिमा के निकटवर्ती क्षेत्र में कुक्कुट सर्पों का वास हो गया और मूर्ति का नाम कुक्कुटेश्वर पड़ गया। कालान्तर में मूर्ति लुप्त हो गई और उसके दर्शन केवल दीक्षित व्यक्तियों के लिए मन्त्र शक्ति से प्राप्त रह गये। जैनाचार्य जिनसेन ( आदिपुराण के रचयिता से भिन्न लोककथाओं में उल्लिखित अन्य के मुखारविन्द से भगवान बाहुबली की मूर्ति का वर्णन सुनकर सेनापति चामुण्डराय की माता कालदेवी ने मूर्ति के दर्शन की प्रतिज्ञा की। अपनी धर्मपरायणा पत्नी अजितादेवी से माता की प्रतिज्ञा के समाचार को जानकर चामुण्डराय परिवार जनों के साथ भगवान् गोम्मटेश की मूर्ति के दर्शनार्थ चल दिए। मार्ग में उन्होंने श्रवणबेलगोल के दर्शन किए। रात्रि के समय उन्हें पद्मावती देवी ने स्वप्न में कहा कि कुक्कुट सर्पों के कारण पोदनपुर के भगवान् गोम्मटेश के दर्शन सम्भव नहीं है किन्तु तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् गोम्मटेश तुम्हें इन्द्रगिरि की पहाड़ी पर दर्शन देंगे। चामुण्डराय की माता कालमदेवी को भी ऐसा ही स्वप्न आया । सेनापति चामुण्डराय ने स्नान-पूजन से शुद्ध होकर चन्द्रगिरि की एक शिला से दक्षिण दिशा की तरफ मुख कर के एक स्वर्णबाण छोड़ा जो बड़ी पहाड़ी ( इन्द्रगिरि) के मस्तक की शिला में जाकर लगा। बाण के लगते ही भगवान् गोम्मटेश्वर का मुख मंडल प्रकट हो गया। तदुपरान्त सेनापति चामुण्डराय ने कुशल शिल्पियों के सहयोग से अगणित राशि व्यय करके भगवान् गोम्मटेश की विश्वविख्यात प्रतिमा का निर्माण कराया। मूर्ति के बन जाने पर भगवान् के अभिषेक का विशेष आयोजन किया गया। अभिषेक के समय एक आश्चर्य यह हुआ कि सेनापति चामुण्डराय द्वारा एकत्रित विशाल दुग्ध राशि के रिक्त हो जाने पर भी भगवान् गोम्मटेश की मूर्ति की जंघा से नीचे के भाग पर दुग्ध गंगा नहीं उतर पाई। अभिषेक अपूर्ण रह गया। ऐसी स्थिति में चामुण्डराय ने अपने गुरु असेन से मार्गदर्शन की प्रार्थना की। आचार्य अजितसेन ने एक साधारण बुढा नारी इल्लिकायाज्जि को भक्तिपूर्वक 'गुस्तिकादि ( फल का कटोरा में लाए गए दूध से भगवान् का अभिषेक करने की अनुमति दे दी। महान् गुल्लिकायाज्जि द्वारा फल के कटोरे में अल्पमात्रा में लाए गए दूध की धार से प्रतिमा का सर्वांग अभिषेक सम्पन्न हो गया और सेनापति चामुण्डराय का मूर्ति निर्माण का दर्प भी दूर हो गया ।
भगवान् गोम्मटेश की सातिशययुक्त प्रतिमा के निर्माण सम्बन्धी लोक साहित्य में ऐतिहासिक तथ्यों का समावेश हो गया है। भक्तिपरक साहित्य अथवा दन्तकथाओं से इतिहास को पृथक् कर पाना सम्भव नहीं होता । उदाहरण के लिए इन्द्रगिरि पर सेनापति चामुण्डराय द्वारा भगवान् गोम्मटेश के विग्रह की स्थापना के उपरान्त भी श्री मदनकीर्ति (१२वीं शताब्दी) ने पोदनपुर स्थित भगवान् गोम्मटेश की प्रतिमा के अतिशय का चमत्कारपूर्ण वर्णन इस प्रकार किया है
पादांगुष्ठनखप्रभासु भविनामाभान्ति पश्चाद् भवाः । यस्यात्मीयभवाजिनस्य पुरतः स्वस्योपवासप्रमाः ।। अद्यापि प्रतिभाति पोदनपुरे यो वन्द्यवन्द्यः स वै । देवो बाहुबली करोतु बलवद् दिग्वाससा शासनम् ।।
(मदनकीति, ती वन्दन संग्रह १०३)
कवि के अनुसार पोदनपुर के भगवान् बाहुबली के चरणनखों में भक्तों को अपने पूर्व भवों के दर्शन होते हैं । इस सम्बन्ध में कवि की रोचक कल्पना यह है कि दर्शकों को उसके व्रतों की संख्या के अनुसार ही पूर्व भवों का ज्ञान हो पाता है ।
मेरी निजी धारणा है कि इन्द्रगिरि स्थित भगवान् बाहुबली की कलात्मक प्रतिमा का निर्माण अनायास ही नहीं हो गया। इस प्रकार के भव्य निर्माण में शताब्दियों की साधना एवं विचार मंथन का योग होता है। दक्षिण भारत में राष्ट्रकूट शासन के अन्तर्गत महान् धर्मगुरु आचार्यप्रवर वीरसेन, जिनसेन और गुणभद्र ने श्रुत साहित्य एवं जैन धर्म की अपूर्व सेवा की है। इन महान् आचार्यों की सतत साधना एवं अध्यवसाय से जैन सिद्धान्त ग्रन्थ एवं पौराणिक साहित्य का राष्ट्रव्यापी प्रचार-प्रसार हुआ । परमप्रतापी राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष ( प्रथम ) की आचार्य वीरसेन एवं जिनसेन में अनन्य भक्ति थी । आचार्य जिनसेन स्वामी ने जीवन के उत्तरार्द्ध में आदिपुराण की रचना की । आदिपुराण गोम्मटेश दिग्दर्शन
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