Book Title: Deshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Author(s): R C Gupta
Publisher: Deshbhushanji Maharaj Trust

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Page 1685
________________ सम्राट भरत और बाहुबली के अटूट प्रेम संबंध का विवरण देते हुए उन्होंने लिखा है स्वजन्मानुगमोऽस्त्येको धर्मरागस्तथाऽपरः। जन्मान्तरानुबन्धश्च प्रेमबन्धोऽतिनिर्भरः ।। इत्येकशोऽप्यमी भक्तिप्रकर्षस्य प्रयोजकाः । तेषां नु सर्वसामग्री कां न पुष्णाति सत्क्रियाम् । (आदिपुराण, पर्व ३६।१६०-६१) अर्थात् प्रथम तो बाहुबली भरत के छोटे भाई थे, दूसरे भरत को धर्म का प्रेम बहुत था, तीसरे उन दोनों का अन्य अनेक जन्मों से संबंध था, और चौथे उन दोनों में बड़ा भारी प्रेम था। इस प्रकार इन चारों में से एक-एक भी भक्ति की अधिकता को बढ़ाने वाले हैं, यदि यह सब सामग्री एक साथ मिल जाये तो वह कौन-सी उत्तम क्रिया को पुष्ट नहीं कर सकती अर्थात् उससे कौन-सा अच्छा कार्य नहीं हो सकता? . समस्त पृथ्वी पर धर्म साम्राज्य की स्थापना करने वाले चक्रवर्ती सम्राट भरत को इस सनातन राष्ट्र की सांस्कृतिक सम्पदा - आत्मवैभव से श्रीमंडित सिद्ध पुरुष के रूप में जाना जाता है। इसीलिए उन्हें 'राजयोगी' के रूप में भी स्मरण किया गया है। धर्मप्राण भरत ने जिनेन्द्र बाहुबली के ज्ञान कल्याणक की भक्तिपूर्वक रत्नमयी पूजा की थी। उन्होंने रत्नों का अर्घ बनाया, गंगा के जल की जलधारा दी, रत्नों की ज्योति के दीपक चढ़ाये, मोतियों से अक्षत की पूजा की, अमृत के पिण्ड से नैवेद्य अर्पित किया, कल्पवृक्ष के टुकड़ों (चूर्णी) से धूप की पूजा की, पारिजात आदि देववृक्षों के फूलों के समूह से पुष्पों की अर्चा की, और फलों के स्थान पर रत्नों सहित समस्त निधियाँ चढ़ा दीं। इस प्रकार उन्होंने रत्नमयी पूजा की थी। सम्राट भरत की भक्तिपरक रत्नमयी पूजा के उपरान्त स्वर्ग के देवों ने भगवान् गोम्मटदेव की विशेष पूजा की। केवलज्ञानलब्धि के समय अनेक अतिशय प्रकट हुए, जैसे-सुगन्धित वायु का संचरण , देवदुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, छत्रत्रय, चंवरों का डुलना, गन्ध कुटी आदि का स्वयमेव प्रकट हो जाना। आचार्य जिनसेन के अनुसार भगवान् बाहुबली के नाम के अक्षर स्मरण में आते ही प्राणियों का समूह पवित्र हो जाता है। उनके चरणों के प्रताप से सर्यों के मुंह के उच्छवास से निकलती हुई विष की अग्नि शान्त हो जाती है। तपोनिधि भगवान् गोम्मटेश की विराट् प्रतिमा की संस्थापना की सहस्राब्दी के उपलक्ष्य में १९८१ के महामस्तकाभिषेक के अवसर पर भारतीय डाक व तार विभाग ने एक बहुरंगी डाक-टिकट प्रकाशित करके भगवान् गोम्मटेश की मुक्ति-साधना के प्रति राष्ट्र की श्रद्धा को अभिव्यक्त किया था। अपने इसी वैशिष्ट्य के कारण भगवान् गोम्मटेश शताब्दियों से जन-जन की भावनाओं के प्रतिनिधि रूप में सम्पूजित हैं। आचार्य पुष्पदन्त ने लगभग १००० वर्ष पूर्व सत्य ही कहा था कि भगवान् गोम्मटेश्वर के पवित्र जीवन की गाथा पर्वत की गुफाओं तक में गायी जाती है-मंदरकंदरतं गाइय जस! जन पुराण शास्त्रों में भगवान् बाहुबली के प्रकरण में कुछ विवादास्पद सन्दर्भो का उल्लेख मिलता है । आचार्य कुन्दकुन्द के भाव पाहुड' की गाथा सं० ४४ में बाहुबली का उल्लेख इस प्रकार मिलता है-“हे धीर-वीर, देहादि के सम्बन्ध से रहित किन्तु मान-कषाय से कलुषित बाहुबली स्वामी कितने काल तक आतापन योग में स्थित रहे ?" श्वेताम्बर साहित्य में तपोरत भगवान् बाहुबली में शल्य भाव की विद्यमानता मानी गई है। श्वेताम्बर साहित्य के अनुसार बाहुबली दीक्षा लेकर ध्यानस्थ हो गए और यह निश्चय कर लिया कि कैवल्य प्राप्त किए बिना भगवान् ऋषभदेव के समवशरण में नहीं जाऊँगा। तीर्थंकर ऋषभदेव के समवशरण में जाने पर बाहुबली को अपने से पूर्व के दीक्षित छोटे भाइयों को नमन करना पड़ता। ऐसी स्थिति में उन्हें सर्वज्ञ होने के उपरान्त ही भगवान् के समवशरण में जाना श्रेयस्कर लगा होगा। जैन पुराण शास्त्र में उपरोक्त धारणाओं के मूल स्रोत की प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। किन्तु आचार्य रविषेण कृत 'पद्मपुराण', महाकवि स्वयम्भू कृत 'पउमचरिउ', आचार्य जिनसेन कृत 'हरिवंशपुराण', आचार्य जिनसेन कृत 'आदिपुराण' और महाकवि पुष्पदन्त कृत 'महापुराण' का पारायण करने से तपोरत भगवान् बाहुबली में शल्यभाव की विद्यमानता स्वयमेव निरस्त हो जाती है ततो भ्रात्रा समं वैरमवबुध्य महामनाः। संप्राप्तो भोगवैराग्यं परमं भुजविक्रमी।। संत्यज्य स ततो भोगान् भूत्वा निर्वस्त्रभूषणः । वर्ष प्रतिमया तस्थौ मेरुवन्तिःप्रकम्पकः ।। वल्मीकविवरोधातैरत्युप्रैः स महोरगैः। श्यामादीनां च वल्लीभि: वेष्टितः प्राप केवलम् ।। (पद्मपुराण पर्व ४/७४-७६) आचार्य रविषेण के अनुसार उदारचेता बाहुबली भाई के साथ वैर का कारण जानकर भोगों से विरक्त हो गए और एक वर्ष के लिए मेरु पर्वत के समान निष्प्रकम्प खड़े रहकर प्रतिमा योग धारण कर लिया। उनके पास अनेक वामियां लग गईं जिनके बिलों से निकले गोम्मटेश दिग्दर्शन ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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