Book Title: Deshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Author(s): R C Gupta
Publisher: Deshbhushanji Maharaj Trust

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Page 1679
________________ आदिपुराण का सम्राट् भरत बाहुबली द्वारा आधीनता न स्वीकार करने पर दुःखी है और उसकी समझ में यह नहीं आ रहा है कि मेरे अनुज बाहुबली ने ऐसा क्यों किया? उसने बाहुबली को अपने अनुकूल बनाने के लिए नि सृष्टार्थ राजदूत की विशेष रूप से नियुक्ति की। आचार्य पुष्पदन्त के अनुसार भरत के दूत को राजद्वार पर देखकर प्रतिहार ने बाहुबली को सूचित किया कि द्वार पर राजा भरत का दूत खड़ा है। हे स्वामी ! अवसर है, आप 'हाँ-ना' कुछ भी कह दें । किन्तु महाप्राण बाहुबली ने क्षत्रियोचित गरिमा के अनुकूल प्रतिहार से कहा -"मना मत करो ! भाई के अनुचर को शीघ्र प्रवेश दो।" आदिपुराण का निःसृष्टार्थ राजदूत सरस्वती एवं लक्ष्मी से मंडित परमसुन्दर बाहुबली की अपूर्व कान्ति को देखकर मुग्ध हो गया। बाहुबली के सौन्दर्य में उसे तेज रूप परमाणुओं का दर्शन हुआ । चतुर राजदूत की कूटनीति को विफल करते हुए युवा बाहुबली ने आक्षेप सहित कहा प्रेम और विनय ये दोनों परस्पर मिले हुए कुटुम्बी लोगों में ही सम्भव हो सकते हैं। बड़ा भाई नमस्कार करने योग्य है यह बात अन्य समय में अच्छी तरह हमेशा हो सकती है परन्तु जिसने मस्तक पर तलवार रख छोड़ी है उसको प्रणाम करना यह कौन-सी रीति है ? तेजस्वी मनुष्यों के लिए जो कुछ थोड़ा-बहुत अपनी भुजारूपी वृक्ष का फल प्राप्त होता है वही प्रशंसनीय है, उनके लिए दूसरे की भौंहरूपी लता का फल अर्थात् भौंह के इशारे से प्राप्त हुआ चार समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का ऐश्वर्य भी प्रशंसनीय नहीं है । जो पुरुष राजा होकर भी दूसरे के अपमान से मलिन हुई विभूति को धारण करता है निश्चय से उस मनुष्यरूपी पशु के लिए उस राज्य की समस्त सामग्री भार के समान है। वन में निवास करना और प्राणों को छोड़ देना अच्छा है किन्तु अपने कुल का अभिमान रखने वाले पुरुष को दूसरे की आज्ञा के अधीन रहना अच्छा नहीं है। धीर-वीर पुरुषों को चाहिए कि वे इन नश्वर प्राणों के द्वारा अपने अभिमान की रक्षा करें क्योंकि अभिमान के साथ कमाया हुआ यश इस संसार को सदा सुशोभित करता है। सम्राट् भरत की राज्यलिप्सा का विरोध करते हुए बाहुबली स्पष्ट शब्दों में कहते हैं - दूत तातवितीर्णा नो महीमेनां कुलोचिताम् । भ्रातृजायामिवाऽदित्सो स्य लज्जा भवत्पतेः । देयमन्यत् स्वतन्त्रेण यथाकामं जिगं पुणा । मुक्त्वा कुलकलत्रं च क्ष्मातलं च भुजाजितम् । भूयस्त दलमालप्य स वा भुङ्क्तां महीतलम् । चिरमेकातपत्राङकमहं वा भुजविक्रमी । (आदिपुराण पर्व ३५) हे दूत, पिताजी के द्वारा दी हुई यह हमारे ही कुल की पृथ्वी भरत के लिए भाई की स्त्री के समान है । अब वह उसे ही लेना चाहता है ! तेरे ऐसे स्वामी को क्या लज्जा नहीं आती? जो मनुष्य स्वतन्त्र हैं और इच्छानुसार शत्रुओं को जीतने की इच्छा रखते हैं वे अपने कुल की स्त्रियों और भुजाओं से कमाई हुई पृथ्वी को छोड़कर बाकी सब कुछ दे सकते हैं । इसलिए बार-बार कहना व्यर्थ है, एक छत्र से चिह्नित इस पृथ्वी को वह भरत ही चिरकाल तक उपभोग करे अथवा भुजाओं में पराक्रम रखने वाला मैं ही उपभोग करूं। मुझे पराजित किये बिना वह इस पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता । महाकवि स्वयंभू के 'पउमचरिउ' का मन्त्री राजा बाहुबली को उत्तेजित करने के लिए कहता है कि जिस प्रकार अन्य भाई सम्राट् भरत की आज्ञा मानकर रहते हैं, उसी प्रकार आप भी रहिए । स्वाभिमानी बाहुबली उत्तर देते हैं कि यह धरती तो पिताजी की देन है। मैं किसी अन्य की सेवा नहीं कर सकता । बाहुबली द्वारा अपने पक्ष का औचित्य सिद्ध करने और सम्राट् भरत की आधीनता न स्वीकार करने पर भरत के मन्त्रियों ने क्रोध के वशीभूत होकर बाहुबली के स्वाभिमान को ललकारते हुए कहा 'जइ वि तुज्झु इमु मण्डलु वहु-चिन्तिय-फलु आसि समप्पिउ वप्पें । गामु सीमु खलु खेत्तु वि सरिसव-मेत्तु वि तो वि णाहि विणु कप्पें ।। (पउमचरिउ) अर्थात् यदि तुम समझते हो कि यह धरती-मण्डल तुम्हें पिताजी ने बहुत सोच-विचार कर दिया है, तो याद रखो गांव, सीमा, खलिहान और खेत, एक सरसों भर भी, बिना कर दिये तुम्हारे नहीं हो सकते। महाभारत में भगवान् कृष्ण से कौरवराज दुर्योधन ने इसी प्रकार की दर्पपूर्ण भाषा का प्रयोग किया था । मन्त्री के प्रत्युत्तर में महापराक्रमी बाहुबली ने वीरोचित उत्तर देते हुए कहा-वह एक चक्र के बल पर गर्व कर रहा है। वह नहीं जानता कि चक्र से उसका मनोरथ सिद्ध नहीं होगा। मैं उसे युद्धक्षेत्र में ऐसा कर दूंगा जिससे उसका मान सदा के लिए चूर हो जाए। महाकवि पुष्पदन्त के महाकाव्य का राजदूत सम्राट भरत की अपरिमित शक्ति का विवेचन कर बाहुबली को युद्ध में पराजित होने का भय दिखलाकर भरत को कर देने का सुझाव देता है। स्वाभिमानी बाहुबली अपने आन्तरिक गुणों के अनुरूप राजदूत को गागर में सागर जैसा उत्तर देते हुए कहते हैं कंदपु अदप्पु ण होमि हउं दूययकरउ णिवारिउ ।। संकप्पे सो महु केरएण पहु डज्झिहइ णिरारिउ ।। (महापुराण) गोम्मटेश दिग्दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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